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सुशील यादव

विभिन्न विचारधारा के कुत्ते

कुत्ते की विचारधारा को करीब से जानने का जिन सौभाग्यशाली पुरुषों की गिनती की जा सकती है उनमे से एक मैं भी हूँ.

मेरे पुराने जन्म के अच्छे कर्म थे कि मुझे कुत्ता पालने का शौक हुआ.

हुआ यूँ कि किसी धार्मिक प्रवचन में दिशा-भटके ब्राम्हण की टाइम-पास वाणी मेरे कानो में पड़ी. भक्त जनों! इस संसार में कुत्ता से अधिक वफादार कोई प्राणी नहीं ....

बस ,इस सूत्र वाक्य के चलते कुत्ता पालना निश्चित हो गया. ब्राम्हण ने अतिरिक्त ऊर्जा स्वरूप ,धर्मराज युधिष्ठिर का स-कुत्ता, इंद्र के दरबार में प्रवेश से मना कर दिये जाने वाले प्रसंग को सुना कर मेरे कुत्ता पालन की सोच को अनिर्वायता की शर्तों में ला दिया .

वे सुना रहे थे कि कैसे एक कुत्ता महाराज युधिष्ठिर के साथ ज़मीन से चलकर स्वर्ग की सीढ़ियों तक आया. चूँकि महाराज ने एक-एक कर अपने भाइयों, पत्नी को स्वर्ग गमन राह में मरते-बिछुड़ते देखा था अतः स-तर्क , महाराज ने उसे दुत्कारने से ना कह दिया.

बेशक उनके स्वर्ग-प्रवेश वीजा निषेधित हो जावे. उन्होंने परावह नहीं की. किसी टिकितार्थी भांति, वे जिद में थे. तब स्वयं परीक्षा लेने वाले परीक्षक ,जो कुत्ते के भेष में साक्षात 'यमराज' के अवतार थे , प्रगट हुए.

उन दिनों परीक्षा लेने का अलग विधान था. शायद तब के , परीक्षार्थी को शर्ट की बाहों, पेण्ट के चोर-पाकेट में चिट रखने की व्यवस्था के, ईजाद होने का इल्म नहीं था.

आपकी तटस्थता को परखा जाता था. आप हरिश्चंद्र हैं तो कहाँ तक टिकते हैं यही देखा जाता था. महाराज की तटस्थता सिद्ध हुई. उनके मृत पत्नी -भाइयों को स-शरीर स्वर्ग प्रवेश मिला, ऐसा पढ़ने को मिलता है.

इस दृष्टान्त की खूबी और सार से, कुत्ता के एक संस्कारित सामाजिक प्राणी होने की हैसियत का, महाभारत कालीन सभ्यता से समय से प्रभाव, लक्षित होता है.

‘कुत्ता’ कहने मात्र से जो केवल, गली के खजैलो भर को याद करते हैं या ,आप द रिकार्ड कुछ लोग, मोहल्ले के बदजुबान लडको, उठाईगिरी करने वालों ,चंदा उगाहीदारों और कुछ स्थानीय किस्म के नेताओं से कर लेते हैं ,ये अलग बात है. उन सबों को इस सीमित सोच के दायरे में, एक बारगी फिट हुए वायरस को निकाल दुरुस्त कराने की सलाह है.शायद ,उन्होंने इनमे से किसी किस्म के, कभी कुत्ता पाल के नहीं देखा है.

मेरे और मेरे परिवार का कुत्ता-बैर एक जमाने में सारे पड़ौसी जानते थे. हम लोग उस घर का पानी पीना भी पसन्द नहीं करते थे , जहाँ कुत्तो को, किचन तक हर चीज सुघने की खुली आजादी हो.

दो एक जान पहचान वालो के घर जाना करीब-करीब इसी वास्ते बन्द था. उनके घर में बने हर डिश में कुत्ते के बाल तैरते होने का अनजाना भय व्याप्त रहता था. हम सेंटर टेबल में उनके सजाये चीजों में से, केवल मार्केट डिब्बा बन्द मिठाई-मिक्सचर से काम चला लेते. वे आग्रह करते ,नीतू ने ये गाजर का हलुआ बनाया है ,हम कहते डाइबिटीज है. ज़रा छोले भटूरे ट्राई करें, हम बोलते डाक्टर ने मना किया है.

