पिता शब्द संस्कृत के पितृ शब्द का मूल लिए है। पिता जैविक हो या पालनहार-बच्चों की सुरक्षा, सहायता, उत्तरदायित्व उसका कर्तव्य है। पिता संतान को अनुशासित भी रखता है और उसके साथ भावनात्मक रूप से भी जुड़ा होता है। सतान को आर्थिक संरक्षण देना, उत्तम गुणों से युक्त करना, उज्ज्वल भविष्य देना पिता का कर्तव्य है। पिता का आचरण और व्यवहार बच्चों के लिए आदर्श बनता है। पिता जनक है, तो पोषक भी है। जनक जीवन ही नहीं, जीवन मूल्य भी देते हैं। पिता का साया बरगद की छांव के समान माना गया है। हर दुख और संकट से पिता ही कल्याण और रक्षा करता है। कहते हैं- ‘पिता है तो बाज़ार के सब खिलौने अपने हैं।’
विवाह सभ्य, सुसंस्कृत मनुष्य द्वारा निर्मित महत्वपूर्ण प्रथा और समाजशास्त्रीय संस्था है; पारिवारिक, सामाजिक, नैतिक, आर्थिक मूल्यों के सर्वोतम रूप का समुच्च्य है। आर्ष ग्रन्थों में चित्रित आदर्श गृहस्थ की रूप रेखा में संकल्प और सक्रियता, अधिकार और कर्तव्य का प्रमुख स्थान है। संतानोत्पति इसमें संपूर्णता लाती और वंशवृद्धि करती है। पति- पत्नी सम्बन्धों को मजबूत बनाने में बच्चों की भी मुख्य भूमिका होती है। राम और सीता के बीच वनवास समाप्त करने और सीता को पवित्र साबित करने में लव- कुश की भूमिका विशेष रही है। ऐसी ही भूमिका शकुंतला और दुष्यंत के संदर्भ में बेटे भरत की है। इसी प्रकार बच्चों के लालन-पालन के लिए, व्यक्तित्व के समग्र विकास के लिए हवा-पानी की तरह माँ- पिता अनिवार्य है। कोई वेल्फेयर स्टेट, शिशुशाला या बालोद्यान बच्चों को वैसी सुरक्षा और संरक्षण, जीवन मूल्य और संस्कार, स्नेह और पोषण का वह आधार नहीं दे सकते, जो सगे माता –पिता की छत्र-छाया में मिलता है।
पिता की दूसरी पत्नी/ दूसरी औरत या माँ का दूसरा पति/ दूसरा आदमी सौतेले माँ- बाप कहलाते हैं। हिन्दी के कहानी-सम्राट प्रेमचंद वैयक्तिक जीवन में सौतेली माँ के साये तले पले थे। उनकी कहानियों में सौतेली माँ का क्रूर, अनासक्त और तटस्थ रूप यत्र-तत्र मिल जाता है। उषा प्रियम्वदा की ‘शून्य’i में कहानी की सौतेली माँ बाबूजी की पत्नी है, पर उनकी माँ नहीं। वह दोनों सौतेले बेटों से कभी जुड़ी ही नही। उसके मुँह से निकला ममत्व का कोई भी शब्द बेटों को अजीब सा लगता है।
विश्व के अधिकांश भागों में समाज पितृवंशीय, पितृसत्ताक और पितृभक्त है। ऐसे में बच्चों वाली तलाक़शुदा, परित्यक्ता, या विधवा कानूनी अधिकार मिलने के बावजूद पुनर्विवाह का चयन कम ही करती थी। मोहन राकेश की ‘पहचान’ या मन्नू भण्डारी की ‘बंद दराजों का साथ’ में माँ का पुनर्विवाह माँ और बेटे दोनों के लिए मानसिक संताप बनकर आया है।
