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  • महेश चन्द्र द्विवेदी

आपद्धर्म

  1. यदि आप बिहार की सबसे नटखट एवं चपल नदी कोसी के किनारे के निवासी हैं तो इस दंतकथा से अवश्य परिचित होंगेः

“हिमालय की सबसे सुंदर पुत्री कोसी थी। रानू सरदार नामक राक्षस का उस पर दिल आ गया था और वह रोज़ रोज़ उसके पीछे पड़कर उसे स्वयं से विवाह करने हेतु सताया करता था। अन्य उपाय न देखकर एक दिन कोसी ने उससे विवाह की हामी भर दी परंतु अपनी एक शर्त रख दी कि विवाहपूर्व एक रात में उसे कोसी पर बांध बनाकर उसे नियंत्रित करना पड़ेगा। और यदि वह इसमें असफल रहता है तो उसे प्राण गंवाने होंगे। प्रसन्नता से उतावला राक्षस रात्रि प्रारम्भ होते ही फावड़ा लेकर बांध बनाने में जुट गया और इतनी शीघ्रता से बांध बनाने लगा कि कोसी के पिता हिमालय को आशंका हुई कि वह राक्षस प्रातः होने से पूर्व बांध पूरा कर लेगा। अतः वह प्रातः होने से पूर्व ही कुक्कुट (मुर्गा) का रूप धारण कर वहां बांग देने लगे। कुक्कुट की बांग सुनकर रानू समझा कि प्रातः हो रही है और वह अपने प्राण बचाने हेतु उसी समय दूर भाग गया। जब तक उसे कुक्कुट के सत्य का पता चला वह क्षीणबल हो चुका था परंतु तब से वर्षानुवर्ष वह कोसी को बांधने का प्रयास करता रहा है और कोसी वर्षाऋतु के आगमन पर उसके प्रयास को विफल करती रही है।"

कोसी का प्रतिशोध नाम से कुख्यात वर्षा ऋतु में आने वाली कोसी नदी की बाढ़ की विभीषिका जगजाहिर है। बाढ़ के दौरान नियंत्रणविहीन होकर मदमाती कोसी वर्ष 1770 से अभी तक इक्कीस बार अपनी मुख्य धारा को मीलों दूर तक बदल चुकी है और वर्ष 2008 में तो इसने मीलों लम्बे तटबंध को तोड़कर चोट खाई नागिन सम फुंफकारते हुए सहस्रों ग्रामों में तबाही मचाई है।

मानव मन में प्रेम, सहानुभूति, दृढ़ता एवं त्याग के साथ.साथ ईर्ष्या, तुच्छता, घृणा एवं स्वार्थ के भाव अंतर्निहित रहते हैं। काल एवं परिस्थिति के अनुसार कभी स्वार्थ तो कभी परार्थ के भाव एक दूसरे पर वर्चस्व स्थापित कर लेते हैं। अशिक्षा, अल्पज्ञान, अभाव एवं भविष्य की अनिश्चितता जो भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक रूप से विद्यमान हैं, उपर्लिखित गुणों-अवगुणों को वहां रहने वाले व्यक्तियों में जल्दी-जल्दी उभारते रहते हैं और उनके आचरण में प्रायः क्षणेरुष्टवा-क्षणेतुष्टवा का भाव परिलक्षित होता रहता है। यह कहानी वर्ष 2008 में कोसी नदी में आई बाढ़ की विभीषिका के दौरान जल्दी-जल्दी बदलती परिस्थितियों में बाढ़ पीड़ित ग्रामवासियों की एक ओर सहयोग, सहानुभूति एवं त्याग तथा दूसरी ओर क्षुद्र, क्षणिक एवं स्वकेंद्रित प्रतिक्रियाओं पर आधारित है। राष्ट्रीय आपदा के दौरान कतिपय व्यक्तियों एवं संस्थाओं द्वारा कर्तव्यवहन, भ्रष्ट प्रशासकों की करतूतों, एवं नेताओं की राजनैतिक एवं स्वार्थपूर्ण चालबाज़ियों का समावेश प्रसंगवश है।

 


