दीवान पर पीठ के बल लेटा, दोनों पैरों को दीवार पर शीर्षासन जैसे ताने शिशिर नाटकीय अंदाज़ में अपनी पसंदीदा किताब धीमी आवाज़ में पढ़ा करता ...
...जिस्म की छुअन के बिना रूह की छुअन बेमानी है. इश्क पहाड़ के सबसे ऊँचे शिखर पर गिरती शफ्फाक चमकीली बर्फ है...अनछुई अद्भुत... सामने झील पर मंडराते परिंदों में अब कहीं खंजन पक्षी नहीं हैं. वे सारे के सारे खंजन मेरी महबूबा के नैनों में समा गये. तब कमरे में बसंत उतर आता था...
अब धुआँई उदासी पूरे कमरे में फैल चुकी है. दीवान हटा दिया गया है और उस जगह रखे हवन कुंड में, घेरा बनाकर बैठे तमाम रिश्तेदार, सगे सम्बन्धी आहुतियाँ डाल रहे हैं. आज शिशिर की बरसी है. छलछलाई आँखों से सरोज देख रही है... मीनाक्षी के हाथों में रखी हवन सामग्री, उदास चेहरा, टपकती आँखें, हवन की लपटों में मानो खुद भी सुलग उठीं सरोज. अगर वे भाग्यशाली होतीं तो यह दृश्य होता शिशिर की और मीनाक्षी की शादी का...कि जिस दिन के इंतज़ार में वह रोज़ कोई न कोई नया प्रोग्राम बना लेता... मैं शिप में रिसेप्शन करूँगा, समुद्र में पाँच मील अंदर शिप ले जाकर. निक्की हँसती, तुम तो आसमान में करना शादी, हेलिकॉप्टर पर....
फिर आपका क्या होगा बुआ? हेलिकॉप्टर में तो मैं और मीनाक्षी ही बैठ पायेंगे.
निक्की के साथ शिशिर की खनकती हँसी पूरे घर में गूँजती रहती कि पीछे से किसी ने उसके दोनों कंधों को दबाया. भरी-भरी आँखें छलक पड़ीं... साल भर पहले की वह हाहाकार करती शाम....
मेहमानों को विदा कर वह डिनर की तैयारी करने उठी ही थी कि फ़ोन की घंटी बज उठी. हाथ में पकड़ी सब्जी की ट्रे थामे हुए ही रिसीवर उठाया. कोई अजनबी आवाज़ घबराई हुई सी - हलो! शिशिर के डैडी हैं?
जी... आप कौन?
मैं नेरल से बोल रहा हूँ. ज़रा शिशिर के डैडी को फोन दीजिए.
वो ज़रा बस स्टॉप तक गए हैं, कोई मैसेज हो तो बतायें.
जी... वो... शिशिर का एक्सीडेंट हो गया है.
क्या ऽऽऽ! कहाँ... कैसे? हाथ की ट्रे गिरने को थी. झपटकर निक्की ने रिसीवर ले लिया - देखिए, आप लोग तुरंत नेरल आ जायें. वैन का पहिया फिसल गया था... सबको सिर पर चोटें हैं... दो सीरियस हैं... यहाँ का फ़ोन नंबर और पता नोट कर लें... जल्दी.
निक्की ने जल्दी-जल्दी पता और फ़ोन नंबर नोट किया. सफे़द पड़ती, रह-रहकर कांपती सरोज को सोफे़ पर बिठाया और पूरी गंभीरता से बोली - घबराओ मत भाभी... शिशिर को कुछ नहीं हुआ है.
सरोज फटी-फटी आँखों से शून्य को टटोल रही थी. हथेलियाँ पसीज उठी थीं. निक्की दौड़कर उनके लिए पानी ले आयी. हमेशा भाभी पर निर्भर रहने वाली निक्की कैसी पुरखिन बनकर उन्हें सम्हाल रही थी. हालाँकि उसके दिल की धडकनें अपनी सीमा तोड़ने पर उतारू थीं. उसका बेहद लाड़ला शिशिर न जाने किस हाल में होगा ... हे सिद्धी विनायक मेरे शिशिर को कुछ न हो, मैं ग्यारह मंगल निर्जला वृत रखूँगी. निक्की ने आँखें मूँदकर मन्नत माँगी, तभी राजेश आ गये. निक्की ने सारा वाकया सिसकियों में सुना डाला. काँप उठे राजेश, जल्दी-जल्दी नेरल फ़ोन लगाया. लगातार इंगेज्ड टोन... पाँच मिनिट लगे लाइन मिलने में. इस बीच निक्की ने एक बैग में नेपकिन, पानी की बोतल रख दी.