21वीं शती बहुपक्षीय परिवर्तन की शती है। कडवे घूंट पी उफ तक न करने वाली स्त्री पश्चिम की हो या भारत की प्रवासिनी- उसने अपने बारे में सोचना शुरू कर दिया है। माँ की इस अस्तित्व सजगता के, आत्म केंद्रण के सकारात्मक-नकारात्मक परिणाम बच्चे भी झेल रहे हैं। माँ होने के बाद जब स्त्री कोई अन्य पति/ प्रेमी/ लिव-इन- पार्टनर ढूंढती है, तो संतान अनाथ होकर रह जाती है। तात, जनक, पितृ, पापा, बापू, अब्बा, बाबा, वालिद, बप्पा- सब शब्द निरर्थक हो जाते हैं। कहा जाता था कि सौतेली माँ के आने पर पिता भी सौतेले हो जाते हैं, पर इन कहानियों का सत्य और संतान मनोविज्ञान कहता है कि सौतेले पिता के आने पर माँ भी सौतेली हो जाती है। बेटे दूसरे आदमी को पिता नहीं मान पाते और दूसरा आदमी बेटी का बाप नहीं बन पाता। घर में मिलनेवाला सौतेलापन बच्चे के व्यक्तित्व को विखंडित और अवरुद्ध कर देता है। उसका मानसिक, बौद्धिक और रचनात्मक विकास कुंठित होता है।
अर्चना पेन्यूली की ‘बेघर’ii उस बेघर बेटे राहुल की कहानी है, जिसके माँ और बाप तलाक ले पुन: शादियां करते हैं। अपनी माँ को किसी अन्य पुरुष के आगोश में और पिता को दूसरी औरत के साथ देखने के लिए बच्चा अभिशप्त है। चार भाई- बहन तो हैं, पर सब हैफ़- कोई अपना नहीं। राहुल के लिए न माँ के डेन्मार्क वाले हैफ़ फादर वाले घर में जगह है, न पिता के सौतेली माँ वाले घर में, न नानी या मामे- मामियों के घर में । वह सर्वत्र अवांछित है।
रेखा मैत्र की ‘वापसी’iii में आज इमरान इराक से वापिस आया है। माँ समीना ने बड़ी पार्टी रखी है, पर बेटे के चेहरे पर खुशी नही है। मेहमानों के चले जाने पर वह मैं को बताती है कि इमरान छोटा सा था पति के दूसरी औरत से संबंध होने के कारण समीना बच्चों के साथ अलग रहने लगी। कालान्तर मे उसने तलाकयाफ़ता गुलजार से शादी कर ली। इमरान को ठीक नहीं लगा। उसने बिना बताए इराक के लिए फार्म भरा और चला गया। वह खुश नही है। इराक युद्ध में भले ही इमरान ने विजय हासिल की हो। भले ही बिना खरोंच के वापिस आ गया हो, पर पिता का दूसरी औरत लाना, माँ का अलग होना और गुलजार से शादी करना, पुत्र के लिए हैफ़ फादर झेलना- ऐसे ज़ख्म हैं, जिन पर मरहम लग ही नहीं सकती। माँ- बाप के दुबारा तिबारा शादी करने या साथी बदलने का सबसे अधिक अंजाम बच्चे को भुगतना पड़ता है। अनिल प्रभा कुमार की ‘घर’iv में माँ का तलाक और पुनर्विवाह सलीम की किशोरावस्था मे गहरे घाव छोड़ देते हैं। छात्रावास मे रह रहे सलीम के जीवन से घर शब्द ही मिट जाता है। माँ का जाना उसके जीवन मे भूकंप ला देता है। सारा व्यक्तित्व गडमड हो जाता है। पढ़ाई छूट जाती है। स्कॉलरशिप जुटाना असंभव हो जाता है। हिस्सा बांटने के लिए माँ- बाप मकान बेच देते है। बहन फरजाना दूर कैलिफोर्निया मे नौकरी करके अपने को सबसे काट लेती है। पिता टूयर पर रहने लगते हैं और कालांतर मे पुनर्विवाह कर लेते हैं। माँ और बेटे के रिश्ते के बीच लक्ष्मण रेखा खिंच जाती है। अंतत: सलीम चिड़ियाघर मे नौकरी करने लगता है, क्योंकि उसे प्यार चाहिए और चिड़ियाघर के जानवरों का प्यार उसे बांध लेता है, उसे घर का एहसास देता है। माँ- बाप मे अलगाव और पुनर्विवाह बच्चों के जीवन को असामान्य बना देता है
