चौथी मंज़िल से पाँचवीं मंज़िल तक की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मुझे बड़ा अजीब-अजीब-सा लग रहा था. न जाने क्यों दिल भी तेज़ी से धड़कने लगा था. यही सीढ़ियाँ मैंने हज़ारों बार चढ़ी-उतरी थीं, मगर फिर भी न जाने क्यों ऐसा लग रहा था मानो मैं किसी अजनबी जगह पर हूँ.
क़रीब दो साल पहले नौकरी से रिटायर होने के बाद इस भवन की चौथी मंज़िल पर तो मैं अपने किसी-न-किसी व्यक्तिगत काम से कई बार आया था, मगर पाँचवीं मंज़िल पर जाने में न जाने कैसा संकोच-सा होता था. पाँचवीं मंज़िल वही मंज़िल थी जहाँ के एक कमरे में रिटायरमेंट से पहले नौकरी के क़रीब दस साल मैंने बिताए थे.
पाँचवीं मंज़िल पर पहुँचकर मैं कॉरीडोर में दाईं तरफ़ घूम गया और धीमे-धीमे कदम उठाते हुए आगे बढ़ने लगा. इसी कॉरीडोर से मैं हज़ारों बार गुज़रा था, पर आज यह नया-नया-सा लग रहा था. हालाँकि कोई बहुत ज़्यादा बदलाव नज़र नहीं आ रहे थे. कर्मचारी वग़ैरह इधर-से-उधर वैसे ही आ-जा रहे थे जैसे पहले आया-जाया करते थे. उनमें कोई जाना-पहचाना चेहरा मुझे नज़र नहीं आया.
चलते-चलते एक उचटती-सी निगाह मैंने दाएँ-बाएँ बने कमरों के बंद दरवाज़ों पर डाली. कुछ दरवाज़ों पर नए नामवाले बोर्ड लगे थे. कुछ पुराने नाम भी नज़र आए. कुछ नामों को पढ़कर याद आया कि ये तो ज़हन से उतर ही गए हुए थे. रिटायरमेंट के बाद इन लोगों की याद तो कभी आई ही नहीं.
चलते हुए ज्यों-ज्यों कमरा नंबर 512 पास आता जा रहा था, मेरे दिल की धड़कनें और तेज़ होती जा रही थीं.
कमरा नंबर 512 के सामने पहुँचकर मैंने दरवाज़े पर लगी तख़्ती देखी. इसी जगह पर क़रीब दस साल तक हिंदी और अंग्रेज़ी में मेरा नाम लिखा रहता था. अब वहीं दोनों भाषाओं में विपिन चंद्र लिखा हुआ था. पिछले दो बरसों में मैं जब भी इस कमरे के दरवाज़े की कल्पना किया करता था, उस पर अपना ही नाम लिखा हुआ पाता था. आज दरवाज़े पर अपने नाम के बजाय किसी और का नाम लिखा हुआ देखकर मन में छन्न से कुछ टूट गया.
मैंने हाथ बढ़ाकर उँगली से दरवाज़े को खटखटाया. इस दरवाज़े को मैं ज़िंदगी में पहली बार खटखटा रहा था. कभी इस कमरे पर मेरा पूरा हक़ हुआ करता था. कमरे से बाहर जाते वक़्त मैं हर बार इसका सीक्रेट लॉक बंद करके जाया करता था. कमरे में आने के लिए चाबी से वह लॉक खोलना पड़ता था.
दरवाज़ा खटखटाने के बाद मैं कुछ पलों के लिए यूँ ही खड़ा रहा. फिर दरवाज़े को थोड़ा-सा खोलकर मैंने अंदर झाँका. पहली नज़र में तो कमरा पहचान में ही नहीं आया. कमरे के परदे, सोफ़ा वग़ैरह सब बदले हुए थे. कमरे में रखी मेज़, कुर्सियाँ, अलमारी वग़ैरह भी पहलेवाली जगह पर न होकर नई जगह पर थीं. सामने ऊँची-सी कुर्सी पर बैठा एक व्यक्ति मेज़ पर रखी फाइल को पढ़ रहा था. ‘यही विपिन चंद्र होगा’- मेरे मन में आया. इतना तो मुझे पता था कि वह मुझसे दो साल जूनियर था.
