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अशोक गौतम

खुशी

पता नहीं कब इस जगह पर दो खड्डों का मिलन हुआ होगा? यहां दो खड्डों का मिलन तो हो गया पर दो जातियों का मिलन आज तक नहीं हो पाया. घराटियों से कोस भर दूर होने के बाद भी बजिए बजिए ही रहे और घराटी घराटी ही. साहस और दुस्साहस दोनों अपनी- अपनी जगह. जात की सीमाएं देशों की सीमाओं से भी कठोर होती हैं. कदम- कदम पर हरदम जात का कड़ा पहरा. जो कोई गलती से पार कर जाए तो सदा सदा को जात बिरादरी से बाहर. इसलिए सदियों बाद भी कोस भर की जातीय दूरी वैसी की वैसी ही. न इंच कम न इंच ज्यादा. सबने चलना सीखा, सबने बढ़ना सीखा, पर जातें वहीं की वहीं. दूध में पानी मिल गया. पर जात में जात न मिली. बजियों के गांव के बजियों ने घराटियों से दूध लिया, घी लिया, पर रखा उन्हें अपने दरवाजे से बाहर ही. घराटियों को चाय पीने को गिलास दिया तो उसे चार बार धुलवाने के बाद भीतर ले गए तो ले गए, वरना वहीं बाहर उल्टा कर रख दिया जो अगली बार कोई घराटी आए तो उसे उसीमें चाय दे दी. बजियों ने घराटियों को थाली में रोटी दी तो पर उसे दस बार धुलवाने के बाद भी नाक भौं सिकोड़ते वहीं कांध में बनी तीरी में उल्टा रख दिया. थाली सूखने तक उसे छुआ भी नहीं. गीली थाली छू ली तो धर्म भ्रष्ट होते देर न लगे.

जहां पर दोनों खड्डें मिली हैं ,वहाँ पर पता नहीं कबसे घराटियों के आठ दस टब्बर अपने गिरते पड़ते घराटों के साथ जमे हुए हैं ,घराटों की कूहल, घराटों के पुड़ों के साथ अपना जीना मरना लिए. घराट की घास छत टपकती रहे तो टपकती रहे. घास की छत से पानी नहीं टपकेगा तो क्या शहद टपकेगा? घराटों के चलने की आवाज उन्हें इतना सम्मोहित करती रही है कि उनके पुरखों ने घराट चलाने के सिवाय कुछ और करने की सोची ही नहीं. बुजुर्ग कहते हैं जब यहां से दो कोस दूर भौंण में राजा की राजधानी हुआ करती थी तो इन्हीं घराटियों के पुरखों के घराट से राजा के महल के लिए आटा पिस कर जाता था. घराटों से पार जो जंगल है वहां राजा घराटियों को साथ लेकर शिकार करने जाता था. तब वह जंगल बियाबान जंगल हुआ करता था. अबकी तरह नहीं कि बीस कोस से भी जंगल में पहचान लो कि उसमें कौन घूम रहा है.

घराटियों की पता नहीं कितनी पुश्तें इन बनते गिरते घराटों के साथ बतियाती, गुनगुनाती, घराट के पानी की कूल्हें रोकती, इन्हीं खड्डों के किनारे पैदा होतीं, जवान होतीं मिट्टी में मिलती रहीं, ये इनको भी नहीं पता. जब कभी बरसात के दिनों में खड्डों में तेज पानी आ जाता तो दा चार घराट तो हड़ में बह ही जाते. फिर जैसे ही खड्डों का पानी उतरता , खड्ड से पत्थर इकट्ठा कर बवारी दे घराट बना दिए जाते और आसपास के गांव वालों के पीसन पीसने शुरू हो जाते.

कभी इन खड्डों में बने घराटों की चर्चा दूर दूर तक थी. कई तो धार से उतरकर खलड़ू में पीसन भरे रात को घराट में रूक जाते और सुबह होते ही आटा लेकर अपने घर चल पड़ते. घराटियों को आटे, चावल की पिसाई में जो पिहाई मिलती वही घराटियों के तवों पर पकती, थालियों में सजती. बरसों से यही सिलसिला चल रहा था यहां.

पर अचानक दो बातें एक साथ हुईं. एक तो इलाके में बिजली आने पर जगह जगह आटे की मशीनें लगने लगीं , दूसरे जबसे खड्डों से पानी गांव- गांव को चढ़ाने के लिए सरकार ने मशीनें लगाईं तो खड्डों का पानी सूख गया. एक खड्ड में पानी उठाने की दस दस मशीनें. अब खड्डें घराटों को पानी कहां से लाएं? पहले बारहों महीने चलने वाले घराट एकाएक बरसात तक ही सिमटने लगे तो घराटियों को घराटों से बाहर रोटी तलाशने के बारे में सोचना ही पड़ा.

