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गोविंद उपाध्याय

केंचुल

चार महीने हो चुके थे. फोकट गुरू घर से गायब थे. पहले तो घर वालों ने यही समझा कि दो चार दिन में घूम-घामकर घर वापस लौट आयेंगे. लेकिन जब देखते-देखते चार महीने बीत गये तो घर वालों के माथे पर भी चिंता की रेखाएं दिखने लगी. वैसे भी घर में प्राणी ही कितने थे ..? छोटा बेटा तो गुजरात के एक टेक्सटाइल मिल में नौकरी करने लगा था. वह साल में केवल एक बार आता था. दस-पांच दिन रहता. साल भर का कमाया हुआ पैसा मां के हवाले करता, फिर एक साल के लिए उड़न छू. घर में बचते तीन प्राणी. बड़े बेटे मुकुंद पाडे़ … सांवला रंग , पांच फिट आठ इंच के दुबल-पतले से, थोड़ा आगे की तरफ झुक कर चलते. ऊपर के दो दांत होंठों से विद्रोह करके बाहर की हवा खा रहे थे. मुकंद पांडे की दो खास बात थी. एक तो वह पढ़ने लिखने में बहुत तेज़ दिमाग के थे और दूसरा नाक से आवाज निकालते थे. मुकुंद पाडे़ में एक और खास बात थी. वह अपनी मां के अनन्य भक्त थे. इतने आज्ञाकारी कि यदि मां कह दे तो अपनी गर्दन काट के उसके चरणों पर रख दें.

मां भी ऐसी कि बच्चों को इस लायक बनाने के लिए बहुत कष्ट झेला और न जाने कितने पापड़ बेले. जिसका मुंह नहीं देखना था, उसका न जाने क्या-क्या देखना पड़ा. मुकुंद पाडे़ यदि दीवानी के जाने-माने वकील हैं तो इसमें भी कहीं न कहीं मां का ही योगदान था.

मां का नाम सयामा (श्यामा) था. मुकुंद को उन्हीं का रंग मिला था. बगल के गांव की ही लड़की थी. तीखे नाक-नक्श और छरहरी काया वाली श्यामा की बड़ी-बड़ी आंखें और भारी स्तन किसी को भी मोह लेने की क्षमता रखते थे . लेकिन मोहन पाडे़ इतने निर्मोही थे कि उनको श्यामा कभी नहीं बांध पायी.

मोहन गोरे चिट्टे छ: फुटे इंसान थे. कभी हल्के-फुल्के रहे होंगे. अब तो चलते-फिरते पहाड़ बन गये थे. जखनी के काली माई के पास वाले नीम के पेड़ के नीचे उनकी चटाई दस बजे से बिछ जाती. गांव के जितने नशेड़ी और जुआड़ी थे, सबका ठीहा वहीं था. जो भी जीते-हारे मोहन पाड़े को खिलाता-पिलाता रहता . चिलमबाज भी चिलम तैयार करने के बाद पहला कश मोहन पाड़े से ही लगवाते. रमाधरवा तो चैलेंज के साथ कहता-“गुरुवा यदि कहि दिया-जीतोगे…. त कवनो माइके लाल में दम नहीं जो हरा दे. कउड़ी अपने आप ही इशारे पर नाचने लगती है. लेकिन गुरुवा के मुंह से ऐसा कभी कभार ही निकलता है.”

