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शोकपत्र - कहानी

  • स्वाति तिवारी
  • 15 अक्तू॰ 2017
  • 7 मिनट पठन

सामने टेलीग्राम पड़ा था। उस पर छपे शब्द मन में परत-दर-परत जमा स्मृतियों को कुरेद रहे थे। एक ठण्डी साँस छोड़ सोचता हूँ, ’क्या यह टेलीग्राम मुझे राहत दे रहा है?’ पर सच यह है कि यह मेरा भ्रम ही था, क्योंकि उस पर लिखा नाम मेरा जनन था, मेरा प्यार था। यह नाम मुझे तीस साल पहले अपनी खुशियों का संसार लगता था। पिछले तीस साल से यही नाम है जिसने ज़िन्दगी को इतना मोड़ दिया था कि ज़िन्दगी ही टूटकर रह गई। मुझे बर्बाद कर डाला। मेरे जीवन को नरक बना दिया था। आज उनकी मृत्यु का समाचार मुझे क्यों विचलित कर रहा है? मन है कि जार-जार रो रहा है, जबकि मेरे लिए तो वह तीस साल पहले ही मर-खप गई थी। तभी, जब मैने उसे अपने जीवन से बेदखल कर दिया था। पर कहाँ, ‘वह कहाँ बेदखल हुई?’ दरअसल मैं ही बेदखल हुआ था, उसके जीवन से, घर से, बच्चों से। उसके पास तो सब यथावत बना रहा। शायद मैं ही जान-बूझकर छोड़ आया था-बच्चों के भविष्य, बच्चों की सुर्क्षा के लिए। वह बच्चों से बेहद प्यार करती रही। उसने बच्चों की उपेक्षा कभी नहीं की थी। उस समय यह मुझे अपनी महानता लगी थी, पर दरअसल वह मेरे स्वार्थ की पराकाष्ठा थी, क्योंकि मैं बच्चे कैसे पालता। बच्चे तो मेरे ही हैं- वे क्यों संघर्ष करें- यही सोचकर। पर जो भी हो, आज इस टेलीग्राम पर लिखा ’श्रीमती किरण प्रसाद का दुःख निधन दिनांक 9 अगस्त को हो गया.... अंत्येष्टि 10 अगस्त को 11 बजे होगी’।

नीचे पुत्र सुमन्त का नाम लिखा था। यह तार मुझे ना मिलता तो ज्यादा अच्छा होता... एक निश्चिन्तता थी बच्चों की। अब क्या करें? जाए या ना जाए। मन अकेले हो गए बच्चों के लिए छटपटाने लगा, ठीक उसी तरह जैसे पंखे की हवा में वह तार का कागज फड़फड़ा रहा था।

समय बहुत बलवान है, वह क्या-क्या नहीं दिखाता। वह स्वर्ग-नरक के दर्शन यहीं करवा देता है। उसने भी दोनों ही भोगे थे और दोनों अनुभव वह झेल गया था। दुःखती रग पर आज फिर दाब पड़ी थी। दुःखते-रिसते यादों के घाव कुछ शांत पड़े थे, पर इस तार ने उन घावों को फिर कुरेद दिया था। घाव सबके सब ताजा हो गए थे और आँखों से बहती अविरल धारा यादों की श्रृंखला के मोतियों को बिखेरने लगी थी। तार का शब्द-शब्द उसे तीस साल पुराने दिनों में ले जा रहा था।

तीस साल पहले......? एक पहिया-सा-पीछे घूमने लगा और मन-मस्तिष्क पर धुँधलायी-सी तस्वीरें स्पष्ट उभरने लगी थीं.....

किरण तो पूर्णरूप से उसके प्रेम में आसक्त थी। फिर अचानक यह क्या और कैसे हो गया जिसने एक क्षण में प्रेम, विश्वास, भरोसा सब कुछ तोड़ दिया। ‘क्या सच्चे प्यार की कोई परिभाषा नहीं है?’ वह खुद ही बुदबुदाता है। पर ‘वह तो प्यार को समग्र रूप से देख रहा था।’ खुद ही वह अपने प्रश्न का जवाब भी देता है।

याद आते ही एक कँपकँपी उसके बदन में दौड़ गई थी पर किरण क्या जाने, प्यार कहाँ-कहाँ से, कब-कब गुजरता है? उस दिन उसे लगा था कि उसका सारा पुरूषार्थ निचोड़कर फेंक दिया था किरण ने।

क्या कोई सोच सकता है? तीन बच्चों की माँ यूँ अचानक ज़िन्दगी की एकरसता से ऊबकर परपुरूष गमन कर बैठेगी? विवाहेतर संबंधों को खुलकर स्वीकार लेगी। उसे तो यह आज भी संभव नहीं लगता, जितनी बेशर्मी के साथ तीस साल पहले किरण ने स्वीकारा था।

‘‘हाँ। मैं विवेक से प्यार करने लगी हूँ।’’

‘‘क्यों?’