ऊपर से सरकार ने आटा सरकारी डिपुओं में भेजना शुरू किया तो घराटों की रही सही घरड़-घरड़ भी बंद हो गई. अब तो बस कहने को ही घराटों के अवशेष बचे हैं. कभी कभार तीज त्योहार को कोई आटा चावल पिसवाने आ गया तो आ गया.

अब तो बीसियों घराटों में से आज इक्का दुक्का ही घराट चला रहा है. नई जमात को तो घराटों की आवाज भी कान फोड़ने वाली लगती है.

घराट खड़े होने पर पुश्तों से घराट चलाने वालों में से किसीने शादी ब्याह में बाजा बजाना शुरू कर दिया है तो कोई चिनाई, लकड़ी का मिस्त्री हो गया है. कोई ध्याड़ी लगाने इधर-उधर निकल जाता है अपना पट्टू उठाए. जो बाहर नहीं जाते वे आसपास के गांव में बन रहे पक्के घरों के लिए खड्डों में पत्थर तोड़ते-घड़ते रहते हैं दो रूपए सैंकड़े के हिसाब से. सूखी खड्डों में पत्थरों के सिवाय और कुछ भी नहीं बचा है अब.

घराटियों के इसी कुनबे में पचास साल बज बज कर बूढ़ाते बरड़ू का परिवार भी रहता है. परिवार क्या, बस तीन लोग. एक वह , एक उसकी दूसरी घरवाली बिम्मो और मुन्नी कल्लो. कल्लो दसवीं में पढ़ती है बड़े स्कूल में.

उसकी दूसरी घरवाली के बहुत मेहनत के बाद भी दूसरा न हुआ तो न हुआ. जिससे भी खोट दोष गिनाया सबने बस उसे यही बताया कि उसे पितर दोष है कभी न जाने वाला. वे ही उसका बंस नहीं बढ़ने दे रहे. पंडतों के कहने पर उसने देउंए, नेउए सब पूजे,मनाए, पर दूसरा बच्चा उसकी घरवाली के न हुआ तो न हुआ.

बाप का मुंह उसने नहीं देखा. उसे नहीं पता कैसा था उसका बाप. इसलिए वह बेकार में अपने बाप की कल्पना कर अपना बखत बरबाद भी नहीं करता. कहते हैं, उसके पैदा होने से चार महीने पहले उसका बाप कीन्नु खड्ड के तेज पानी के बहाव में बह गया था.

उस रात पता नहीं क्यों वह आधी रात को ही कूहल गोटने निकल पड़ा था कंधे पर फरवा लेकर कच्छा पहने. आई ही होगी उसकी. बाहर बरखा ऐसी कि जैसे आज सब हड़ा ले जाएगी. सारी रात अकेला ही खड्ड में मलौण गोटते गोटते अचानक खड्ड में आए हड़ में बह गया. एक बार जो पानी में पांव उखड़े तो फिर न जम सके. सुबह दो मील दूर किनारे लगी मिली थी उसकी लाश सुदामे के घराट के आगे डाबर में तैरती हुई. गांव से पुल पर दूध बेचने वाले कंधे पर बहंगियों में बाल्टियां लटकाए उतरे तो उन्होंने ही देखी थी उसकी लाश डाबर के फेर में तैरती हुई.

अपने समय में उसके बाप किन्नु का घराट सब घराटों में सबसे मशहूर था. पूरे इलाके में उसके घराट के बारे में चर्चा थी कि कहीं आटा मिले या न ,पर किन्नु घराटी के घराट में आटा जरूर मिलेगा.

उसका बाप कीन्नु भी कमाल का घराटी था. पूरी तरह मस्त! करयाले का सबसे संजीदा करयालची. उसके बिना करयाला जमता ही नहीं था. कोई कितनी की कोशिश क्यों न कर ले. अपने समय के घराटियों के सारे कुुनबे में सबसे मेहनती. अपने परिवार से अधिक प्यार अपने घराट से करता था वह. जब देखो घराट का कुछ न कुछ ठीक करता हुआ, घराट में कुछ न कुछ नया जोड़ता हुआ. और नहीं तो लंबा सा कुरता पहन, लंगोटी लगाए निकल पड़ता हाथ में फरवा लिए जेठ की दोपहर में भी कूहल साफ करने जब धूप तक छांव ढूंढने में लगी होती.