भैया... मैं भी चलूँ?
लेकिन बोलने के लिए ज़बान कहाँ थी... सारी शक्ति, सारा हौसला पस्त-सा हो रहा था. एक निक्की ही थी जो दोनों को सम्हाले थी. कैसे पहुँच पायेंगे ये नेरल तक... अगर वह साथ जाये तो इधर भी तो कोई होना चाहिए. उसने वॉचमैन को कह टैक्सी मँगवाई. सरोज से अलमारी की चाबी ले दस हज़ार के नोटों की गड्डी उनके पर्स में ठूँस दी, न जाने कब, कैसी जरूरत पड़ जाये.
टैक्सी रवाना होते ही अकेले कमरे में रो पड़ी निक्की... यह क्या हो गया? कितनी खुशी-खुशी शिशिर अपने दस अन्य दोस्तों के साथ माथेरान ‘वीक एंड’ पिकनिक के लिए गया था. वह भी जाना चाह रही थी पर शिशिर ने ही रोक दिया था. हम नेरल से ट्रैकिंग करते हुए माथेरान जायेंगे. आपसे ट्रैकिंग नहीं होगी बुआ, रेलवे स्टेशन की सीढ़ी तक तो चढ़ नहीं पाती हो.
चल रे बदमाश... मेरे जाने से तुम लोगों की मस्ती में खलल जो पड़ेगा!
ऑफ कोर्स... यू आर ग्रेट, सब समझ जाती हो जल्दी से.
मुझे सब पता है. चार लड़कियाँ भी जा रही हैं साथ में.
ओ बुआ... शिशिर ने बुआ के गाल चूम डाले थे. पर मीनाक्षी नहीं जा रही है बुआ... देखना पछतायेगी.
पहुँचते ही मुझे फ़ोन करेगा न?
शिशिर ने हमेशा की तरह हथेली फैलायी थी. सौ का नोट दो पहले... तब करूँगा फ़ोन...
और फ़ोन आया भी तो... ओह, न जाने कैसे हालात होंगे वहाँ के? न जाने कहीं अस्पताल भी होगा भी या नहीं? नेरल तो गाँव है... न जाने कहाँ एक्सीडेंट हुआ है? सोच-सोच कर बेहाल हो रही थी वह. इस बीच वह भाभी के मंदिर से अपने गणपति उठा लायी थी और फ़ोन के पास जमकर बैठते हुए लगातार प्रार्थना में डूबी थी. घड़ी की सुईयाँ मानो सरकना भूल गयी थीं. दुर्घटना की ख़बर सुन उसके पड़ोसी नेरल का फ़ोन नंबर ले गये थे और आधे घंटे बाद जब लौटे तो उनके हाथ में सूप था, निकिता वहाँ सब ठीक है, तुम यह सूप पीकर आराम करो. हम बीच-बीच में फ़ोन करते रहेंगे वहाँ.’
सहारा पाकर वह फूट-फूट कर रो पड़ी. अभी तक भैया-भाभी ने मुझे फ़ोन क्यों नहीं किया? वे बहुत प्रॉम्ट हैं इस मामले में... कभी देर नहीं होती उनकी तरफ से... कहीं कुछ...
पड़ोसी खामोश थे. उनके चेहरे की कैफियत सच्चाई बयान कर रही थी. निक्की सहम गयी और सहम गयी उसकी प्रार्थना, मन्नतें. गणपति पर से उसका विश्वास पतझड़ के पीले पत्तों की तरह झड़ गया, डालियाँ ठूँठ हो गयीं. सन्नाटे से भरे कमरे में फ़ोन चीख पड़ा. झपटकर उठाया. हाँ भैया... कैसा है शिशिर, उसे ज्यादा चोट तो नहीं आयी? बोलिए न भैया, आप चुप क्यों हैं? दिल दहला देने वाली खामोशी से भरा लम्हा सरका- निक्की... और वे फूट-फूट कर रो पड़े थे.
निक्की यहाँ तो...यहाँ तो पोस्टमार्टम चल रहा है शिशिर का.
एक घूँसा-सा लगा मानो दिल पर. भयंकर चीत्कार करती वह कटे पेड़ सी वहीँ ढेर हो गयी. रिसीवर हवा में झूल रहा था और झूल रहा था इस घर का भविष्य अँधेरे में.
