रातों के साथ जाने कितने राज़ जुड़े होते हैं. इसी लिये रातों के किस्से हमेशा दिलचस्प हुआ करते हैं. लेकिन रातों के अक्सर किस्से रातों की तरह स्याह हुआ करते है. रात की तारीक़ी मे अक्सर , एक दूसरी ही जमात रिज़्क़ की तलाश मे निकलती है. यह जमात भी दिन मे कारोबार करने वाली जमातों से मिलती जुलती , लेकिन कई बार बिल्कुल अलग होती है. इनके कारोबार भी कभी दिन के कारोबार जैसे लेकिन कई बार बिल्कुल अलग होते हैं. वे कभी टैक्सी चलाने वाले कभी रिक्शा चलाने वाले तो कभी बिल्कुल मुख्तलिफ़ काम धन्धों से जुड़े होते हैं.
तो यह किस्सा इन्हीं लोगों से जुड़ा हुआ है , आप चाहें तो इन्हें निशाचर कह लीजिये… लेकिन ध्यान रहे निशाचर शब्द के लिये अरबी भाषा मे शब्द है- जिन्न. आप तो जानते ही हैं कि अरबी से उर्दू और हिन्दी मे आकर यह शब्द ‘जिन्न’ अपने आप मे कितना रहस्यमय हो गया है.
तो बात उन दिनो की है , जब शहर मे इतनी आबादी न थी. रातें इतनी रौशन और सड़कें इतनी जगमग न थीं. हमारा धन्धा , श्याम टाकीज़ इलाके से रात बारह बजे दूसरा शो छूटने के बाद चालू होता फ़िर रेल्वे स्टेशन होते हुये शहर के दूसरे इलाकों से होता हुआ सुबह , तीन-साढ़े तीन बजे तक पूरा हो जाता. इस लिहाज़ से आप हमे भी निशाचर कह सकते हैं. या फ़िर जिन्न. जैसी आपकी मर्ज़ी.
उन दिनो सड़कों पर साईकलों का ही राज था. स्कूटर या मोटरसाईकल तो गिनती की हुआ करती. और कार तो बस डॉक्टरों , उद्योगपतियों या सरकारी महकमो मे ही नज़र आती थी.
फ़िल्म का आखरी शो छूटते ही एक जन सैलाब उमड़कर साईकल स्टैंड मे समा जाता और फ़िर साईकल स्टैंड के गेट पर एक जाम लग जाता. रिक्शा वाले और ऑटो-रिक्शा वाले अपनी अपनी आखरी कमाई के इन्तेज़ार मे पहुंच जाते और हम लोग अपनी बोहनी के लिये अपने पहले शिकार के इन्तेज़ार मे पहुंच जाते. हमारा एक अलिखित नियम था कि हम कभी भी रिक्शा या औटो-रिक्शा को अपना शिकार नहीं बनाते ; क्योंकि वे हमारी ज़रूरत थे. रात मे जब एक जगह से काम पूरा होने के बाद काम के दूसरे ठिकाने पर पहुंचना होता तो इन सवारियों की ज़रूरत होती. वैसे तो वे भी हम लोगों के मामले मे कोई दखल नहीं दिया करते ; एक किस्म से यह हमारे बीच का अलिखित समझौता जैसा ही था.
श्याम टाकीज़ से कुछ आगे , सड़क की दूसरी ओर दरख्तों के साये मे एक ऑटो स्टैंड होता था. यहां पर वैसे तो दिन मे सभी टाईम ऑटो-रिक्शा खड़े रहते लेकिन रात के समय यह ज़्यादहतर खाली ही होता. बस , रात के इस समय रेल्वे स्टेशन के ऑटो वाले श्याम टाकीज़ से निकलने वाली सवारी उठाने के लिये यहां आ जुटते ; और भीड़ के साथ ही अपना-अपना रस्ता पकड़ लेते. हां , कुछ ऑटो वाले ऐसे भी थे जो दिन की पारी मे काम करते लेकिन कुछ ज़्यादा कमाई के लिये रुके होते. वे भी आखरी शो के बाद , उस दिन की अपनी आखरी सवारी उठाने के बाद यहां से रवाना हो जाते.
