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कुत्तागिरी

  • डॉ मनोज मोक्षेन्द्र
  • 5 दिस॰ 2016
  • 10 मिनट पठन

जब अपना घर-द्वार बेचकर गाँवों से आए लोगों ने कॉलोनी में बड़ी-बड़ी, ऊँची-ऊँची कोठियाँ खड़ी कर लीं और अंतरंग को कीमती साज-सामानों से सजा-धजा दिया तो उन्हें इनके हिफ़ाज़त की चिंता सताने लगी. इस बारे में उन्होंने दोस्तों और रिश्तेदारों से मशविरे लिए. कुछ सुरक्षा एजेंसियों से संपर्क भी किया. महंगे सुरक्षा गार्ड तैनात करना तो उनके वश की बात थी नहीं. इस दरम्यान, यार-दोस्तों ने बार-बार इस बात पर बल दिया कि अगर घरों की हिफ़ाज़त करनी हो तो कुत्ते जैसी वफ़ादारी इंसानों में कहां! लिहाजा, कोठियों की बेहतर हिफ़ाज़त के लिए उन्हें एक ही नुस्खा रास आया. और वह नुस्खा था--कोठियों के आगे खूंखार कुत्ता तैनात कर दिया जाय जो दुम हिलाकर उनका स्वागत करे और भौं-भौं भौंककर अजनबियों के मन में ख़ौफ़ और आतंक पैदा करे. बहरहाल, यह बात भी अहम की थी कि जितने दुर्लभ नस्ल का एलियन टाइप कुत्ता होगा, मोहल्ले में उसके मालिक की धाक उतनी ही जमेगी.

मोहल्ले में सबसे पहले जयपाल गुज्जर ने अपनी कोठी के गेट पर एक अल्सेशियन कुत्ता बैठाया. परिणामस्वरूप, चौधरी रणविजय इस बात को लेकर अधिक चिंतित दिखे--'टुच्चे जयपाल ने म्हारे से पैले (पहले) कुत्ता कैसे तैनात कर लियो?'

चौधरी सा'ब गाँव में थे तो उनके लंठ-लहेड़े लड़कों को अपने परिवार से कोई ख़ास मतलब तो था नहीं. वे या तो इधर-उधर घूम-फिर कर खेत-खलिहानों में शौच जाने वाली जनानियों की इज़्ज़त पर हाथ डाला करते थे या दिन-दहाड़े कुछ अनाप-शनाप वारदात करके अपने बाप की पूँजी में बरक़त किया करते थे. यों तो चौधरी सा'ब ने अपनी ज़मीन बड़े-बड़े बिल्डरों को बेचकर एक मोटी रक़्म बैंक में जमा करने के बाद स्थायी तौर पर शहरी माहौल में रहने का मन बना लिया था तथापि उनके गाँव के घर में अपनी लुगाई और बहुओं के कुछ गहने-गीठो ही बचे थे जिन्हें वह जमीन में गाड़कर ऐसे रखते थे कि चोरों को उसकी भनक तक नहीं मिल पाती थी. अगर कोई चोर-लुटेरा उनके घर लूटपाट करने का आत्मघाती ख़तरा मोल लेता भी तो उसे पहले, कच्चे बरामदे में दिन-रात रखवाली कर रहे चौधरी रणविजय से दो-चार हाथ करना पड़ता जो उसके वश की बात नहीं थी. क्योंकि चौधरी के दोनों बाजुओं में साँड़ का बल था और पैरों में हाथियों की-सी ताकत थी. सुबह उठने के बाद वह अपने दोनों हाथों से बैलों के सींग पकड़कर उन्हें पीछे धकेलते हुए अपने बाहुबल की आज़माइश करते थे और अपने कुएं पर जाकर पहले आवारा घूम रहे बालकों से अपने जिस्म पर चिकनी मिट्टी मलवाते थे फिर कोई आधा घंटे तक दंड-बैठक पेलते थे. शाम को खेत से लौटकर अपनी लुगाई पर रोब गाँठते थे और आँगन से ओसारे तक स्वच्छंद उठ-बैठ रही अपनी बहुओं की आबरू-आज़ादी पर ग्रहण लगाते थे.