‘‘इस क्यों का कोई जवाब नहीं है मेरे पास।’’

‘‘प्यार.....? और मुझसे जो करती हो वह क्या नाटक है? सिर्फ तुम्हारा छलावा?’’ मेरा क्रोध स्वाभाविक था।

‘‘यकीन करो गोपाल। मैं विवेक से प्यार जरूर करने लगी हूँ, पर मैं तुम्हें भी तो पति के रूप में प्यार करती हूँ। तुम्हारे साथ मेरी गृहस्थी है, मेरे बच्चे तुम्हारे हैं, पर जाने क्यों मैं ऊबने लगी थी इस एकसार जिन्दगी से। मुझे जीने का नया अन्दाज मिला विवेक से। मेरे जीवन में रोमांस और रोमांच आया विवेक से। मेरे अस्तित्व का अहसास हुआ विवेक की बातों और साथ से।’’ वह संयत स्वर में बोले जा रही थी और मैं शून्य में चला गया था।

‘‘नहीं.....बस करो...बस।‘‘ मेरी आत्मा चीत्कार उठी, ’’क्या एकनिष्ठ होने से ज़िन्दगी इतनी मोनोटोनस और उबाऊ हो जाती है। तुम मजाक कर रही हो किरण, पर यह भद्दा मजाक है।’’

‘‘पर मैं मजाक नहीं कर रही गोपाल, यह सच है।’’

उसके स्पष्ट स्वीकारने के बाद मेरे शक की गुंजाइश बची ही कहाँ थी। हाँ, विश्वास और भरोसे की दीवार भरभराकर ढह गई थी। ’’यह कैसा प्यार है? यह कैसी दोस्ती है, जिसने उसके जीवन में दीमक की तरह धीरे से प्रवेश किया था।’’ दोस्त ही तो था विवेक, काॅलेज के जमाने का दोस्त। किरण को भाभी-भाभी कहने वाला।

ऐसा दोस्त जिस पर कोई भी विश्वास कर सकता है। उसी का विश्वासघात कलेजे में नश्तर चुभा गया था। आत्मा ही कत्ल कर गया। पत्नी ही चुरा ले जाएगा, यह तो सपने में भी नहीं सोचा था उसने। दोस्त बन डाका भी डाला विवेक ने तो जीवन का सारांश और जीवन का विस्तार दोनों ही चुरा लिए।

पर गलती स्वयं की ही थी। विवेक को अपने घर में स्वयं से ज्यादा महत्वपूर्ण भी तो स्वयं मैंने ही स्थापित किया था। जाने-अनजाने ही सही, पर कुछ गलती मेरी भी थी। किरण की शाॅपिंग, बच्चों के एडमिशन करवाने, बच्चों को स्कूल छोड़ने, किरण को मायके से लिवाने, हर उस जगह उसे ही तो भेज देता था।

‘‘यार विवेक, तू बाजार जा रहा है ज़रा किरण को मार्केट छोड़ते जाना।’’

’’तुम चलो ना गोपाल, मुझे साड़ी लेनी है?’’

‘‘साड़ी.....? ना बाबा, सबसे बोर काम है साड़ी खरीदना।’’

‘‘क्या गोपाल। सबसे इंट्रेस्ंिटग काम है साड़ी खरीदना। किरण चलो, मैं चलता हूँ।’’ विवेक बालों में कंघी करते हुए खड़ा हो गया था।

‘‘अरे। ये भाभी बोलने वाला तुम्हें किरण कैसे बोल रहा है।’’ मैंने आश्चर्यचकित होते हुए कहा था।

‘‘मैंने ही विवेक से कहा, किरण बोलने के लिए।’’ किरण ने सफाई दी थी।

दोनों चले गए थे। या कहूँ मैंने भेज दिए थे पर बाद में लगा, नहीं भेजना चाहिए था उसे किरण के साथ। कम से कम उस जगह जहाँ मुझे किरण के पति और बच्चों के पिता की हैसियत से स्वयं जाना चाहिए था पर अपने दब्बू स्वभाव और नौकरी की व्यस्तताओं में मैंने यह सोचा ही नहीं। किरण बाहर उसके साथ घूमते-घूमते घर में भी उसकी उपस्थिति को पसन्द करने लगेगी। पहली बार मुझे झटका लगा था जब किरण लाल सुर्ख साड़ी लाई थी। जबकि सुर्ख लाल रंग मुझे पसन्द ही नहीं है।

‘‘तुम्हें पता है ना, लाल रंग मुझे अच्छा नहीं लगता।’’ मैंने टोका था।

‘‘हाँ। पता है, पर याद ही नहीं रहा विवेक को लाल रंग बहुत पसन्द है, यह साड़ी उसी ने दिलवायी है।’’ किरण ने मुझे सहजता से बताया था।

फिर लाल नाइटी, ड्राइंगरूम में लाल गुलाब, सब जगह लाल रंग लेता जा रहा था। उस दिन तो हद ही हो गई थी जब वह सब कुछ भुला देने के लिए किरण को दाम्पत्य में विश्वास की बात समझाना चाहता था। वह उसके और किरण के मध्य पसरते जा रहे अलगांव को कम करने के लिए अंतरंग प्रणय के लिए लालायित था और पत्नी के साथ प्यार के सहज स्पर्श के लिए वह बेडरूम में गया। पलंग पर बिछी लाल चादर ने उसे आगबबूला कर दिया था। चादर पर बने नक्काशीदार बेलबूटे मेरा मजाक उड़ाने लगे थे। बच्चों को दूध के गिलास थमाकर हाथ पोंछती किरण ने जैसे ही बेडरूम में प्रवेश किया था मेरी सहनशक्ति चुक गई। मैं दहाड़ने लगा,‘‘लाल रंग मेरे पलंग पर भी पहुँच गया है?’’