‘जखनी की काली माई ’ का कोई मंदिर नहीं था. पक्की सड़क के किनारे के एक गांव का नाम था जखनी. उस गांव से लगे सड़क के दोनों तरफ कुछ दुकानें थी. जिनमें ज्यादातर दुकानें चाय-पकौड़ी की थी. जो फूस और बांस से बनी हुई थी. सामने मिट्टी का चूल्हा और लकड़ी के पतले पटरों से तैयार बेंच. दो पक्की दुकान भी थी. एक खाद की और दूसरे में मेडिकल स्टोर था. सोमवार और शुक्रवार को यहां छोटा सा बाजार भी लग जाता. जिसमें साग-भाजी से लेकर मास-मछली तक ..सब मिलता. जखनी का यह स्थान अब और ज्यादा गुलज़ार हो गया था. क्योंकि वहां पर एक देशी शराब की दुकान खुल गयी थी. उसी ठेके से पूरब की तरफ दस कदम आगे प्रधानमंत्री योजना वाली कोलतार की सड़क गांव में प्रवेश करती थी. पहले कुछ दूर तक सड़क के दोनों किनारो पर दो एकड़ में फैला हुआ बांस का जंगल है. जिसे जखनी के लोग ‘बंसवारी’ कहते हैं. बंसवारी के अंतिम छोर पर एक नीम का पेड़ है. पास में ही पक्का चबूतरा.. उस चबूतरे पर ही मिट्टी की कुछ मूर्तियां रखी हैं. यह पूरी जमीन ग्राम समाज की है. साल में दो बार नवरात्रि के समय लोग पूजा-पाठ करते. बाकि समय यह नशेड़ियों और जुआड़ियों का अड्डा था.

मोहन पाड़े पूरे जीवन कभी खेती-बाड़ी में हाथ नहीं लगाये. जब तक बाप थे. वही सब देखते-भालते रहे. उनकी मृत्यु के बाद श्यामा ने संभाल लिया. मोहन पाड़े एक मैली सी धोती लपेटे बनियाइन को कंधे पर डाले…सुर्ती मलते हुए जखनी माई के ठीहे से घर और घर से ठीहे पर आते-जाते रहते. अगर वह घर में रहना चाहें भी तो श्यामा की ककर्श आवाज़ उन्हें उल्टे पांव ठीहे की तरफ वापस लौटने को विवश कर देती.

सच तो यह था कि श्यामा को मोहन पाड़े से अपार घृणा थी- “इस आदमी के कारण ही समाज में कोई मान-मर्यादा नहीं है. भरी जवानी में भी इ मरद खाली देह नोचने भर के लिए भतार था.”

यदि समाज का भय न होता तो मोहन पाड़े को छोड़ कर वह कबका विरछवा के साथ भाग गई होती. वह नाच में हरमोनियम बजाता था. उसने तो साफ-साफ कहा था –“ का भउजी ऐतना बड़ा दौलत सीने पर लादे फिर रही हो. कवने काम का …? चलो कलकत्ता चलते हैं. वहीं कमायेंगे और तुम्हरी बागी जवानी का लुफ्त उठायेंगे.”

बड़ी मुश्किल से श्यामा ने अपने को रोका था,“ उ कहां बाभन और विरछवा जाति का पनहेरी …. पाड़े बाबा त जाय भाड़ में, किंतु महतारी-बाप की जग हंसाई भी तो होगी ..।”

हां ! बिरछवा को जवानी का लुफ्त उठाने से नहीं रोक पायी. जैसे इसके पहले दस मरदों का नाम उनसे जुड़ा था. वैसे ही बिरछवा का नाम भी उनसे जुड़ गया. कहने वाले तो यहां तक कहते हैं बड़का का पूरा नाक-नक्श बिरछवा से मिलता है. लोगों की जुबान है. किसी को लांक्षित करने के लिए जीभ ही तो हिलाना है.

मोहन पाड़े जब जवानी में थे, तब तो श्यामा ने कोई इज्जत ही नहीं किया. अब तो उसके दो-दो बेटे कमा रहे थे। हालांकि मोहन पाड़े को भी अपने बेटों पर बड़ा गर्व था. यह बात दूसरी है कि उन्होंने कभी अपने बाप के हाथ पर एक दमड़ी नहीं रखी. वह पहले भी मुफ़्तखोर थे और आज भी लोगों के दिये हुए सामान उड़ा रहे थे. तभी तो किसी ने उनका नाम फोकट गुरू रख दिया था. अब तो लोग उन्हें फोकट गुरु ही कह कर बुलाते है.