भले दिन थे वे. उन दिनों घराट इतना दे देते थे कि पिसाई बेचकर भी मजे से टब्बर का गुजारा हो जाता था. जरूरतें होती ही कितनी थीं? मक्की की रोटी पकाई, छाछ में नमक डाला और खा ली. ज्यादा ही हुआ तो छाछ को तड़क खैरू बना लिया तो छप्पन भोग. पहनने को जिनका आटा पिसा उन्होंने अपने पुराने सुराने दे दिए तो राजा सा सिंगार हो गया घराटी का, घराटन का. बजिओं के बच्चों के पुराने सुराने बच्चों को पहना बना दिए राजकुमार. नहीं तो नंगे घूमते रहे कभी इस घराट तो कभी उस घराट. कभी इस घराट की कूहल में पानी से खेलते रहे तो कभी उस घराट के पानी की कूहल में. स्कूल क्या होता है उनके बाप तक को पता नहीं.

वैसे बरड़ू की दो शादियां हैं. बरड़ू की ही क्या! उसके दादा के तो तीन थी. पहली के दस साल तक टोना टोटका, डाऊ साऊ देउंए, नेउए सब करने के बाद भी बच्चा न हुआ तो वह दूसरी ले आया, बंस चलाने का सवाल जो था. पहली के हल्का सा आब्जेक्सन करने के बाद भी. कुछ दिन पहले वाली जैसे कैसे दूसरी के साथ रही पर बाद में अपने प्योके चली गई. उसके बाद किसी और के. प्योके वाले भी उसे कब तक घर में बिठाकर रखते.

कल्लो को पढ़ाने के लिए बरड़ू कभी खाली हाथ नहीं रहता. कभी ये काम तो कभी वो काम. सुबह पांच बजे से लेकर सूरज छपने तक सारा दिन खड्ड में सैंकड़े पर पत्थर तोड़ता. सबेरे बिन मुंह धोए चाय पी, झब्बल, घन, छीनी हथौड़ा, पानी की पुरानी बाल्टी- लोटा उठाए और लग गया खड्ड में पत्थरों से लड़ने कुरता पाजामा खोलकर . पत्थरों से लड़ना अब उसे बखूबी आता है. उसे देखकर कई बार तो पत्थर भी सहम कर नरम पड़ जाते हैं. अकड़ कर कौन अपनी हड्डी पसलियां उससे तुड़वाए? पता नहीं, कब किस तरह कहां चोट कर उनका गरूर चूर चूर कर दे वह.

बरड़ू स्कूल तो क्या गया, अपने बचपन में उसने किताब तक खोलकर न देखी. आज भी काला आखर भैंस बराबर. पैसे गिन लिए यही काफी. उसने स्कूल जाना भी चाहा होगा तो मां ने जाने न दिया. स्कूल का खर्च कौन उठाए? पढ़ भी गया तो कौन सा पढ़कर पंडताई का काम करेगा? घराट ही तो चलाना है आखर में. पुश्तैनी घराट ऐसा कि दिन में दस मन मजे से पीस देता, गोड्डे ढाल के तोल लो चाहे. उस घराट के सामने अपने जमाने में बिजली की मशीन भी पानी भरती थी. वैसे अपने समय में उसके बाप किन्नु का घराट सब घराटों में सबसे मशहूर था. पूरे इलाके में उसके घराटों के बारे में चर्चा थी कि कहीं आटा मिले या न पर किन्नु घराटी के घराट में आटा जरूर मिलेगा.

उसकी मां आटा सबके हिसाब से पीसती. उसे पता था कि उसके घराट में आटा पिसाने वाले किस परिवार को कैसा पिसा आटा पसंद है.

अनपढ़ होने के बाद भी बचपन से ही बरड़ू हिसाब किताब में पक्का इतना कि अपने पचास आटा पिसाने वालों का पाई -पाई का हिसाब उंगलियों पर. किसको कितना सेर पीसन दिया ,किसका कितना सेर पीसन बचा सब मुख जुबानी याद. क्या मजाल जो किसीको सेर कम तो किसीको सेर अधिक चला जाए.