‘‘तो क्या हुआ?’’

‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई किरण इस चादर को बिछाने की?’’ मेरा क्रोध देख थोड़ा सहम गई थी किरण, पर फिर बोल ही गई, ’’विवेक की पसन्द की है, हैंडलूम से लाए हैं हम।‘‘

‘‘विवेक....ऽऽऽ....विवेक...ऽऽ...विवेक.....? जीना हराम कर दिया है इस नाम ने...लाल कफन भी होता है किरण और हमारे दाम्पत्य की लाश पर तुमने कफन डाल ही दिया।’’

‘‘ऐसा क्या किया है मैंने?’’

‘‘आज के बाद यह विवेक नाम तुम्हारी जबान पर भी आया तो काट लूँगा जबान, समझीं?’’

मैं क्रोध में उफनता हुआ घर छोड़कर ही चला गया था उस रात। रात यूँ गुजरी थी जैसे सदियाँ गुजर रही थीं। फिर मैं बगैर बताए दौरे पर चला गया था। गुस्सा थोड़ा शांत हुआ तो दो दिन बाद भरी दोपहर में ही लौट आया था घर। वहाँ सब-कुछ सामान्य था। मेरे जाने से कोई फर्क नहीं पड़ा था। हाँ, विवेक का आना कम हो गया था। धीरे-धीरे मेरे और विवेक के बीच संवादहीनता पसर गई। अब उसका आना एकदम बंद सा हो गया था। किरण ऊपर से सामान्य थी, पर उसके अंदर भी हलचल थी। उसने विवेक-स्तुति बंद कर दी थी। बहुत दिनों तक मैं और किरण भी नदी के दो किनारे होकर रह गए थे। फिर किरण ने ही समझौते के हाथ फैलाए थे। मैं भूल गया उस तूफान को और हम फिर एक-दूसरे को समर्पित हो गए थे। जीवन की गाड़ी फिर सहज रफ्तार पकड़ लेगी, ऐसा आभास हुआ था और मैंने सच्चे मन से किरण को माफ कर दिया था।

उसका तर्क था, उसने मुझसे दुराव-छुपाव नहीं किया। खुल्लम-खुल्ला स्वीकारा था सच। वह शर्मिन्दा नहीं लगी, पर उसमें एक बोल्डनेस जरूर आ गई थी। सब-कुछ सामान्य दिखने के बावजूद मैं स्वयं से शर्मिन्दा था। संबंधों की पकड़ में अपमानित हुआ था। ना बच्चों से सहज रहा था, ना किरण से। एक रूटीन था जो चल रहा था-घर में आता, खाता और सो जाता, बस।

मानसिक तनाव शांत नहीं हुआ था। एक दिन दोपहर को ही दफ्तर में घबराहट सी लगी, चक्कर आने लगे थे। ब्लडप्रेशर बढ़ गया था। आधे दिन के अवकाश पर घर लौट आया था। घर का दरवाजा अटका हुआ था। पोर्च में विवेक का स्कूटर खड़ा था। दरवाजा धकेला तो खुल गया था वह। एकदम शान्त था घर। इसी शान्त जगह की तलाश में मैं घर लौटा था, पर बेडरूम का दरवाजा अन्दर से बन्द था और विवेक के जूते बेडरूम के बाहर उतरे हुए मेरा मजाक उड़ा रहे थे। मैं उल्टे पैर बाहर लौट आया था। तभी से जगह-जगह मारा-मारा नौकरी करता रहा। पिछले दस सालों से इस शहर में हूँ। दूसरी कम्पनी में काम कर रहा हूँ।

तीस साल हो गए। ना किरण से मुलाकात हुई, ना विवेक से। मेरा पता उन्हें कैसे मिला होगा, नहीं जानता।

पर आज यह टेलीग्राम? यह नाम तार बनकर फिर मेरी जिन्दगी में लौट आया था।

मुझे लगा जैसे मेरी राह देख रही होगी वह। नजरों के सामने किरण खड़ी थी। वही तीस साल पहले वाली लाल साड़ी पहने अति सुन्दर कामाक्षी किरण।

एक बारगी मन हुआ कि वहाँ जाऊँ और देख आऊँ कि मेरे बगैर कैसे गुजारी उसने ज़िन्दगी? लौट जाऊँ बच्चों के पास..... फिर तार को फाड़कर फेंक दिया, यह सोचकर कि वह आया ही नहीं....।

ईएन 1/9 चार इमली भोपाल -16

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