उनका कुत्ता हमें करीब से सूंघ कर निकल जाता ,हम खुद को सोफे में जितना समेट सकते थे समेट लेते.

हमारे लिए सामने परोसे व्यंजनों का स्वाद, मेजबान के टामी- सामी द्वारा समय समय पर सूंघकर चल देने से , हमारे संकोच को ऊर्जा मिलती. संकोच को ऊर्जा मिलाने का इसके अलावा कोई प्रसंग कहीं आज तक वर्णित नहीं है. इस बहाने हम लज्जित होने से बच जाते. हम मेजबान को पशोपश से उबारने के लिए डाइटिंग-योगा पर बहस की शुरुआत करते. यही एक सब्जेक्ट आजकल राजनीति के बाद सबसे ज्यादा चलन में है. जिसमे आसानी से सभी भाग लेते हैं. मेजबान जब फिनिशिंग लाइन टच करने नीयत से सौफ के डिब्बे को खोलने लगता है ,हम राहत की सांस लेते कि खाद्य आपूर्ति संस्थान की सेवाएं एक कुत्ता पालक घर में सफलता के साथ ,चलो सम्पन्न हुई.

हम शिष्टाचारवश ,उन्हें सपत्नीक घर आने का न्योता देते,जिसे पर वे सहर्ष तैयार मिलते ,वे कार में डागी सहित किसी दिन आने की कहते तो उनके आगमन दिन पर नदारद होने के बहाने तलाशते रहते. मन में विचार आता कि देखो हमने एक टुकड़ा बिस्किट का क्या तोड़ा ये हमारे संस्कार को हिलाने आ रहे हैं. इन प्रसंगों को दबी जुबान से इधर-उधर सुनाने का ख़तरा मोल लिया तो भाइयों ने उलटे मुझे कुत्ता प्रेमी बना के दम लेने की सोच ली.

हमे बहुतो ने सलाह दी ,आप चिड़चिड़े हो रहे हैं ,कुत्ता पाल लीजिये. ये बी पी को कंट्रोल करता है. आपकी डाइटिंग प्रेक्टिस हो जाती है , तरी में तैरते बाल का ध्यान हो आए तो खाना वैसे ही हराम हो जाता है .

ये घर में सफाई दो तीन-बार करवा लेता है. सुबह इनको टहलाने के कारण आपकी मार्निग-वाक की बाध्यता बन जाती है. धीरे-धीरे ‘हिडन-फेक्ट’ पर ध्यान जाने लगा. मैंने फिर अपनी दबी जुबान को खोला . अपने किसी दोस्त को अच्छी नस्ल का मिले तो दिलाने की फरमाइश कर दी. वे जैसे इसी सिग्नल की आड़ में बैठे थे ,तपाक से डाबरमैन वाली नस्ल की थमा गए. उनके रहने-खाने की थ्योरी बता गए.

हमारा किचन में प्रवेश-बाधा के संशय वाले प्रश्न पर, उन्होंने कहा, ये तो संस्कार हैं ,जैसा आप डालें ......

हमने संस्कार डालने का बीड़ा उठा लिया.

पूरे दो- घण्टे हम संस्कार डालने में खर्च करने लगे . क्या अच्छा है, क्या बुरा है रोज समझाते. हमारी बात पूरी तन्मयता से सुनता . कई निर्देशों का पालन करना सीख गया. हिंदी में बैठो ,अंग्रेजी में सिट दोनों समझ लेता है. उसके द्विभाषिक होने से मेहमानों पर रॉब भी खूब जमता है. सीसेन नाम रखा है. सीज़न सिट ,बोलने में भी रिस्पांस बखूबी देता है.