रमेसर यादव ने अपने मकान की छत इसी साल गर्मियों में पक्की कराई थी। रमेसर का गांव मछरेहटा उस स्थान पर बसा हुआ था जहां लगभग सौ वर्ष पूर्व कोसी की मुख्यधारा बहा करती थी। गरीबी के कारण एवं किसी भी वर्ष कोसी द्वारा अपनी मुख्यधारा परिवर्तित कर देने की आशंका के कारण सभी ग्रामवासियों ने अपने मकान कच्चे ही बनाये थे। बस रमेसर ने पहली बार पारसाल गर्मियों में पक्की ईंट की दीवालों का मकान बनवाया था, परंतु पैसा कम पड़ जाने पर छत को फूस से छा दिया था। गांव वालों का कहना था कि रमेसर पर कोसी मैया मेहरबान हैं जिससे उनकी कृपा से आने वाले जाड़ों में उसकी परवल, लौकी, कोहड़ा और गेंहूं की फसल फिर अच्छी हो गई थी और उसने गर्मियों में छत पर लिंटर डलवा दिया था। रमेसर अपने पूरी तरह से पक्के मकान को कुछ प्यार और कुछ गर्व भरी निगाहों से देखा करता था; और क्यों न देखे वह उसे प्यार से क्योंकि वह जानता था कि यह मकान उसे गर्मी में फूस की झिरी से आती धूप, बरसात में फूस से टपकते पानी की टिपटिपाहट, और जाड़ों में बदन को ठंडी दरांती की भांति काटने वाली हवा की सरसराहट से मुक्ति दिलायेगा? क्यों न गर्व करे वह अपने पक्के मकान पर क्योंकि पूरे गांव में केवल उसका मकान ही लाललाल ईंटों का पक्का दमकता मकान था?

मछरेहटा के ग्रामवासियों का जीवन बहुत कुछ कोसी के कोप अथवा कोसी की कृपा पर निर्भर था| कोसी मैया चाहें तो बिना मांगने को मजबूर किये साल भर मजे़ में खाने पीने को दे दें और बेटी-बेटा के ब्याह और बरसात में गिरती दीवालों की मरम्मत का खर्चा भी निकाल दें और कोसी मैया निगाह टेढ़ी कर लें तो एक वख़्त पेट भरने के भी लाले पड़ जायें। ग्राम के प्रत्येक व्यक्ति का जीवन एक दूसरे पर निर्भर था एवं कोसी के इर्द गिर्द के दायरे में सीमित था। एक दूसरे पर निर्भरता जहां पारस्परिक सहानुभूति को जन्म देती है, वहीं दिनचर्या का सीमित दायरे में घिरा रहना एवं अभावग्रस्तता, ईर्ष्या, अंधविश्वास एवं क्षुद्र मानसिकता की जनक भी होती है। रमेसर के पक्के घर को देखकर अनेक ग्रामवासियों की छाती पर सांप लोट जाता था। कई लोगों ने गयादीन को यह कहते सुना था, “जब कोसी मैया का रानू राक्षस तक नहीं बांध पाया था तब उू अपनी छाती पर पक्की ईंट का भार कहां सहेगी? तुम देख लेना वह जल्दी ही अपना कोप दिखायेगी, जिसके लपेटे में पता नहीं कौन कौन आ जाय।“

तब घसीटे, इब्राहीम आदि ने पूरी सहमति जताते हुए गयादीन से हां में हां मिलाई थी। गयादीन द्वारा रमेसर के प्रति गांववालों में वितृष्णा पैदा करने के इस प्रयत्न का वैयक्तिक कारण था। दोनों के खेत अगल-बगल थे और गयादीन का आरोप था कि रमेसर हर बार खेत जोतते समय हल का एक कूंड़ उसके खेत में मार देता था और इस प्रकार उसकी दो-चार इंच ज़मीन को अपने खेत में मिला लेता था। इस बात को लेकर दोनों में गालीगलौज, मारपीट और पंचायत भी हो चुकी थी, पर रमेसर द्वारा हर साल गयादीन के खेत में एक आध हल चला देना और गयादीन द्वारा गाली गलौज करना दोनों की मानसिक मजबूरी बन चुकी थी। घसीटे का गयादीन की बात में हां में हां मिलाना उसकी आर्थिक मजबूरी थी क्योंकि वह गयादीन के खेत जोतता था। इब्राहीम पहले तो रमेसर की पार्टी में रहता था परंतु जब से उसकी बेटी नूरजहां का आंचल रमेसर के बेटे सुक्खी ने खींच दिया था और उसके पकड़े जाने पर रमेसर ने अपने बेटे को ताड़ना देने के बजाय उसका पक्ष लेते हुए नूरजहां पर ही आरोप मढ़ दिया था, तब से इब्राहीम भी रमेसर से खुन्नस खाये हुए था। कुछ अन्य गांववाले भी रमेसर के पक्के मकान पर तिर्यक टिप्पणियां किया करते थे। उनमें से अधिकतर के पास रमेसर से मनमुटाव का कोई वैयक्तिक कारण नहीं था परंतु किसी की तरक्की देखकर जलना और उसकी टांग खींचने का प्रयत्न करना उनकी स्वाभाविक मजबूरी थी।


