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"वापसी की सौगंध"

  • प्रोफ़ेसर रमानाथ शर्मा
  • 1 सित॰ 2017
  • 1 मिनट पठन

धुंध कुहरा और ऊपर ठिठुरती बदली,

रिस रहे ओले, झुलस कर रह गया हर फूल ।

मौन तोडा जब हवाओं ने सिहर कर,

एक सीटी सी बजी बांसी बनों में ।

फिर न जानें क्यों नदी कुछ सुबसुगाई

और उसके वक्ष पर तिरती रही छिटकी, छितरती,

परत-दर हलकी दरकती बरफ ।

मौन मनुहारें थकीं, बोझिल निगाहें,

कांपते से ओठ हलकी नीलिमा को भेद,

बुदबुदाते शब्द ।

वो हमारे दिन यहीं गुजरे जहां कल-कल नदी हर पल,

थिरक नटती, बिहंसती सी, बही ऐसे,

कि कोई गंध-भीनी हवा का हो खुशनुमा झोंका,

परसकर दूरियों मे खो रहे जैसे ।

रात की हर भोर होगी खुशनुमा इसका भरोसा

क्यों भरेगी नदी,

या फिर गंध-भीनी हवा का ही खुशनुमा झोंका,

सुनेगा वापसी की कौन सी सौगन्ध ।

-रमानाथ शर्मा

प्रोफेसर रमानाथ शर्मा (एमेरिटस प्रोफेसर)

यूनिवर्सिटी आव हवाई एैट मनोआ

होनोनोलुलु (हवाई, यू. एस. ए.)

Ramanath Sharma

Emeritus Professor of Sanskrit

Honolulu, HI 96822 (U.S.A.) University of Hawai'i at Mānoa

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