अभी छ: महीने पहले ही तो सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग में उच्चतम अंक प्राप्त कर मेधावी शिशिर को एक विदेशी कंपनी में बेहतरीन जॉब मिला था. बहुत खुश था वह... सरोज और राजेश का इकलौता शिशिर. शादी के कई साल बाद सरोज के शिशिर पैदा हुआ था. सरोज को शिशिर में ही मानो बेटी भी मिल गयी थी और बेटा भी. अपने अध्यापन के दौरान सरोज इतनी व्यस्त रहती थीं कि घर में कम ही समय दे पातीं. देखते-देखते खिलंदड़ा, नटखट शिशिर कब बड़ा हो गया, कब उसने अपने नन्हें कंधों पर घर की ज़िम्मेदारियाँ ओढ़ ली पता ही न चला. उसने देखा था अपने अध्यापक माँ-बाप को सीमित आय में तमाम ज़िम्मेदारियों को ढोते... उसकी महंगी पढाई... कानपुर में बाबा दादी की बुढ़ापे की बीमारियाँ... तीन-तीन कुंवारी बुआओं की सरकती उम्र... और हर महीने भेजा जाता मनीऑर्डर... तमाम संघर्षों, आर्थिक जटिलताओं के बीच शिशिर ने समझ लिया था कि उसे जो करना है स्वयं करना है. उसकी आँखों में सपने थे. वह नयी पीढ़ी का ऐसा युवक था जो हर दिन पूरा जीवन जी लेना चाहता था. ज़िंदगी के एक-एक पल को मुट्ठी में भींचकर बहुत शिद्दत से जी लेना चाहता था वह. ज़िंदगी मानो एक नशा थी और वह उस नशे में चूर था. महंगे-महंगे बेहतरीन, फैशन बूटीक के कपड़े और परफ्यूम वह अपनी हर सैलरी में खरीद लेता. महंगे शूज़, महँगी रिस्टवॉच, सनग्लासेज़, कैसेट्स, सी. डी. ... राजेश ने और सरोज ने कभी लोकल ट्रेन की प्रथम श्रेणी में सफ़र नहीं किया. हमेशा भीड़ में ठूँसे, भीड़ का हिस्सा हुए वे दब-पिसकर मीरा रोड से ग्रांट रोड तक पहुँचते थे लेकिन शिशिर ने नौकरी लगते ही फ़र्स्ट क्लास का पास बनवा लिया. सरोज बिगड़ पड़ी. एक पैसा तो तुम बचा नहीं पाते हो, थोड़ा जोड़ना भी सीखो.
अरे ममा... पास तो मुझे कंपनी ने दिया है. आने-जाने का फ़र्स्ट क्लास का पास और ऑफ़िस में दिन भर कॉफ़ी-चाय चाहे जितनी पियो. और ममा जोडूँ किसके लिए? मोटा बैंक बैलेंस कर लूँ खुद को कमियों में रखकर, तरसाकर? ओह ममा... तुम पेपर पढ़ लिया करो रोज़ का.
सरोज ने चकित हो शिशिर को देखा - इसमें पेपर पढ़ने की क्या बात है?
बात है ममा! पेपर रंगे पड़े रहते हैं अंडरवर्ल्ड के लोगों की हफ्तावसूली से... नहीं मानने पर गुलशन कुमार गोलियों से भून दिया गया. मोटा बैंक बैलेंस वो गुड़ है जो डी गैंग के शूटरों को ततैया, बर्र की तरह अपनी तरफ एट्रेक्ट करता है.
सरोज ध्यान से शिशिर के चेहरे को देखने लगी थी. क्या इसीलिए शिशिर इतनी सारी तनख्वाह पत्तों की तरह हवा में उड़ा देता है? क्या इसीलिए आज की पीढ़ी कमाने और खर्चने में विश्वास करती है? वीक एंड पर पार्टी, पिकनिक, फ़िल्म, महंगे-महंगे रेस्तरां, कान से सटा वॉक मेन, मोबाइल फ़ोन... निश्चल खिलखिलाहट... ऐसी भरपूर कि सावन के घटाटोप बादलों के बीच चमकती बिजली भी शरमा जाये. इस पीढ़ी को भविष्य की कोई चिंता नहीं... यह पीढ़ी आज में जीती है....
और ममा इन शूटरों सेव बच गये तो ट्रेन से गिरकर कट मरो... हर दिन हादसे... आज हैं कल नहीं... फफूंदी लगाने को और दूसरों के ऐश करने के लिए बैंक में पैसा जोड़ो, क्यों भई? हमारा भविष्य तो आतंक की छाँव तले पनप रहा है. बंदूक की नोक, रेल की पटरी और सड़क पर सहमा खड़ा है हमारा भविष्य तो. ममा, जानती हो, हर साल अस्सी हज़ार जानें जाती हैं सड़क दुर्घटनाओं में....