सो, चौधरी सा'ब ने एक बेहतरीन नस्ल का कुत्ता मुँहबोले दाम पर खरीदने के लिए दूर-दराज़ के महानगरों में ख़ूब हाथ-पैर मारे. आखिरकार, उनके हाथ एक डैनिश डॉग लग ही गया जिसे उन्होंने अपनी कोठी के ऊपर आलीशान मोम्टी वाली छत पर तैनात किया और जिसकी देखभाल के लिए मासिक पग़ार पर जसबीर जाटव नाम के एक जवान छोरे को नौकर रखा. उनका मानना था कि किसी पढ़े-लिखे शहरी लड़के के बजाय कोई ग्रामीण लौंडा ही उनके कुत्ते की ख़िदमत बेहतर ढंग से कर पाएगा.

जयपाल गुज्जर पर चौधरी रणविजय की हरक़त एकदम नागवार गुज़री. सुबह जब वह चौधरी की कोठी के सामने से अपने पोते को टहलाने के बहाने गुज़र रहे थे तो उन्होंने सिर उठाकर उनके कुत्ते पर भरपूर निगाह डाली और कुत्ते के पास ही वर्ल्ड ट्रेड फेयर से खरीदी गई ईज़ी चेयर पर ज़ुम्बिश करते हुए और अखबार पढ़ने की कोशिश कर रहे चौधरी को बधाई दी, 'अरे, चौधरी! तन्नै कित्ता बुलंद डॉग्ग अपने गेट पर बिठा रक्ख्यो है! अरे, इस सिपाही (कुत्ते) का नाम के (क्या) है?'

चौधरी को जयपाल के शब्दों में छिपा व्यंग्य बरदाश्त नहीं हुआ. उसका सिर भन्ना गया. आवेश में उसके कानों में इतनी खुजली हुई कि उसने पूरी उंगली ही अपने दाएं कान में डाल दी, 'ओए जयपाल गुज्जर, म्हारे इंगलिश कुत्ते को सिपाही मत कहियो. ये तो थन्नेद्दार है थन्नेद्दार; पूरे कल्लोनी का थन्नेद्दार.'

जयपाल गुज्जर घर पहुंचकर काबू में नहीं थे क्योंकि चौधरी ने परोक्षतः कॉलोनी के सभी कुत्तों समेत उसके कुत्ते को भी मामूली सिपाही बना दिया था और अपने कुत्ते को उन सभी का सरदार (थानेदार). वह ड्राइंग रूम में सोफ़े पर टांग पसारते हुए अपने बारह-वर्षीय पोते से चींख उठे, 'ओए शेरू! म्हारो सिर बौत गर्म होए रयो है. तनिक फ़्रिज़ का ठंडा पानी तो पिला दे.'

शेरू अपनी माँ द्वारा अभी-अभी तैयार की गई बाल्टी-भर लस्सी अपने दादा के सामने रख दिया. जयपाल पानी के स्थान पर लस्सी देख, उछल पड़े, 'ओए लौंडे, तूने तो म्हारो मिज़ाज़ ही नरम कर दियो.'

जयपाल ने पहले चौधरी को एक भद्दी गाली दी फिर तसल्ली से पूरी लस्सी अपने पेट में उड़ेलते हुए कुछ सोचने लगे और ड्राइंग रूम से बाहर आकर बरामदे में टहलने लगे. उन्होंने बाहर निकलकर अपनी मूंछें ऐंठते हुए बड़े ग़ौर से अपनी भव्य कोठी का नज़ारा किया; फिर, बरामदे में वापस आकर बड़बड़ाने लगे, 'चौधरी की कोठी तो म्हारी कोठी के आगे पानी भरती-सी लाग्गे है. फिर म्हारो कुत्ता कैसे उसके थन्नेद्दार डॉग का सिपाही बनेगो?'

