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डॉ लता अग्रवाल

वो बीस बरस



“अरे! भाई दुर्गा प्रसाद जी आप इसी शहर में हैं? हम तो सोच रहे थे शायद बच्चों के पास चले गए हैं, लम्बा अरसा हो गया आपको देखे| क्या बात है ईद का चांद हो गए हैं आप तो?”

मार्किट में आज कई दिनों बाद दुर्गा प्रसाद जी और उनके मित्र मोहन जी का आमना सामना हुआ| कभी दफ्तर में सहयोगी और अच्छे मित्र रहे दोनों किन्तु रिटायर्मेंट के बाद अचानक दुर्गा प्रसाद जी का अपने मित्रों से सम्पर्क टूट गया| बस यही शिकायत मित्र मोहन ने उनसे की|

“ये बात नहीं मोहन जी ... मैं यहीं हूँ|” दुर्गाप्रसाद जी गंभीर मुद्रा में बोले|

“फिर क्या बुढ़ापे में भी भाभी जी ने अपने पल्लू से बांध रखा है, अमा यार रिटायर हो गए हो; दादा-दादी बन गये अब तो घर गृहस्थी से रिटायरमेंट लेकर थोड़ा समय समाज और अपने मित्रों के साथ गुजारो|”

“तुम ठीक कहते हो मित्र ... किन्तु कुछ जिम्मेदारियां हैं जिनसे मुक्त नहीं हो पाया हूँ बस उनके ही निर्वाह में व्यस्त हूँ|”

“अजी इस उम्र में तो जिम्मेदारियों के बंधन से मुक्त हो लीजिये वरना ये हैं कि तमाम उम्र पीछा नहीं छोड़ेंगी| बहुत जी लिया परिवार के लिए अब घर गृहस्थी के दायित्व बच्चों पर छोड़ कुछ अपने लिए भी जिएं|”

“कहते तो तुम ठीक हो मगर सदा अपना चाहा कहाँ होता है, फिर मैं समझता हूँ सबसे पहले गृहस्थी के दायित्व हैं अगर उनका निर्वाह भली-भांति हो सके तो फिर समाज सेवा की ओर रुख करना उचित रहता है|”

“अरे भई! जरा अपनी ओर देखो कभी अप-टू-डेट रहने वाले दुर्गा प्रसाद जी आज कैसे बिखरे-बिखरे से नजर आ रहे हैं, आज भी आपके चेहरे पर वही चिंता की रेखाएं हैं जो उस समय हुआ करती थी|”

“तुमने सही पहचाना मोहन बाबू ... दरअसल हम पुरुषों के चेहरे की मुस्कान के पीछे जो शक्ति होती है न वह शक्ति मेरी छिन्न–भिन्न हो गई है|”

“भई! कोडवर्ड में बात करने की आदत गई नहीं आपकी ... यूँ भी आपसे तो बहस में न कभी पहले जीते थे न अब जितने की गुंजाईश है| वैसे ऐसे कौन से घरेलू दायित्व हैं जो आपके बिना हो नहीं सकते? और ये किस शक्ति के छिन्न –भिन्न होने की बात कह रहे हैं आप?”

“तुम्हें शायद पता नहीं राधा किशन जी, इन दिनों तुम्हारी भाभी, यानि कि मेरी पत्नी राधा की तबीयत ठीक नहीं है|”

“अरे! क्यों? क्या हुआ भाभी जी को?”

“वह बीमार है, समस्या कुछ गहरी है सो इन दिनों उसकी ही देखभाल में लगा हूँ|”

“किंतु आप क्यों? दो-दो बेटे हैं; एक बेटी है और भगवान की कृपा से सभी अच्छी पोस्ट पर हैं!”

“बिल्कुल हैं ... ईश्वर उन्हें उनकी मेहनत का फल दे| मैं इस मामले में बहुत खुशकिस्मत हूँ मोहन बाबू, मेरे दोनों बेटे और बहुएं यहाँ तक कि हमारे दामाद बाबू भी बहुत विनम्र और सम्मान करने वाले हैं|”

“अरे! तो उन्हें करनी चाहिए ना देखभाल, इस उम्र में आपको स्वयं आराम की आवश्यकता है!”