बरड़ू को पत्थर तोड़ते तोड़ते पता ही न चला कि कब उसके बाल सफेद हो गए ,कब उसकी मुन्नी कैसे बड़े स्कूल चली गई. असल में उसने बजिए के बच्चों को देखकर ही अपनी मुन्नी को बड़े स्कूल भेजा था. उसकी आंखों में मुन्नी को पढ़ाने के बाद का दूसरा कोई सपना ही नहीं था. उस वक्त उसे नहीं पता था कि पढ़कर उसकी मुन्नी क्या बनेगी? बस दिमाग में एक भूत सवार था कि उसे अपनी कल्लो का पढ़ाना है. उसके बाद जो भगवान चाहेंगे बना देंगे. जब उसके मन में कल्लो की पढ़ाई का खयाल आता तो वह पत्थर पर इतनी जोर से घन मारता कि पत्थर पहले ही घन के वार में अपने हाथ खड़े कर देता उसके सामने. बस उसे इतना पता था कि उसकी मुन्नी बड़ी होकर कम से कम उसकी घरवाली की तरह घराट

उसकी मुन्नी कल्लो दसवीं के पर्चे देकर अपने ननिहाल गई थी. उसकी नानी ने उसे उसका ब्याह करने को वहां एक लड़का देख रखा था. जब बरड़ू की घरवाली ने उसे यह बात बताई तब पहले तो वह अपनी सास पर बहुत बिगड़ा था, पर जब उसकी घरवाली ने उससे उसे समझाते हुए कहा था कि,‘ मुन्नी सदा को घर थोड़े ही रखनी है रे बरड़ू. एक न एक दिन तो उसके हाथ पीले करने ही होंगे. वक्त रहते ठीक घर बर मिल जाए तो कौन सी बुरी बात है?’ तब उसे लगा था कि वह ब्याह में विदाई के बखत जो गुडिया पटारू अपने बाजे पर बजाया करता है, अब उसके घर भी उस गुडिया पटारू के बजने के दिन नजदीक आ रहे हों जैसे, धीरे-धीरे, चुपके- चुपके. हंसते हुए, उसे रूलाने को.

तीन दिन से वह बाजार गई ठाकुरों के लड़के के बारात के साथ ब्याह में बाजा बजाने संवे मुल्ख गया था तो उसे वहां पता चला कि दसवीं का रजल्ट निकल गया है. वैसे वह अपनी मुन्नी के रजल्ट के इंतजार में तो तबसे ही था जब उसके पर्चे खत्म हुए थे. मुन्नी पर्चा देकर आती तो वह रोज उसे नए रूप में ही देखता. उसे लगता कि आज की कल्लो पिछले कल की कल्लो से बहुत अलग है. पल- पल समझदार होती.

फेरे लगने के बाद ज्यों ही बाराती खाने बैठे तो उसने अपना बाजा झोले में डाला और चार चार बीक्खों की एक बीक्ख करता बाजार आ गया. एक होटल में उसे सड़ी मेज पर अखबार दिखा तो उसने होटल के मालिक से कहा,‘ साहजी! आज का अखबार है?’ होटल वाला उस वक्त चाय पीकर गए ग्राहकों के जूठे गिलास धो रहा था.

‘ हां ! क्या करना है?’

‘चाहिए था ?’

‘ क्यों? यहीं बैठ कर पढ़ ले,’ होटल वाले ने तीर मारा. अखबार पढ़ेगा तो चाय भी पिएगा ही. इस बहाने चाय भी बिक जाएगी.

‘पढ़ना नहीं आता साहजी.’

तो क्या करेगा फिर इसका?’ उसने धोए गिलास फल्टी पर सजा पास ही लटके गंदे परने में अपने हाथ पोंछे मुंह में बुझी बीड़ी घुमाते पूछा.

‘ मेरी मुन्नी का रजल्ट निकला है आज इसमें.’

होटल वाला कुछ देर कुछ सोचता रहा फिर उसने बरड़ू से कहा,‘ तो ऐसा कर , रजल्ट वाले बरके ले जा.’

उसने अखबार में से रिजल्ट वाले बरके निकाल अपने झोले में डालते हुए पूछा,‘ साहजी! कितने पैसे इसके?’

‘ अच्छा ऐसा करना, जब अगली बार बजार आएगा तो मुन्नी के पास होने की खुशी में लड्डू खिला देइयो.’

‘जरूर साहजी जरूर! अगली दफा जब बजार आऊंगा तो आपके लड्डू पक्के. जय रामजी की,’ उसने जल्दी- जल्दी बड़े प्यार से अखबार के रजल्ट वाले बरके झोले में डाले और वापस बारात के पास आ गया. तब तक खाट सजनी शुरू हो गई थी.