“हमको लगता है कि गयादीन सही ही कह रहा है कि कोसी मैया की छाती पर मूंग दलोगे तो देवी अपना कोप जरूर दिखायेंगी। खबर मिली है कि नेपाल मा कुसहा के पास कोसी के किनारे पर बना बांध टूट गया है ओैर कुसहा, स्रीपुर, हरीपुर, लौकाही आदि कई गांव पानी में पूरे के पूरे बह गये हैं। बांध का कटान बढ़ रहा है और लोगबाग कह रहे हैं कि हमारे गांव में पानी आने में अधिक दिन नहीं लगेंगे।‘‘-

वह भादों मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी का दिन था और आकाश में दिन भर घटाटोप बादल छाये रहे थे। सांझ का धुंधलका होने लगा था जब त्रिपुरारी पंडित सुपौल से लौटे थे और गांव वालों को तटबंध टूटने के विषय में बता रहे थे। आपदा की आशंका से भयभीत गांव वाले मूक होकर पंडित जी की बात सुन रहे थे। बस उनके नेत्रों में परिलक्षित भय उनके हृदय का रहस्य खोल रहा था। उनमें से कई कोसी की बाढ़ की भयावहता अपने जीवन में देख चुके थे और अन्य उसके विषय में बड़े-बूढ़ों के मुख से सुन चुके थे। कोसी की बाढ़ की यह आपदा भूतकाल में उनका धन, जीवन, ज़मीन और फ़सल सब नष्ट-भ्रष्ट करती रही है और आजतक उस पर कोई नियंत्रण नहीं लगा पाया है। गांववालों द्वारा इसे रमेसर की कोसी की छाती पर पक्का मकान बनाने की धृष्टता के कारण कोसी मैया का प्रतिशोध मान लेना स्वाभाविक ही था। सभी मन ही मन रमेसर को कोसने लगे थे।

किसी तरह राम राम कहते कहते गांव वालों की वह रात कटी। अगले दिन पता चला कि बांध मीलों की लम्बाई में कटता चला जा रहा है और बाढ़ ने नेपाल से आगे भारत में तबाही मचाना प्रारम्भ कर दिया है। अररिया, पूर्निया, मधेपुरा, खगरिया और सुपौल जनपदों में गांव के गांव खाली कराये जा रहे हैं। यह सुनकर त्रिपुरारी पंडित एवं अन्य हिंदुओं ने कोसी मैया को शांत करने के लिये पूजा एवं मंत्र जाप प्रारम्भ कर दिया। इब्राहीम और अन्य मुसलमान पांचों वक्त नमाज़ अता कर अल्लाह से रहम की दुआ करने लगे। यद्यपि घर खाली करने की आवश्यकता पड़ने की आशंका सभी के मन में व्याप्त हो गई थी, परंतु चूंकि अपना घर सुरक्षा एवं अपनत्व का एक अद्वितीय अहसास देता है, अतः कोई व्यक्ति घर खाली नहीं करना चाहता था और सभी आशा कर रहे थे कि इतनी दूर से उनके यहां पानी आयेगा भी तो इतना ही कि एक दो दिन पानी के बीच रहने का कष्ट सहकर काम चल जायेगा। पर वे यह नहीं जानते थे कि ऐसा तो बाढ़ में होता है, और यह बाढ़ नहीं साक्षात प्रलय थी।