दरवाज़ा खुलने की आवाज़ होने पर विपिन चंद्र ने सिर उठाकर बग़ैर कुछ बोले प्रश्नवाचक नज़रों से मेरी ओर देखा. मैं दरवाज़ा खोलकर अंदर आ गया और मेज़ के पास पड़ी कुर्सियों के क़रीब खड़ा हो गया. मेरे मन में इस कमरे से जुड़ी यादों का तूफ़ान बहने लगा था. मैं भावुकता के समंदर में गोते खाने लगा था.
मुझे चुप देखकर विपिन चंद्र ने पूछा, ‘‘कहिए?’’
‘‘काम तो कुछ नहीं.’’ मेरे मुँह से निकला.
‘‘फिर?’’ विपिन का लहज़ा थोड़ा सख़्त हो आया. इसके साथ ही उसने मेज़ पर पड़ा एक काग़ज़ हाथ में उठा लिया. काग़ज़ को हाथ में लेने का मतलब साफ़ था कि मैं उसका वक़्त बर्बाद न करूँ.
‘‘आज से दो साल पहले तक मैं ही इस कमरे में बैठा करता था. मेरा नाम दिनेश है, दिनेश कुमार.’’ मैंने कहा तो विपिन ने ‘अच्छा’ की मुद्रा में सिर हिलाया. मुझे बड़ा अजीब लग रहा था कि विपिन ने न तो मुझसे हाथ मिलाया और न ही मुझे कुर्सी पर बैठने के लिए कहा.
मैं तो उल्टे यह सोचकर आया था कि मेरे आने पर विपिन तपाक से अपनी कुर्सी से उठ जाएगा और ग़र्मजोशी से मुझसे हाथ मिलाएगा. फिर मेरे साथ सोफ़े पर बैठकर गपशप करेगा. मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं.
तभी दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आई. फिर मेरी बग़ल से गुज़रते हुए किसी ने मेज़ पर रखी ट्रे में कुछ फ़ाइलें रख दीं. मैं फ़ाइलें रखनेवाले को एकदम से पहचान गया. यह तो बदरी था, जिसकी नियुक्ति चपरासी के तौर पर मेरे साथ लगभग तीन साल तक रही थी. मेरी रिटायरमेंट के समय वही मेरे यहाँ नियुक्त था.
तभी बदरी की नज़र मुझपर पड़ी और उसने सिर हिलाकर मुझे नमस्कार किया. मुँह से बोला कुछ नहीं. मेरे मन में फिर कुछ टूटा. यही बदरी दफ़्तर आने पर हाथ जोड़कर मुझे अभिवादन किया करता था. शाम को भी यह मुझसे आज्ञा लिए बिना छुट्टी नहीं करता था और जाने से पहले हाथ जोड़कर मुझे अभिवादन किया करता था.
मैं बदरी के अभिवादन का जवाब देता या उसका हाल-चाल पूछता, उससे पहले ही विपिन ने मेज़ पर पड़ी एक फाइल की तरफ़ इशारा करते हुए बदरी से कहा, ‘‘इसे जल्दी से नीरज साहब के ऑफिस में दे आओ.’’
बदरी फाइल लेकर चला गया तो विपिन ने फिर मेरी तरफ़ देखा. कमरे में आए हुए मुझे क़रीब दो मिनट हो चुके थे, लेकिन विपिन ने अब तक मुझे बैठने के लिए नहीं कहा था.
मैं बड़ा असहज-सा महसूस करने लगा था. यह बात भी मुझे बहुत चुभ रही थी कि बदरी ने मुझे इस तरह मेज़ के पास खड़े हुए देख लिया था. मुझे डर था कि कोई काग़ज़ या फाइल लेकर बदरी फिर इस कमरे में न आ जाए.
आख़िर मुझसे रहा नहीं गया और मैं विपिन से पूछ बैठा, ‘‘बैठ सकता हूँ थोड़ी देर?’’
मेरी बात सुनकर विपिन कुछ अचकचा-सा गया और बोला, ‘‘हाँ-हाँ, बैठिए.’’