ब्याह का बाजा बजाकर जब वह रात को घर लौटा तो उसकी घरवाली उसका इंतजार कर रही थी. आंगन में पहुंचते ही वह जबरदस्ती जोर से खांसा तो बिम्मो समझ गई कि कोई आया है. कौन होगा? बरड़ू ही होगा इस बखत तो! और कौन आ सकता है इस बखत? उसने बीउंद के कोने में रखा दीउआ जलाया और जला दीउआ हाथ में लिए दरवाजा खोला.

‘कौन??’

‘कौन होगा इस बखत?? मैं हूं,’ बरड़ू ने बाजे वाला झोला बिम्मो के कंधे पर लटकाते कहा.

‘ इतनी रात को आने की क्या जरूरत थी? जंगल में कुछ हो हवा जाता तो?? देखते नहीं जंगल के जानवर आजकल कितने परल गए हैं. कितने मिले?’

‘पूरे पचास!‘ उसने अपनी जेब से पचास निकाले और उसके हाथ पर रखे तो बिम्मो दीउए के आगे पूनो का चांद हुई.

‘एक खुसखबरी और है!’

‘क्या??’बिम्मो ने पचास के नोट को हथेली में सहलाते पूछा.

‘ कम्मो का रजल्ट आ गया.’

‘ तो?? पास हो गई वह?’

‘अरी पगली! अभी अखबार में है.’

उसने बिम्मो के कंधे पर लटकाए झोले में से अखबार निकाल उसे दिखाते कहा,‘ इसमें छपा है रजल्ट! पता नहीं हमारी कम्मो का रजल्ट कैसा होगा? जबसे झोले में ये अखबार डाला है तबसे ही मेरा मन बैठ रहा है. फेल तो वह हो नहीं सकती . इतना तो मुझे उस पर विश्वास है. तुझे पता है उसके कागज कहां हैं?’

‘ आले में रखे होंगे उसने. ’

‘ला तो जल्दी?’

‘ क्या कर लेगा तू उसके कागज देखके? पढ़ना आता है तुझे क्या?’ बिम्मो ने कहा तो वह झेंपा.

‘तो??’ वह जेब से बीड़ी निकाल सुलगा अपना सिर खुरकने लगा.

‘तो क्या!! सुबह भी तो होगी. सबेरे सीत्तु बजिए के घर जा आना. अखबार और उसके कागज लेकर. उसका लड़का आया है शहर से . वह देख देगा कम्मो का रजल्ट,’ बिम्मो ने सलाह दी.

वह घर के भीतर भी आ गया. उसने रोटी भी खा ली. पर दो दिन तक बाजा बजाकर थकने के बाद भी नींद न आई. अब तक पंखेरू भी आपस में लड़ झगड़ अपने घोंसलों में सो चुके थे. पर वह सोने की जितनी कोशिश करता, आंखें उतनी ही खुल जातीं. सारी रात हर दस मिनट बाद बीड़ी फूंकता रहा, चारपाई पर उल्टता पलटता. इस रात उसे पहली बार लगा कि बिस्तर में खटमल ही खटमल हैं, पिस्सू ही पिस्सू हैं.

जब उसे नींद नहीं आई तो वह चारपाई पर से उठा, किल्ली में टंगा हरीलाल के बेटे का दिया पुराना कुरता पाजामा पहना. बजियों के गांव आजतक वह तो क्या, कोई भी घराटी कभी खाली हाथ नहीं गया तो भला वह कैसे जाता? अंधेरे में ही उसने घराट के पिछवाड़े जा पतरोला पतराली करते बेलों में एक कद्दू ढूंढ ही लिया. उसे झोले में डाला और बजियों के गांव को नीम नेहरे ही बगल में अखबार और जेब में मुन्नी का कागज लिए चल पड़ा, पत्नी को बिन बताए जगाए ही.

आधे घंटे की चढ़ाई चढ़ने के बाद जैसे ही उसने बजियों के गांव में अंटर किया कि गांव के कुत्ते भौंकने लगे. शुक्र भगवान का, उसके हाथ में डंडा था वरना उसकी चमड़ी उधेड़ कर रख देते.

गांव में कोई भी न उठा था. पहले तो सोचा कि वह गांव के बेहड़े में बैठ कर सुबह होने का इंतजार कर ले. पर उससे पता नहीं क्यों उस वक्त सुबह का इंतजार न हो रहा था. उसे लग रहा था कि आज सुबह देर से हो रही है. पहले तो रोज इस बखत सुबह हो जाया करती थी. उसने आसमान की ओर देखा तो उसे लगा ज्यों तारे उस पर हंस रहे हों.