उस दिन सायंकाल होते होते आकाश में सन्नाटा छा गया था और फिर बहुत तेज़ वर्षा प्रारम्भ हो गई थी। रात्रि गहराने के साथ गांववालों के दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं थीं। पुरुष जल्दी ही अपने अपने घरों में आ गये थे। यद्यपि पुरुषों ने घर छोड़कर अन्यत्र चलने की कोई बात नहीं कही थी तथापि स्त्रियां रात्रि में जल्दी ही चौका बर्तन समाप्त कर गहने, रूपये एवं ज़रूरी सामान सम्हालकर बांधने में लग गईं थीं। गाय-भैंस और कुत्ते-बिल्ली सब सहमे हुए से चुप थे। उनकी छठी इंद्री उन्हें आने वाली आपदा का संकेत दे रही थी। फिर दिन भर के तनाव व थकान के कारण गांववाले उंनीदे हो गये थे। रात्रि का तीसरा पहर प्रारम्भ हुए दो घड़ी ही बीती होगी कि तीन दिशाओं से हरहर हरहर की आवाज़ आनी प्रारम्भ हो गई थी। उस समय भी मूसलाधार वर्षा हो रही थी और चारों ओर धने अंधेरे का साम्राज्य था। गांववाले जब तक ताण्डव करते शिव के गर्जन के समान घ्वनि का अर्थ समझ पाते, तूफ़ानी लहरों पर उछलता हुआ पानी गांव में भरने लगा था। यह देखकर लोगबाग अपना अपना आवश्यक सामान लेकर भागने हेतु घर से बाहर निकले तो परंतु बाहर आकर चकराकर रह गये। पानी इतना अधिक था एवं इतनी तेज़ी से गांव को हर दिशा से घेर रहा था कि कोई यह समझ नहीं पा रहा था कि किस दिशा में भागकर प्राणरक्षा की जा सकती है। आसन्न परिस्थिति की भयावहता से अनभिज्ञ बच्चे बड़ों को देखकर घबराकर उनके आश्रय में छिप रहे थे। तैरकर पानी के पार बाहर निकलने का प्रयत्न करते कुत्ते भय से कूं-कूं कर रहे थे। इब्राहीम एवं अन्य मुसलमानों की मुर्गियां कुक‌-कुक करती बही जा रहीं थीं और खूंटे से बंधे गाय, भैंस अपना पगहा तुड़ाने के प्रयत्न में रम्भा रहे थे। जैसे जैसे पानी घरों में ऊपर चढ़ने लगा और प्रलय की विभीषिका का भान लोगों को होने लगा वैसे वैसे चीख पुकार एवं अफ़रा तफ़री का माहौल बढ़ने लगा। कोई अपने बच्चे को पुकार रहा था, कोई बूढ़ी मां के पानी में गिर जाने पर विलाप कर रहा था, कोई पानी में बह जाने वाले अपने रुपये के पीछे भाग रहा था, कोई रम्भाते जानवरों के पगहे खोल रहा था और कोई प्रकाश हेतु माचिस ढूंढ रहा था। फिर शीघ्र ही सबकी समझ में यह आ गया कि पानी की मात्रा एवं उसका प्रवाह इतना अधिक है कि बाहर निकल पाना असम्भव है और मकान में नीचे के तल पर रहकर डूबने से बचा नहीं जा सकता है। अतः वे सब जिनके घर पर छत बनी थी जितना सम्भव हो सका उतना माल असबाब लेकर अपने परिवार सहित घर की छतों पर चढ़ गये। परंतु मछरेहटा में अधिकतर घरों की छतें फूस की बनी थीं अतः उनमें रहने वाले लोग पड़ोसियों की छतों पर आने लगे। रमेसर की छत सबसे बड़ी, उूंची व पक्की थी अतः उसमें उसके आस पड़ोस के फूस की छत के मकान वाले तमाम लोग आने लगे। जिनमें सबसे पहले आने वालों में गयादीन का सात सदस्यों का परिवार तथा सबसे बाद में आने वालों में इब्राहीम का ग्यारह सदस्यों का परिवार था। प्रारम्भ में रमेसर पानी में फंसे हुए सब लोगों को बुला बुला कर उन्हें छत पर आने में सहायता करता रहा था। यहां तक कि गयादीन के परिवार का भी उसने निष्कपट हृदय से स्वागत किया था। इससे उसे परमार्थ का काम करने का पुण्य प्राप्त होने की तुष्टि के साथ अपने मकान के पक्के होने के आत्माभिमान की भावनात्मक तुष्टि भी प्राप्त हो रही थी। परंतु इब्राहीम के परिवार के छत के निकट पहुंचने तक छत पर कोई जगह खाली नहीं बची थी और वह अधिक भार से छत के गिरने के खतरे से चिंतित भी होने लगा था। इब्राहीम को ऊपर आने से रोकने और कहीं और जगह ढूंढने को कहने की बात वह सोच ही रहा था कि इब्राहीम की छोटी लड़की जमीला का हाथ उसके हाथ से छूट गया था और वह पानी में बहने लगी थी। इब्राहीम, उसकी पत्नी व बड़ी नूरजहां अन्य बच्चों व सामान से इतने लदे फंदे थे कि उन्हें छोड़कर जमीला को बचाने की गुंजाइश ही नहीं थी। हताशा में वे रोने चिल्लाने लगे थे। उस अंधकार में बच्ची को बचाने हेतु पानी में कूदने का कोई साहस नहीं जुटा पा रहा था। इसी बीच सुक्खी की निगाह नूरजहां के मुख पर पड़ी थी और उसने पता नहीं उसमें क्या देखा था कि उसने आव देखा न ताव और पानी में कूद पड़ा था। जमीला पानी में नीचे जा रही थी और उसे पकड़ने हेतु डुबकी लगाने के पश्चात जब देर तक सुक्खी बाहर नहीं निकला तो सबको चिंता हो गई थी और उसकी माँ फफक कर रो पड़ी थी। पर तभी एक हाथ में जमीला को पकड़े हुए सुक्खी बाहर आ गया था। दुख एवं क्षोभ की दशा में रमेसर अभी तक चुप था परंतु सुक्खी को ऊपर आते देखते ही गरियाने लगा था,