“मोहन बाबू! माली अपने बगिया को हरी-भरी देखने के लिए ही तो उसकी मनोयोग से देखभाल करता है कि एक दिन यह पौधे बड़े होकर पुष्पित होंगे और उसकी बगिया फूलों से महक उठेगी| फिर जब बगिया के महकने का समय आया तो कैसे उन पौधों को मुट्ठी में भींचकर उनके विकास की सम्भावनाएं छीन लूँ|”

“भई! आपकी ये गोल-मोल बातें मेरी समझ से परे हैं,कुछ सामान्य शब्दों में समझायेंगे?”

“सीधे-सीधे कहूँ तो माता-पिता हमेशा अपने बच्चों की तरक्की के लिए ही तो जीवन भर संकट झेलते हैं, आप तो गवाह हैं कैसे कम आमदनी में गुजारा कर मेरे बच्चों ने बिना ट्यूशन के अपनी मेहनत से आज कोई मुकाम हासिल किया है,अच्छे पद पर हैं ईमानदारी से कम कर रहे हैं| इस बात का गर्व है मुझे किन्तु वे दोनों दूसरे शहर में पदस्थ हैं,भला नौकरी छोड़कर कैसे आ सकते हैं?”

“तो आप चले जाइए वहाँ ... इस उम्र में वैसे भी हारी-बीमारी लगी ही रहती है मैं समझता हूँ ऐसे में बच्चों के पास रहना ही उचित रहता है| आखिर फर्ज है उनका माता-पिता की देखभाल करना ... हमने भी उनके प्रति दायित्व निभाए हैं|”

“उन्होंने कभी फर्ज निभाने से इंकार नहीं किया| रही बात उनके पास जाने की; सो चला जाता अगर कुछ दिन की बात होती तो किंतु राधा की बीमारी ही ऐसी है कि उसके ठीक होने की संभावना ना के बराबर है फिर ऐसे में बच्चों के पास रहकर उन्हें भी परेशान करना मुझे ठीक नहीं लगा||” दुर्गा प्रसाद जी ने अपना पक्ष रखा|

“कभी ठीक ना होने वाली बीमारी ...आखिर ऐसी कैसी कौन सी बीमारी है भाभी जी को?”

“दरअसल राधा अल्ज़ाइमर की शिकार है|”

“अल्जाइमर!! इसका मतलब उनकी याददाश्त ...”

“हाँ! उसकी याददाश्त जा चुकी है|”

“ओह! क्या कहते हैं डॉक्टर?”

“डॉक्टर्स का कहना है कि राधा अपनी स्मृतियाँ खो चुकी है| अकसर मानसिक तनाव के चलते मस्तिष्क में यादों को संग्रहित करके रखने वाली तंत्रिकाएं मर जाती हैं, न्यूरॉन्स के बीच कनेक्शन टूट जाता है| राधा के साथ भी यही हुआ है|”

“लेकिन अचानक यह बीमारी भाभी जी को कैसे हुई! क्या पहले से कोई ...”

“क्या कह सकते हैं मोहन बाबू, दरअसल हमारे परिवार में पहले तो स्त्रियाँ स्वयं ही अपने प्रति लापरवाह होती हैं फिर परिवार भी अपनी व्यस्तताओं के चलते उनकी ओर से उदासीन रहता है|”

“किन्तु आपके और भाभी के बीच सम्बन्ध तो मधुर रहे हैं ... फिर तनाव कैसा?”

“जरूरी नहीं पति-पत्नी के बीच ही तनाव उपजे हैं, गृहस्थी के कई दायित्व होते हैं| जब ब्याह होता है तो यह सम्बन्ध केवल पति-पत्नी का आपसी सम्बन्ध न होकर दो कुलों के बीच का सम्बन्ध हो जाता है| तुम तो जानते हो मेरे विवाह के समय हमारे आर्थिक हालात बहुत अच्छे नहीं थे, फिर माता-पिता और एक जवान बहन की जिम्मेदारी भी एक मात्र पुत्र होने से मेरे ऊपर थी| इसलिए नौकरी में प्रमोशन के चक्कर में घर से बीस बरस दूर रहा| बच्चों की पढ़ाई में हर्ज न हो इसलिए राधा और बच्चों को माता-पिता के पास ही रखा|”

“आपका मतलब परिवार की समस्याएं रहीं भाभी जी को?”