जब रहा न गया तो कुत्तों से अपनी टांगों को बचाता वह सीत्तु बजिए के आंगन में पहुच ही गया. कुछ सोच सिर खुजलाता कुछ देर रूका , फिर बजिए के दरवाजे की साकंल ठनका डाली, ठन! ठन! ठन! ठना ठन ठन!! पांच सात बार सांकल ठनकाने के बाद सीत्तु बजिए के आंगन की ओर की दीवार पर लगा बिजली का बल्ब जला तो उसके साथ ही साथ पूरा आंगन रोशनी में नहा गया. कुछ देर बाद बज्जण आंखें मलती हुई बाहर आई ,उसने ज्यों ही चर्र चर्र दरवाजा खोला कि दरवाजे पर बरड़ू घराटी. उसका मन किया कि दरवाजा बंद कर दे. हाय! अधराते ही घराटी का मुंह देख लिया. पता नहीं आज सारा दिन कैसा कटेगा?

‘ पैरी पौंदा बज्जणिए!’ बरड़ू बज्जण के आगे झुका तो बज्जण का आधा गुस्सा जाता रहा.

‘ क्या है? आज इतने अधराते. सुबह तो होने देता. क्या बात है? सब ठीक तो है? वह बुंदू कैसा है?’

‘वैसा ही है बज्जणिए.’ उसके दोनों हाथ जुड़े थे, खुद ब खुद .

‘तो कैसे आया तू? सुबह भी तो होनी थी कि नहीं?’

‘बस आ गया! छोटे बजिए से काम था.’

‘पर वो तो आठ बजे से पहले नहीं जागेगा! क्या काम है उससे?’

‘मुन्नी का रजल्ट आया है. छोटा बजिया जाग जाता तो रजल्ट देख देता, ’कह उसने बज्जण की ओर अखबार बढ़ाया.

‘देख, अभी तो मैं उसे जगा नहीं सकती. जो जगाऊंगी तो भी वह जागेगा नहीं,’ कह बज्जण दरवाजा बंद करने लगी तो बरड़ू ने कहा,‘ मेरी तरफ से ही जगा देती तो....’ उसने चार किलो का ताजा कद्दू कंधे पर लटकाए झोले में से निकाल दरवाजे पर रखा तो बज्जण नरम पड़ी,‘ कोशिश करती हूं जाग जाता है तो.’

वह जैसे कैसे राजू को उठा कर ले ही आई. राजू आंखें मलते हुए बाहर आते ही बोला ,‘ क्या है बरड़ू? यार सोने भी नहीं दिया चैन से. ऐसा क्या काम पड़ गया जो...?’

‘ माफ करना छोटे बजिया! मुन्नी का रजल्ट आया था. मैं ठहरा अनपढ़. काला आखर भैंस से भी चार कोस आगे का. रजल्ट देख देते तो..... कह उसने उसकी ओर सहेज कर मोड़ा अखबार बढ़ाया. छोटे बजिया की ओर अखबार और रोल नंबर वाला कागज बढ़ाते हुए बरड़ू की सांसें रूक सी रही थीं.

छोटे बजिए ने वहीं बैठ जमीन पर ही अखबार खोल दिया. कुछ देर तक अखबार में खबरें देखते रहने के बाद उसने पूछा,‘ कहां है उसका रोल नंबर?’

‘मेरे पास ही है बजिया. ये लो उसका रोल लंबर,’ बरड़ू ने जेब से रोल नंबर लिखा कागज का टुकड़ा निकाल दोनों हाथों से सादर उसे देते कहा,‘ ये लो.’

छोटा बजिया बड़ी देर तक अखबार में रोल नंबर ढूंढता रहा. जब उसे कम्मो का रोल नंबर मिल गया तो मुंह बनाता बोला,‘ पास हो गई तेरी लड़की.’

‘कितने लंबर हैं उसके?’ पूछते हुए उसके होंठ सूखने लगे.

‘ आठ सौ मंे से छह सौ नंबर हैं. पूरे स्कूल में सबसे ज्यादा.’

‘सच!!!’ बरड़ू को लगा कि छोटा बजिया कहीं मजाक तो नहीं कर रहा,‘ छह सौ!!!’

‘ हां! तेरी कसम!’ सुन बरड़ू पागल सा हो गया,‘ छह सौ लंबर है मेरी मुन्नी के??’ उसने दसियों बार बज्जण के, छोटे बजिए के पांव छुए और अपने घर की ओर चार- चार बीक्खों की एक बीक्ख करता दौड़ा. उस वक्त जो उसके पंख होते तो पता नहीं वह क्या करता! उड़ कर कहां पहुंच जाता.

