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मेरा दोस्त अमर

  • मेनका शेरदिल
  • 2 जन॰ 2017
  • 12 मिनट पठन

वहम-ओ-गुमान से दूर दूर, यकीन की हद के पास पास, दिल को भरम ये हो गया है, उनको हमसे प्यार है ...

हमारा सिलसिला भी एक भ्रम था. था मगर वो पागलपन.

तब मुलाकातों के लिये हम भागते फिरते थे, दो क्लासों के बीच अंतराल में, हाँफते-हाँफते, बदहवास ... कभी सैन्ट्रल-लाईब्रैरी की सूनी-सी हिन्दी सैक्शन की आयल में टकटकी बाँधे आँखों की भाषा में बातें कहते, कभी कैम्पस की नरसरी में एक दूसरे की बाहों में टूट जाते. खुलेआम दुनिया की हज़ार आँखों को चुनौती देते. प्रेम का डंका पीट-पीट कर बजाते. कभी प्यार धड़कनें बढ़ा देता, कभी हद दर्ज़े का निडर बना देता.

वीकैंड में जब क्लासें नहीं होतीं, वो और मैं उसकी बाईक पर लम्बी सैर के लिये जाते. दबक कर पीछे बैठे मैं उसकी कमर को कस के पकड़ी होती, चेहरा उसकी पीठ से भिंचा हुआ होता. आँखें बंद किये मैं गाल पर हवा के तेज़ थपकों से सिहर जाती, उन पलों की मिठास सोखती.

और जब कम्प्यूटर लैब में वो बेधड़क अंदर घुस कर इतने लोगों के बीच सीधा मेरे स्टेशन तक आता, मेरी लैब-बुक खोल कर अंदर कैडबरीज़ मिल्क चौकलेट के बड़े बार का आधा भाग खुद के लिये रख कर, दूसरा भाग दबा कर रख कर चला जाता, तब मेरे अनछुए दिल में ऐसी लहरें उठती, और उठ कर जिन गहराईयों तक धसतीं, मैं हैरान रह जाती.

वो मुझे क्यों चाहता था, मुझे नहीं मालुम. मगर मुझको वो बेहद प्यारा लगता था. नाम क्या था उसका? अब याद नहीं आता. मगर था वो पूरा कामदेव का अवतार. लम्बा, सुडौल, सुंदर, अमीर और सबों का मन मोहने वाला, मैं उससे मोहित थी. एक अजीब-सा रोमांच आ गया था मेरे जीवन में. उससे रोज़ मिलना मेरी ज़रूरत बन गई थी.

ऐसे ही उस रोज़ भी मिले थे. वो प्रोफ़ैसर को क्लास में असिस्ट कर रहा था. हमारे इंस्टिट्यूट में पी.ऐच.डी. के विद्यार्थी अक्सर फ़ैलोशिप के ज़रिये प्रोफ़ैसर को क्लास में असिस्ट करते थे. क्लास खत्म हो गई थी, लैक्चर-हॉल खाली हो चुका था. बस वो सब असाईनमैंट बटोर रहा था और मैं मंडरा रही थी, वहीं, उसके आसपास.

फिर जब उसने सब कॉपियाँ एक-सी कर के बैग में डाल दी थीं, उसने अपना ध्यान मेरी तरफ़ मोड़ा. हंसते हुए पूछा, कहिये, कैसी रही आज की परफ़ॉरमैंस?

मैंने वहीं मौका पकड़ लिया, उसे दीवार के पास खींच लाई, लटक गई उसके गर्दन पर, और बोली, छक्के छुड़ा दिये थे तुमने प्रोफ़ैसर के ...

अच्छा! इतना छा गया था मैं? वो ये सब हंसते-हंसते बुदबुदा रहा था. असल में मेरे चेहरे पर चुम्बनों की बौछार कर रहा था.

हाँ, कुछ तुम छाए थे, कुछ प्रोफ़ैसर की हवाईयाँ उड़ गई थीं.

मैं उस कामदेव के अवतार की गर्दन से लटकी ऊलजुलूल बक रही थी. असली दावत मेरी आँखों की थी. असल सुकून मेरे रोम-रोम में स्थापित हो रहा था. मेरी पूरी हस्ती उसके सम्मोहन के गिरफ़्त में थी. हम छिपे-छिपे गुलछर्रे उड़ा रहे थे. क्लासरूम में तभी अमर आ गया!