हैफ़ फादर के लिए पत्नी का बच्चा झेलना हथेली के फोड़े सा हो जाये तो उसके अंदर आपराधिक वृतियाँ उभरने लगती हैं। स्नेह ठाकुर की ‘क्षमा’v का हैफ़ फादर डेविड तो है ही आपराधिक वृति का। वह पत्नी जूली के दोनों बच्चों का हत्यारा ही नहीं, नन्ही सी बेटी का यौन उत्पीड़क भी है। ज़किया जुबेरी की ‘बाबुल मोरा’vi हैफ़ फादर की हैवानियत और आत्मकेंद्रित माँ की असंवेदनशीलता तथा क्रूरता का चित्रण करती है। पति से तलाक के बाद नैन्सी- तीन बेटियों की माँ, फ़िल के साथ रहने लगती है। पति बेटियों और पत्नी के लिए घर भी दे देते हैं। बड़ी बेटी लिसा अपने इस नए पिता/ बाबुल फिल के बलात्कार का शिकार होती है और फ़िल को जेल भी होती है। लेकिन फिल की रिहाई पर माँ नैन्सी चाहती है कि बेटी काउंसिल का अलग घर ले ले। इतना कुछ हो जाने के बावजूद भी संतान के लिए अनासक्त यह माँ बलात्कारी फ़िल के स्वागत में जुटी है। उनकी ‘मारिया’vii में मार्था और उसकी बेटी का एक ही दोगला पुरुष मित्र है। बेटी मारिया का बच्चे को जन्म देना माँ मार्था को बेचैन और विह्वल कर जाता है। उसे रह-रह कर अपना प्रेमी और उसका मृदुल–संवेदनशील व्यवहार स्मरण आता है। संकट के इन क्षणों में उसकी बहुत जरूरत महसूस होती है। किशोरी बेटी को अस्पताल से छुट्टी दिला कर वापिस लौटते समय वह उससे बच्चे के बाप का नाम पूछती है और बेटी का उत्तर है- “ माँ जिसके पास तुम जाती थी।“ मार्था का दुख दोहरा है। एक तो उसकी 15 साल की बेटी माँ बन गई। अब वह समाज मे किस किस को क्या जवाब देगी और दूसरा यह कि उसकी बेटी भी उसी पुरुष से संबद्ध है, जिसे वह अपना प्रेमी मानती थी। सुधा ओम ढींगरा की ‘टोर्नडो’viii में भी माँ जेनेफर के प्रेमी केलब की नजर बेटी क्रिस्टी पर है। सब जानकार भी माँ उसे छोड़ती नहीं। कुछ देर उसे अपने घर से दूर जरूर रखती है। लेकिन जैसे ही जेनेफर केलब से शादी कर उसे घर लाती है, एक ई-मेल छोड़ क्रिस्टी सदा के लिए चली जाती है। माँ बाप के तलाक का प्रभाव सबसे अधिक बच्चों पर पड़ता है। तलाक के बाद की मुसीबतें बच्चे ही झेलते हैं। नीना पॉल की ‘ऐसा क्यों’ix में तलाक के बाद जेनी के पिता पुनर्विवाह करके दुबई चले जाते हैं और माँ सूजन एक प्रेमी रख लेती है। माँ का प्रेमी डेविड 11 वर्षीय जेनी से गंदी बातें करता है, उसे चांटे मारता है, जानवरों की तरह खींचता है, घसीटता है, उसे और माँ को जान से मारने की धमकी देता है। डरी – सहमी बच्ची घर छोड़ बुआ के यहाँ लीवरपूल जाने का निर्णय ले अकेली ही गाड़ी में सवार हो जाती है। बच्ची- जिसके पास न माँ है, न पिता, न कोई और संबंधी- सामाजिक सुरक्षा में जाने के लिए विवश/ अभिशप्त है।