उन्होंने तत्काल अपने बड़े बेटे बीरपाल से कोई ख़ास बात करने के लिए मोबाइल पर नंबर मिलाया. कुछ देर बाद ही बीरपाल हाज़िर हो गया.

जयपाल, बीरपाल के कंधे पर अपना हाथ डालकर टहलते हुए भड़क उठे, 'ओए बीरपाल, तेरे को अपने बाप की इज़्ज़त-आबरू की भी चिंता होवे है क्या कभी?'

'के बात होए गई, पप्पा जी? म्हारो से के (क्या) गल्ती हो गई?' बीरपाल मुँह बाकर खड़ा हो गया.

जयपाल गुर्रा उठे, 'तन्ने नहीं देख्यो क्या कि टुच्चे चौधरी ने म्हारे से ज़्यादा बुलंद डॉग अपनी मोम्टी पे बिठा रख्यो है?'

बीरपाल नकटी निकालते हुए बोल उठा, 'पप्पा जी, देख्यो तो है. प्रंतु, हम भी चौधरी को धूल चटाके दम लेवेंगे. आख़िर, हम्में भी ज़मीन के मुआवज़े में चार सौ करोड़ मिल्यो है. म्हारो सामने फटीचर चौधरी की क्या बिसात?'

वह भी सोचते हुए चिंता में पड़ गया.

कोई हफ़्ते-भर बाद, कॉलोनी में हर ज़बान पर बस एक ही चर्चा थी, चौधरी रणविजय के पड़ोसी जयपाल गुज्जर ने अपनी कोठी के सामने डॆढ़ करोड़ की फरारी मोटरकार खड़ी की है. जयपाल ने कॉलोनी के दो सौ घरों में मिठाई का डिब्बा भिजवाकर इस अवसर को सेलीब्रेट किया. चौधरी रणविजय को अच्छी तरह समझ में आ गया कि जयपाल यह सब उसे नीचा दिखाने के लिए कर रहा है. लज्जा और शर्म के कारण वह कई दिनों तक घर में ही दुबके रहे. आख़िर, वह कॉलोनी में किसी को मुँह दिखाए तो कैसे दिखाए? अब इतनी महंगी गाड़ी खरीदने की औक़ात उनके पास नहीं रही. सारी जमा-पूँजी तो अपनी कोठी को सजाने-सँवारने में लगा दी. बहरहाल जयपाल ने तो इतनी मंहगी कार खरीदकर उनकी इज़्ज़त का गुड़-गोबर कर दिया है. उन्होंने अपने नाते-रिश्तेदारों और समुदाय के लोगों के साथ भी चौपाल बैठाई; खूब विचार-विमर्श किया. पर, किसी भी नतीजे पर नहीं पहुँच पाए.