इन ऑटो वालों मे एक थे विट्ठल भाऊ. विट्ठल भाऊ का पूरा नाम विट्ठल राव सराफ़ था. लेकिन लोग सम्मानवश , चूंकि वे महाराष्ट्र से थे , उन्हे विट्ठल भाऊ या भाऊ जी कहकर बुलाते. विट्ठल भाऊ का सभी ऑटो वाले सम्मान करते थे. वे इस शहर मे आजकल मौजूद ऑटो-रिक्शा चालकों मे सम्भवत: सबसे पुराने थे. वे बरसों से रात की पाली मे ऑटो चला रहे थे. उनकी एक बात अजीब थी. वे भी रात बारह बजे रेल्वे स्टेशन से श्याम टाकीज़ आ जाते लेकिन वे यहां से सवारी नही उठाते. और जहां रात बारह से साढ़े बारह के बीच इस ऑटो स्टैंड के सारे ऑटो रेल्वे स्टेशन या दूसरे ठिकानो के लिये चले जाते , विट्ठल भाऊ का ऑटो यहीं खड़ा रहता. रात के एक बजे तक और कभी कभी तो देढ़ बजे तक. वे रात के ठीक बारह बजे तक यानि श्याम टाकीज़ का आखरी शो छूटने से पहले अपनी खास जगह पर ऑटो लगा देते ; लेकिन वे इस दर्मियान मे कभी सवारी नहीं उठाते. चाहे कोई सवारी खुद से चलकर आये तब भी नहीं. इस दर्मियान वे चुप चाप अपने ऑटो मे गहरी नींद सोते रहते फ़िर उठ कर चुप चाप रेल्वे स्टेशन की तरफ़ नागपुर पैसेंजर की सवारी उठाने चल देते.
यह सिलसिला बरसों से चला आरहा है. उनके साथी बताते हैं वे किसी के इन्तेज़ार मे होते हैं. इतना लम्बा इन्तेज़ार ? किसका ? एक जिन्न का. इस बारे मे कोई ज़्यादह नही जानता लेकिन लोग एक किस्सा बताते हैं.
कई साल पहले एक बार जब रेल्वे स्टेशन से एक भी सवारी नही मिलने पर विट्ठल भाऊ , श्याम टाकीज़ से आखरी शो की सवारी उठाने यहा आये. लेकिन उस दिन वहां भी उन्हे कोई सवारी नही मिली. निराश और हताश विट्ठल भाऊ इसी जगह ऑटो लगाकर सोगये. वे गहरी नींद मे थे जब किसी ने आकर उन्हे जगाया. रात के करीब साढ़े बारह बज रहे थे. उनके होश उड़ गये जब भाऊ जी ने सामने देखा. उनके सामने सफ़ेद पठानी सूट मे एक लहीम शहीम नौजवान खड़ा था. सर के ऊपर सफ़ेद साफ़ा और चेहरे पर लम्बी घनी काली दाढ़ी. उसकी दाढ़ी उसकी उम्र के हिसाब से काफ़ी लम्बी और घनी थी. वह हाथ मे एक बैग पकड़े हुये था.
“बिरादर ! रेल्वे स्टेशन तक लेजायेगा ?”
उसकी भारी भरकाम आवाज़ की गूंज ने विट्ठल भाऊ की बची खुची चेतना भी वापस लौटा दी. वह गुज़ारिश के अंदाज़ मे बात कर रहा था , लेकिन उसकी गुज़ारिश ठुकराने की हिम्मत किसमे थी. विट्ठल भाऊ ने तुरंत अपनी ड्राईवर सीट सम्हाल ली.
