नदी के किनारे

सबेरे सबेरे
ताज़ी हवा को सीने में भरते हुए
टहलना चाहता हूँ
जीना चाहता हूँ....
फिर से
बगीचे में
सूखे पत्तों पर
नंगे पाँव
फुदकना चाहता हूँ
घर लौटकर
माँ के आँचल में दुबकना चाहता हूँ...
फैलना चाहता हूँ
आसमान के ओऱ तक
खेतों के अंत तक
पीपल के पोर पोर में
नदी में घुल जाना चाहता हूँ
हवा बन जाना चाहता हूँ
कई बार तो सूरज बन
आसमा को रंगीन कर देना चाहता हूँ।
चंद्रभान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के इतिहास अध्ययन केंद्र में प्राचीन इतिहास के शोधार्थी हैं।
इतिहास एवं साहित्य में रुचि के साथ-साथ वे थिएटर से भी जुड़े हैं।
saahir2000@gmail.com