अभी यह सब चल ही रहा था कि चौधरी को लगा कि जैसे उनका भाग्योदय होने वाला है. उनकी बेटी के लिए शादी का प्रस्ताव एक निहायत अमीर जाट परिवार से आया जिसके पास कोई तीन सौ एकड़ जमीन थी; गाँव में सवा सौ भैंसों का खटाल था; एक ट्रांसपोर्ट कम्पनी थी और शहर में उसकी ठेकेदारी में कई अपार्टमेंट निर्माणाधीन थे. गुंडागर्दी, ज़बरन वसूली, हत्या-बलात्कार जैसे कारनामों को अंज़ाम दिए जाने के कारण उसके ख़िलाफ़ सालों से कई मुकदमें चल रहे थे. उसकी दबंगई और रोब-दाब के किस्से आस-पास के ज़िलों में भी कहे जाते थे. चौधरी को तो लगा कि जैसे इतने बड़े ख़ानदान से रिश्ता जोड़कर अंधे के हाथ बटेर लगने वाला हो और ऊपरवाले ने जयपाल का माकूल ज़वाब देने के लिए उन्हें एक सुनहरा मौका दिया है. इस ग़ुमान में उनकी छाती चौड़ी होती जा रही थी कि बड़े घर से रिश्ता करके उन्हें जो मान-सम्मान मिलेगा, वह जयपाल को क्या कभी मिल पाएगा. इसलिए, उन्होंने कोई ख़ास सोच-विचार किए बिना ही शादी-विवाह के सारे रस्मो-रिवाज़ पूरे किए और गाजे-बाजे के साथ बड़ी धूमधाम से अपनी बेटी को सहरावत जाट परिवार की बहू बना दिया. हालांकि उन्हें बाद में पता चला कि उनके दामाद के दाएं घुटने के नीचे का हिस्सा किसी मारपीट में क्षतिग्रस्त हो चुका है जिसमें कृत्रिम पैर लगा हुआ है. बहरहाल, उनका मन तो इसी बात से कुलाँचे भर रहा था कि उनके समधी उनसे मिलने इम्पोर्टिड गाड़ियों में आते हैं और हर बार उनकी बेशकीमती विदेशी गाड़ियों का मॉडल अलग-अलग होता है. अब चौधरी रणविजय जयपाल की कोठी के सामने से अपने पोते के साथ गुजरते तो न तो वह सिर उठाकर उसके अल्शेसियन कुत्ते को देखते, न ही उसे पुकारकर उससे दो बातें करने की ज़हमत उठाते. उल्टे, वह पिच्च से थूकते हुए आगे बढ़ जाते. जयपाल गुज्जर फन पर बार-बार वार किए जा रहे साँप की तरह फुफकार कर रह जाता.

लिहाज़ा, कॉलोनी के धीरे-धीरे बढ़ते रहने के साथ-साथ घटनाएं अलग-अलग ढंग से घटित हो रही थीं. इसी बीच जयपाल के एक रिश्तेदार जो एम-एल-ए थे और गुज्जर समुदाय के जाने-माने नेता थे, ने उनके यहाँ एक रात मेहमान बनकर उन्हें कॉलोनी में रातो-रात ख़ास चर्चा का विषय बना दिया. उन्होंने जयपाल को राय दी कि अभी जिस नगर निगम का चुनाव होने जा रहा है, उसमें वह कॉउंसिलर के लिए खड़े हो जाएं.

अगले दिन जब एमएलए अपनी गाड़ी से जयपाल की कोठी से रुख्सत हुआ तो उसकी तो कॉलोनी में छबि ही निखर गई. पूरी कॉलोनी में जयपाल की रिश्तेदारी किसी एम-एल-ए से होने की ख़बर जंगल की आग की तरह फैल गई. फिर उसके बाद पार्षद के प्रत्याशी के रूप में उनके खड़े होने के अफ़वाह से चौधरी के भी कान खड़े हो गए. उन्हें पल में लगा कि जैसे वह किसी वट वृक्ष के नीचे पनपने वाला एक बौना-सा पौधा हैं. बहरहाल, वह भी जयपाल से कैसे पीछे रहते? उन्होंने सारे तिकड़म आज़माते हुए नगर निगम के चुनाव में टिकट हथियाने के लिए एड़ी-चोटी की कोशिश की; पर, उन्हें असफलता ही हाथ लगी जबकि जयपाल को अपने एम-एल-ए रिश्तेदार की मदद से न केवल चुनाव लड़ने का टिकट मिला, बल्कि उन्होंने अपने क्षेत्र के विरोधी प्रत्याशी को भारी शिकस्त भी दी.

अब तो कॉलोनी में जयपाल की तूती बोल रही थी. जन-प्रतिनिधि होने के कारण वह कॉलोनीवासियों का खैर-ख्वाह बनते जा रहे थे. उन्होंने विकास-कार्यों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया. अपनी रोब में निखार लाने के लिए सारे हिक़मत भी अपनाए. यानी, कॉलोनी के द्वार पर अपने नाम का बड़ा-सा साइन-बोर्ड लगवाया. अपनी फरारी गाड़ी के ऊपर लाल बत्ती फिट कराई, गाड़ी के आगे के नंबर-प्लेट के ऊपर नेम-प्लेट लगवाया जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में अंग्रेज़ी में 'पार्षद जयपाल गुज्जर' लिखवाया. फिर, लाखों रुपए खर्च करके भव्य भगवती जागरण करवाया और कोई दस हजार श्रद्धालुओं को दावत दी. अर्थात, जनप्रिय बनने के जिन नुस्खों पर अमल किया, उनसे उनके व्यक्तित्व का रंग और निखर गया.