उसे घुमाने ले जाते समय फर्क महसूस होने लगा है. गली के कुत्तों से नाहक डर का जो फितूर था ,कोसो दूर हो गया है. उनके विचारधारा और सीजन के विचारधारा में जमीन आसमान का फर्क दिखता है.

गोस्वामी जी ने, इस सन्दर्भ में कदापि न कहा हो, मगर ये कथन कि "जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखि तीन तैसी " मुझे उसमे अच्छे संस्कारों के गुण नजर आने लगे हैं. रास्ते में जितने मंदिर- देवालय दीखते हैं ,वो आप ही आप कुकियाने लगता है. इसे यूँ कहे कि मेरे हर मंदिर के सामने माथा-नवाने का उसमे स्वाभाविक असर होने लगा है.

इसे देख कभी-कभी मैं सोचता हूँ ,काश दुनिया के तमाम कुत्तों की तकदीर लिखने का मुझे ठेका मिला होता .....

 

लेखक परिचय

आदमी कुछ भूलता नहीं.....

एक देहात नुमा शहर अपना नया आकार ले रहा था. दुर्ग शहर से दस किलोमीटर के फासले पर भिलाई की जमीन में स्टील प्लांट की नीव रखी जा रही थी तब उम्र लगभग आठ -दस साल की थी.

उन दिनों पालक का बच्चों पर निगरानी - पास कहीं खेल रहा होगा - के हिसाब से, नहीं के बराबर होती थी. तब हमउम्र लड़को के साथ पैदल लंबी-लंबी सड़के नाप लिया करते थे. जेब में दुअन्नी भी नहीं होती, और दो आने वाली फ़िल्म की लंबी लाइन को गौर से देखा करते. हमारे कस्बे-नुमा शहर में भारी तादात में ‘रशियन’, जिनके सहयोग और देखरेख में स्टील प्लांट का काम चलता था, गले में कैमरा लटकाये घूमते थे. सब्जी मार्केट में उन गुलाबी चेहरों को साबुत गाजर-मूली को खाते देखते तो उनके गोरे होने का कुछ अंदाजा बाल-मन में घर कर बैठता. घर में वही फरमाइश करते तो महीने में दो एक बार बाबूजी ला देते. मूली के तीखेपन को चखते ही रशियन को लानत भेजते, पता नहीं वे कैसे खाते हो. वे हेल्थ कांशस रहे हों, इसका इल्म अब जाकर हुआ. वे फोटो खींचने में माहिर ... हम किसी न किसी बहाने उनको प्रोवोक करते कि उनके किसी क्लिक में आ जाएँ. पता नहीं रूस में किस जगह फिकी होगी उस दौरान की हमारी तस्वीरें?

स्कूल जाने के दिनों में घूमने की आजादी के साथ 'एक सायकल' कभी-कभार जुड़ जाता. घर में पांच-छह लोगो के बीच एकलौते सायकल का होना फक्र का सबब था. किसी सन्डे बड़े भाई को जब सायकल को धोते, हवा भरते और आइल देने के उपक्रम में देखता तो हमे पता चल जाता कि वे भिलाई पिक्चर जाने की जुगाड़ में हैं. हम घर में बता देंगे की आड़ में पीछे पड़ जाते, वे दोस्तों सहित हमे शामिल कर लेते. पिक्चर देख के आओ और स्टोरी किसी को न सुनाओ, ये बात उन दिनों हजम नही होती थी लिहाजा ट्रेलर बताते -बताते कब पिक्चर देख लेने की पोल खुल जाती पता नहीं चलता. जो डांट पड़ती तो दुबक के किताबे खोल लेते.

उन बेफिक्री के दिनों में ज्यादा पढाई सिर्फ डांट खाने की वजह से हो पाती थी. ये तो अच्छा रहा कि खूब उधम किये, खूब डांट पड़ी और कुछ पढ़ लिए.