“मैं यह भी नहीं कह सकता क्योंकि राधा ने एक आदर्श बहु के सभी दायित्व बहुत अच्छे से निभाए|”

“फिर क्या परेशानी रही होगी?”

“मैं भी यही सोचता हूँ, हो सकता है मुझसे दूर तीन बच्चों की परवरिश के दौरान, आर्थिक परेशानियों के रहते राधा ने कई समस्याओं का सामना किया हो| कितनी बार अपनी जरूरतों को मारा होगा| किंतु मैं परेशान ना हो जाऊं इसलिए मुझसे अपनी समस्याएं छिपाती रही हो|”

“हे भगवान्! हम अपने भीतर जाने कितने तनाव को लेकर जीते हैं, इसका दुष्परिनाम इतना घातक होता है कभी सोचा न था| बेहतर है हम अपनी समस्याएं, तनावों को एक दूसरे से साझा कर इस तनाव से मुक्त हो लें यही बेहतर हैं| वो तो अच्छा है आप रिटायर हैं तो उनकी देखभाल कर लेते हैं वरना परेशानी होती ...वैसे कब से हुई यह तकलीफ?”

“मेरे रिटायर होने के बाद एक डेढ़ साल तक सब ठीक चला ... दो-तीन साल पहले शुरू -शुरू में राधा रसोई में सामान रखकर भूलने लगी मुझे लगा काम की अधिकता या उम्र का प्रभाव हो, उसने जिक्र तो किया था किन्तु मैं समस्या की गहराई को समझ नहीं पाया| फिर धीरे-धीरे यह समस्या रोग में बदलने लगी| वह मुझे, बच्चों को और कुछ रिश्तेदारों को छोड़कर बाकी सब को भूलने लगी तब हमें चिंता हुई और डॉक्टर को दिखाया तब तक बीमारी दूसरी तीसरी स्टेज पर पहुँच चुकी थी|”

“ओह!”

“अब तो स्थिति यह है कि वह अपने ही बच्चों, नाती पोतो ... यहाँ तक कि मुझे भी भूल गई| उसके व्यवहार में भी परिवर्तन होने लगा है|”

“सम्भवतः समय से दिखा देते तो कुछ इलाज हो सकता था|”

“हम अपने मन को तसल्ली दे सकते हैं किन्तु डॉक्टर्स के अनुसार तो इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है| जैसे दिल का मरीज ऑपरेशन होने के बाद भी रहता तो दिल का मरीज ही है ठीक उसी तरह अल्जाइमर का कोई इलाज नहीं| मस्तिष्क की कोशिकाओं का एक बार मृत होने के बाद ठीक होना नामुमकिन है बल्कि अब तो जैसे-जैसे समय गुजरता जा रहा है और भी कई बीमारियां साथ होने लगी हैं|”

“मतलब उम्र के साथ यह बीमारी और बढ़ना ही है|”

“जी ठीक समझे मोहन बाबू, डाक्टर्स और परामर्शदाताओं के अनुसार हम बस रोगी की देखभाल ही कर सकते हैं बाकी इसका कोई उपचार नहीं है|”

वैसे यह बीमारी कम हो देखने में आई है दुर्गा प्रसाद जी|”

“आजकल तो इसके मरीज बढ़ रहे हैं, अस्पताल में राधा जैसी कई महिलाओं को देखा डाक्टर के अनुसार भी यह बीमारी पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को कुछ अधिक ही देखने में आ रही है| वे कहते हैं महिलाओं का मस्तिष्क तनाव को अधिक गंभीरता से पकड़ता है|”

“तो आप ऐसा क्यों नहीं करते कि भाभी जी को लेकर कभी-कभार मित्रों के पास निकल आया कीजिये ताकि कुछ बदलाव हो और लोगों से मिलकर उन्हें अच्छा लगे शायद|”

“यही तो परेशानी है मोहन बाबू,दरअसल इस बीमारी के लक्षण ही ऐसे हैं कि इंसान धीरे-धीरे समाज से कट जाता है| जो व्यवहार आज राधा का है न उससे लोग स्वयं ही उससे मिलना–जुलना पसंद नहीं करेंगे|”

“ऐसा क्यों भला?”