इस बीच, यदि उनके बेटे बीरपाल ने उन्हें याद न दिलाया होता तो वह लगभग भूल ही गए थे कि वह पिछले साल कुत्ते के मुद्दे पर चौधरी के सामने किस कदर हीन-भावना के शिकार हुए थे. सो, उन्होंने पहले अपने अल्सेशियन कुत्ते को घर से बाहर खदेड़ा और फिर कोई ज़्यादा ज़द्दोज़हद किए बिना ही अपनी कोठी की छत पर एक बुलडॉग तैनात कर दिया जिसकी सुबह-शाम कॉलोनी में तफ़री कराने के लिए मोटी तनख्वाह पर एक प्रशिक्षित नौकर रख लिया और उसे यह निर्देश दिया कि वह ख़ास युनीफार्म में ही बुलडॉग को घुमाने-फिराने बाहर निकला करेगा.

जयपाल के इस आचरण का माकूल जवाब देने की कुव्वत चौधरी में नहीं थी. अपनी पोज़ीशन को देखते हुए भी वह ख़ामोश रहा--कहाँ राजनेता बनने की दमखम रखने वाला जयपाल और कहाँ वह अदना सा चौधरी, जिसके ढोल में पोल ही पोल है. इसके अलावा, कॉलोनी में कई कोठीवालों ने भी बेशकीमती देशी-विदेशी कुत्ते पाल रखे थे जिस कारण कुत्ते पालने के मुद्दे का साधारणीकरण हो गया था. ज़्यादातर हर चौधरी की कोठी के द्वार पर एक से बढ़कर एक कुत्ते तैनात थे.

स्वतंत्रता-दिवस पर पार्षद जयपाल के हाथों तिरंगा फ़हराए जाने का आयोजन चल रहा था और बड़ी संख्या में लोग-बाग पार्क में इकट्ठे हुए थे. इस अवसर पर जयपाल विशेष उत्साहित थे. यह उनके जीवन का पहला मौका था जबकि वह 15 अगस्त के दिन आसमान में तिरंगा फ़हराने जा रहे थे. उन्होंने कुछ स्थानीय अख़बारों के पत्रकारों, कैमरामैंनों और मीडिया के लोगों को भी आमंत्रित कर रखा था--ताकि उनकी गतिविधि को अच्छा प्रचार-प्रसार मिल सके. कुछ तिकड़म भिड़ाकर वह राष्ट्रीय अख़बारों में भी इस ख़बर को सूर्खियों में छपवाने जा रहे थे. बहरहाल, वहाँ के आयोजन में शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए ढेरों उपाय किए गए थे. ग़ौरतलब बात यह थी कि ख़ुद पार्षद साहब ने अपने बुलडॉग को मंच के पास ही खड़ा कर रखा था ताकि कॉलोनी के दूसरे आवारा कुत्ते मंच के पास आकर कोई गड़बड़ी पैदा करने का दुस्साहस न कर सकें. वास्तव में, कोठीवालों के शौक के कारण कॉलोनी में कुत्तों की संख्या इतनी अधिक हो गई थी कि जब कभी कोई सार्वजनिक ज़श्न होता, वे कुत्ते वहाँ आतंक का माहौल बनाने के लिए इकट्ठे हो जाते.