“बस बिरादर रोक दो.“ उसने रेल्वे स्टेशन से कुछ पहले ही एक अंधेरी जगह पर ऑटो रुकवा दिया. वह नीचे उतरा और ज़मीन से एक मुट्ठी धूल-मिट्टी उठा कर विट्ठल भाऊ को थमा दिया और देखते ही देखते अंधेरे मे चलता हुआ गायब होगया. विट्ठल भाऊ ने बुरी तरह झुंझलाते हुये मिट्टी फ़ेंक दी और रेल्वे स्टेशन के ऑटो स्टैंड मे ऑटो लगाकर सो गये. उस रात उन्हे और कोई सवारी नही मिली. सुबह को जब विट्ठल भाऊ घर पहुंचे , वे बुरी तरह झुंझलाये हुये थे. ज़िंदगी मे पहली बार ऐसा हुआ था कि रात उनकी बोहनी भी नहीं हुई थी.
रोज़ की तरह विट्ठल भाऊ ने चाय नाश्ता किया और सो गये. लेकिन वह चैन से सो भी नहीं पा रहे थे. सारी दोपहर वह खुमारी और बेचनी के बीच झूलते रहे. न सो पाये और न जाग ही पाये.
शाम को उठकर जब वे अपने ऑटो की सफ़ाई कर रहे थे , उनकी नज़र एक पीली चमक पर जा ठहरी. वह एक छोटा सा कंकर था जो ड्राईवर सीट के नीचे बिल्कुल पैर रखने की जगह पर पड़ा था. विट्ठल भाऊ ने उसे उठाकर देखा. वह सोना लग रहा था. यह कहां से आया ? सोना हो या पीतल यह इस जगह पर आया कहां से. अभी तो कोई सवारी भी नहीं चढ़ी है. तभी रात वाली सवारी उन्हे याद आगई. वह सारा मंज़र उनकी आंखों मे घूम गया. सम्भवत: रात को जो मिट्टी कंकर उन्होने फ़ेंक दिया उसमे से एक आध गिर गया हो. लेकिन सोने का कंकर … ? यह कैसे सम्भव था ? क्या वह इंसान नही था. रात को जिन्न निकला करते हैं ; तो क्या वह जिन्न था. क्या मुझे किराये के रूप मे एक मुट्ठी जो कंकर और मिट्टी दिया वह सोने मे बदलजाने वाली थी.
उन्होने अपनी पत्नी सुषमा ताई को बुलाकर पूछा कि कोई आया था या दिन मे कोई ऑटो को ले गया था क्या ? सुषमा ताई ने बताया कि ऑटो के पास कोई नही फ़टका “अहोSS ! बात काय आहे ?” उसने पूछा तो विट्ठल भाऊ ने उसे वह कंकर दिखाया. देखते ही वह उछल पड़ी “अहो ! थे तो सुन्ना अहे , शम्बर टका खरा (यह तो सोना है , सौ प्रतिशत शुद्ध ) ! “ वह बोली.
अब विट्ठल भाऊ ने पत्नि को रात की पूरी बात बताई और दोनो जान पहचान के एक सुनार के पास गये. वह सचमुच खालिस सोना था. पौने दो ग्राम. यानि वह छोटा सा कंकर ठोस सोने का था.
“ज़रूर वह कोई जिन्न था. आपको एक मुट्ठी सोना दिया था. आपने फ़ेंक दिया …” सुषमा ताई ने पछताते हुये कहा.
“मला काय माईत सुषमा ? मुझे क्या पता था वह जिन्न होगा.“ विट्ठल भाऊ ने जवाब दिया. दोनो उस जगह भी गये जहां विट्ठल भाऊ ने मिट्टी फ़ेंक दी थी , लेकिन वहा अब क्या मिलने वाला था. वे दोनो पछताते रहे…
“अहोSS सुनो ! आज वहां फ़िर से जाना. वह फ़िर आयेगा ज़रूर … कभी न कभी …”
और इस तरह शुरू हुआ वह कभी न खत्म होने वाला इन्तेज़ार.