“आजकल वह कभी बहुत भावुक हो जाती है, बिल्कुल एक मासूम बच्चे की तरह व्यवहार करने लगती है| मुझसे ही पूछती है मैं कौन हूँ? यहाँ क्यों हूँ?”

“फिर आप क्या ... बड़ा मुश्किल होता होगा जवाब देना?”

“क्या करूं,वह बच्चा बनती है तो मुझे भी बच्चा बनना पड़ता है| मैं उसे समझाता हूँ, मैं तुम्हारा स्कूल का सहपाठी हूँ, हम दोनों स्कूल में पढ़ते हैं न|”

“क्या वह मान लेती हैं आपकी बात?”

“कभी मान लेती है किंतु कभी-कभी भ्रम की स्थिति में पड़ जाती है, संदेह करने लगती है मुझ पर| कई सवाल पूछने लगती है जैसे मैं कहाँ रहता हूँ? हम कौन सी क्लास में पढ़ते हैं? टीचर ने क्या पढ़ाया है? क्या तुम मेरा होमवर्क कर दोगे? और कभी मनोभ्रम की स्थिति में होती है तो स्थिति उलट जाती है| पिछले मंगल को कहने लगी तुम मेरे सहपाठी नहीं हो, तुम कैसे आए मेरे घर में, तुम जाओ यहाँ से वरना मैं तुम्हारी शिकायत कर दूँगी|”

“फिर क्या किया आपने|”

“क्या करता ... उसका विरोध करना, यानि उसे नाराज करना है ... इससे स्थिति बिगड़ सकती है सो मैंने कुछ समय के लिए दूसरे कमरे में खुद को बंद कर लिया फिर जब उसका आक्रोश शांत हुआ तो बाहर आया|”

“तब तो दुर्गाप्रसाद जी स्थिति वाकई चिंता जनक है| वे आक्रोश में स्वयं को भी नुकसान पहुंचा सकती हैं|ताकि वह स्वयं को कमरे में बंद ना कर ले, चोट ना पहुंचा ले खुद को|”

“किंतु ऐसी अवस्था में भाभीजी आपको भी तो चोट पहुंचा सकती है?”

“पहुंचाती है ना ... कई बार हो चुका है|”

“तब तो बड़ी दिक्कत है, दीना नाथ जी,आप सुरक्षित नहीं हैं|”

“क्या करें, अगर वह ठीक होती तो भला ऐसा व्यवहार करती ... मैं समझता हूँ यह वही राधा है जिसने मेरे लिए बरसों करवा चौथ के व्रत निर्जला किए हैं| आज वह मानसिक विकार के दबाव में यह सब कर रही है इसलिए मुझे बुरा नहीं लगता, आखिर जीवन संगिनी है मेरी,मेरे सुख-दुःख की सच्ची सहचरी रही है वह|”

“फिर आपकी भोजन की व्यवस्था?”

“भोजन बनाने वाली बच्चों ने लगवा दी है| वह रोज भोजन बना कर चली जाती है मगर कभी राधा का मन हुआ तो चुपचाप खा लेती है वरना बने हुए खाने को ठुकरा देती है| नई-नई चीजों की फरमाइश करती है, थोड़ी-थोड़ी जिद्दी भी हो गई है ऐसे में मैं ही उसे जैसे -तैसे बनाकर खिलाता हूँ| कभी खाना खाकर पाँच मिनट बाद ही भूल जाती है और फिर से खाना मांगने लगती है, कभी ना खाने के बाद भी जब खाना लेकर जाता हूँ तो कहती है अभी तो खाया है और कितना खिलाओगे| मैं जानता हूँ विस्मृतियों ने उसे घेर लिया है इसलिए मुझे चौबीस घंटे उसकी देखभाल के लिए उसके साथ रहना होता है|”

“सच हैरान हूँ मैं आपकी बातें सुनकर, किन विकट स्थितियों से गुजर रहे हैं आप|”