‘‘मैंने पूरे दस साल इस कमरे में बिताए हैं.’’ मैंने कहा तो विपिन ने हाथ में पकड़ा काग़ज़ मेज़ पर रख दिया और सीधा होकर बैठ गया. मुझे लगा कि मेरे ऐसा कहने का असर उस पर हुआ है.
‘‘किस डिवीज़न का काम देखते थे आप?’’ विपिन पूछने लगा.
‘‘एस.जे. डिवीज़न का.’’
‘‘ओह, अच्छा! मैं भी इसी डिवीज़न का काम देखता हूँ.’’ विपिन ने कहा.
तभी दरवाज़ा खोलकर बदरी कमरे में आया और एक फाइल मेज़ पर रखी ट्रे में रखने के बाद विपिन से पूछने लगा, ‘‘चाय बना दूँ, साहब?’’
‘‘नहीं, चाय की ज़रूरत नहीं. सुबह मीटिंग में गया था तो वहाँ पी ली थी.’’ विपिन का जवाब सुनकर तो बदरी कमरे से बाहर चला गया. मुझे धक्का-सा लगा. अगर विपिन को ख़ुद चाय नहीं पीनी थी, तो मेरे लिए तो बनवाई ही जा सकती थी न. मेहमानों की आवभगत के लिए चाय, बिस्कुट वग़ैरह के वास्ते दफ़्तर से हर महीने भत्ता मिलता था. और फिर चाय बनाने के लिए बिजली की केतली, टी बैग वग़ैरह हर अफ़सर के कमरे में ही होते थे. चाय बनने में देर ही क्या लगती थी.
मुझे याद आने लगा कि नौकरी के दौरान किसी परिचित या मेहमान के आने पर उसका साथ देने के लिए न जाने कितनी बार मुझे दोबारा चाय पीनी पड़ती थी, जबकि कुछ देर पहले ही मैं चाय पी चुका होता था.
हालाँकि चाय की तलब मुझे हो रही थी, पर विपिन के रूखे व्यवहार ने उस तलब को कहीं बहुत परे धकेल दिया था. दफ़्तर में किसी को चाय पिलाना तो बड़ी मामूली-सी बात होती थी. ‘शायद विपिन ने मुझे इस लायक़ ही नहीं समझा कि मुझे चाय पिलाई जाए. या फिर रिटायर होने के बाद मैं इस लायक़ रह ही नहीं गया.’ - मेरे मन में आया.
बातचीत का सिरा पकड़ने की ग़रज से मैंने विपिन से पूछा, ‘‘और काम कैसा चल रहा है?’’
‘‘बस.’’ विपिन ने अनमनी-सी आवाज़ में कहा और फिर मेज़ पर पड़े फ़ोन का रिसीवर उठा बज़र मारकर बात करने लगा. निस्संदेह वह पी.ए. से बात कर रहा था. मगर जो बातें वह कर रहा था वे इतनी ‘अर्जेंट’ नहीं थी. छत्तीस सालों की नौकरी के अनुभव से मैं यह अच्छी तरह समझ रहा था. मतलब साफ़ था कि मुझ पर अपनी कुर्सी का रौब ग़ालिब करने के लिए वह ऐसा कर रहा था.
रिटायरमेंट के बाद कई बार यह बात मन में आती थी कि एक बार दफ़्तर का वह कमरा देखूँ जिसमें नौकरी के आख़िरी दस साल बिताए थे, पर पाँचवीं मंज़िल और इस कमरे में आने के लिए न जाने क्यों अजीब-सा संकोच आड़े आता था. पिछले कई दिनों के असमंजस के बाद आज यहाँ आने की हिम्मत जुटा पाया था.
मैं तो पता नहीं क्या-क्या सोचकर यहाँ आया था. मुझे तो लग रहा था कि भले ही विपिन से यह मेरी पहली मुलाक़ात होगी, मगर वह खाना खिलाए बिना मुझे वापिस नहीं जाने देगा. लेकिन यहाँ तो मामला ही उल्टा था.
