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लकीरें

  • कुसुम वीर
  • 11 मई 2019
  • 1 मिनट पठन

गुज़रे समय की जो लकीरें रह गयीं आज भी आकर विगत की बन्द गठरी खोलकर

भाव विव्हल चेतना को हैं जगा जातीं निरन्तर

साज़ झंकृत हैं प्रणय के रागिनी बजती ह्रदय में

गुज़रता प्रति पल समय ज्यों नीर सरिता बह रहा परछाई सुःख-दुःख देखता कद ज़िंदगी का घट रहा एक नन्ही कंकड़ी बिखरा गयी साया तलक़

नीर बहता ही गया मिलन सागर संग में

उफ़नते जब ज़लज़ले भू गर्भ को हैं चीरते ले गए संग साथ अपने जीवन्त सपने थे किन्हीं के उनकी स्मृतियाँ आज भी इतिहास के पृष्ठों से झाँकें

हस्तियाँ जो गर्व पूरित आज मुखरित अध्ययनों में

गोधूलि पद थाप से पड़ते जमीं पर जो निशान कर तिरोहित ले चले दिन के उजाले अपने साथ उपहार ले कर चाँदनी का सज-संवर आई थी रात

सिमट गयीं सब रश्मियाँ सन्ध्या के आगोश में

कौन अछूता रह सका है अतीत के गुरु गर्भ से स्वप्न सुन्दर सज रहे दो नयन की कोर से भाव के उर दीप जलते अंतर स्नेह अप्लाव से

उत्सर्ग हो जाते सभी प्रेम के महा ज्वाल में

मन के कोने में दबी हैं कई उम्मीदें आज भी अनछुए पहलू बहुत हैं प्रीत की मनुहार भी उभर आयीं कई व्यथाएँ हर डगर के मोड़ में

बादलों के बीच कौंधी दामिनी ज्यों व्योम में

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कुसुम वीर

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