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ऋतु राय

फिर गोरखपुर ...


कुछ ज्यादा नहीं, बस महसूस करना था कुछ ज्यादा नहीं करना था बस महसूस करना था सिर्फ महसूस ही करना था कि कोई उनका अपना होता तो क्या इस तरह साँसों के लिए मोहताज होता?

उन निगाहों को दूर तक दौड़ा कर देखना था कोई उनका अपना होता तो, ये नज़रें किस तरह सामना करतीं किस तरह परखतीं उस क्षण को उन नाजुक गतिहीन भावभंगिमा को किस तरह निहारती उन मासूमों को क्या पता था ? जो यह जान ही न सकें कि धड़कने कब शुरू होती हैं और कैसे थमती हैं साँसे? ये सोचने की जरूरत ही न थी की कुछ गड़बड़ होता और पक्ष-विपक्ष और विरोध के स्वर क्या कहतें? महज मनोवृति को तैयार करना था और उन माओं की जगह खुद को रखना था सिर्फ यहाँ एक ही कार्य करना था सोचना था दिल की गहराइयों में जाकर दिमाग के तार को जोड़ना था और पूछना था एक ही सवाल? कि कोई यहाँ अपना होता तो, हाल-ए-दिल पर क्या गुजरता? और मनज़र क्या होता? अमीर-हैं या ग़रीब ऐसे सवालों की यहाँ जरूरत ही न थी केवल उस माहौल में खुद को रख कर दर्द के सैलाब में डूबना था मेरा यक़ीन है कि बस यही मन में आरक्षित अनुभव मात्र से कोई अनहोनी इतनी बेअदब न होती इतनी असभ्य, बर्बर और जाहिल न होती यहाँ बात हो रही है भावनाओं से संपन्न इंसान के इंसानियत को अनुभूत करने की हम अगर हर काम को करने से पहले यह सब महसूस कर लेतें तो बहुत कुछ जीत लेतें यही प्रसंग रख, मन यदि चला होता कि यहाँ कोई मेरा अपना होता तो इस जगह कौन फूट-फूटकर रोता ? और बस यही प्रश्न उस हादसे रोक दिया होता निसंदेह इंसानियत झुक गयी होती उन साँसों को संवारने के लिए जो नाजुक थें और उनके नाजुक से जज़्बात जो बयाँ न हो सकें बड़े गंभीर संवाद के स्वर छोड़ गयें बेचैनियों की नींद में जो समा चुकें तड़फड़ाहत का स्तब्ध आवरण अपनों के दिलों-दिमाग में चीर-फाड़ कर टांकें की तरह चस्पा गयें। ऋतु राय

नजरें जब दूसरों को अपना समझ देखती हैं तो ख्याल खुद-ब-खुद लौट आता है।

--ऋतु राय

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