यहाँ आने का एक मक़सद और भी था. यह चाह मेरे मन में बार-बार सिर उठाती रहती थी कि मैं एक बार उसी सरकारी कुर्सी पर बैठकर देखूँ जिस पर मैंने नौकरी के आख़िरी साल बिताए थे. हालाँकि विपिन का ठंडा बर्ताव देखकर मेरा दिमाग़ बार-बार मुझे कह रहा था कि अपनी इस इच्छा को मैं कहीं गहरे में दफ़न कर दूँ और इस कमरे से निकल चलूँ.
मैं यह सब सोच ही रहा था कि तभी दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आई और कोई आकर अधिकारपूर्वक मेरे बग़लवाली कुर्सी पर बैठ गया. मैंने सिर को हल्का-सा घुमाकर देखा. वह तो गोवर्धन था, एक प्राइवेट कंपनी का अफ़सर, जो इसी कमरे में मेरे पास भी आया करता था. गोवर्धन को देखते ही विपिन ने फ़ोन का रिसीवर नीचे रख दिया. फिर उन दोनों ने हाथ मिलाया और बातें करने लगे. गोवर्धन अपनी कंपनी के दो-तीन मामलों के बारे में पूछताछ कर रहा था. कुछ देर बातचीत करके गोवर्धन कुर्सी से उठा और विपिन से एक बार फिर हाथ मिलाकर कमरे से बाहर चला गया.
मुझे बड़ी हैरानी हो रही थी कि गोवर्धन ने मेरी तरफ़ देखा भी नहीं था. यही आदमी मेरी नौकरी के दौरान मेरे यहाँ सैंकड़ों बार आया था - अपनी कंपनी के काम के सिलसिले में. ‘अब मैं इसके किसी काम का जो नहीं हूँ’- यही बात मेरे दिमाग़ में आई और मेरा मन और बुझ गया.
एक और बात जो मुझे खटकी, वह यह थी कि गोवर्धन से सिर्फ़ पाँच-सात मिनट की बातचीत के दौरान विपिन ने दो बार उससे चाय के लिए पूछा था. यह बात अलग थी कि गोवर्धन ने विनम्रतापूर्वक चाय के लिए मना कर दिया था क्योंकि किसी ज़रूरी काम के लिए उसे किसी दूसरे दफ़्तर में जाना था. लेकिन इतना साफ़ था कि गोवर्धन का इस कमरे में आने पर चाय पीना आम बात थी.
तभी विपिन की मेज़ पर रखे इंटरकॉम की घंटी बजने लगी - मतलब इसी दफ़्तर में से ही किसी का फ़ोन था. इंटरकॉम पर विपिन के बात करने के लहज़े से कुछ ही देर में यह स्पष्ट हो गया कि फ़ोन दफ़्तर के किसी दोस्त का था.
विपिन फ़ोन पर कह रहा था, ‘‘आ जाओ यार, चाय-वाय पीते हैं. फिर खाना खाने कहीं बाहर चलेंगे. आज ज़्यादा काम नहीं है.’’
उधर से कुछ पूछा गया तो विपिन ने जवाब दिया, ‘‘पाँचेक मिनट बाद.’’
दूसरी तरफ़ से फिर कोई बात कही गई, तो विपिन हँसने लगा. फिर बोला, ‘‘नहीं यार, कोई टोटा नहीं है.’’ फिर रिसीवर को बिल्कुल मुँह के पास ले जाकर और मुँह को हथेली से ढककर बड़ी धीमी-सी आवाज़ में कुछ कहकर हो-हो करके हँसने लगा.
हालाँकि विपिन ने अपनी तरफ़ से अपनी आवाज़ को यथासंभव धीमा रखने की कोशिश की थी, पर मैं यह सुन पाया था कि एक रिटायर्ड बुड्ढा है. मतलब विपिन ने फ़ोन पर अपने दोस्त को यह कहा था कि उसके सामने कोई टोटा (सुंदर युवती) नहीं, बल्कि एक रिटायर्ड बुड्ढा है.
कमरे में रूक पाना अब मेरे लिए नामुमकिन हो चला था. मैं एक झटके-से उठा और बिना कुछ बोले तेज़ी से कमरे से बाहर निकल आया.