सरोज की पलकें झुक गयी थीं, शर्म से या अपनी बेहद व्यस्त दिनचर्या से जिसमें सामने पेपर ज़रूर होता था लेकिन मन में स्कूल की नौवीं, दसवीं कक्षाओं का पोर्शन ठुँसा होता... फलां तारीख से परीक्षा है, फलां तारीख तक पोर्शन खत्म कर देना है... यदि कोई हादसा होता तो स्टाफ रूम में उसे सुनने के बाद वे पेपर में पढ़तीं... घर आकर टी.वी. ऑन करके न्यूज़ सुनतीं जो सुन चुकी होतीं औरों के मुँह से... उसे इस तरह टी.वी. के परदे पर देख लेतीं और उनका यह बेफिक्र लड़का ए-टु-जे़ड सारी जानकारी रखता है. बेवफ़ा ज़िंदगी में खुशियाँ बटोरने, जीने और जीने देने की एक नयी परिभाषा को लिये कितना खुश है वह... एक वे हैं जो चींटी की तरह पाई-पाई घसीटती, जोड़ती रहीं. न खुद ढंग से जी पायीं, न अपनी मर्ज़ी का कुछ कर पायीं. अपनी ज़रूरतों को मारकर धन जोड़ती रहीं... किस लिए, नाते रिश्तेदारों की वक्त बेवक्त, ऊलजूल फ़रमाइशों पर स्वाहा करने के लिए? ठीक कहता है शिशिर, उन्हें उसके सामने अपना व्यक्तित्व दाना-दाना घसीटती, कमजर्फ चींटी सा जान पड़ा.
हर दिन किताबों से तरह-तरह की इश्किया लाइनें पढ़ते रहने और रात ग्यारह बजे सबके सो जाने पर फ़ोन पर धीमे-धीमे बतियाने से सरोज को शक हुआ. पूछने पर शिशिर ने बिना किसी दुराव-छुपाव के बता दिया कि उसके साथ कॉलेज में पढ़ी मीनाक्षी से उसका इश्क चल रहा है. थोड़ी देर तो वे खामोश रहीं. जानती थीं कि शिशिर का निर्णय गलत नहीं होता... मीनाक्षी प्रतिष्ठित परिवार की खूबसूरत लड़की है. इनकारी की कोई वजह भी नहीं. प्रश्न अगर उठा भी तो उसके महाराष्ट्रियन होने पर ही उठ सकता है. वे दकियानूसी विचारों की नहीं हैं लेकिन शिशिर के बाबा-दादी की सहमति ज़रूरी है. पूरे महीने भर बाद जब संपूर्ण परिवार ने शादी के लिए ग्रीन सिग्नल दे दिया तो उन्होंने शिशिर को बुलाकर अपनी सहमति प्रकट कर दी. चहक उठा वह, उनके पैर छू कर लिपट पड़ा उनसे. वे बहू की कल्पना में खो गयीं और शिशिर मीनाक्षी से यह बताने को उतावला कि अब आसमान हमारी मुट्ठी में है, कि अब हम जितना चाहे पंख पसारें....
एकाएक रो-रोकर बेहाल हुई निक्की को याद आया, मीनाक्षी को तो खबर कर दे... लेकिन वहाँ घंटी बज रही थी, कोई उठा नहीं रहा था फ़ोन. चौथी बार लगाने पर मीनाक्षी की आजी ने मराठी में बताया कि मीनाक्षी अपने मम्मी-डैडी के साथ नेरल पहुँच चुकी है. उन्होंने यह भी बताया कि उन ग्यारह लोगों में से अनूप और रेखा बच गये हैं. लेकिन रेखा के बचने की उम्मीद नहीं के बराबर है.