एक बार धंधा बड़ा ठंडा चल रहा था. मौसम ही ऐसा था. तेज़ बारिश , आंधी , ऐसे मे कोई क्यों बाहर निकले ; और वह भी आधी रात को. और कोई बाहर ही न निकले तो हमारी कमाई कैसे हो. हम लोग क्या खायें ? उन दिनो हम सब इस सवाल से जूझ रहे थे. हिस्सेदार अपने हिस्से के लिये अलग परेशान किये जा रहे थे. ऊपर हिस्सा पहुंचाये बिना तो धंधा करना भी मुश्किल था.
उस रात श्याम टाकिज़ एरिया मे एक भी शिकार हाथ नहीं आया था. सोंचा चलो रेलवे स्टेशन पर चलें , शायद कुछ हो जाये. ट्रेन आती होगी. लेकिन जाने के लिये कोई सवारी नहीं थी. मजबूर होकर विट्ठल भाऊ के पास गया. मै जानता था , वे नही जाने वाले. लेकिन मेरे पास और कोई चारा न था. मैने उनसे बड़ी विनती और चिरौरी की , लेकिन वे टस से मस न हुये. वैसे भी किसी से उसका बरसों का रूटीन तुड़वाना आसान तो नहीं होता. उस दिन मुझे उन पर बड़ा गुस्सा आया था लेकिन और साथियों के समझाने पर बात आई गई हो गई. हां ! अब विट्ठल भाऊ की यह परंपरा तोड़ने का एक जुनून सा दिल दिमाग पर सवार हो गया था.
एक दिन एक मज़ाक सूझा. उस रात , अपने चेहरे पर लम्बी काली नकली दाढ़ी लगाई. सफ़ेद लिबास और सिर पर एक पगड़ी पहनकर चला गया विट्ठल भाऊ के पास. उन्हे जगाया “खोचे ! रेल्वे स्टेशन जाना है.“
मेरी कद-काठी भी कम न थी , देखकर विट्ठल भाऊ की आंखें फ़टी की फ़टी रह गईं. सहसा उन्हे जैसे विश्वास नहीं हुआ. लेकिन अगले ही पल वह तेज़ी से उठे , ऑटो स्टार्ट किया और मुझे लेकर तेज़ी से रेल्वे स्टेशन की ओर चल पड़े. मैने भी उनकी उम्मीद कायम रखते हुये , रेल्वे स्टेशन से थोड़ा पहले ही ऑटो रुकवाया. नीचे उतर कर एक मुट्ठी मिट्टी उठाई और उनकी तरफ़ बढ़ा दिया. विट्ठल भाऊ ने झट जेब से एक रुमाल निकाला और अपने दोनो हाथों पर फ़ैलाकर वह मिट्टी उसमे ले ली. फ़िर उसे बड़ी श्रद्धा से आंख और माथे से लगाने के बाद उसकी पोटली बांधकर अपने सामने डैश बोर्ड पर रख लिया. इस बीच मै सड़क के उस पार पेड़ और झाड़ियों के एक झुरमुट के पीछे जा छुपा.
विट्ठल भाऊ के जाने के बाद मैने अपना हुलिया बदला और अपने धंधे पर लग गया.
सुबह के साढ़े-तीन बजे हम सब कमाई का हिसाब देने के लिये अपने अड्डे पर इकट्ठा हुये , मै साथियों से विट्ठल भाऊ को बेवकूफ़ बनाने का कारनामा बयान करने के लिये उतावला हो रहा था. लेकिन अभी सब उस्ताद को अपना अपना हिसाब-किताब देने मे व्यस्त थे. ‘उस्ताद’ दरअसल इस धंधे मे हम सब के उस्ताद थे. उस्ताद ने ही हम सब को धन्धा सिखाया , धंधे के उसूल सिखाये और अब वह हम सब का हिसाब- किताब रखते और हमारे आपसी मामले निपटाते. और पुलिस को भी वही सम्हालते. दरअसल वह हम सब के सरदार थे.