अमर मेरा सर्वप्रिय दोस्त था. वो मुझसे चार साल बड़ा था, फ़ाईनल यर में था. लेकिन हम दोनों का दोस्त बनना जैसे बदा था. हम पहली बार तब मिले जब मैंने फ़र्स्ट यर जॉईन किया, मिलते ही कुछ क्लिक हो गया, हम दोस्त बन गए. घने दोस्त. खुद-ब-खुद, अचानक यों ही एक दूसरे को अपने मन की बात या दिन में हुई बातों का ब्यौरा देने लगते थे.

कैनटीन में रोज़ाना उसके साथ खाना खाने की आदत पड़ गई थी.

जब कोई टैस्ट खराब होता तो दौड़ कर उसके पास जाती. क्या समझाता वो मुझे! बस इतना कहता, मन लगा कर पढ़ो, अगला ठीक हो जाएगा, तब देखना तुम सब भूल जाओगी.

अपनी दोस्ती की शुरुआत में ही हमने अपने दिल के ज़ख्म बाँट लिये थे. मेरे क्या ज़ख्म हो सकते थे, बीस वर्षीय खुशहाल घर की मैं, अपने जीवन का सबसे बड़ा सुख महसूस कर रही थी, अपने मम्मी-पापा की बंदिशों से आज़ादी!

उसी के कुछ ज़ख्म थे, अहमदाबाद आने से पहले उसकी आई.आई.टी. के दिनों का एक सीरियस हार्टब्रेक. उसका नाज़ुक-सा दिल एक लड़की ने भींच कर रखा था. लड़की के जीवन में कोई और आया, रातोंरात लड़की के रंग बदल गये. मेरे दोस्त का दिल टप से गिरा दिया.

मुझे अब भी याद है उसके इस हादसे के बारे में सुन कर मैं कितना क्रोधित हो गई थी.

कोई ज़रूरत नहीं ऐसे छिछले लोगों को याद रखने की! समझाया था मैंने उसे.

लानत दी थी मैंने उस दगाबाज़ लड़की को. समझ गई थी, कि अगर दुनिया में कोई लक्षण घृणा योग्य है, तो वो धोखेबाज़ी का है.

हाँ, हमारी दोस्ती की नींव गहरी थी. हम दोनों के बीच कोई रोमांस वाली बात नहीं थी, केवल गहरी दोस्ती थी. अक्सर बात करते-करते मैं उसका हाथ पकड़ लेती थी. मुझे उसमें कोई ग़लत बात नहीं लगती थी. उसके हाथ हमेशा गीले रहते थे, पता नहीं क्यों? मैं उसे चिढ़ाती थी. इतना डरते हो! हाथ क्यों गीले रहते हैं?

नहीं, मेरा दोस्त अमर किसी से नहीं डरता था. एकदम ठोस किस्म का लड़का था. मैं उसकी परवाह करती थी. वो भी मेरी दोस्ती भली प्रकार समझता था.

कुछ और थे जिन्हें हमारी दोस्ती समझ नहीं आती थी. एक बार वो मेरे पास एक नोट ले कर आया, ये देखो कैसे वाहियात लोग होते हैं. देखो मेरे रूम में ये कौन छोड़ गया?

मैंने वो नोट देखा, गुमनाम था. लिखा था, क्या यार! हाथ पकड़ते हुए थकते नहीं हो? इफ़ यू लव हर, नाओ ड्रॉप हर हैंड, यू गॉट द मूड प्रिपैर्ड, गो ऑन ऐंड किस द गर्ल!

पढ़ते ही मैं समझ गई ये नोट मेरे एक क्लासमेट, रवि, का लिखा है. वही था जो इतने बड़े हो जाने पर भी डिज़नी के गाने गुनगुनाता था. लिटल मरमेड उसकी ख़ास फ़ेवरट मूवी थी.

छिः, कितना बेवकूफ़ है, रवि, कह कर मैंने वो नोट गिरा दिया था.

बातें करते-करते मैं जो अमर का हाथ पकड़ लेती थी, हमें कुछ अटपटा नहीं लगता था. हम सुहृद थे न.

लेकिन पिछले कुछ दिनों से मुझ पर उस कूल कामदेव के अवतार की जो मेहरबानी होनी शुरू हुई, उसका जो मुझ पर ध्यान जाने लगा, पता नहीं क्यों, उसकी, और उससे मिलने-जुलने की भनक मैंने अमर पर नहीं पड़ने दी. इसलिये उस दिन जब मेरा सर्वप्रिय दोस्त, मेरा सुहृद, अमर क्लासरूम में धड़धड़ाते हुए घुसा, तो मैं घबरा गई.