लेकिन मानवता ज़िंदा है। सभी हैफ़ फादर ऐसे नहीं होते। उषा राजे सक्सेना की ‘डैडी’x बेइन्तहा प्यार करने वाले हैफ़ फादर की कहानी है। वह तीन साल की थी, जब माँ ने यह शादी की थी। पूरा प्यार-दुलार मिलने के बावजूद नायिका ममी-डैडी की नीली आँखों, भूरे बालों तथा अपनी काली आँखों और काले बालों के कारण उद्वेलित रहती है और यह बाईस वर्षीय युवती माँ की मृत्यु के बाद अपने बायलोजिकल पिता की खोज में स्पेन के लिए चल देती है। स्पेन में सप्ताह भर रूकती है। लेकिन जल्दी ही जान जाती है कि हैफ़ डैडी का प्यार, विश्वास और सहृदयता ही उसकी पूंजी हैं। हैफ़ फादर फ्रेंक ने भी उसकी सुरक्षा और सुविधा की हर चिंता की है। कहानी हैफ़ डैडी का स्नेहिल रूप, मानवीय संवेदनाओ और रिश्तों का साकारात्मक चित्रण लिए है। नीना पॉल की ‘कागज का टुकड़ा’xi में एक सुखी परिवार है। माँ हैजल और पिता हेनरी को बेटी केट और बेटे जेमी की नोक-झोंक और हुड़दंग अच्छा लगता है। बच्चों के झगड़े और प्यार संजीवनी बन जीवन में रस घोल रहे है। स्कूल के साथ एक सप्ताह के लिए फ़्रांस जाने के संदर्भ में केट को पासपोर्ट के लिए बर्थ सर्टिफिकेट चाहिए। सर्टिफिकेट देख पंद्रह की उम्र में उसे पता चलता है कि वह किसी क्रिस्टोफर की बेटी है। इतना प्यार करने वाले बाप और भाई सगे नहीं हैं। लेकिन जितना धक्का उसे लगता है, उतना ही माँ, पिता और भाई को भी। अंतत: सभी एक-दूसरे को मना/ समझ लेते हैं। बायोलाजिकल पिता ने तो उसे जन्म से पहले ही छोड़ दिया था और इस हैफ फादर ने तीन मास की बच्ची से स्नेह- संरक्षण- पितृत्व का गहरा नाता जोड़ा था।
हैफ़ फादर तटस्थ हो, पशुवत हो अथवा स्नेहिल संरक्षक-बायलजिकल पिता की खोज में निकली संतान की तड़प खून के रिश्तों में समाई चुम्बकीय शक्ति का परिचय देती है। यह उस देश की कहानियां है, जहां बच्चे अनाथालयों मे पल जाते हैं, बड़े होने पर उन्हें प्रेमी/ मित्र भी मिल जाते हैं, पर समस्या जन्म दाताओं की खोज की है । मानों वे मूल और अनिवार्य रिश्तों को ढूँढते ‘चौराहे के मोड’ पर खड़े है, और नहीं जानते कि किधर मुड़ना है। अरुणा सबबरवाल की ‘चौराहे के मोड़’xii एक किशोरी की सफलता- असफलता की कहानी नहीं, यहाँ समस्या जन्मदाताओं की खोज की है। अनीता के पास कैथरीन सी दोस्त और क्लाइव सा प्रेमी है। वह एकल माँ की बेटी है। माँ पम्मी बचपन मे ही मर गई थी और अपनी मृत्यु के साथ ही पिता का रहस्य भी ले गई। अनीता का जीवन लक्ष्य पिता की खोज बन चुका है। बालगृह मे जीवन के अठारह वर्ष बीत गए। उसके बाद कौंसलर का छोटा सा फ्लैट भी मिल गया। बस स्टैंड पर एक रोज माँ की सहेली सौफ़ी मिलती है और माँ की जिम्मी जेम्स विलियम से अंतरगता की बात करती है। अनीता नेट मे जिम्मी जेम्स विलियम को खोज लेती है। मुलाकाते भी होती हैं। अनीता को लगता है कि उसे पिता मिल गया है। इस तथ्य को ठोस आधार देने