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तबस्सुम फ़ातिमा

महिला दिवस पर ... अफ़गानी औरतों के नाम - दो कविताएँ

(1)

मै मासूमा आफरीदी

उम्र 22 साल/

मुझे देखने या तलाश करने की ज़रूरत

नहीं है/

इन वादियों में/

अब मैं नहीं मिलूंगी/

अब मैं यहां कहीं नहीं मिलूंगी/

दूर तक फैले पहाड़ों/ सरसब्ज़ वादियों/

सड़कों/बाज़ारों/

या स्कूलों में/

कहीं-नहीं मिलूंगी मैं/

तोप और टैंकर मिलेंगे सड़कों पर/

दूर तक एक कतार से जाते हुए/

असलहों से लैस वे जादूगर मिल जाएंगे/

जिनकी घनी दाढ़ियों, चेहरे की सख्ती और

खुरदरे हाथों में

हमें गायब करने का हुनर बचपन से सिखाया

गया है/

ठीक उस जादूगर की तरह

जो एक दिन गांव के तमाम चूहों को/

बांसुरी बजाता हुआ/

पहाड़ी की तलहट्टी में लेकर उतर गया था।

मैं मासूमा आफरीदी

उम्र 22 साल/

अब कहीं नहीं मिलूंगी/ मैं इन वादियों में/

कहतें हैं उस मदरसे को भी तोड़ दिया गया

जहां एक बार भूले से तालीम के लिए

ले गई थी मेरी मां/

और इसके एवज़/ उसकी पीठ पर कैक्टस

बो दिये गये थे/

खुशकिस्मत थी मेरी मां/

वो मुस्कुराती हुई, पीठ पर उगे हुए कैक्टस को/

लेकर उ़ड़ गई थी/

हमेशा के लिए

मैं मासूमा आफरीदी

काले कफन में लिपटी/ सर से पांव तक

अपने ही घर की चहारदीवारी में चुन दी गई

यहां बारूदी टैंक और मिजाइलों की धमक में

अज़ानों की आवाज़ें भी कानों तक नहीं पहुंचतीं/

मेरे बेजान पांव घुटन भरे अंधेरे कमरे में

नमाज़ और सजदे के लिए जागते हैं/

तो दुआएं गड़गड़ाती गोलियों में जन्म लेने

से पहले ही/

मर जाती हैं/

मैं मासूमा आफरीदी

उम्र 22 साल/

मुद्दतों से अपने घर की चहारदीवारी में बंद/

उस छोटे से रोशनदान की तलाश में/

जो बाहरी दुनिया को, सूर्य की एक पतली

लकीर के साथ/

मेरी दुनिया से जोड़ सके/

एक अंधेरे से तुलुअ होती सुबह/

एक अंधेरे से खत्म होती शाम/

घने कोहरे में गुम होती हुई

मैं बे-नामो-निशान।

-तबस्सुम फ़ातिमा, डी-304 ताज एन्कलेव गीता कालोनी दिल्ली-110031मो० 9958583881

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