क्या हो रहा है? अमर का स्वर शांत था. मेरे दिल में कठोर-सा घुसा.

ओ कम ऑन अमर. जस्ट लीव मी अलोन, कह कर मैं क्लासरूम से निकल गई थी. अपने रूम पहुँचने तक काँपती रही थी. ये क्या हो गया था? उफ़, अब मुझे अमर से बात करनी पड़ेगी. अमर को हाल में अच्छा जॉब ऑफ़र हुआ था. कितना मन था कि वो अपना जॉब स्वीकार कर ले. हाँ वो मेरा दोस्त था, मेरा सबसे अच्छा दोस्त था. मगर अब सब उलझता हुआ महसूस हो रहा था. मुझे उसका पास रहना खलने लगा था. उसके पसीजे हाथ के बारे में सोच कर चिढ़ मचने लगती थी. अब उसे चला जाना चाहिये. यह सोच रही थी. हमारी दोस्ती रिमोट होगी तो बरकरार रहेगी.

शाम को वो मेरा कामदेव का अवतार मुझसे मिलने आया. पहली बार मुझे उससे मिलने में कोई खुशी महसूस नहीं हुई.

मेरी अमर से बातचीत हुई थी, वो कह रहा था. मैं चौंक कर तन-सी गई.

मैंने उससे कहा कि मुझे नहीं लगता मेनका तुम्हे प्यार करती है. वो बोलता गया.

अरे, ये तुमने क्या कह दिया?

वो मुझे अजीब तरह से देखने लगा. कुछ मुस्कुरा-सा भी रहा था. अपने शब्दों को सुन कर मैं खुद शर्मिंदा हो रही थी.

नहीं, मेरा मतलब था ... वो मेरा सबसे प्रिय दोस्त है न, कह कर मैं उसे वहीं छोड़ कर अपने रूम में लौट गई. सोच रही थी शायद यही अच्छा था. ठीक ही हुआ. यही बात को आगे बढ़ने से रोकने का सबसे अच्छा तरीका था. फिर सोचा, कल या आगे कभी अमर से मिलूँगी, उससे बात करूँगी. माफ़ी माँगूँगी.

उस दिन मैंने उस कामदेव से न मिलने का फैसला कर लिया.

अब इतने साल बाद वो सिलसिला बचकाना सा लगता है. कितनी बेवकूफ़ थी मैं! गुज़र कर साल पुराने दिनों के जादू को धुंधला जाते हैं. वैसे भी बरसों पुराने कुछ दिनों के भूत को कौन याद रखता है? हमारा वो सिलसिला कुल एक महीना चला था.

फिर भी, उस दिन के बाद कई दिन तक मैं अमर से नहीं मिली, न ही वो मुझे कहीं दिखा. फिर उसका एक दोस्त, उसका रूममेट, राज ‘स्टालिन’ मिला. मुझे ज़्यादा पसंद नहीं था. उसे भी मैं पसंद नहीं थी. अमर ने मुझे बताया था कि मेरे बारे में राज ने उससे कहा था – इस शी सीरियस अबाऊट ऐनीथिंग?

किसी को बिना जाने उसके बारे में कमेंट करना सही नहीं होता. इसीलिये मुझे वो पसंद नहीं था. जब वो मुझे मिला मैंने उससे अमर के बारे में पूछा.

उसने बंगलौर का जॉब स्वीकार कर लिया है. बड़ी बेरुखी से उसने मुझे जवाब दिया.

मैं खुशी से उछल पड़ी. फिर अपनी क्रूर नज़र मुझ पर गाड़े हुए वो बोला, अभी वो अपने गाँव गया है. शादी करने.

शादी ... मैं स्तब्ध-सी खड़ी रही. अमर का रूममेट आगे बढ़ गया.