“क्या कर सकते हैं, बीमारी किसी को कहकर नहीं आती न मोहन बाबू, हो सकता है राधा की जगह अगर मैं इस असाध्य रोग की चपेट में आ जाता तो ...वह भी तो वही सब करती जो मैं कर रहा हूँ| मुझे पीड़ा उसकी तकलीफ से है अपनी से नहीं, देखता हूँ कभी-कभी वह घंटों खामोश बैठी एक टक दीवार को देखती रहती है, मैं कितनी ही बातें करूं एक शब्द भी नहीं कहती और कभी इतनी बातें करती है कि मैं सुनते-सुनते थक जाता हूँ| मेरी शालीन राधा जो हमेशा संयमित रहती थी आज बीमारी ने उसे कैसा बना दिया है| कभी वह अकेले रहना चाहती है और मुझे कमरे से बाहर कर देती है, कभी न जाने कौन-कौन सी घटनाएं उसके अवचेतन में दस्तक देती है जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है जीवन में उन्हें वह स्मरण करती है मानो पिछले जन्म की स्मृतियां उसे कुरेद रही हो|”

“अच्छा! क्या आपने महसूस किया कि भाभीजी किस तरह की बातें करती हैं?”

“सही कहा तुमने ... मैंने इस बात पर गौर किया तो महसूस हुआ कि वे बातें जो मुझे समझ नहीं आ रही वो सम्भव है उस समय की बातें हों जब मैं सर्विस में बाहर रहता था| इसी से मुझे लगा कि राधा की यादें मरी नहीं हैं अपने शब्दों में कहूँ तो बस वो उथल-पुथल हो गईं हैं| सो मैंने अपने से एक उपाय खोजा कि मैं राधा से अपने विवाह के बाद के दौर की बातें करता हूँ, मैंने महसूस किया वह उन्हें याद करने की कोशिश करती है, कभी कुछ याद भी आ जाता है तब उसका व्यवहार पहले जैसा सौम्य हो जाता है| इसी से आजकल मैं डाक्टरों के साथ-साथ अपनी यही थैरेपी भी उसे दे रहा हूँ| मैंने महसूस किया विगत दिनों की सुखद और विशेष स्मृतियाँ ऐसे समय में रोगी को बहुत राहत देती हैं यह मैं पिछले कुछ दिनों से देख रहा हूँ|

“यह तो अच्छी बात है, ईश्वर करे भाभी जी स्वस्थ हो जाएँ| आप उन्हें उनकी प्रिय जगहों पर भी ले जा सकते हैं जहाँ वे पहले जा चुकी हैं हो सकता है इससे भी कुछ अनुकूल प्रभाव पड़े|”

“हो सकता है, किन्तु फ़िलहाल तो वह भावनात्मक रूप से इतनी कमजोर हो गई है कि जल्द ही किसी के दुर्व्यवहार से आहत हो उठती है| इसीलिए तो बच्चों के पास भी नहीं रहता हूँ| एक तो शहर में वैसे ही दो बेडरूम के मकान होते हैं,फिर एक अल्जाइमर के मरीज के लिए एक कमरा तो चाहिए ही| एक बार गया था राधा को लेकर बच्चों के पास तब देखा कि जिन नाती पोतों की बलाएँ लेती न थकती थी राधा आज उन्हीं नाती -पोतों से ईर्ष्या करती है, उन्हें अपने हमउम्र समझ कर अपना सामान उनसे छुपा कर रखती है वे पढ़ते हैं तो उनके पेन, कापी ले लेती है, बच्चे ना दें तो रोने लगती है ऐसे में न चाहते हुए घर में तनाव की स्थिति बन जाती है| तब मैंने तय किया कि जो भी है जैसा भी है स्वयं ही सामना करूँगा, बच्चों को परेशान नहीं करूँगा|”

“कुछ दवाई तो डाक्टर ने दी होगी?”