फोकट गुरू का जाना जखनी माई के ठीहे वालों को ज़्यादा खल रहा था-“ कुछ भी हो गुरुवा बहुत पहुंचा हुआ था. उसके जबान पर भगवान बास करते थे. जो बोलता था वही होता था.”

श्यामा से भी लोग पूछने लगे थे. मुकुंद पांडे को तो लोग यहां तक कह दिए-“कैसे बेटे हो यार, बाप इतने दिन से लापता है और तुम कान में तेल डाले कोर्ट–कचहरी का मुकदमा लड़ने में ही मगन हो.”

मुकुंद पांडे भी कहां चुप रहने वाले थे-“ अरे भाई बाप मेरा है. मुझे जो करना है, कर रहा हूं. क्या इसके लिए ढिढोरा पीटूं. तुम्हारे पेट में काहें दर्द हो रहा है .”

वैसे भी एक बाप के रूप में मोहन पांडे ने किया ही क्या था ? वह कोई बच्चे तो थे नहीं. उन्हें अपनी मां-बाप का सारा इतिहास मालूम था. मां का बदचलनी की कहानी भी सुनी थी.कहीं न कहीं उन्हें मां मजबूर व दयनीय दिखायी देती. पिता का निकम्मापन ही इसके लिए जिम्मेदार था. पर पिता की तो कोई मजबूरी नहीं थी. यदि वह अपना घर-दुआर संभालते तो इज्जत-सम्मान सब बचा रहता. आज तैंतीस साल के हो गए , खूब पैसा भी कमा रहे हैं. लेकिन कोई भी ऐसा परिवार उनके विवाह का रिश्ता लेकर नहीं आया. जिस पर वह सिर उठा कर गर्व से गांव वालों के सामाने हां कर सके. यदि कोई भूले-भटके आ भी गया तो दुबारा उसने उनके गांव की तरफ ही मुंह नहीं किया. मुकुंद पाडे़ अपने परिवारिक पृष्ठभूमि को ही दोषी मानते हैं.

मुकुंद पाडे़ के वकील बनने की कहानी भी बहुत रोचक है. घर की आर्थिक स्थिति शुरू से ही दयनीय थी. फिर भी मुकुंद ने काफ़ी अच्छे नंबरों से दसवीं की परीक्षा पास की थी. आगे पढ़ाने के लिए श्यामा के पास पैसे नहीं थे और मुकुंद पढ़ना चाहते थे. ऐसे में बीच का रास्ता निकाला गया.

रनजीत शाह फ़ौजदारी के बहुत नामी वकील थे और वह श्यामा के मायके के मूल निवासी थे. रनजीत शाह भी किसी ज़माने में श्यामा के दीवाने रह चुके थे. श्यामा ने जाकर अपना दुखड़ा रोया-“ साह जी, आप से मेरा कुछ भी तो छिपा नहीं है. मेरा बड़का बहुत होशियार है. यदि आप शरण में ले लें तो हमारी नइया भी किसी किनारे लग जायेगी. मरद के राज में तो कवनो सुख नहीं देखा. लरिका किसी लायक बन गया तो कम से कम बुढ़ापा तो सकून से कट जायेगा।” उसके बाद श्यामा की आंखों से बेबसी के जो आंसू बहे उसमें रनजीत शाह ऐसे डूबे कि मुकुंद पाड़े को अपनी छत्रछाया में ही ले लिया. वह उनके आफ़िस में जाने लगे और आगे की पढ़ाई भी जारी रखी. रनजीत शाह ने आख़िरकार उन्हें फ़ौजदारी का वकील बना ही दिया. अपनी देख-रेख में उन्हें कई मुकदमे में डिग्री दिलायी. अब उनके पास नाम और दाम दोनो थे.