शादी के बाद अमर लौट कर आया, तुरंत मुझ से मिला. वैसे ही सहजता से जैसे हम हमेशा मिलते थे. शादी का इंतज़ाम कैसे हुआ, बताने लगा. गाँव पहुँचते ही उसके माँ-बाप ने उसकी शादी की बात करनी शुरू कर दी और वो मान भी गया. एक लड़की का प्रपोज़ल था. परिवार वालों को पसंद था. बहुत पसंद था, इसलिये अमर ने शादी के लिये हामी भर ली. लड़की को भी नहीं देखा! किसी को एक झलक देख कर क्या कुछ पता चल पाता है! शादी भी तुरंत करने की शर्त रख दी. वो भी बिना किसी लेन-देन के, गाँव के मंदिर में. यों ही बातें बताते-बताते वो कह बैठा, पता नहीं क्यों मेरी माँ इतना खुश हो कर कह रही थीं, ठगे गए न उस दिल्लीवाली से.

बस, उसकी ये आखिरी बात सुनकर मन पीड़ित हो गया.

असल में, इसके पीछे भी एक कहानी है. मेरे अहमदाबाद आते ही मेरे मम्मी-पापा मेरी शादी के पीछे पड़े थे. मैं पहले अपना कैरियर बनाना चाहती थी. खुद अपने पैरों पर खड़े हो कर दुनिया देखना चाहती थी. अपने जीवन के पहले कदम खुद, बिना किसी के दखल के, लेना चाहती थी. दिल्ली से जब पहली बार मुझसे मिलने मेरे माँ-बाप अहमदाबाद आए थे तो लगातार मेरी शादी और लड़के देखने की ही बातें करते रहते थे. अमर अक्सर हमारे साथ ही होता, तब भी वही बातें चलती रहतीं.

आखिर वही उनसे कह बैठा, अभी इसकी उम्र क्या है. करने दीजिये न इसे जो ये करना चाहती है. शादी के लिये तो उम्र बाकी है.

उस वक्त उसकी बात सुन कर मेरे माँ-बाप चुप हो गए थे. लेकिन दिल्ली लौटते ही उन्होंने एक के बाद एक लड़कों की फ़ोटो भेजनी शुरू कर दीं. तब जा कर मैंने उनसे अमर का ज़िक्र किया था. आपको मेरी शादी की इतनी फ़िक्र है तो लीजिये, लड़का हाज़िर है. मेरा बैस्ट-फ़्रैंड, अमर.

अमर से मेरे माँ-बाप प्रभावित नहीं हुए थे. फिर भी बड़े बेमन से बिहार में उसके घर गए थे. लौट कर भी खूब बुराई की थी उन लोगों की, उन लोगों के ‘लो-स्टैन्डर्ड’ की. मुझे अब तक याद है जब मैंने अमर को उनकी ये बातें बताईं थीं तब हम दोनों कितना हंसे थे.

तुम खुश हो न? शादी के बाद उसके लौटने पर मैंने अमर से पूछा था.

अच्छी लड़की है अर्चना, बस इतना कहा था उसने.

फिर मैंने पूछना चाहा था, उस दिन की बात से तुम्हारा दिल तो नहीं दुखा था न?

नहीं पूछ पाई.

फिर वो बंगलौर चला गया.

***

उसके जाने के दो साल बाद मैं भी ग्रैजुएट हो गई. एक जॉब इंटरव्यू के लिये बंगलौर पहुँच गई. अमर के यहाँ ठहरी. तब मेरा अर्चना से मिलना हुआ.

हमारी खूब बनी. अर्चना मुझसे ठीक एक दिन छोटी थी. मिज़ाज़ की रम्य थी, नाक-नक्श की सुंदर. उसका रंग साधारण साँवले से ज़्यादा गहरा था. बातों के सिलसिले में वो मुझे बताने लगी कि उसके घर में सब उसे बड़ा खुशनसीब मानते हैं क्योंकि इतना काला रंग होने के बावजूद उसे अमर जैसा होनहार दूल्हा मिला.

सच में, अमर जी बहुत अच्छे हैं. मेरा कितना ख्याल रखते हैं. कड़ाही चलाते चलाते वो कह रही थी.

मैंने उसके हाथ से करछी ली, कड़ाही की आँच कम की और उसे गले लगा लिया. एक बात याद रखो अर्चना. अच्छे लोगों के नसीब में ही अच्छे लोग होते हैं. अमर उतना ही अच्छा है जितनी अच्छी तुम हो. ऐसी नैगटिव बातें मत सोचा करो.

मेरा इंटरव्यू अगले दिन था. ऑफ़िस जाते समय अमर मुझे वहाँ ड्रॉप करने जा रहा था. वो कार चला रहा था, मुझे वही पुरानी अनकही बात याद आ गई.

सुनो, तुम से एक बात कहनी थी. मैंने उस दिन तुम्हारा कितना दिल दुखाया था न?