“साले अपनी जान देने के लिये पानी में कूद गया था?”

सुक्खी चुपचाप इब्राहीम एवं उसके परिवार के सदस्यों में एक एक को लेकर छत पर उनके लिये जगह बनाने लगा था। नूरजहां सबसे बाद में सुक्खी के साथ छत पर आई और किसी तरह निकली बित्ता भर जगह में वह और सुक्खी सटकर बैठ गये थे। अब तक पानी छत के तीन फीट नीचे तक आ चुका था और कहीं छत पर न आ जाये इस आशंका से सबकी जान सूख रही थी।

इब्राहीम के परिवार के आने के बाद भी कुछ लोगों ने पानी में तैरकर आते हुए रमेसर की छत पर आने का प्रयत्न किया परंतु वहां जगह न होने के कारण और अपनी जान का जोखिम होने के कारण किसी ने उन्हें ऊपर नहीं चढ़ाया। वे लौट गये परंतु कहां गये यह कोई न जान सका। गांव के कितने आदमी और जानवर पानी में बह गये हैं ओर कितने बचे हैं यह न तो कोई जानता था और न जानने की जिज्ञासा प्रदर्शित कर रहा था। सबको अपनी जान बचाने की चिंता इतनी अधिक थी और अंत में अपने बच पाने की आशा इतनी कम थी कि किसी को किसी अन्य के विषय में जानने का ध्यान कम ही आ रहा था। इसके अतिरिक्त आज लोगों का ध्यान अन्य कुछ ऐसी बातों पर भी नहीं जा रहा था जिन बातों पर सामान्यतः वे मरने मारने पर उतारू हो जाते थे। आज सुक्खी और नूरजहां इतनी कम जगह में सटे बैठे थे कि न चाहते हुए भी उनके अंग प्रत्यंग एक दूसरे का स्पर्श कर रहे थे और सुक्खी ने नूरजहां को वर्षा से भीगने से बचाने के लिये अपनी मोमिया उसकी पीठ पर भी डाल रखी थी। इब्राहीम किसी प्रकार की उजरत करने के बजाय सुक्खी को दुआयें दे रहा था। घुरहू चमार और पंडित देवतादीन के परिवार भी बाद में आने के कारण एक ही जगह पर सटे हुए बराबरी के स्तर पर बैठे हुए थे और पैरों के थक जाने पर हिलाने डुलाने पर घुरहू के परिवार के सदस्यों के पैर पंडित जी के लग जाते थे। लखन पासी की गर्भवती बहू को ज़ोर से लधुशंका लगने पर वह सबके सामने छत की मुंडेर पर निबट ली थी। रामबिलास ठाकुर की पत्नी को नींद का झोंका आने पर उसने छुनई दुसाध की पीठ का सहारा ले लिया था और उसे कांपते हुए देखकर छुनई ने उसे बारिश से बचाने के लिये उसके सिर पर अपने साथ लाया बोरा डाल दिया था। एक ऐसे समाज जो अनेक अडिग स्तरों में विभाजित था एवं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति की प्रतिष्ठा उसकी जाति, लिंग, आयु एवं धन के अनुसार निर्धारित थी, के समस्त नियम अकस्मात ध्वस्त हो गये थे और कुछ घंटों के अंतराल में ही प्रेमपूर्ण साम्यवाद स्थापित हो गया था।