श्यामा के मन में पति के लिए ऐसे भी कोई सम्मान नहीं था. जब मुकुंद पाडे़ कमाने लगे तो एक सिरे से उनके वज़ूद को ही नकार दिया. छोटा बेटा पिता को चाहता तो था , किंतु वह घर पर रहता ही कितना था. मुकुंद पाडे़ ने बहुत शानदार मकान बनाया था. शहर के किसी बड़े इंजीनियर ने उनके मकान का नक्शा डिजाइन किया था. आस-पास के किसी गांव में ऐसा मकान किसी का नहीं था. लोग मुकुंद पांडे के इस मकान की भले तारीफ़ करे , पर पीठ पीछे हंसते थे-“वकील साहब चाहें अपने आप को कितना भी समझदार समझे हों. लेकिन मकान बनवाने के मामले में बेवकूफी कर गये. अरे ऐसा मकान शहर में शोभा देता है. गांव में तो चारो तरफ से बंद मकान ही ठीक है. लेकिन पैसा कमा रहे हैं तो इसका प्रदर्शनी भी तो होनी चाहिए.”

लोगों का सोचना सच भी हो सकता था. पर मुकुंद पांडे ऐसी बातों को गंभीरता से नहीं लेते थे. उनका सोचना दूसरा था - उन्होंने दयनीयता का बहुत क्रूर रूप देखा था. इसी गांव में मां दो-दो रुपये के लिए आंचल फैला कर गिड़गिड़ाती थी. बिरछवा जैसे लोगों के साथ उसकी मां का नाम लोगों ने जोड़ कर मज़ाक उड़ाया. अब जब सब ठीक हो गया तो इतना शानदार मकान तो खटकेगा ही. पहले वाला ज़माना तो अब रहा नहीं. सामने तो सब दांत ही निपोरते हैं. पीछे ही जो बोलना है बोलते हैं.

मुकुंद पाडे़ को बस एक बात खलती थी. शादी की उम्र धीरे-धीरे निकलती जा रही थी. रिश्ते तो आते थे. पर वो रिश्ते उन्हें पसंद नहीं थे. उनकी दो ही ख़्वाहिश थी. लड़की सुंदर होनी चाहिए और उसका खानदान रुतबे वाला हो. यह उनका दुर्भाग्य था. आज तक रिश्ते के लिए ऐसा कोई परिवार उनसे नहीं टकराया.

इसके लिए वह अपने पिता को ही जिम्मेदार मानते थे. कई बार समझाने की कोशिश भी की-“ बाबूजी अब आप गंजेड़ी-नशेड़ी का साथ छोड़ दीजिए. चुपचाप घर मैं बैठकर भगवत भजन करिए और सकून की दो रोटी खुद खाइए और हमें भी खाने दीजिए.”

अब ज़िंदगी भर की आदत इतनी आसानी से तो छूटनी नहीं थी. एक-दो दिन बेटे की बात का असर होता …फिर वही जखनी माई का ठीहा. यदि मोहन पाड़े घर पर रहना भी चाहे तो श्यामा के संवाद से घबड़ा कर घर छोड़ देते. श्यामा नहीं चाहती थी कि पति घर पर रहे. पूरे मकान में शान से विचरती और दिन भर काजू-बादाम टूंगती रहती थी. कभी-कभी तो मुकुंद पाडे़ क्रोध में दांत पीसते हुए अपने पिता को मां-बहन की गाली तक दे डालते. पिता के चेहरे का भाव तब भी नहीं बदलता. वह ऐसी गालियां तो होश संभालने के बाद से ही सुनते आ रहे थे. क्या श्यामा कम गालियां देती है ..? लेकिन उस दिन तो सारी सीमा ही पार हो गयी थी. मर्यादा की ऐसी धज्जियां उड़ी कि मोहन पाड़े जैसा मोटी चमड़ी वाला आदमी भी चीत्कार उठा. और….

