(1) स्वार्थ और सत्ता
वह कुछ दिन पूर्व ही मंत्री पद से हटे थे |एक दिन एकांत में बैठे बैठे वह चींटों को देख रहे थे | चींटे भागे चले जा रहे थे , कतारबद्ध , बेतहाशा , दूसरे डले की ओर |पहले डले का सारा गुड़ वह चट कर चुके थे |शायद भूख से तिलमिलाए हुए थे ?बड़ी संख्या में भी थे |धीरे धीरे गुड़ का डला , डला न रहकर मात्र एक कंकर रह गया था |
उन्होंने देखा सभी तरह के चींटे लाल –काले बड़े छोटे तेज़ या धीमे चलने वाले एल लक्ष्य ही साधे हुए हैं , किस प्रकार शीघ्रातिशीघ्र पहुँचकर दूसरे डले का अधिकाधिक गुड़ चट किया जाये ?जब चींटे पहले डले के गुड़ को खा रहे थे ,तब उन्होंने एक दो को हटाने की कोशिश भी की थी किन्तु चींटों ने उलटे उनपर ही प्रत्याक्रमण कर दिया था |यह उन्हें हटाते , और वे इन्हें काटते |सारे चींटे टुकड़े टुकड़े हो गए किन्तु उन्होंने मुंह को गुड़ में ही गड़ाये रखा |
चींटों की चींटियों की लम्बी लम्बी कतारें सभी दिशाओ मेंएक ही लक्ष्य से भागी चली जा रही थी |दरवाज़ों से , खिडकियों से यहाँ तक कि छत पर से कूद रहे थे समर्थ और दादा चींटे |
उनके लिए मीठा था गुड़ से भरा हुआ पूरा नया डाला |पुराना डला जो मात्र कंकर रह गया था , एक दम अकेला पड़ा हुआ था |
अब क्या वह स्वयं मात्र कंकर रह गए हैं ?सोचते सोचते चींटों चींटियों की आपाधापी से अपना मुंह मोड़ लिया | बाहर खिड़की से झांक कर देखा उनके सभी समर्थक नए कुर्सीधारी के हो चुके थे |समर्थक किसी एक व्यक्ति के तो कभी रहते नहीं ?मात्र पद या सत्ता के होते हैं |अब उनके समर्थकों के पाँव, नए मंत्री की और जा रहे थे |
(2) प्रतिभा का स्वागत
उस समय तक उसकी रचनाओं को पत्रिकाओं में स्थान नहीं मिलता था |फिर भी पत्र पत्रिकाओं में उसके द्वारा रचनाएँ भेजते रहने का क्रम जारी था |वह नगर की साहित्यिक गोष्ठियों में जाता ज़रूर, लेकिन सब कोई उसे गधा समझते थे पर घास नहीं डालते थे |
बाद में कई बार उसके द्वारा गोष्ठियों में पढ़ी गई रचनाएँ ,सर्वमान्य दिग्गजों द्वारा अमान्य कर दी गयीं |
वह हीन भावना से ग्रस्त हो जाता किन्तु कुछ और बेहतर लिखने की कोशिश करता रहता |कभी कभार पत्रिकाओं को भी प्रकाशनार्थ भेज देता |
दो वर्ष के अंतराल के बाद एक दिन सहित्यकार “क” ने उसे बताया कल गोष्ठी में कई लेखक तुम्हें भला बुरा कह रहे थे |आजकल तुम आते नहीं |तुम्हारी घटिया रचनाओं को बढ़िया पत्रिकाओं में कैसे स्थान मिल जाता है ?
अगले दिन “ख” ने उससे भेंट की |साहित्य जगत में तुम्हारी चर्चा है तुम बहुत घमंडी हो गए हो |रचनाएँ छपने से कुछ नहीं होगा | लेखकों के बीच उठना बैठना चाहिए |
उसके कार्यालयीन मित्र ने सूचना दी तुम्हारी उस रचना पर कई नेता बहुत नाराज़ हैं |शायद तुम्हारे विरुद्ध कोई कार्यवाही भी हो जाये ?