सुबह-सुबह शिशिर को लेकर सरोज और राजेश मीनाक्षी और भी न जाने कितने सारे लोग घर लौट आया एक शिला का सच. ...हाँ, शिशिर मर चुका है. न हिल-डुल रहा है, न कुछ बोल रहा है. हमेशा रेस्टलेस रहने वाला, कितनी शांति से चिरनिद्रा में लीन है. देखते ही निक्की बेहोश हो गयी, पूरा फ़्लैट दुःख के महासागर में डूब गया. सरोज न रो रही थीं, न किसी से कुछ बोल रही थीं. आँखें फटी, शून्य में टकटकी... मानो उस अदृश्य सत्ता से सवाल कर रही थीं कि क्यों किया ऐसा? क्यों सुख की थाली परोसते ही छीन ली? क्यों लूट लिया ज़िंदगी का उजाला और क्यों अँधेरे में झोंक दी बाकी की उम्र. अनूप की तरह शिशिर क्यों नहीं बच सका? हाँ, अनूप ही बच पाया है. रेखा भी दो घंटों तक मौत से संघर्ष कर चल बसी थी. एक साथ इतनी जवान मौतें? कैसा रहा होगा वह क्षण जब वैन कुलाटी खाती, हँसती खिलखिलाती ज़िंदगियों को लिये गहरी घाटी में गिरकर चकनाचूर हो गयी थी? कुछ के तो चेहरे पहचानने मुश्किल थे. शिशिर की ब्रेन की हड्डी टूट गई थी. खून उबल-उबल कर आँख, कान, नाक से बह चला था, फेफड़े सिकुड़ गये थे...एक डरावनी मौत झेलकर भी शिशिर के चेहरे पर मासूम शांति बिखरी थी. मानो कह रहा है... मैं न कहता था ममा ज़िंदगी का कोई भरोसा नहीं, आज है कल नहीं.
सहसा वे बेतहाशा बिलखती हुई शिशिर के सीने पर जो गिरी तो फिर हफ्तों नहीं उठीं. बुखार ने दबोच लिया उन्हें... सदमे के कारण बुखार उतर ही नहीं रहा था. सारे शरीर में दर्द और सूखी खाँसी. अनूप की माँ देखने आयीं. सब्र करिए मिसेज वर्मा...’ वह दिव्य आत्मा थी, अधिक दिन कैसे रहती दुनिया में?
काश... वह भी बच जाता... जैसे आप अनूप को सम्हाले हैं, मैं भी सम्हाल लेती. कम से कम नज़रों के सामने तो रहता. मीनाक्षी कहती है कि हाथ-पैर टूट जाते तो टूट ... कम से कम शिशिर के होने की तो तसल्ली रहती.
अनूप की माँ उनके कंधे से लिपट कर रो पड़ी- सिर पर गहरी चोट लगने से दिमाग में खून जम गया था, तुरंत ऑपरेशन करना पड़ा. पूरा सिर घुटा हुआ, पट्टियों से बंधा. गाल सूजे, आँख के नीचे चोट के फफोले, सेलाइन, खून चढ़ाने वाली नलियों से बिंधे हाथ... नहीं सहन होता मुझसे ये सब.
तसल्ली रखिये, सांस बची है, शरीर भी वापिस आ जायेगा. बुखार उतरते ही मैं देखने आऊँगी उसे.
सोचने लगीं - काश, शिशिर भी ज़िंदा होता तो ज़िंदा रहते मीनाक्षी के सपने! शिशिर के रहते उनके परिवार ने मीनाक्षी को ऐसे अपना लिया था मानो वह उस घर की बेटी हो. तीज त्योहार में वह आती तो वे उसे उपहारों से पूर देतीं... चौके में वह निक्की और शिशिर के साथ नाश्ता, लंच या डिनर तैयार कर रही होती. तीनों की खिलखिलाहट पेपर जाँचती सरोज के कानों में मिश्री घोल देती. उन्होंने तय कर लिया था वे मीनाक्षी के साथ सास का नहीं बल्कि दोस्ती का रिश्ता रखेंगी. मीनाक्षी है भी इसी काबिल. उसके गुणों से सारे नाते रिश्तेदार, पड़ोस, मित्र रश्क करने लगे थे. तभी तो निक्की कहती है - नज़र लग गयी शिशिर को.
सफेद कपड़े से ढके शिशिर के पैरों को कई घंटों से दबाती मीनाक्षी सहसा अपने डैडी को सामने देख सिसक पड़ी थी - डैडी, बगा, काय झाला?