हमारे टीम के दो नये रंगरूट अभी तक नहीं पहुंचे थे ; और सब को उनकी चिंता थी. वे अभी कच्चे ही थे , इसलिये सब को उनकी चिंता लगी रहती थी. अभी हिसाब किताब चल ही रहा था के वे दोनो पहुंच गये. दोनो आज बड़े जोश मे दिख रहे थे. उनके कपड़े खून से सने थे. उन्हे देखते ही उस्ताद चीख उठा –
“कहां थे दोनो. साले ! तुम्हे बोला था न खून खराबे से दूर रहने … क्या करके आरहे हो , स्सालो ! जल्दी बताओ नहीं तो ….“
“अरे उस्ताद ! आज बड़ा भारी माल लाये हैं. “ वे दोनो एक साथ चिल्ला पड़े “आप देखोगे तो खुश हो जाओगे.“
“अबे ऐसा क्या ले आये ? कोई सुनार उनार तो हाथ नहीं लग गया.“
“उस्ताद वो कोई सुनार उनार नहीं था. एक ऑटो वाला था लेकिन साला था बड़ा आसामी …”
सुनते ही उस्ताद की आखों मे खून उतर आया. उस्ताद ने तुरंत दनादन आठ-दस हाथ जड़ दिये. वे दोनो स्तब्ध थे. उस्ताद से शबासी की आस लिये दोनो , उस्ताद का गुस्सा देख दंग रह गये थे. उस्ताद लगातार चीखे जारहा था “अबे ! क्या किया ? धंधा बंद करवाओगे क्या ? अबे शुरू मे ही तुम लोग को समझाया था न … रिक्शा वाले , ऑटो वाले , पुलिस वाले और खून खराबे से दूर रहना …. बताया था कि नही ?”
“लेकिन उस्ताद. हम क्या करते ? आज कोई शिकार ही हाथ नही लगा था. क्या करते ? जिस ऑटो मे जारहे थे नहर के पास सुनसान इलाक़ा देख उसी को रोक लिया.“
“अरे लेकिन मारा क्यों ?”
“क्या करते उस्ताद उसने तो सारे पैसे बिना झंझट के दे दिये थे , लेकिन असली माल छोड़ ही नही रहा था. डराने के लिये लिये चाकू निकाला , मगर साला ढीठ निकला. चाकू देखकर भी माल छोड़ने को तैयार नहीं हुआ हम समझ गये साला उस पोटली मे ज़रूर कीमती से कीमती चीज़ है. इसी चक्कर मे चाकू चलाना पड़ा. चाकू पे चाकू खाता रहा लेकिन माल नहीं छोड़ा. मरते दम तक सीने से चिपकाये रहा. साला मरने के बाद भी माल नहीं छोड़ रहा था. मरने के बाद भी बड़ी मुश्किल से उसके हाथ से माल छुड़ाकर जल्दी भागे भागे आये हैं.“
उस्ताद ने सिर पकड़ लिया.
“माल क्या है ?” एक साथी ने पूछा.
“हीरे- मोती से कम क्या होगा ? खोल कर देखने का मौका ही नहीं मिला. लेकर आये हैं.“ उल लोगों ने झोले से खून से सनी लाल रंग की एक छोटी सी पोटली निकाल कर उस्ताद के सामने रख दी. उस्ताद ने पोटली खोली. मेरा दिल ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा.
पोटली मे खून से सनी एक मुट्ठी मिट्टी थी.
नाम - मिर्ज़ा हफ़ीज़ बेग
जन्म एवं निवास - भिलाई (छत्तीसगढ़),
सम्प्रति - भिलाई इस्पात संयत्र (भारतीय इस्पात प्रधिकरण लि का उपक्रम) मे कार्यरत,
"साहित्यकुन्ज", "साहित्यसुधा", "अनहदकृति", "लघुकथा डॉट कॉम" आदि मे कहानिया लेखन
सम्पर्क - mirzahafizbaig@gmail.com