रचना के आधार पर कुछ इनों बाद उसके विरुद्ध शासकीय कार्यवाही होने लगी |वह आश्वस्त हो गया “उसकी प्रतिभा का समुचित स्वागत होने लगा है |”
(3) सौ सौ चूहे खाकर बिलाव हज को चला
नर बिलाव मूंछों वाला था |कंजी आँखों वाला अवसरवादी |मक्खन स्वयं चट करने और पदासीन लोगों को लगाने में अग्रणी|नैतिकता और भारतीयता के प्रति कमनिष्ठ| दामपंथ और सलाम पंथ का घोर समर्थक |
शिविरबद्धता का लाभ उठाकर शिखर पुरुष बन बैठा |शीर्ष सम्मान , शिखर पुरस्कार , रूस और चीन की मेजबानी का आनंद , सभी कुछ हस्तगत किये |कौन सा पुरस्कार था जो उसे अप्राप्त रहा ?
दो पाँव वाला नर बिलाव (दो पांव गुप्त थे | इस अवसर पन्थी शिविर से सब कुछ ले भगा |सैकड़ों मूषकों को अपने चतुर पंजों से ठिकाने लगाने के बाद सोचा तीर्थ यात्रा क्यों न कर ली जाये ?
अब इन पुराने छींकों में रह भी क्या गया है ?
उसने कमनिष्ठों की ओर गुर्राकर देखा |उचित अवसर आने पर फतवा जारी कर दिया “कम निष्ठा के कारण ही साहित्य और संस्कृति की इतनी हानि हुई है |भले ही अतिनिष्ठों की पंक्ति में न बैठ पाए ,वह कम निष्ठों की कतार से बाहर आ चुका है |उसे पूरा विश्वास है कि उस शिविर के शीर्ष बिंदु से चलकर इस शिविर के शीर्ष बिंदु तक भी वह अवश्य पहुंच जायेगा |
अर्थ और काम उस शिविर ने प्रचुर मात्र में दिए |धर्म और मोक्ष इस शिविर में आकर कमा लेगा |याने शाम को पी , सुबह को तौबा कर ली , रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई |
उसकी आत्मा क्षण भर में ही सारे कलंकों को धो लेना चाहती है |उस घाट पर कमनिष्ठ रहकर पूंजी एकत्र की | इस घाट पर धूनी रमाने एक पाँव पर खड़े हुए हैं |लोग उन्हें पहुंचे हुए तपस्वी की तरह देख रहे थे |
(4) मालिक तो हम हैं
दोनों वृद्ध हो चुके थे अतः एक दूसरे को सहारा देते हुए चल रहे थे |आर्थिक दशा भी समान ही थी अतः दोस्ती में प्रगाढ़ता थी |एक की कमीज़ फटी हुई थी तो दूसरे की धोती |दोनों के पांव नंगे थे पर सिर गर्व से तने हुए |
कुछ मिनिट पूर्व एक कार बगल से गुज़री थी , किन्तु कार के मालिक की दृष्टि इन फालतू लोगों पर नहीं पड़ी थी |आगे जाकर कार बाज़ार में रुक गई |दोनों मित्रों में से एक कुंअर विक्रम ने कार स्वामी से खुद ही प्रश्न किया “बाबूजी आजकल बहुत व्यस्त रहने लगे हैं , व्यापार में इतने रम गए हैं की पुराने परिचितों को ही भुला बैठे ?”
“नहीं नहीं | अरे हुज़ूर आपका ही तो खा रहे हैं |धंधे की परेशानियों में इतना उलझा हुआ हूँ कि बगल से निकल आया पर आपको ही नहीं देख पाया ?माफ़ करेंगे | जल्दी ही आपके दर्शन करने आऊंगा |आज्ञा हो तो अभी चलूँ ?थोडा जल्दी में हूँ |”आँख की शर्म करते हुए कार मालिक ने झुककर उत्तर दिया
राजाराम ने कुंअर विक्रम की ओर ससम्मान देखा और पूछ लिया “ यह कौन सज्जन थे ?आपसे कितनी विनम्रता से बात कर रहे थे ?”