शनैः शनैः वर्षा बंद हो गई और बाढ़ के पानी का और उूपर चढ़ना भी रुक गया था, जिससे सभी लोगों की जान में जान आई और उन्हें भविष्य की चिंता सताने लगी थी। अधिकतर लोग रुकरुक कर आकाश की ओर हाथ जोड़कर हे राम! रक्षा कर अथवा हाथ फैलाकर अल्लाह! रहम कर बोलने लगे थे। कोई कोई स्त्री अपने कीमती कपड़े या गहने घर में ही छूट जाने का रोना भी रोने लगी थी। गांव के अन्य घरों की छतों का दृश्य स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था पर उन पर भी बातचीत बढ़ रही थी। रमेसर ने पड़ोस की एक छत की ओर मुंह करके पुकारा,

“घसीटे काका! सब ठीक है?”

घसीटे ने रुंआसे स्वर में उत्तर दिया,

“घर के और सब लोग तो छत पर हैं पर बड़ा बेटा जो खेत पर गया था घर नाहीं लौटा है। ईसरै मालिक है।“

ऐसी प्रलय में बड़े बेटे के साथ क्या होने की सम्भावना अधिक है यह अनुमान लगाना कठिन नहीं था। फिर भी रमेसर ने अपने शब्दों से यथासम्भव ढाढ़स बंधाने का प्रयत्न किया। तभी पूरब दिशा से बचाओ-बचाओ की कुछ घ्वनियां सुनाई दीं और फिर सब शांत। छुनई दुसाध ने आवाज़ पहिचान कर कहा, “हमको इनमें से एक तो रामबिलास की आवाज लगती है। लगता है बिचारे बह गये।“

यह सुनकर सबके हृदय द्रवित हो गये- विशेषकर इसलिये कि अन्य के अतिरिक्त रामबिलास भी सपरिवार रमेसर के यहां शरण की आशा में आया था पंरतु जगह की अनुपलब्धता के कारण और भार से छत ढह जाने के भय के कारण किसी ने उसे ऊपर नहीं लिया था। वह लौटकर एक झोपड़ी की फूस की छत पर सपरिवार चढ़ गया था और उस झोपड़ी को ही डूबते को तिनके का सहारा मान बैठा था। पर तिनका तिनका ही होता है और उसकर सहारा तिनका मात्र ही होता है। झोपड़ी बहुत देर तक पानी का बहाव नहीं झेल सकी थी और उसने स्वयं के साथ रामबिलास को भी सपरिवार जलसमाधि दे दी थी। नूरजहां अपनी हिचकियां न रोक सकी क्योंकि रामबिलास की लड़की उसकी सहेली थी। उसकी हिचकियां सुनकर अनेक अन्य स्त्रियां व बच्चे भी रो उठे थे। मृत्यु के आसन्न होने की आशंका तो सभी के मन में व्याप्त थी परंतु बाढ़ में मृत्यु द्वारा किसी को कालकवलित कर लेने की यह पहली त्रासदी उनके निकट घटी थी। अतः अधिक हृदयविदारक थी। अनेक पुरुष भी अपने आंसुओं को बाहर आने से न रोक सके थे।