कुछ पल वो चुप रहा. मुझे लगा उसने मेरी बात सुन नहीं पाई. यही सोच रही थी कि दोबारा वही सवाल पूछूँ कि रहने दूँ. मेरी दुविधा का हल उसी ने निकाल लिया. अपने उसी शांत स्वर में वो बोला, कुछ ही देर में तुम्हारा इंटरव्यू है, उस पर अपना ध्यान केन्द्रित करो ...

मेरा इंटरव्यू अच्छा गया. मेरी प्लेसमैंट दिल्ली के ब्रांच में की गई. रवि भी इंटरव्यू के लिये आया था. शाम को जब अमर मुझे पिक-अप करने आया तो उसने घर पर खाने के लिये रवि को भी न्योता दिया.

उस शाम को हम सब ने खूब मस्ती की. खूब बातें हुईं, पुरानी मधुर यादें याद हुईं, भविष्य के कुछ सपनों पर से पर्दे हटाए गए ... काश कि मैं ऐसा कर पाऊँ ... काश कि ऐसा हो पाए ... लेकिन ज़्यादातर हंसी-खुशी की, इधर-उधर की बातें हुईं. फिर मैंने ही उठ कर वो महफिल छोड़ी. बहुत थक गई थी. अब सोना ज़रूरी था. सब से रुख़सत ली. सोने चली गई.

अगली सबह अर्चना के व्यवहार ने मुझे दंग कर दिया. पहले वो उठ कर ही नहीं आई. अमर ने कॉफ़ी बनाई, नाश्ता मैंने और अमर ने अकेले किया. फिर जब जाते वक्त वो निकल कर आई तो मैंने कहा, दिल्ली आना, मेरे पास रहना...

हाँ, देखेंगे, मुझे बिना देखे उस ने जवाब दिया.

फिर जब मैंने उस से पूछा कि कब मिलेंगे, उसने बड़ी बेरुखी से मुझे देख कर कहा, पता नहीं. देखते हैं.

मुझे उसका व्यवहार समझ नहीं आ पाया. जाते-जाते यही लगा कि शायद रात को मेरे सोने जाने के बाद रवि ने ही इससे मेरे और अमर की दोस्ती के बारे में कुछ ऊटपटांग कहा होगा.

***

एक बार जब मेरा जॉब शुरू हुआ, मैं अपने परिवार के नज़दीक आ गई. फिर शादी में भी समय नहीं लगा. मेरे परिवार वालों ने मेरी शादी शशांक नाम के एक अच्छे लड़के से तय कर दी. हमारी एक सुंदर और संपूर्ण शादी है. मुझे लगता है शशांक और मेरी नियति – हमारा एक संग साथ - हम दोनो के डी.ऐन.ए. में छपी थी. कुछ-कुछ जैसे मेरी और अमर की दोस्ती थी. हम एक दूसरे को समझते हैं और इज़्ज़त देते हैं. मैं शशांक को प्यार करती हूँ और मुझे मालुम है वो भी मेरी बहुत परवाह करता है. हम जीवन का पथ एक साथ पंद्रह सालों से चल रहे हैं. इन सालों में हमने बहुत सी अजीबोगरीब चीज़ें देखी हैं, हमारे कई सुंदर अनुभव हुए हैं, हमने कठिनाईयों और खुशियों का एक साथ सामना किया है. जीवन की बहुत सी सीखें हमने साथ चल कर सीख डाली हैं. ये अनुभव और सीखें मेरे लिये बहुमूल्य हैं.

अपनी संयुक्त ज़िंदगी की शुरुआत में एक बार मैंने शशांक से अमर के बारे में ज़िक्र किया था. उसे सच्चाई से उस दिन के बारे में भी बताया जिसे याद करके आज भी मुझे शर्मिंदगी होती है.

उसने मेरी बात बड़ी निर्लिप्तता से सुनी. सुनने पर भी न कोई प्रतिक्रिया ज़ाहिर की, न कोई विशेष रुचि दिखाई. बस इतना कहा, तुम ने ऐसा क्यों किया ... फिर बात वहीं छोड़ कर किसी और काम में लग गया.

मैंने ऐसा क्यों किया, क्या बताऊँ. वो पागलपन की उम्र थी. ऐसी उम्र जो दिखने में चाहे जितनी पूर्ण दिखे, पूर्ण-विकसित होने में कुछ और समय मांगती थी. मैंने तब वही किया जो उस उम्र में करना जानती थी. आज की उम्र में मेरी सोच कुछ और ही कराएगी.