पढाई में उन दिनों लगता रहा, कोई कॉम्पिटीशन नहीं था . हम लोगो का एम्बीशन घर की माली हालत को देखते हुए, एवरेज रहता. टीचर पिताजी और तीन भाइयों का उसी लाइन में एक के बाद एक चले जाना, हमारे प्रेरणा स्रोत के जनक बनते जा रहे थे. ग्रेजुएशन करते समय कुछ तरक्की पसन्द दोस्तों की संगत मिल गई जिसने सोचने की दिशा को मोड़ सा दिया. अनेक में से एक ने खुल कर चुनौतियों से जूझने, अपने आप को हर जगह साबित करने और जो हक़ है उसे छीन के लेने का मन्त्र सा फूंक दिया. बृजमोहन तुझे आज बरसों बाद याद कर रहा हूँ. क्षमा.

उसने पढ़ने का हुनर दिया. हमने अपना फार्मूला फिट किया,अक्टूबर तक खूब मस्ती, फिर प्रतिदिन टेबल में बैठने का अभ्यास ... पहले दिन आधा घण्टा, फिर पीछे हर दिन केवल पाँच मिनट अभ्यास के दायरे को बढाना ... इस धुन ने कई दोस्तों की लाइफ स्टाइल में अहम रोल निभाया. खुद के लिए एक डायरी लिखी और ईमानदारी से अपने किये को लिखा. पूरा सिलेबस हर सब्जेक्ट को शुरू से आखिरी तक लाइन दर लाइन पढ़ा होता था. दोस्त रिजल्ट वाले दिन, जो किसी दूसरे शहर के अखबार प्रकाशकों से घण्टों टेलीफोन पर पूछताछ कर बताते थे. मुझे मेरा रिजल्ट जानने न देते. तू तो पास है, वाला लेबल चिपका देते थे.

बेरोजगारी के गर्दिश वाले दो-तीन साल भी झेले. कुछ जुगाड़, कुछ लक, कुछ इत्तिफाक से, रोजगार दफ्तर से बुलावा आया. सेंट्रल एक्साइज में इंसेक्टर के पद पर चुन लिए गए. शहर का देहातनुमा चेहरा तब भी नहीं बदला था. किसी परिचित ने इस मोहकमे का नाम तब नहीं सुना था. तंबाखू से जुड़ा है, अल्बत्ता कोई ज्यादा पढा-लिखा इस विभाग की तस्दीक कर लेता था.

पढ़ने की आदत, सच कहूँ तो गुलशन नन्दा के उपन्यासों से, इब्ने शफी की जासूसी कथाओं से आरंभ हुई. बेरोजगारी के दिनों में एक प्राइवेट आर्ट कालेज की लाइब्रेरी में पार्ट-टाइम काम मिला. वहाँ प्रिसिपल के लड़के को घण्टे भर साइंस सब्जेक्ट में पढ़ाना और मुझे सिर्फ पढ़ना होता था. पसन्द की कई चीजें वहां पढ़ने को मिली.

लिखने के दिन शुरू ही हुए थे कि सर्विस की वजह से न ज्यादा लिखा न छपवाया. बस विगत चार सालों में रोज जम के पढ़ा और लिखा. जिसकी बदौलत आज इस बायोपिक के कुछ क्षण लिखने बैठ गया. इस मुकाम तक पहुचने के लिए नेट को पूरा श्रेय देता हूँ.

इधर चार सालों में कादंबिनी, सरिता, मुक्त प्राची सरीखे स्थापित मैगजीन तथा गद्यकोश, रचनाकार, साहित्य शिल्पी, साहित्यकुंज, हिंदी समय, सृजनगाथा, वेबवार्ता जैसी मैगजीन में रचनाएं प्रकाशित हुई. नेट पर एक आन-लाइन किताब शिष्टाचार के बहाने श्री सुमन घई जी के सहयोग से पुस्तक बाजार डट काम पर प्रकाशित है.

मुझे लगता है , साहित्य बिरादरी में पाँव रहने लायक मैंने थोड़ी सी जगह बना ली है.

सुशील यादव

दुर्ग छत्तीसगढ़

RETD FROM VADOADARA,GUJ. AS DY. COMMISSIONER,

susyadav444@gmail.com

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