- - नितिन चौरसिया
"मंज़िल" : कविता

मंजिल न थी कोई जब
हर राह पे मंजिल दिखती थी
अब मंजिल मालूम है मुझको
पर रस्ते भटकाते हैं ।
जिस रास्ते पे सब चलते थे
उसपरचलने को जो हुआ
'लीक वही नहीं' कहते
कुछ अग्रज आ जाते हैं ।
'प्रेम पथिक' मैं जितना चलता,
उतना ही आनन्द मिला,
पर संशय के बादल हरदम
क्यूँ प्रीत गगन में छाते हैं?
तुम चलते हो, मैं चलता हूँ,
ये जग चलता है प्रतिपल,
कोई लक्ष्य है इनका भी
ऐसा ही सब बतलाते हैं।
तुम मिलते हो, खो जाते हो,
फिर मिलते हो ऐसा क्यूँ?
क्या रस्ते इतने टेढ़े है
दोनों टकरा जाते हैं?
क्षुधा और तृष्णा दोनों ही –
जीवन का आश्रय जिनका,
वो इतने के ही प्रबंध में
जीवन जीते जाते हैं ।
हो उद्देश्य एक जीवन का,
बने सहारा हम गैरों का,
औरों के हित जीने वाले
युग युग जीते जाते हैं ।

मेरा नाम नितिन चौरसिया है और मैं चित्रकूट जनपद जो कि उत्तर प्रदेश में है का निवासी हूँ ।
स्नातक स्तर की पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय से करने के उपरान्त उत्तर प्रदेश प्राविधिक विश्वविद्यालय से प्रबंधन स्नातक हूँ । शिक्षणऔर लेखन में मेरी विशेष रूचि है । वर्तमान समय में लखनऊ विश्वविद्यालय में शोध छात्र के रूप में अध्ययनरत हूँ ।
फ़ोन -09453152897
ई-मेल - niks2011d@gmail.com