वह यह भूल गयी थी कि शिशिर की मृत देह को ऐंबुलेंस में अपनी गोद में रखे उसके डैडी ही थे, वह यह भी भूल गयी कि शिशिर अभी उसका पति नहीं हुआ था... उसने दाहिने हाथ में पहना काँच का कड़ा उतारकर उसके पैरों के पास रख दिया था. शाम को जब उसकी सहेलियाँ उससे मिलने आयी थीं तो वह बदहवास सी घूम-घूम कर उन्हें घर दिखा रही थी - यह हमारी अलमारी, मेरी और शिशिर की... यह हमारे मखमली चादर, कंबल, गिलाफ इन्हें शिशिर जम्मू से लाया था... और ये देखो... उसकी पसंद के अचार. मिर्ची का अचार उसे खूब पसंद था. फिर डबडबाई आँखों से जबरदस्ती हँसते हुए बोली थी - उस दिन पराठे के एक कौर में पूरी मिर्ची खा गया था शिशिर और सी-सी करता भागा था सिंक की ओर, पर नल में पानी ही न था, उस दिन पानी की स्ट्राइक जो थी. सहसा निक्की ने उसे सीने से लगा लिया था... सरहदें केवल दो देशों के बीच ही नहीं होती, सरहद मृत्यु और जीवन के बीच भी होती है... इस पार जीवन, उस पार मृत्यु और मृत्यु के बाद की अनजानी राहें... मीनाक्षी ने यह सरहद ही मिटा डाली थी. ज़िंदगी में मौत को जी रही थी वह. अफसोस था तो बस इस बात का कि वह शिशिर के साथ क्यों नहीं माथेरान गयी? तब या तो वह शिशिर के साथ होती या शिशिर उसके.
पता है बुआजी, जिस लड़की के कारण ट्रेकिंग का प्रोग्राम कैंसिल कर सब वैन में बैठकर जा रहे थे उसका, जबरदस्त मृत्यु योग था.
नहीं मीनाक्षी, मृत्यु योग तो हमारा था... हमारी ज़िंदगी हमसे छिन गयी, निक्की ने कहना चाहा था पर मीनाक्षी के चेहरे की मायूसी ने उसे खामोश कर दिया था.
समय कहाँ रुकता है... साँसों के बोझ तले हांफते राजेश और सरोज धुआँ-धुआँ जी रहे थे. अक्सर अनूप की मम्मी या पापा से भेंट हो जाती... अक्सर वे अस्पताल चले जाते देखने. चौबीस साल का जवान हट्टा-कट्टा अनूप दस महीनों की जानलेवा पीड़ा को झेलता सूख कर कंकाल मात्र रह गया था. चेहरे पर मुर्दनी छाई रहती. जीवन का संकेत देती साँसें ही यह विश्वास दिलातीं कि वह ज़िंदा है. खाना भी नलियों के सहारे, पानी भी नलियों के सहारे... टट्टी, पेशाब भी नलियों के सहारे... नलियों पर टिके इस जीवन को ज़िंदगी देने के लिए कमरतोड़ महँगाई में पाई-पाई खर्चते अनूप के माता-पिता... सारे गहने बिक गये, बैंक खाली हो गया. कर्ज़ का बोझ बढ़ता गया. सरोज ने अपनी एक महीने की पूरी की पूरी तनख्वाह ही यह कहकर दे दी कि - लौटाने की न सोचना...मेरे लिए शिशिर समान है अनूप. काश शिशिर होता तो वे अपना सब कुछ उसके इलाज पर न्यौछावर कर देतीं पर उनका भाग्य ने साथ नहीं दिया.
शिशिर के ऑफिस के सहकर्मी मिलने आते. अब शिशिर से ज़्यादा अनूप की चर्चा होती - माँस का लोंदा बनकर रह गया है अनूप एक ज़िंदा लाश.
सरोज तड़प उठतीं - ऐसा मत कहो वह ज़िंदा है, माँ-बाप के लिए यही क्या कम बड़ी बात है?
यह आपका मोह है आंटी... पल-पल मरने से तो शिशिर जैसी मौत भली. गिरे और खत्म!
सरोज अंदर चली गयीं, कैसी होती जा रही है युवा पीढ़ी भावनाशून्य. माँ-बाप के सामने ही बक देती है जो मुँह में आया. इतने लोगों में से अनूप का बचना कोई मामूली बात नहीं है. उनका सौभाग्य उनके साथ था... वरना शिशिर की तरह अनूप भी...
मन बहुत कसकता रहता. क्यों हुआ ऐसा? ईश्वर ने एक ही औलाद दी और उनके ज़िंदा रहते हुए ही छीन भी ली... मौत आनी थी तो उन्हें क्यों न आयी? तड़प उठतीं वे. रातों को नींद खट से खुल जाती, कल्पना करतीं... वैन घाटी में गिर रही है, सभी चीख-चिल्ला रहे हैं. वैन के दरवाज़े टूट गये हैं, दरवाज़ों से गिरती लड़कियाँ पत्थरों की चोट खा, बिलबिलाकर बेहोश हो गयी हैं. शिशिर का सिर चट्टान से टकराया है... वह बिलख रहा है... ममा, मैं जीना चाहता हूँ ममा... मुझे बचा लो.
