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मुक्ता सिंह-ज़ौक्की

युग-प्रवर्तक लेखक, जयशंकर प्रसाद

अक्सर कहानियों का पहला बीज अखबारों के कॉलमों में पाया जाता है, मगर कहानियों के स्रोत हमारे मन-मस्तिष्क में छिपे हों, क्या ऐसा होना भी सम्भव है? क्या ये आवश्यक है कि कहानी समाज की विडंबनाओं और कुंठाओं के दायरों में ही सीमित रहे? इस तरह के सवाल मैं विभिन्न कहानीकारों से कई दफ़ा पूछ चुकी हूँ.

जवाब में अक्सर यही सुना कि अगर साहित्य समाज में कुछ बदलाव लाने का सामर्थ्य नहीं रख सकता है तो फिर पन्ने काले करने का कोई मतलब नहीं बनता है! समाज से बंधी कहानी कहने वाले उत्कृष्ठ हिंदी कहानीकारों की सूची लंबी ही है. उदाहरण के तौर पर, मंटो अपनी कलम के माध्यम से विभाजन के दौरान के उन्माद और बवाल का बेहतरीन ब्योरा छोड़ गए हैं. प्रेमचंद गुलाम देश और असमान सामाजिक-आर्थिक परिवेश में आईना रख कर अविस्मरणीय कहानी कह गए हैं. और आगे, मोहन राकेश ने स्वतंत्र भारतीय जीवन के प्रश्नों और चुनौतियों पर महत्वपूर्ण और अत्युत्तम कहानियाँ लिखीं.

लेकिन, समय के साथ समाज बदलता रहता है, चारों तरफ़ अलग और नई तरह की परिस्थितियाँ और चुनौतियाँ खड़ी मिलती हैं, कहानियों के मुद्दे भी बदल जाते हैं. फिर, क्या ये कहना सही नहीं होगा कि कहानी की शाश्वतता कहानीकार की प्रतिभा पर ही निर्भर करती है, कहानी के सार और तत्व पर नहीं?

प्रेमचंद के समकालीन और उन की तरह हिंदी कहानी के प्रवर्तक कथाकार जयशंकर प्रसाद का जन्म 1889 में हुआ. 47 वर्ष की आयु में जब इनका निधन हुआ तब भी देश गुलाम था.

लेकिन जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ देखें तो कहानियों के परिदृश्य के रूप में उनके चारों तरफ़ का समाज नहीं बल्कि उनकी कल्पना में बसीं कोई और ही जगहें मिलेंगी. संसार के कुछ दो-एक चुनिंदा पात्र प्रसाद जी अपनी काल्पनिक दुनिया में ले आते हैं, उसके बाद आदर्शों, भावनाओं और हादसों के द्वंद्व में वे एक अनूठी, जादुई कहानी बुन डालते हैं.

उनकी कहानियों में पाठक जैसे खुद को संसार से उखड़ कर किसी स्वप्न लोक में पाता है और जीवन की कुंठाओं और विडंबनाओं के दायरों से आगे बढ़कर नई सम्भावनाएँ देख जाता हैं.

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