फरवरी का अंतिम सप्ताह था. जाड़े ने अपना पांव सिकोड़ना शुरू कर दिये थे. रजाई अब बोझ लगने लगी थी. सुबह लोगों ने अलाव के पास बैठना छोड़ दिया था. मुकुंद पाडे़ आज-कल बहुत अनमने रहते. पूरा जाड़ा बीत गया उनके लिए कोई रिश्ता नहीं आया. बाहर कुर्सी पर गांव के ही दो-तीन लोग बैठे देश-परदेश की चर्चा करके समय पास कर रहे थे. उन्हे मालूम था थोड़ी देर में गर्मा-गरम चाय आयेगी. मुकंद पाड़े एक कुर्सी पर बैठे उनकी बात सुनने का दिखावा कर रहे थे. जबकि उनका ध्यान पिता की तरफ़ था. वह एक बड़ा सा गन्ना लिए थोड़ी दूर बैठे चूसने में व्यस्त थे. उनकी धोती घुटने के पास से फटी थी. धोती बहुत गंदी थी. इस गुलाबी जाड़े में भी वह बनियान कंधे पर लटकाये हुए थे. जो नहीं जानता , वह उन्हें भिखारी से ज़्यादा कुछ नहीं समझता.

बाप के लिए उनके अंदर घृणा की एक लहर सी उठी-“ साला यह आदमी उनकी इज्जत का जनाजा उठाने की कसम खा चुका है. कौन आयेगा ऐसे परिवार में अपनी बेटी देने. इच्छा तो कर रही है कि इसी गन्ने से मार-मार कर इस साले की चमड़ी उधेड़ दूं. लेकिन क्या करूं ? बाप है ..खून का घूंट पीकर रह जाना पड़ता है.”

पिता के लिए मन में आया यह विचार शाम होते-हवाते कार्य रूप में परिणित हो गया.

एक तांबे का लोटा पूजा घर में पड़ा रहता था. लोटा मिल नहीं रहा था. श्यामा बड़बड़ा रही थी-“ काल्ह तक तो यहीं रखा हुआ था. फिर का उसको पंख लग गया ?”

मोहन पाड़े से पूछा गया तो वह भी झुंझला कर बोले,”हमें का मालूम…. हम का तुम्हारे लोटे का ठेका लेकर थोड़े ही बैठे हैं.“

सुबह से ही ठीहे पर जाने के लिए बेचैन मोहन पाड़े वैसे ही तपे बैठे थे. आज महतारी-बेटे दोनों ही घर में कुंडली मारे बैठे थे. एक मिनट के लिए भी घर छोड़ना मुश्किल हो गया था. अब ऐसे में कोई बिना मतलब का सवाल पूछेगा तो झुंझलाना स्वाभाविक था.

बस फिर क्या था, श्यामा ने कोसना शुरू कर दिया-“जरूर यही हरमिया कहीं फेंक आया है. नहीं तो ऐसे तुनक के न बोलता. इससे मेरा पूजा-पाठ थोड़े ही देखा जाता है.”

मोहन पाड़े वैसे तो चुप ही रहते है. लेकिन उस दिन उनसे नहीं रह गया. तत्काल जवाब दिया-“ तो कवन सा गलत काम करता हूं. सारी जवानी छिनरपन किया…अब बड़का पुजारिन बनी है..।”

बात आगे न बढ़े इसलिए उठकर छत पर चले गये. उनका जवाब सुनकर कर श्यामा और सुलग गयी. वह भी गरियाते हुए उनके पीछे हो ली. मुकुंद पाड़े छत पर बैठे मां-बाप का संवाद सुन रहे थे. उनके क्रोध का पारा चढ़ने लगा था. शायद यह गुस्सा शांत हो जाता. लेकिन छत पर पिता को आते देख वह आपे से बाहर हो गए. पैर से चप्पल निकाला और बाप के ऊपर टूट पड़े. श्यामा पहले तो अचकचाई , लेकिन तुरंत ही बेटे को ललकारा-“मार हरमिया को ..। हमें छिनार कह रहा था. अपनी कमीना देंह उघारे दिन भर छिछोरपन करता रहता है और हमको छिनार कह रहा था.”