उनकी हाँफी चलने लगती, रक्त का दौरा शिराओं को तोड़ने लगता. सारा शरीर पसीने से नहा जाता... लेकिन हलक सूख जाता... डॉक्टर ने सलाह दी कि वे ध्यान योग की क्लासेज़ अटैंड कर लें. ...ध्यान योग, ईश्वर चिंतन तो बड़े-बड़े दुःखों की अचूक दवा है. वे उत्तेजित हो गयीं. ईश्वर चिंतन!! ईश्वर है कहाँ... शिशिर के साथ तो वह भी मर गया... शिशिर के साथ ही उसका दाहकर्म भी हो गया.
कंधों के दबाव के साथ ही उनके कानों में कोई फुसफुसाया, अनूप के बड़े भाई आये हैं... अनूप डीप कोमा में चला गया है. वे झटका खा गयीं... अपने ही दुःख में डूबी, साल बीत जाने का लम्हा-लम्हा बटोरती वे सोच भी नहीं पायी थीं कि पाँच सदस्यों सहित अनूप की लंबी बीमारी का खर्चा झेलते परिवार का ढाँचा ही चरमरा गया है जबकि उन लोगों का आर्थिक पक्ष पहले से ही कमज़ोर था.
शाम को वे राजेश के साथ अनूप को देखने अस्पताल पहुँची. बलिष्ठ शरीर वाला अनूप सूखकर हड्डी का ढाँचा मात्र रह गया था. आँखें बंद... जैसे समाधि में लीन हो... धीरे-धीरे उसका आधा शरीर सुन्न हो गया था. लेकिन अनूप की माँ यह मानने को तैयार नहीं थीं कि उसे कमर से नीचे पैर तक लकवा मार गया है. अनूप के पापा ने बताया कि साल भर से महंगे टेस्ट, महंगी दवाइयाँ, विशेषज्ञ डॉक्टरों की फीस, अस्पताल के कमरे का किराया भरते-भरते वे कंगाली की गिरफ़्त में आ गये हैं. उन्होंने प्रदेश के आला अफ़सरों, राजनेताओं से सहायता की अपील की है लेकिन अभी तक तो कोई सुनवाई नहीं हुई. दुर्घटना-मुआवज़ा भी नहीं मिला अभी तक. कई चैरिटी संस्थाओं में भी अनुदान की माँग की गयी. कुछ ने दिया भी... पर इतना कम जैसे रेत के महासागर में पानी की बूँद....
हौसला रखें भाई साहब... कोई न कोई हल निकल ही आयेगा. सरोज ने सूनी आँखों से राजेश की ओर देखा... मानो जता रही हों कि जैसे ही दुर्घटना मुआवज़ा मिलेगा हम इनकी मदद जरूर करेंगे... पर मजबूरी! साल भर से केस टंगा है. इधर अनूप की रफ़्ता-रफ़्ता मौत की गिरफ्त में जाती ज़िंदगी सरोज से देखी नहीं जाती. जब भी उससे मिलकर लौटती, उसके चेहरे का सूनापन और सन्नाटे से गूँजती आँखें ज़ेहन में कौंधती रहतीं. वक्त भी कैसी चीज़ है? कहाँ तो वे अनूप के बच जाने पर मन ही मन यह भी सोचती रही थीं कि काश, शिशिर भी बच जाता लेकिन अब... अब एहसास होता है मानो अनूप का घर बेबसी का ऐसा खंडहर बन गया है जिसकी दीवारों के साथ उनकी गुर्बत के जालों की तरह अनूप की कराहें भी लटकी हैं और लटकी हैं उस घर के हर सदस्य की लाचार सिसकियाँ भी, आह! जीवन ऐसा भी होता है.’
एक दिन पता चला कि अनूप के मम्मी-पापा ने उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कर यह माँग की है कि उनके पुत्र अनूप को दयामृत्यु का अधिकार दिया जाये. सुनकर वे सन्न रह गयीं ... मानो आकाश के गर्भ में छुपी तमाम बिजलियाँ, उल्काएँ उनके ऊपर टूट कर गिर पड़ी हों... यह क्या सुन रही हैं वे? जिस अनूप के लिए उन लोगों ने घर की पाई-पाई स्वाहा कर दी... और जो उनका भविष्य है...उसी की मृत्यु की कामना! सुनकर रहा न गया. राजेश के साथ भागती हुई अनूप के घर गयीं तो अनूप की मम्मी उनसे लिपटकर फूट-फूट कर रो पड़ीं - अनूप से मौत का पीड़ादायी इंतज़ार करवाना ठीक नहीं. डॉक्टरों ने भी इनकार कर दिया है. अब उसका इलाज संभव नहीं.