के लिए वह अपना और जिम्मी जेम्स विलियम का डी. एन. ए. करवाती है और रिपोर्ट के बाद भ्रम का यह रिश्ता टूट जाता है और अनीता अपने को फिर चौराहे पर खड़ा पाती है। पिता की खोज हमें अर्चना पेन्यूली की ‘केतलीना’xiii में भी मिलती है। दो दशक पहले कोलंबिया की राजधानी बोगोटा आए अनिल कोहली और वहाँ कंपनी की कैंटीन में काम करने वाली फ़रेरा प्रेम में सारी हदें पार कर जाते हैं। परिजनों से गर्भवती फ़रेरा से विवाह की अनुमति के लिए भारत आ रहे अनिल कोहली की प्लेन क्रैश से मृत्यु हो जाती है और उनकी मृत्यु के छह महीने बाद केतलीना का जन्म होता है। हैफ़ पिता लियोपोल्डो एवं दो छोटे हैफ़ भाइयों के बावजूद केतलीना पैतृक जड़ों से जुडने के लिए भारत आ अपने पिता के परिवार से संपर्क करती है। दादी, ताया, बुआ सब उसे दिल से अपनाते हैं। स्नेह देते हैं, उसकी पढ़ाई का खर्चा उठाने की जिम्मेवारी भी लेते हैं। अर्चना पेन्यूली की ‘एक छोटी सी चाह’xiv की स्वाति की बेचैनियों और तनाव का कारण उसका दत्तक पुत्री होना है। लेकिन जल्दी ही वह उस माता- पिता के स्नेह- संरक्षण को समझ जाती है, जिन्होंने उस पर अपने जीवन का हर पल न्यौछावर कर दिया।
पिता का प्यार, दुलार, विश्वास, सहृदयता संतान की पूंजी होती है। पिता संतान के व्यक्तित्व का पूरक है। भिन्न देशों में रहने वाली इन प्रवासी महिला कहानीकारों ने वैश्विक स्तर पर सौतेले/ हैफ़ पिता के श्वेत- श्याम, उज्ज्वल- मटमैले, क्रूर- स्नेहिल – सब तरह के चित्र अंकित किए हैं और सौतेले शब्द से घिरे बेटे- बेटियों के संताप, तनाव, अलगाव, अनाथत्व, अवांछित स्थिति, भाय, संत्रास– सब को अभिव्यक्त किया है।
संदर्भ:
i उषा प्रियम्वदा, शून्य, शून्य और अन्य रचनाएँ, राजकमल, दिल्ली, 1996
ii अर्चना पेन्यूली, बेघर, वागर्थ, भारतीय भाषा परिषद, 36-ए, शेक्सपीयर सारणी, कलकत्ता-700017
iii रेखा मैत्र, वापसी, गर्भनाल, दिसम्बर 2007
iv अनिल प्रभा कुमार ,घर, अभिव्यक्ति , 14 फ़रवरी, २०११
v स्नेह ठाकुर, क्षमा, वसुधा, समय: जुलाई-सितंबर 2015, वर्ष: 12, अंक: 47, केनेडा
vi ज़किया जुबेरी, बाबुल मोरा, शब्दांकन,http://www.shabdankan.com/2013/01/zakia001.html
vii ज़किया जुबेरी, मारिया, अभिव्यक्ति, समय: 28 फ़रवरी, 2008
viii सुधा ओम ढींगरा, टोर्नेड़ों, कमरा न॰ 103, अंतिका, गाजियाबाद-5
ix नीना पॉल, ऐसा क्यों, पत्रिका: साहित्यकुंज, समय: 23 जून 2014
x उषा राजे सक्सेना, डैडी, वह रात और अन्य कहानियाँ, सामयिक, नई दिल्ली, 2007
xi नीना पॉल, कागज का टुकड़ा, हिन्दी समय, http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=6872&pageno=1
xii अरुणा सब्बरवाल, चौराहे के मोड, आधारशिला, जुलाई- अगस्त 2013, अंक-116-117,
xiii अर्चना पेन्यूली, केतलीना, कथादेश, सहयात्रा प्रकाशन प्रा. लि., सी-52, ज़ेड-3 दिलशाद गार्डन, दिल्ली-95.