मोहन पाड़े दोनों हाथों से चप्पल की मार रोकने का असफल प्रयास करते रहे. मां ललकारती रही और बेटा पीटता रहा. जब दोनों थक गये तो उन्हें वहीं छत पर छोड़कर नीचे चले आये.

मोहन पाड़े घंटों खामोश पड़े रहे. उनका होंठ फूल गया था. नीचे के होंठ पर खून की पपड़ी जमी हुई थी. पूरे बदन से दर्द की लहर उठ रही थी. वह दर्द तो कुछ दिन में खतम हो जाना था. शरीर में बने घाव भी ठीक हो जाने थे. लेकिन जो घाव और दर्द मां-बेटे ने मन के अंदर दिए थे. वह अब सारी ज़िंदगी नहीं ठीक होने थे.

जखनी की काली माई भी मोहन पाड़े को रोक नहीं पायी. दिन डूबने के बाद एक साया लंगड़ाता हुआ धीरे-धीरे जखनी के बंसवारी के बीच से होता हुआ अपने गंतव्य की तरफ जा रहा था. लोगों को भ्रम था कि वह मोहन पाड़े हैं. लेकिन मोहन पाड़े लंगड़ाते नहीं थे. फिर कोई और होगा.

मोहन पाड़े का किस्सा बस इतना ही था. सच तो यह है कि उसके बाद एक लंबा समय बीत चुका है. अब मोहन पाड़े लोगों की स्मृतियों में धुंधलाने लगे है . मुकुंद पाडे़ की शादी तय हो गयी थी. कोई रेलवे का बहुत बड़ा ठेकेदार है. उसी के बेटी है. अप्सराओं जैसी सुंदर…. आखिरकार मुकुंद पाड़े के मन की मुराद पूरी हो गई.

रमधरवा ऐसे मामले में कहां चुप रहने वाला था. ले आया कहीं से खबर-“ पूरे सात महीना अपने यार के साथ रही थी. पुलिस ने बरामद किया था. उसके प्रेमी से गर्भ भी रह गया था. अब ऐसी लड़की से भला कौन शादी करता? नाहीं तो मुकुंद पाड़े में कौन सा सुखराब का पर लगा है जो इतना बड़का आदमी अपनी बेटी का रिश्ता देता.”

वैसे रमधरवा ठहरा नशेड़ी. उसकी बात पर विश्वास कोई नहीं करता. उसने तो मोहन पाड़े के बारे में भी कहा था-“ गुरुवा केतना झेलता – मां-बेटे के अत्याचार को. उसको पैसे का तो मोह था नहीं. सब कुछ छोड़कर साधू बन गया. हम ऐसे ही थोड़े कह रहे हैं. बनारस में साधुओं के झुंड में उसे देखा था. मुझे देखते ही पहचान गया. आशीर्वाद दिया. हमने कहा भी गुरुवा गांव नहीं चलना है का…? गुरुवा मुस्कराता रहा. लेकिन बोला कुछ भी नहीं. मैं कुछ और बोलता ….. वह भीड़ में अंतर्ध्यान हो गया.”

 

तीन दशक से भी ज़्यादा समय से कहानी लेखन में सक्रीय. देश के लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियों का निरंतर प्रकाशन. आंचलिक कथाकार के रूप में विशेष पहचान. कुछ कहानियों का बांग्ला, तेलगू और उर्दू में अनुवाद.

कृतियां : पंखहीन, समय रेत और फूकन फूफा, सोनपरी का तीसरा अध्याय, चौथे पहर का विरह गीत तथा आदमी, कुत्ता और ब्रेकिंग न्यूज़, बूढ़ा आदमी और पकड़ी का पेड़ तथा नाटक तो चालू है… (सात कहानी संग्रह )

ई-मेल:govindupadhyay78@gmail.com

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