फिर भी...जब तक साँस चलती है, आस कैसे छोड़ी जा सकती है?
तो क्या करें सरोज जी? अस्पताल के भारी ख़र्च के साथ उसका तड़पना देखें...या घर लाकर रात दिन उसके मुर्दा शरीर की उठती-गिरती साँसों को गिनें?
सरोज की आँखें डबडबा आयीं ...वे जो चले गये के लिए साल भर से रो रही हैं. ज़िंदगी भर रोयेंगी और ये ज़िंदा बच गये के लिए आँसू बहा रहे हैं ... उन्होंने तो शिशिर का मृत शरीर पहली और अंतिम बार बस चंद घंटों के लिए देखा, ये तो रोज़-रोज़ देख रहे हैं ... जो कष्ट और पीड़ा अनूप झेल रहा है उससे कहीं अधिक कष्ट और पीड़ा तो ये दोनों झेल रहे हैं. बेटे के खोने का ग़म ... घर के कंगाली की गिरफ़्त में चले जाने का ग़म, भविष्य के लिए की गई सारी बचत, सारी भविष्य निधि, सारा कीमती सामान, ज़ेवर... सब स्वाहा... और कर्ज़ में बिंधे सो अलग....
अचानक उनकी सोच का रुख बदल गया. अचानक उन्होंने स्वीकार कर लिया कि इस रूप में ज़िंदा बच जाने से तो शिशिर जैसी मौत अच्छी थी.
भारी मन से लौटते हुए वे राजेश से बोलीं-
तुम क्या सोचते हो, अब अनूप ज़िंदगी की ओर तो लौट नहीं सकता. उनके माता-पिता ने ठीक निर्णय लिया है. मर्सी किलिंग का अधिकार उन्हें मिलना ही चाहिए. राजेश अवाक् थे.

प्रकाशित पुस्तके....बहके बसँत तुम,बहते ग्लेशियर,प्रेम सम्बन्धोँ की कहानियाँ आसमानी आँखों का मौसम (कथा सँग्रह) मालवगढ की मालविका.दबे पाँव प्यार,टेम्स की सरगम,हवा मे बँद मुट्ठियाँ,(उपन्यास) मुझे जन्म दो माँ(स्त्री विमर्श) फागुन का मन(ललित निबँध सँग्रह) नही अब और नही तथा बाबुल हम तोरे अँगना की चिडिया (सँपादित सँग्रह) नीले पानियोँ की शायराना हरारत(यात्रा सँस्मरण)
विभिन्न भाषाओ मेँ रचनाएँ अनूदित,पुस्तको पर एम फिल तथा शाह्जहाँपुर की छात्रा द्वारा पी.एच.डी,रचनाओ पर फिल्माँकन,कई पत्र पत्रिकाओ मेँ स्तम्भ लेखन व सामाजिक,मीडिया,महिला एवँ साहित्यिक सँस्थाओ से सँबध्द, प्रतिवर्ष हेमंत फाउँडेशन की ओर से हेमंत स्मृतिकविता सम्मान एवं विजय वर्मा कथा सम्मान का मुम्बई मे आयोजन,महिला सँस्था विश्व मैत्री मँच की संस्थापक,अध्यक्ष
पुरस्कार.... बारह राष्ट्रीय एवं दो अँतरराष्ट्रीय साहित्य एवँ पत्रकारिता पुरस्कार जिनमे महाराष्ट्र के गवर्नर के हाथो राजभवन मेँ लाइफ टाइम अचीव्हमेंट अवार्ड तथा म.प्र. राष्ट्र भाषा प्रचार समिति द्वारा मध्य प्रदेश के गवर्नर के हाथों नारी लेखन पुरस्कार विशेष उल्लेखनीय है। मुझे जन्म दो माँ पुस्तक पर राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा पी एच डी की मानद उपाधि। महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी का राज्यस्तरीय हिन्दी सेवा सम्मान।भारत सरकार अंतरराष्टीय पत्रकार मित्रता सँघ की ओर से 20 देशो की प्रतिनिधी के रूप मेँ यात्रा।
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