घर में उसकी घरवाली परेशान! आधी रात को ही कहां उठकर चला गया मुआ. सुबह नहीं होनी थी क्या??

ज्यों ही उसे आंगन में किसीके आने की आहट सुनाई दी तो वह मन ही मन बड़बड़ाई, ‘आ गया मुआ अब. पता नहीं कहां गया होगा? ये बरड़ू भी न!’

अलसाई सी बिम्मो बाहर आई तो उसने देखा कि बरड़ू का चेहरा सूरज से भी अधिक दमक रहा था. उसे देखते ही वह गर्व से बोला,‘ पता है बिम्मो हमारी कल्लो के कितने लंबर आए हैं?’

‘कितने??’

‘आठ सौ में से छह सौ! पूरे छह सौ. स्कूल में सबसे अधिक. न एक कम न एक ज्यादा. पूरे छह सौ, उसके पांव उस बखत धरती पर नहीं टिक रहे थे. ये बिम्मो ने भी महसूस किया था उस बखत.’

‘ पर मुझे अब चिंता होने लगी है.’

‘ काहे की?? आज तो खुसी का दिन है बिम्मो!’

‘ पता नहीं अब अपनी बिरादरी में उसे कोई लड़का मिलेगा भी कि नहीं??’

‘मिल जाएगा. क्यों न मिलेगा??’ सुन पल भर को डरा तो वह भी, पर पता नहीं फिर किस हौसले से कह गया, तो कह गया.

ज्यों ही सुबह धूप खिली तो वह अपने घराट के साथ लगते अमरचंद के घर चला गया सीना चैड़ा किए नंगे पांव ही. अमरचंद उस वक्त रंदे का ब्लेड प्लयाणी पर पैना कर रहा था. बरड़ू को सुबह सुबह आते देख बोला,‘ और बई बरड़ू! आज कुछ ज्यादा ही मस्ता हुआ है. ठाकुरों के ब्याह में डटकर पीने को मिल गई थी क्या?’

‘ नहीं , ठाकुर बस खुद ही पीते रहे. बाजकियों को तो मुओ ने चरणामृत ही दिया. मुन्नी के बड़े स्कूल में सबसे ज्यादा लंबर आए हैं. पूरे छह सौ.’

‘ ला यार बीड़ी निकाल. मेरा बंडल खत्म हो गया है,’ अमरचंद ने उसकी बात की ओर कोई ध्यान न दिया और वैसे ही रंदे का ब्लेड पैना करता उसकी जेब से निकलते बीड़ी के बंडल का इंतजार करता रहा. बरड़ू यह देख उदास हो गया पर उसने हिम्मत न हारी.

अमरचंद के आंगन में बीड़ी पीने पिलाने के बाद वह लंबे लंबे कदम भरता नंदू की ग्वाइणों की ओर बुझा हुआ सा बढ़ा एक उम्मीद लिए नंदू को खुशखबरी सुनाने. नंदू उस वक्त ग्वाइणों के आंगन में बंधे बैलों को सूखे घास में हरा घास रूट् कर मिला रहा था. पास ही गोबर में सयारकियां कुछ चुग रही थीं. नंदू वहां से जाए तो वे बैलों की पीठ पर सवार हो उनके चीड़न खाए. बरड़ू ने अपनी ओर से ही नंदू के गले लगते नंदू से कहा,‘ नंदू! मुन्नी पास हो गई. पूरे छह सौ लंबर लिए है उसने. पूरे स्कूल में सबसे अधिक,’ पर नंदू ने उसकी बात में कोई रूचि नहीं दिखाई और चुपचाप बैलों की पीठ पर हाथ फेरता रहा, उनकी झालर में पड़े चीड़न चुगता रहा.

आखिर बरड़ू उदास पांव अपने घर लौट आया. दूसरे घरों में जा खुशखबरी सुनाने जाने को उसका कतई मन न हुआ. बिम्मो डंगरों के कामों में उलझ चुकी थी.

अपनी खुशी साझा करने को जब उसे कोई न मिला तो उसने बिन कुछ सोचे महीनों से बंद अपने घराट का दरवाजा खोला, पीछे मुडकर देखा . पर उस बखत उसे कोई नहीं देख रहा था. और भीतर चला गया. घराट में जाले ही जाले लगे थे. वह घराट के पूड़ के पास गया और उसके गलुए में अपना मुंह लगा उसने कहा ,’ सुनते हो, मुन्नी बड़े स्कूल में फस्ट आई है.’