बात असल में यह है कि मेरे पिता इस राज्य के राजा थे |बाबूलाल के पिता उस ज़माने के कोषागार के मुंशीजी | बहुत विश्वसनीय और कर्मठ |इतने विश्वसनीय कि पिताजी का पूरा पैसे का हिसाब किताब यही देखते थे |बाद में राज्य भले ही चला गया , मुंशीजी लम्बे समय तक बने रहे | धीरे धीरे मुंशीजी संपन्न होते गए और पिताजी कंगाल |जब पूरा खजाना खाली हो गया तो मुंशीजी ने भी नौकरी छोड़ दी , व्यापार करने लगे |नदी सूख जाये तो सारे पक्षी भी उड़ जाते हैं |
किन्तु आपने अपनी आँखों से देखा वह कार से उतरे, झुककर मुझे हुज़ूर ही कहा ?कुमार विक्रम ने मूंछों पर हाथ फेरते हुए कहा-कुछ भी कहो “आज भी वह हमें मालिक ही मानता है और खुद को सेवक |”
“ मैं भी मालिक हूँ, तभी तो आपसे गहरी मित्रता है ?”राजाराम ने भी अपनी फटी कमीज़ का कॉलर दोनों हाथों से उचकाते हुए कहा
“वह कैसे “ कुंअर विक्रम ने प्रश्न किया
राजाराम ने अपनी स्मृति को कुरेदते हुए उत्तर दिया “उस दिन लाल बत्ती वाली कार में , बन्दूक धारियों की सुरक्षा के बीच मंत्री भी आये थे |हमारे विधायक भी उनके स्वागत के लिए एक पाँव पर खड़े थे |
खूब खा पीकर आये होंगे क्योंकि खूब डकार ले रहे थे |भाषण भी सांड की डकार का आभास दे रहा था |हमें तो बैठने को दरी भी नहीं मिली |लोगों ने जो जूते चप्पल छोड़े थे उन्हीं पर हम बैठ गए |
भाषण में उन्होंने हमें भी देश का मालिक ही बताया |कह रहे थे” मतदाता ही इस देश का मालिक है ,हम तो उसके छोटे से सेवक हैं |”
अब दोनों एक दूसरे का कन्धा पकड़कर चाय की गुमटी में थे |आर्डर दे रहे थे “दो चाय लाना ,कट |याने एक को दो बनाकर |”
(5) भीख
लखमीचंद- यह पांच वर्ष का लड़का भूख मानता है ?अभी से ही माता पिता ने भीख मांगने की आदत डाल दी है ? ऐसे भिखारियों को मैं कभी भीख नहीं देता |
अधीनस्थ कर्मचारी – जी सर –माँ बाप बड़े निर्दयी होंगे | वैसे भीख दे देकर हम लोगों ने भी इनकी आदत बिगड़ रखी है |
लखमीचंद—इन्हें कोई भी डांट देता है पर ये अपनी आदत से कभी बाज़ नहीं आते |फिर शुरू हो जाते हैं |
अधीनस्थ कर्मचारी-हाँ सर ,इन लोगों की दम हिलाने की आदत पड़ गई है , आसानी से जाती नहीं.?