आकाश में बादल छंटने लगे थे और सुबह का भुकभुका होने लगा था। प्रकाश किरणों के आगमन के साथ सभी के मन में आशा की किरणें भी जगमगाने लगीं थीं। प्रकाश का यह सर्वकालिक सर्वव्यापक गुण है कि यह हमारे मन में उत्पन्न होने वाले ऋणात्मक भावों, भयों, एवं आशंकाओं को कम करता है। इधर इधर देखने पर अनेक छतों पर स्त्रियां, पुरुष एवं बच्चे शरण लिये हुए दिखाई दिये। निकट की छत वालों में आपस में रामजुहार भी हुई। दूसरों की दशा को देखकर रमेसर की छत पर शरण लिये हुए लोगों ने अपने भाग्य को मन ही मन सराहा एवं ईश्वर की कृपा हेतु उसे धन्यवाद दिया। यह छत अन्य छतों की अपेक्षा अधिक ऊंची और पक्की होने के कारण अधिक सुरक्षित, साफ़ एवं सुविधाजनक थी। कुछ कुछ दूरी पर स्थित उन मकानों, जो फूस से छाये हुए थे, की दीवालें पूर्णतः पानी में डूब गईं थीं। बस उनके ऊपर के छप्पर पूर्णतः अथवा अंशतः दिखाई पड़ रहे थे। रामबिलास के मकान का छप्पर दिखाई नहीं दे रहा था और रमेसर बड़े भरे मन से बोला, “लगता है कि रामबिलास और उसके बच्चे सच में बह गये हैं।“

यद्यपि राममबिलास के मकान का अस्तित्व न पाकर अन्यों को भी इस तथ्य का विश्वास हो चुका था परंतु अभी तक कोई अशुभ बात को कहने का साहस नहीं कर रहा था। सबके मन में एक प्रकार का अपराधबोध व्याप्त था। रमेसर द्वारा बात छेड़ देने पर सियाराम ने सबकी बचत में कहा, “इस प्रलय में भगवान ही किसी को बचा सकता है।“

फिर कुछ देर तक रामबिलास एवं उसके परिवार के लोगों के विषय में चर्चा छिड़ी रही। उसके पश्चात सभी को नित्यक्रिया से निबटने की चिंता सताने लगी। लज्जापूर्ण मानसिकता के कारण इसमें स्त्रियों को विशेष कठिनाई अनुभव हो रही थी। पर यह बात सभी समझ रहे थे कि छत पर चढ़ने की सीढ़ियों की दो पैकरियां जो पानी में डूबने से बच गईं थीं, में से एक पर बैठकर बहते पानी में निवृत होने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प उपलब्ध नहीं था। यद्यपि इतने लोगों की उपस्थिति में यह कोई कम लज्जास्पद स्थिति नहीं थी तथापि मजबूरन पहले लड़कों ने अपने को वहीं निवृत करना प्रारम्भ कर दिया। फिर पुरुषों ने और उनके पश्चात स्त्रियों ने मुंह धोती में छिपाकर वही किया। कोसी के प्रकोप ने मनुष्यों द्वारा सदियों से अपनाये गये लज्जा के नियम एक रात्रि में ध्वस्त कर दिये थे।

 

2. पीने के लिये बहता हुआ पानी तो प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था परंतु खाने का सामान सब लोग पर्याप्त मात्रा में नहीं ला पाये थे। यद्यपि रमेसर ने कुछ सत्तू और चावल छत पर चढ़ा लिये थे परंतु इतने लोगों के लिये वे सर्वथा अपर्याप्त थे। और फिर कौन कह सकता था कि कब तक बाढ़ का प्रकोप रहेगा। फिर भी जिनके पास सामग्री थी उनमें से कई ने उदार हृदय से बच्चों, गर्भवती महिलाओं और थोड़ा बहुत पुरुषों को खाने को दिया। भरपेट खा पाने की तो किसी को आशा ही नहीं थी अतः अधिकतर उतने से ही संतुष्ट हो गये। रात्रि में ठीक से सो न पा