‘ सच!! मुबारक हो बरड़ू!’ उसे लगा ज्यों कोई उसे मन से बधाई दे रहा हो जैसे. उसने इधर उधर देखा, आगे पीछे देखा. कोई न था. बस, खड़ा घराट था. उसने घराट के पूड़ को अपनी बाहों में भर उसे जी भर चूमा. जैसे ही वह मुस्कुराता बाहर आने को मुड़ा तो उसे लगा जैसे बाहर से भीतर आती हवा उसकी खुशी में शामिल हो गा रही हो. उसने महीनों से रूके तिरस्कारे घराट को बेहद अपनेपन से निहारा और गुनगुनाता हुआ घराट से बाहर आ गया.

बाहर आकर देखा तो घराट के पीछे सेमल के पेड़ से सफेद सफेद रूईं उड़ रही थी. अपनी मर्जी से, जिस ओर उसका मन कर रहा था. उसने तब सेमल के पेड़ से उड़ती सफेद रूईं को देख अपने आप से कहा, काश! इस बखत वह भी सेमल के पेड़ की उड़ती रूईं होता.

 

जन्मः- गांव म्याणा, तहसील अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश , 24 जून 1961।

बचपन ही क्या, बहुत कुछ जीवन गांव में ही बीता। आज जब शहर में आ गया हूं, गांव की मिट्टी की खुशबू तलाशता रहता हूं। शहर की मिट्टी की खशबू तो गाय के गोबर सी भी नहीं।

गांव में एक झोले में किताबें लिए पशुओं को चराते चारते पता ही नहीं चला कि लिखने के लिए कब कहां से शब्द जुड़ने शुरू हो गए। और जब एकबार शब्द जुड़ने हुए तो आजतक शब्द जुड़ने का सिलसिला जारी है।

जब भी गांव में रोजाना के घर के काम कर किताबें उठा अकेले में कहीं यों ही पढ़ने निकलता तो मन करता कि कुछ लिख भी लिया जाए। इसी कुछ लिखने की आदत ने धीरे धीरे मुझे लिखने का नशा सा लगा दिया। वैसे भी जवानी में कोई न कोई नशा करने की आदत तो पड़ ही जाती है।

जब पहली कहानी लिखी थी तो सच कहूं पैरा बदलना भी पहाड़ लगा था। कहानी क्या थी, बस अपने गांव का परिवेश था। यह कहानी परदेसी 19 जून, 1985 को हिमाचल से निकलने वाले साप्ताहिक गिरिराज कहानी छपी तो बेहद खुशी हुई। फिर आकाशवाणी शिमला की गीतों भरी कहानियों न अपनी ओर आकर्षित किया। अगली कहानी लिखी फिर वही तन्हाइयां, जो 24 नवंबर 1985 को ही वीरप्रताप में प्रकाशित हो गई। उसके बाद तो कहानी लिखने का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि आज तक जारी है। कहानी लिखने का सिलसिला जो यहां से शुरू हुआ तो यह मुक्ता, सरिता, वागर्थ, कथाबिंब, वैचारिकी संकलन, नूतन सवेरा, दैनिक ट्रिब्यून से होता हुआ व्यंग्य लेखन की ओर मुड़ा।

.....अब तो शब्द इतना तंग करते हैं कि जो मैं इनके साथ न खेलूं तो रूठ कर बच्चों की तरह किनारे बैठ जाते हैं। और तब तक नहीं मानते जब इनके साथ खेल न लूं। इनके साथ खेलते हुए मत पूछो मुझे कितनी प्रसन्नता मिलती है। इनके साथ खेल खेल में मैं भी अपने को भूलाए रहता हूं। अच्छों के साथ रहना अच्छा लगता है। हम झूठ बोल लें तो बोल लें, पर शब्द झूठ नहीं बोलते। इसलिए इनका साथ अपने साथ से भी खूबसूरत लगता है। इनकी वजह से ही खेल खेल में सात व्यंग्य संग्रह- गधे न जब मुंह खोला, लट्ठमेव जयते, मेवामय यह देश हमारा, ये जो पायजामे में हूं मैं, झूठ के होलसेलर, खड़ी खाट फिर भी ठाठ, साढ़े तीन आखर अप्रोच के यों ही प्रकाशित हो गए।

आज शब्दों के साथ खेलते हुए, मौज मस्ती करते हुए होश तो नहीं, पर इस बात का आत्मसंतोष जरूर है कि मेरे खालिस अपनों की तरह जब तक मेरे साथ शब्द रहेंगे, मैं रहूंगा।

अशोक गौतम

गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड़

नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन-173212 हि.प्र.

मो 9418070089

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