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महिला दिवस पर एक और कविता "औरत"

  • कुसुम वीर
  • 7 मार्च 2017
  • 1 मिनट पठन

औरत

संघर्षों की पोटली को सर पर थामे माँ, बेटी और पत्नि की भूमिका निभाती सुःख-दुःख की परछाइयों को जीवन्तता से लाँघती साहसी औरत जो कभी, रहती थी चारदीवारी में आज ! बन्द किवाड़ों को धकेल बाहर आ खड़ी है

अपनों के सपनों को पल्लू में बाँधे कल के कर्णधारों को गोद में दुलारती

अपनी मुठ्ठी में उनके भविष्य का खजाना बटोरती प्रेरणाशील औरत जो कभी, छुपती थी पर्दे में आज ! दूसरों को अपनी पदगामिनी बना रही है

अपने कन्धों पर पराक्रम का दोशाला ओढ़े ज़िन्दगी की ऊँची-नीची पगडण्डियों पर निर्भीकता से कदम बढ़ाती सफलता की सीढ़ियों को नापती सबला औरत जो कभी, थी अबला के रूप में आज ! आसमान की बुलन्दियों को छूने को बेताब खड़ी है

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कुसुम वीर

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