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बेचारा इंसान ... जून ऐडिटोरियल

  • मुक्ता सिंह ज़ौक्की
  • 6 जून 2017
  • 2 मिनट पठन

बेचारा इंसान! पैदा होते ही अपनी आज़ादी खो बैठता है. सबसे पहले लंगोटी में बंधता है, फिर एक एक कर (या कई बार, एकसाथ) पारिवारिक, धर्म और राष्ट्रीयता के नामों में. कोई गरीब परिवार में पैदा हो कर पिता के ऋण से बंध जाता है, कोई ग़लत लिंग में पैदा हो कर समाज की उम्मीदों से. नवजात शिशु जो शीतल जल, हरी वसुंधरा, नीले गगन और ताज़े ऑक्सीजन से लदे पवन के थपेड़ों की उम्मीद करते हुए दुनिया में प्रवेश करता है, पाता असल में है ढेर सारी कुंठाएँ और दूषित वातावरण. फिर इनके अलावा खुद की नन्ही गर्दन पर डली पड़ते पाता है मानव द्वारा बनाए गए संस्कारों का भारी-भरकम कुंडा.

हमने तो अपने रोज़मर्रा जीवन के मामले चलाने के लिये संस्कार (संस्कृति और धर्म) तय कर लिये, बेशक ये सही-गलत की कसौटी पर रख कर बनाए गए नियम नहीं हैं, केवल हमारी सहूलियत को देख कर हमारे पूर्वजों द्वारा बनाए गए नियम हैं, जो कि समय के साथ ज़रा-ज़रा कर कुछ हमारे बच्चे बदलते जाएँगे, कुछ हमारे बढ़ते-बिगड़ते आर्थिक हालात.

लेकिन हमारे बीच कुछ ऐसी संस्कृतियाँ हैं जिन्हें केवल कुदरत की मंद फुसकारों ने समय की धीमी गति में विकसित किया है, शायद इसलिये वे सुंदर हैं. ऐसी संस्कृति के लोग केवल एक ही बंधन में बंधे हैं, प्रकृति के. प्रकृति में ये ऐसे रत हैं कि इनकी हर आस्था और जीवन-पद्धति जंगल से जुड़ी हैं. किसी भी शक्ति, वस्तु या जीव में इनकी आस्था जाग सकती है, ये उसे पूजनीय मानने लगते हैं, पूरा का पूरा गाँव बसा डालते हैं. फिर - जितने गाँव, उतने भगवान!

बस्तर के इन सुंदर लोगों पर आधारित हम इस साल की दूसरी कहानी इस अंक में प्रस्तुत कर रहे हैं. इस अंक में हमने मिर्ज़ा हफ़ीज़ जी को बस्तर के इन लोगों के बारे में लेख लिखने के लिये आमंत्रित किया है. उनका बेहतरीन विवरण ज़रूर पढ़ियेगा.

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