xiv एक छोटी सी चाह, अर्चना पेन्यूली, वागर्थ, भारतीय भाषा परिषद, 36-ए, शेक्सपीयर सारणी, कलकत्ता-700017o.in
डाॅ. मधु संधु
जन्म स्थान - अमृतसर, पंजाब
शिक्षा - एम. ए. डी. ए. वी. कालेज अमृतसर. पी एच. डी.(हिंदी)
पीएच. डी. का विषयः सप्तम दशक की हिंदी कहानी में महिलाओं का योगदान, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय की प्रथम पी. एच. डी.
नौकरी/व्यवसाय ःगुरु नानक देव विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर
एवं अध्यक्ष रह चुकी हैं।
सम्प्रति - स्वतन्त्रा लेखन।
द संडे इंडियन ने गणना 21 वीं शती की 111 हिंदी लेखिकाओं में की है।
प्रकाशित साहित्यः कहानी संग्रहः
1. नियति और अन्य कहानियां, दिल्ली, शब्द संसार, 2001
2. दीपावली/अस्पताल डाॅट काॅम, दिल्ली, अयन, 2014
कविता संग्रहः
3. सतरंगे स्वप्नों के शिखर, दिल्ली, अयन, 2015
कहानी संकलनः
4. कहानी श्रृंखला, दिल्ली, निर्मल, 2003
गद्य संकलन
5. गद्य त्रायी, अमृतसर, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, 2007.
आलोचनात्मक एवं शोधपरक साहित्यः
6. कहानीकार निर्मलवर्मा, दिल्ली, दिनमान, 1982
7. साठोत्तर महिला कहानीकार, दिल्ली, सन्मार्ग, 1984
8. कहानी कोश, (1951-1960) दिल्ली, भारतीय ग्रन्थम, 1992
9. महिला उपन्यासकार, दिल्ली, निर्मल, 2000
10. .हिन्दी लेखक कोश,(सहलेखिका) अमृतसर, गुरु नानक देव वि.वि., 2003
11. कहानी का समाजशास्त्रा, दिल्ली, निर्मल, 2005
12. कहानी कोश, (1991-2000) दिल्ली, नेशनल, 2009
13. हिंदी का भारतीय एवं प्रवासी महिला कथा लेखनः तुलनात्मक अध्ययन,दिल्ली, नमन, 2013.
14. साहित्य और संवाद, अयन, दिल्ली, 2014
15. प्रवासी हिंदी कहानी कोश ( प्रकाशनाधीन )
सम्पादनः
16. प्राधिकृत (शोध पत्रिका) अमृतसर, गुरु नानक देव वि.वि., 2001-04
निर्देशन
17. पच्चास के लगभग शोध प्रबन्धों एवं शोध अणुबन्धों का निर्देशन।
अनुभूति, अनुवाद भारती, अभिव्यक्ति, आधारशिला, औरत, कथाक्रम, कथादेश, गगनांचल, गर्भ नाल, गुरमति ज्ञान, चन्द्रभागा संवाद, पंजाब सौरभ, पंजाबी संस्कृति, परिशोध, परिषद पत्रिका, प्राधिकृत, प्रवासी दुनिया, मसि कागद, युद्धरत आम आदमी, वागथर्, वितस्ता, विभोम स्वर, वेब दुनिया, रचनाकार, रचना समय, शोध भारती, संचेतना, संरचना, समकालीन भारतीय साहित्य, समीक्षा, सृजन लोक, साक्षात्कार,, साहित्यकुंज, साहित्य सुघा, सेतु, हंस, हरिगंधा, हिन्दी अनुशीलन, आदि पत्रिकाओं में दो सौ के आसपास शोध पत्रा, आलेख, कहानियां, लघु कथाएं एवं कविताएं प्रकाशित.
madhu_sd19@yahoo.in