इस साल मैं अपने चालीसवें साल में पहुँच गई हूँ. मेरे दो बच्चे हैं. बेटा चौदह का है, बेटी बारह की. बेटा गणित, कम्प्यूटर गेम्स और फ़िज़िक्स की दुनिया में खोया रहता है. जब निकल कर आता है तो गिटार उठा लेता है, या कीबोर्ड पर बैठे फिर कहीं गुम हो जाता है. अपनी कोख से ऐसा नमूना जन्मा देख कर मुझे हैरानी होती है.

मेरी बेटी को स्कूल के साधारण विषयों में कोई दिलचस्पी नहीं है. दिन-रात नए-नए तौर से बाल संवारती है, पहनावे के नए स्टायल डिज़ाईन करती रहती है. कमरे में घुसो कॉपियों के ढेर मिलेंगे. इनको वो अपने फ़ैशन-पोर्टफ़ोलियो के नाम से पुकारती है. बैले सीख लिया, अब सालसा और जैज़-हिप-हॉप सीख रही है. पिछले महीने से नाक छिदवाने की ज़िद पकड़ ली है ...

मुझे नहीं मालुम कि मेरे बच्चों का भविष्य कैसा होगा. मैंने तो खुद को अच्छी तरह समझाया हुआ है कि मेरा काम अपने बच्चों को एक उम्र तक सुरक्षित रखना है. और कुछ ज़रूरी सीखें देना है. लोगों के साथ भला व्यवहार रखो ... कुछ पाने के लिये ईमानदारी से मेहनत करो ... इस प्रकार की सीखें. आगे क्या होगा, किसे मालुम है.

कल की बात है. सोने जाने से पहले अपने ई-मेल देख रही थी. मेरे पुराने क्लासमेट रवि का एक संदेश था. क्लिक किया और मैसेज खोलते ही चौंक गई. उसने लिखा था,

प्रिय मेनका, बहुत बुरी खबर है. कुछ दिन पूर्व हमारे मित्र अमर का कारडियैक अरैस्ट से निधन हो गया. सोचा शायद तुम्हें मालुम न हो, इसलिये खबर भेज रहा हूँ.

ई-मेल के साथ एक लिंक था. जिस संगठन में वो काम करता था उन्होंने अमर पर समर्पित एक वैब-पेज बनाया था. उसमें अमर की अकस्मात मौत का विस्तृत हाल था. मृत्युलेख के साथ सैकड़ों स्तुतियाँ थीं. चवालिस साल की उम्र में कितने सारे दोस्त छोड़ गया था वो. वो एक अच्छा बाप था, पति था, बॉस था, दोस्त था, मैंने जाना. इतने लोग उसे चाहते थे. बड़ी खुशी हुई.

वैसे ही बैठे-बैठे मैंने सब स्तुतियाँ पढ़ लीं. सोचा, शायद मुझे भी कुछ लिखना चाहिये. क्या लिखती? क्या लिख सकती थी? लिखने का मतलब भी क्या होता? मैं हक्की बक्की सी बैठी रही.

सबकी प्रशस्तियाँ हैं, बस मेरी नहीं है. इससे ये न समझना कि मैंने तुम्हारी अहमियत नहीं जानी. मेरे सुहृद! मैंने नादानी में कभी तुम्हारा विश्वास तोड़ा था, लेकिन मैं धोखेबाज़ नहीं थी. क्या तुम्हे मालुम है कि मेरी हृदय की गति में कहीं तुम्हारा नाम भी धड़क रहा है. तुम न सिर्फ़ मेरे मस्तिष्क के मन में बसे हो, तुमने मुझे मेरे मर्म तक छुआ है. तुम मेरे जीवन में न सही, अमर, लेकिन तुम मर कैसे सकते हो?

मेनका शेरदिल फ़िज़कल कैमिस्ट्री में पी.ऐच.डी हैं. यूरोप में कॉस्मैटिक कम्पनी लोरीयाल में रसायनज्ञ हैं. इंडौलजी के पुराने ग्रंथ पढ़ने का शौक रखती हैं. कई लघु कथाएँ लिखी हैं. हाल में एक उपन्यास पूरा किया है.

लेखिका से सम्पर्क के लिये ई-मेल-menkasherdil@yahoo.com

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