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"खंडहरों में देखो, एक गाईड खड़ा मिलेगा ..."

  • मुक्ता सिंह ज़ौक्की
  • 1 सित॰ 2016
  • 2 मिनट पठन

जयशंकर प्रसाद की कहानी खंडहर की लिपि पढ़ कर कुछ पुरानी यादें ताज़ा हो गईं.

दिल्ली को एक आधुनिक महानगरी बने बड़ा कम समय हुआ है. उस से पहले तो ये कम आबाद दिखती थी, यहाँ खंडहर पसर कर इतिहास फुसफुसाते थे. तब ये मेहमान की तरह गठे से नहीं खड़े दिखते थे. बाँहें फैलाए आलिंगन का न्यौता देते थे. स्कूल-बस की खिड़की से हम देखते देखते आगे निकल जाते थे. दूर तक बिछे वीरान, पठारी इलाके पर नज़र ठहर जाती. देखते ही देखते लगता बेपरवाह पृथ्वीराज चौहान अपने साथियों के साथ फिर किसी जंग के लिये चौकड़ी भरता जा रहा है. आँखों का धोखा होता, बस ... तब हमें मालुम नहीं था कि यहाँ-वहाँ अचानक यूँ ही खड़ी अकेली दीवारों के अंदर अगर खोद कर देखें तो ज़िंदा चुनवाए गए इंसानों के अवशेष भी मिल सकते हैं. एक तो खंडहरों की फुसफुसाहट हलकी पड़ जाती, सुनने में नहीं आ पाती, दूसरे स्कूल पहुँचने की घबराहट में हम खुद भी ध्यान न दे पाते.

मेरे ख्याल से, इतिहास, चाहे गौरवपूर्ण हो या शर्मनाक, छिपा कर नहीं रखना चाहिये, ज़ोर से कहना चाहिये. हम में इतनी शक्ति होनी चाहिये कि हम सब हाल निर्लिप्त भाव से सुन पाएँ क्योंकि जब तक हमारे सामने बीती हुई बातों का स्पष्ट ख़ाका नहीं होगा, हम उससे आवश्यक सीखें नहीं निकाल पाएँगे. हमारी हिस्टरी बार बार रिपीट होती रहेगी.

एक अलग बात - ई-कल्पना की शुरुआत में मैंने बड़े यकीन से कहा था कि लिखिये, क्योंकि हमारे यहाँ कहानियों की भरमार है ... अब इस आठवें अंक को प्रकाशित करते करते एक निराशा सी हुई. इस अंक के लिये स्वीकृत कहानियों का निरीक्षण करने पर पाया कि "सबमिशनों में पूर्व-प्रकाशित कहानियों की भरमार है". पिछले अंकों में भी इस तरह के अनुभव हुए. कई बार तो लेखकों ने ही अपनी तरफ़ से (झूटा)आश्वासन दिया कि उनकी कहानी कहीं प्रकाशित नहीं हुई है. हाँ, मेरा यक़ीन हिल गया है. मुझे लगता था कि लेखक आम आदमी से ज़रा ऊँचे आदर्श रखने वाले लोग होते हैं. अपना शौक पूरा कर रहे हैं, इसलिये कहानियों कि तो इनके पास भरमार होनी ही चाहिये. एक छप जाएगी तो और लिखेंगे.

एक लेखक जिनके पास कहानियों की भरमार है - मेनका शेरदिल - इनकी कहानी पर पिछले अंक में बहुत ट्रैफ़िक आया. कुछ महीनों पहले इन्होंने एक कहानी भेजी. लिखा, देवदास कहानी मैं अनेकों बार पढ़ चुकी हूँ, इसके अलग तीन फ़िल्मांकन देख चुकी हूँ. मैंने एक प्रयोग किया है, देव्यानी. आज के समाज में जैंडर-रोल को टैस्ट कर रही हूँ. वही भेज रही हूँ. आशा है सब को पसंद आएगी.

हम भी आशा करते हैं कि इस अंक की अन्य कहानियों के साथ आपको मेनका शेरदिल का ये प्रयोग भी पसंद आएगा.

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