“दी हैं ताकि वह कम आक्रामक हो, लेकिन जब खुद पर ही इन्सान का बस नहीं होता तो वह भी क्या करे| आजकल तो अपनी दैनिक क्रियाओं का भी उसे ध्यान नहीं रहता,बिस्तर गीला कर देती है,ऐसे में उसे उठाकर उसके कपड़े बदलना, नहलाना, धुलाना मुझ बूढी हड्डियों से हो नहीं पाता| इसलिए बच्चों ने राधा को नहलाने, उनकी व्यक्तिगत साफ-सफाई के लिए एक आया रख दी है जो दिन में दो बार सफाई कर जाती है| अभी वो आई हुई थी इसलिए सोचा जरूरी सौदा ले आऊं और आपसे भेंट हो गई|”

“सच हमें नहीं मालूम था दुर्गा प्रसाद जी कि आप इस विकट स्थिति से गुजर रहे हैं, हमने तो सोचा नाती-पोतों के बीच जीवन का आनन्द ले रहे होंगे इसलिए दिखाई नहीं दे रहे| खैर! हमारे लायक कोई सेवा हो तो निसंकोच बताइए|”

“सेवा तो क्या कहूँ मोहन बाबू, बस कभी-कभार उचित समझे तो आ जाया कीजिए घर; मिलकर बैठेंगे बातें करेंगे कुछ मन हल्का हो जाएगा| आज पूरे डेढ़ महीने बाद किसी से इतनी बात हो पा रही है वरना लगता है बाहर की दुनिया से मेरा नाता ही कट गया है| बच्चों के फोन आते हैं बस उनसे बात कर लेता हूँ|”

“अवश्य दुर्गा प्रसाद जी मैं आता रहूँगा, आज आपकी बातें सुनकर मन भारी हो गया|” भरे गले से मोहन बाबू ने कहा|

“लेकिन मुझे ऐसा लगा महीनों बाद आज मन कुछ हल्का हुआ|” दुर्गा प्रसाद जी की आँखों में कृतज्ञता का भाव था|

“सच बड़ी नाइंसाफी की ईश्वर ने आपके साथ दुर्गा प्रसाद जी|”

“नाइंसाफी तो नहीं कहूंगा दुर्गा प्रसाद जी यह तो इंसान का अपना कर्म फल होता है, शायद यह मेरा पूर्वार्ध्द ही हो| बस अफसोस यही है कि बीस बरस घर से दूर रहकर जो राधा के साथ अन्याय किया है उसका खामियाजा है यह| सच कहूँ तो उसके एहसासों की फ़िक्र थी मुझे लेकिन क्या करता मज़बूरी थी| एक बहन की शादी करनी थी, तीन बच्चों का जीवन संवारना था| मुझे रिटायरमेंट के बाद पता चला कि राधा ने मुझसे छिपाकर कपड़े सीने का भी काम किया| ताकि कुछ आर्थिक सहयोग हो सके| राधा ने एक पत्नी और माँ का दायित्व बखूबी निभाया और मेरे तीनों बच्चों को अच्छे संस्कार देकर काबिल इंसान बनाया| सोचा था रिटायरमेंट के बाद बच्चे सेटल हो ही गए हैं राधा के साथ समय व्यतीत करूंगा जो हम एक दूसरे से कभी नहीं कह पाए मिलकर अपनी हर हसरत पूरी करेंगे किंतु ईश्वर को वह मंजूर नहीं शायद|”

“फिर भी धन्य हैं आप दुर्गा प्रसाद जी वरना कौन पति इतने तन-मन से सेवा करता है पत्नी की|”

“यह तो हमारा कर्तव्य है मोहन बाबू आखिर सात फेरों का बंधन है हमारा और फिर राधा ने भी तो अपने सारे फर्ज पूरी इमानदारी से निभाएं हैं, डॉक्टर कहते हैं कि अधिक मानसिक तनाव से भी यह बीमारी होती है, कहीं न कहीं मैं भी उसकी इस हालत के लिए जिम्मेदार हूँ, ऐसे में अगर मैं उसकी थोड़ी बहुत सेवा कर भी लूँ तब भी उसके वह मानसिक संताप वाले बीस बरस उसे कहाँ लौटा पाऊंगा|”

 

लेखक परिचय – डॉ लता अग्रवाल



नाम- डॉ लता अग्रवाल (वरिष्ठ साहित्यकार एवं शिक्षाविद)

शिक्षा - एम ए अर्थशास्त्र, एम ए हिन्दी, एमएड, पी एच डी (हिन्दी)

जन्म – शोलापुर महाराष्ट्र

अनुभव- महाविद्यालय में प्राचार्य ।

पिछले 9 वर्षों से आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर संचालन, कहानी तथा कविताओं का प्रसारण, राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका में रचनाएँ प्रकाशित|