कॉरीडोर में आकर लिफ़्ट की ओर बढ़ते हुए दिल में आया कि एक बार पीछे मुड़कर कॉरीडोर को आख़िरी बार निहार लूँ. दोबारा यहाँ आने का तो सवाल ही नहीं था. लेकिन अपनी इस इच्छा को एक किनारे झटक तेज़-तेज़ कदमों से मैं लिफ़्ट की ओर बढ़ता चला गया.
लेखक परिचय – हरीश कुमार ‘अमित’
नाम हरीश कुमार ‘अमित’
जन्म 01 मार्च, 1958 को दिल्ली में
शिक्षा बी.कॉम.; एम.ए.(हिन्दी); पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा
प्रकाशन 1,000 से अधिक रचनाएँ (कहानियाँ, कविताएँ/ग़ज़लें, व्यंग्य, लघुकथाएँ, बाल कहानियाँ/कविताएँ आदि) विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
एक कविता संग्रह ‘अहसासों की परछाइयाँ’, एक कहानी संग्रह ‘खौलते पानी का भंवर’, एक ग़ज़ल संग्रह ‘ज़ख़्म दिल के’, एक लघुकथा संग्रह ‘ज़िंदगी ज़िंदगी’, एक बाल कथा संग्रह ‘ईमानदारी का स्वाद’, बाल उपन्यस ‘दिल्ली से प्लूटो’ व ‘साधु और जादूगर’तथा तीन बाल कविता संग्रह ‘गुब्बारे जी’, ‘चाबी वाला बन्दर’ व ‘मम्मी-पापा की लड़ाई’ प्रकाशित। बाल उपन्यास ‘ख़ुशियों की आहट’ तथा बाल विज्ञान उपन्यास ‘मेगा 325’ का ऑनलाइन प्रकाशन
28 विभिन्न संकलनों में रचनाएँ संकलित
पुरस्कार (क) चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट की बाल-साहित्य लेखक प्रतियोगिता 1994,
2001, 2009 व 2016 में कहानियाँ पुरस्कृत
(ख) ‘जाह्नवी-टी.टी.’कहानी प्रतियोगिता, 1996 में कहानी पुरस्कृत
(ग) ‘किरचें’नाटक पर साहित्य कला परिषद (दिल्ली) का मोहन राकेश सम्मान 1997 में प्राप्त
(घ) ‘केक’कहानी पर किताबघर प्रकाशन का आर्य स्मृति साहित्य सम्मान दिसम्बर 2002 में प्राप्त
(च) दिल्ली प्रेस की कहानी प्रतियोगिता 2002 में कहानी पुरस्कृत
(छ) ‘गुब्बारे जी’बाल कविता संग्रह भारतीय बाल व युवा कल्याण संस्थान, खण्डवा (म.प्र.) द्वारा पुरस्कृत
(ज) ‘ईमानदारी का स्वाद’ बाल कथा संग्रह की पांडुलिपि पर भारत सरकार का भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार, 2006 प्राप्त
(झ) ‘कथादेश’लघुकथा प्रतियोगिता, 2015 में लघुकथा पुरस्कृत
(ट) ‘राष्ट्रधर्म’की कहानी-व्यंग्य प्रतियोगिता, 2017 में व्यंग्य पुरस्कृत
(ठ) ‘राष्ट्रधर्म’की कहानी प्रतियोगिता, 2018 में कहानी पुरस्कृत
(ड) ‘ज़िंदगी ज़िंदगी’लघुकथा संग्रह की पांडुलिपि पर किताबघर प्रकाशन का आर्य स्मृति साहित्य सम्मान, 2018 प्राप्त
(ढ) रचनाकार.ऑर्ग की नाटक लेखन प्रतियोगिता, 2020 में ‘गोरखधंधा’ नाटक पर द्वितीय पुरस्कार प्राप्त
सम्प्रति भारत सरकार में निदेशक के पद से सेवानिवृत्त
पता 304, एम.एस.4, केन्द्रीय विहार, सेक्टर 56, गुरूग्राम-122011 (हरियाणा)
दूरभाष 9899221107
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