लिहाज़ा, पार्षद साहब मंच पर चढ़कर तिरंगे को फ़हराने के लिए डोर खींचने का यत्न कर ही रहे थे कि तभी वहाँ मौज़ूद भीड़ में बड़ी अफ़रातफ़री-सी मच गई. कहीं से चौधरी का डैनिश डॉग सारी बाधाएं लांघकर ठीक मंच के करीब तैनात बुलडॉग के पास आ-धमका. पार्षद साहब को तो कुछ भी समझ में नहीं आया. तभी भीड़ में से किसी की आवाज़ सुनाई दी, 'अरे, पार्षद सा'ब का बुलडॉग, कुत्ता न होकर कुतिया है और चौधरी रणविजय का कुत्ता उसी की फिराक़ में आया है. पार्षद जयपाल ने अपने बुलडॉग को ध्यान से देखा; पर, वह तो चौधरी के डैनिश डॉग के साथ राजी होकर बाहर निकल भागा था.

पार्षद साहब का मंच पर बिल्कुल जी नहीं लग रहा था क्योंकि चौधरी के डैनिश डॉग ने उनकी पगड़ी जो उछाली थी. आखिर, उनका बुलडॉग, कुतिया कैसे निकल गया. उन्होंने तो कुत्ता समझकर उसे दस लाख में खरीदा था. उन्होंने किसी तरह से उस कार्यक्रम को अंज़ाम तक पहुँचाया. कोठी में कदम रखने के बाद वह एकदम आपे में नहीं थे. वह राइफ़ल कंधे पर लटकाए बीरपाल से कभी अपने बुलडॉग के बारे में पूछते जो उस डैनिश डॉग के साथ फ़रार थी तो कभी चौधरी रणविजय के बारे में जिसकी कोठी पर ताला लटका हुआ था.

वह दोनों का वारा-न्यारा करने को उतालवे हो रहे थे. पर, आज तक न तो उनका बुलडॉग वापस लौटा है, न ही चौधरी की कोठी पर लगा ताला हटा है. कॉलोनीवाले कहते हैं कि गुज्जर और जाट के बीच का झगड़ा ऐसे आसानी से निपटने वाला नहीं है. यह झगड़ा पुश्तैनी खिंचेगा. बेशक, दोनों के आने पर कॉलोनी में कोई बड़ा हंगामा ज़रूर खड़ा होगा. कॉलोनीवाले दोनों के कॉलोनी से ग़ुम रहने के लिए ईश्वर से लगातार प्रार्थना करते आ रहे हैं क्योंकि उनके कॉलोनी में आते ही कॉलोनीवासियों का चैन-सुकून ख़त्म हो जाएगा.

वाराणसी के डॉ. मनोज मोक्षेंद्र (वास्तविक नाम जो वर्ष 2014 के पूर्व अभिलेखों में है : डॉ. मनोज श्रीवास्तव) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से अंग्रेज़ी साहित्य में पीएच.डी. हैं. लिखी गईं पुस्तकों में कई काव्य व व्यंग्य संग्रह और कहानी संकलन हैं. पगडंडियां 2000, अक्ल का फलसफा, 2004, चाहता हूँ पागल भीड़, 2010, धर्मचक्र राजचक्र, 2008, पगली का इन्कलाब, 2009, इत्यादि. इनकी कहानियाँ कई कहानी संकलनों में सम्मिलित हैं.

सम्मान--'भगवतप्रसाद कथा सम्मान--2002'; 'रंग-अभियान रजत जयंती सम्मान--2012'; ब्लिट्ज़ द्वारा कई बार 'बेस्ट पोएट आफ़ दि वीक' घोषित; 'गगन स्वर' संस्था द्वारा 'ऋतुराज सम्मान-2014' राजभाषा संस्थान सम्मान; कर्नाटक हिंदी संस्था, बेलगाम-कर्णाटक द्वारा 'साहित्य-भूषण सम्मान'; भारतीय वांग्मय पीठ, कोलकाता द्वारा साहित्यशिरोमणि सारस्वत सम्मान (मानद उपाधि) ये कई पत्रिकओं के सम्पादन में कार्यशील हैं या रह चुके हैं. ई-मेल पता:drmanojs5@gmail.com;wewitnesshindimag@gmail.com

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