लखमीचंद- भीख माँगना बुरा है , अपमानित होकर होकर पुनः मांगते रहना तो और भी बुरा |
अधीनस्थ कर्मचारी- बिलकुल ठीक सर , आपका विश्लेषण सही है |
लखमीचंद- आज मंत्रीजी का जन्म दिन है |अभी दस ही तो बजे हैं , चलो फूलों का बढ़िया हार ले चलें |संचालक के पद पर मेरी पदोन्नति हो जाये तो अच्छा |
अधीनस्थ कर्मचारी- हाँ सर यही उपयुक्त समय होता है कुछ मांगने का |बड़े आदमी हैं , खुश होकर कुछ न कुछ तो दे ही देंगे |
लखमीचंद- लेकिन ऐसी बात करो तो कभी कभी वह डांट भी देते हैं |
अधीनस्थ कर्मचारी- तो क्या हुआ सर , पुराने मंत्री भी डांट देते थे |लेकिन हमें निवेदन करना कभी नहीं छोड़ना चाहिए | वह दें या न दें हमें मांगना नहीं छोड़ना चाहिए |
लखमीचंद—उन्होंने तो मुझे पदोन्नति नहीं दी क्या पता वर्तमान मंत्री भी देते हैं या नहीं ?लकिन मेरे पिताजे कहा करते थे अपना काम करते रहना चाहिए , दें उनका भी भला , न दें उनका भी भला |
लखमीचंद—हाँ सर मेरे पिताजी की भी यही सीख थी , मांगते रहने में कोई बुराई नहीं है |
(6) उस आतंकवादी से चिंतित हूँ
यहाँ आकर मैं उस एक आतंकवादी से चिंतित रहने लगा हूँ |वह ,यहाँ का जन्मजात नागरिक है जबकि मैं अप्रवासी भारतीय |अपना देश छोड़कर कुछ महीनों के लिए , मैं उसके देश में रहने क्या आ गया हूँ ?की मेरी स्वाधीनता ही छीन गई है |मैं संस्कृति संपन्न भारत का नागरिक और वह सुविधा संपन्न अमेरिका का |हम संस्कृति संपन्न हैं, इसीलिये तो न आतंकवादी हुए, न हो सकते हैं किन्तु मेरे लिए वह है ? नींद खुलते ही मैं उससे भयभीत रहने लगता हूँ |जब तक उससे मेरा सामना नहीं होता मैं शांतचित्त रहकर अपने काम निपटा लेता हूँ, जिस क्षण वह मेरे सामने आ धमका समझ लें , मैं असहाय और निरीह हो जाता हूँ |उसकी कौन सी गतिविधि है जो अप्रत्याशित नहीं होती ? जैसे ही वह मेरे सामने आता है, मैं ठिठक कर रह जाता हूँ |फिर तो कुछ भी नहीं कर सकता पता नहीं कब वह आकर मेरी सारी व्यवस्था को तहस नहस कर देगा ?उसकी एक एक चाल पर सतर्क दृष्टि रखनी पड़ती है ,पता नहीं उसका अगला कदम क्या होगा ?वह कुछ भी फेंक सकता है किन्तु मैं उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता |बड़े बड़े नेताओं से भी बड़ा फेंकू है |इसके पहले कि वह मेरे सामने आ धमके , सुबह उठकर अँधेरे अँधेरे मैं अपने सारे काम निबटा लेता हूँ और चुपचाप बिस्तर में जाकर मुंह ढंककर सो जाता हूँ |कई बार तो उस स्थिति में भी मुझे ढूंढकर मेरा पीछा करता है | वह भारत में नहीं रहता फिर भी जाने क्यों ,दोहरे चरित्र में जीना अभी से सीख गया है | बोलता तो बहुत मीठा है, किन्तु काम बहुत कड़वे करता है |वह मेरे लेखन की गुणवत्ता से संभवतः अच्छी तरह परिचित है , तभी तो मैं जैसे ही लिखने बैठता हूँ , वह उलट पलट करके ही दम लेता है , जैसे कहना चाहता हो कि इस कचरा लेखन को बंद करो | जब कभी मैं हारमोनियम बजाता हूँ तो मेरे गाने को वह रोने में बदल देता है |वाद्य यंत्र पर आकर बैठ जाता है |अब कर लो जो कुछ करना हो ,इस तरह मेरे बारह बजा देता है ,मेरा बाजा तो बजाता ही है ? आपकी दृष्टि में जो कुछ भी हो मेरा निगाह तो आतंकवादी है ? वह और कोई नहीं मेरा नन्हा सा दो वर्षीय पौत्र है |
- डॉ हरि जोशी
३/३२ छत्रसाल नगर , फेज-२
जे.के.रोड , भोपाल- ४६२०२२
मोबाइल -०९८२६४२६२३२
जन्म : 17 नवंबर, 1943, खूदिया(सिराली), जिला –हरदा (मध्य प्रदेश )
शिक्षा–एम.टेक.,पीएच.डी.(मेकेनिकल इन्जीनियरिंग),सम्प्रति –सेवा निवृत्त प्राध्यापक.(मेकेनिकल इन्जी.)शासकीय इन्जीनियरिंग कॉलेज, उज्जैन(म.प्र.)
हिंदीकीलगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र/पत्रिकाओं में साहित्यिक रचनाएँ प्रकशित |अमेरिका की इंटरनेशनल लाइब्रेरी ऑफ़ पोएट्री में १० अंग्रेज़ी कवितायेँ संग्रहीत|
प्रकाशित पुस्तकें-कुल २४
कविता संग्रह- ३ –पंखुरियां(६९),यंत्रयुग (७५)और हरि जोशी-६७(२०११)(अंग्रेज़ी में भी अनूदित कवितायेँ )
व्यंग्य संग्रह -१५-अखाड़ों का देश (१९८०)रिहर्सलजारी है (१९८४)व्यंग्य के रंग (१९९२)भेड की नियति (१९९३)आशा है,सानंद हैं (१९९५)पैसे को कैसे लुढका लें (१९९७)आदमीअठन्नी रह गया (२०००)सारी बातें कांटे की (२००३)किस्से रईसों नवाबों के (२००६)मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएँ(२००४)इक्यावन श्रेष्ठव्यंग्यरचनाएँ(२००९)नेता निर्माण उद्योग (२०११)अमेरिका ऐसा भी है (२०१५)हमने खाये, तू भी खा (२०१६) My Sweet Seventeen, published from Outskirts Press Publication Colorado (US) (2006)
प्रकाशितव्यंग्यउपन्यास-६ –पगडंडियाँ(१९९३)महागुरु(१९९५)वर्दी(१९९८)टोपी टाइम्स (२०००)तकनीकी शिक्षा के माल(२०१३) घुसपैठिये(२०१५)
प्रकाशनाधीन उपन्यास-४-१.भारत का राग- अमेरिका के रंग,२.पन्हैयानर्तन, ३.नारी चिंगारी और ४.दादी देसी- पोता बिदेसी
अत्यंतदुर्लभसम्मान-दैनिक भास्कर में १७ सितम्बर १९८२ को“रिहर्सल जारी है “ रचना के प्रकाशनपर मध्यप्रदेश के मुख्य मंत्री द्वारा सरकारी सेवा से निलंबन,कुछ महीनों बाद लेखकों पत्रकारों के विरोध के बाद बहाली |२४ दिसंबर १९८२ को नई दुनिया इंदौर में “दांव पर लगी रोटी लिखने पर मंत्री द्वारा चेतावनी |“१७ जून१९९७ को नवभारत टाइम्स केदिल्ली- मुंबई संस्करणों में रचना“श्मशान और हाउसिंग बोर्ड का मकान“प्रकाशित होने पर सम्बंधित मंत्री द्वारा शासन की ओर से मानहानि का नोटिस और विभाग को कड़ी कार्रवाई करने हेतुपत्र| पुनः लेखकों पत्रकारों द्वारा विरोध |प्रकरण नस्तीबद्ध |
अन्य सम्मान-व्यंग्यश्री (हिंदी भवन ,दिल्ली)२०१३,गोयनका सारस्वत सम्मान(मुंबई)२०१४,अट्टहास शिखर सम्मान (लखनऊ) २०१६,वागीश्वरी सम्मान (भोपाल) १९९५,अंग्रेज़ी कविता के लिए अमेरिका का एडिटर’स चॉइस अवार्ड २००६, एवं अन्य कुछ सम्मान|
विदेश यात्रायें-एक बार लन्दन कीतथा छः बार अमेरिका की यात्राएं|दो शोधर्थियों को “हरि जोशीके व्यंग्य लेखन” पर पीएच.डी. प्रदत्त|पता३/३२ छत्रसाल नगर,फेज़-२,जे.के.रोड,भोपाल-४६२०२२(म.प्र.)/दूरभाष निवास-०७५५-२६८९५४१चलितदूरभाष -०९८२६४-२६२३२ E mail –harijoshi2001@yahoo.com