मो – 9926481878

प्रकाशित साहित्य

शिक्षा पर 16 पुस्तकें

कविता संग्रह –

‘मैं बरगद’,पहले पहल प्रकाशन भोपाल, (बरगद पर 131 कविता, गोल्डन बुक ऑफ़ रिकार्ड, इण्डिया बुक ऑफ़ रिकार्ड में शामिल )

‘आँचल,(माँ पर 111 कविता) मीरा पब्लिकेशन इलाहाबाद

सिसकती दास्तान (किन्नरों पर 121 कविता ) विकास पब्लिकेशन कानपुर

‘हस्ताक्षर हैं पिता’, पिता पर 1111 कविताएँ, पहले पहल प्रकाशन भोपाल,

बाल साहित्य

‘असर आपका’, विभोर ज्ञानमाला प्रकाशन आगरा (गद्य काव्य)

‘मुझे क्यूँ मारा ‘ जय माँ पब्लिकेशन भोपाल (गद्य काव्य)

‘मेरा क्या कुसूर ‘जय माँ पब्लिकेशन भोपाल (गद्य काव्य)

‘पुस्तक मित्र महान’ मून पब्लिशिग हाऊस,भोपाल (काव्य संग्रह)

मुस्कान,, बाल कल्याण एवं शोध संस्थान भोपाल (काव्य संग्रह)

लघुकथा संग्रह

‘तितली फिर आएगी’ विभोर ज्ञानमाला प्रकाशन आगरा

‘लकी हैं हम’ विभोर ज्ञानमाला प्रकाशन आगरा

‘मूल्यहीनता का संत्रास’ जी एस पब्लिकेशन एंड डिस्ट्रीब्यूटर, दिल्ली

‘गांधारी नहीं हूँ मैं’,विकास पब्लिकेशन कानपुर

‘धीमा जहर’ वनिका पब्लिकेशन दिल्ली

‘दहलीज का दर्द’ विभोर ज्ञानमाला प्रकाशन आगरा

साक्षात्कार संग्रह

‘लघुकथा का अंतरंग’ लघुकथा पर पहला ऐतिहासिक साक्षात्कार|

उपन्यास संग्रह

मंगलमुखी’ किन्नर पर, विकास पब्लिकेशन कानपुर

कहानीसंग्रह-

‘सिंदूर का सुख’, हरप्रसाद व्यवहार अध्ययन एवं शोध संस्थान आगरा

‘साँझीबेटियाँ, हरप्रसाद व्यवहार अध्ययन एवं शोध आगरा द्वारा प्रकाशित

समीक्षा –

पयोधि हो जाने का अर्थ कौशल प्रकाशन, फैजाबाद

उत्तर सोमारू, कौशल प्रकाशन, फैजाबाद,

मधुकांत की इक्यावन लघुकथाओं का समीक्षात्मक अध्ययन, मोनिका पब्लिकेशन दिल्ली

लघुरूपक – 20 पुस्तकें, माँ पब्लिकेशन भोपाल

फिल्मांकन – उपन्यास ‘मंगलामुखी के एक अंश पर पायल फाउन्डेशन लखनऊ द्वारा 30 मिनट की फिल्म का निर्माण ‘यह कैसी सोच’

पाठ्यक्रम – मध्यप्रदेश बोर्ड में रक पाठ स्कूली शिक्षा में, तथा 5 लघुकथाएं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल|

शोधकार्य –

मेरे लघुकथा संग्रहों पर महाराष्ट्र की छात्रा द्वारा पीएचडी जारी है|

‘हस्ताक्षर हैं पिता’ 1145 पृष्ठ, दो खंडों में कविता संग्रह पर राजस्थान की छात्रा द्वारा पीएचडी जारी है|

सम्मान-

अंतराष्ट्रीय सम्मान – 3

9 राज्यों से सम्मानित

52 राज्य एवं राष्ट्रीय सम्मान –


निवास - 30 सीनियर एमआईजी, अप्सरा काम्प्लेक्स, इंद्रपुरी, भेल क्षेत्र,भोपाल- 462022

ई-मेल agrawallata8@gmail.com


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