मिट्टी के दीयों को उलटती-पलटती
उन्हें करीने से सजाती
सोच रही थी वह
यदि, दीयों की बिक्री अच्छी हो जाए
तो इस साल, वह भी दिवाली मनाए
कुछ पटाखे, खील-बताशे
टूटा-फूटा ही सही,
अपने घर को सजाए
इसी उधेड़बुन में खोयी थी वह
कि तभी, दौड़ी-दौड़ी आयी थी छोटी
और, लाड से माँ के गले में बांहें डाल
मानो कुछ मांग रही थी उससे
उसे गले से लगा माँ झट से बोल उठी थी
हाँ- हाँ ! इस दिवाली ज़रूर लाऊंगी
तेरे लिए नयी फ्रॉक और, मुन्ना के लिए नेकर
अपनी साड़ी में लगे पैबन्द को छुपा
अनदेखा कर दिया था उसने
संयोग से, तभी वहाँ,
एक सम्भ्रान्त महिला आयी थी
पूछा था उसने दीयों का भाव
बीस रुपये में बीस दीये का भाव सुन
आ गया था उसको ताव
पैसों का कर रही थी वह मोल-भाव
और, पंद्रह रुपयों में बीस दीयों पर
बन गयी थी बात
बहुत प्रसन्न थी महिला मन ही मन
कि, बचा लिए थे उसने रुपये पाँच
कुछ दूर जाकर, उस महिला ने
डॉमिनो में पिज़्ज़ा खाया था
जिसके रुपये पाँच सौ देकर भी,
मन उसके तनिक मलाल न आया था
इसीतरह, हम-तुम, न जाने कितने लोग
जब-तब, अपने पर उड़ाते हैं धन
लेकिन, ग़रीबों की ख़ुशियों से
किनारा कर जाते हैं हम
आख़िर क्यों ?
हो जाते हैं संवेदनहीन हम ?
मज़दूरों की मजूरी हो या,
ग़रीबों की दिवाली,
उनका उचित हक़ देने में,
बहुत संकीर्ण कर लेते हैं अपना मन
जानते हैं सब इस शाश्वत सत्य को कि,
दीपक है माटी का और, माटी की काया
आत्म लौ में क्यों न समा लें मन-प्राण
तो फिर ! आओ ! इस दिवाली !
अपने लिए सिर्फ़ न जीकर,
जियें हम औरों के लिए
मन दीपक में स्नेह बाती जला
चिरन्तन सुःख ज्योति से
जगमगाएं ग़रीबों के घर-द्वार
प्रभासित करें धरा के प्रांगण को
बिखेरें ख़ुशियां और, आनन्द अपार।
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