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नफे सिंह कादयान

'वृक्षामृत' - पर्यावरण सम्बंधित कहानी


सुबह आंख खोलने से मेरा सफर शुरू हो जाता है। दिन भर हजारों चित्रों को देखती रहती मेरी आंखें। असंख्य ध्वनियां टकराती रहती मेरे कानों से। पांव चलते रहते हैं। हाथ कुछ करते रहते हैं। उठ जाता हूं तो चल देता हूं, थक जाता हूं तो सो जाता हूं। आंख खोलता हूं प्रकाश दिखता है, बंद करता हूं तो अंधकार में सैकड़ो मंदम तेज टिमटिमाते जलते-बुझते बिंदू दिखाई देने लगते हैं। एक चमकदार काला आकाश है जो मुझे बिल्कुल अपने ललाट पर दिखाई देता है। जब तक रात को मुझे नींद नहीं आती मैं इन्हीं अनगिनत बिंदुओं को देखता रहता हूं, बहुत देर तक। जैसे किसी गहन काले आकाश के अंधकार में टिमटिमाते सितारों के बीच कुछ खोज चल रही हो। इस खोज में मेरी चेतना एक दूसरी दुनिया में प्रवेश कर जाती है।

एक ऐसी दुनिया जहां मैं जाना नहीं चाहता मगर यंत्रवत सा चला जाता हूं। इस अनोखी रहस्यमय दुनिया में मेरे साथ वो भी आ जाते हैं जो वर्षों पहले मर चुके थे। आज दिन भर के कार्य से थक कर जब मैं अपनी चारपाई पर लेटा तो एक लम्बी पहाड़ी श्रृंखला नजर आने लगी। मेरे पास ही एक काला ऊंचा पहाड़ था जिसकी चोटी ऊपर जाकर कहीं बादलों में विलुप्त हो रही थी। मैं अभी उस पहाड़ को ध्यान से देख ही रहा था तभी मेरे पीछे से एकाएक आवाज आई - ‘इसे देख क्या रहा है, हिम्मत कर ऊपर चढ़ जा। तुझे आज ही अमर होने के लिए चोटी पर उगे लम्बे पेड़ों के कोटरों से अमृत पीना है।’

‘ओह! पिता जी, ये आप हैं। मैं तो डर गया था।’ मैंने पीछे मुड़कर देखा तो अपने नजदीक पिता जी को खड़े पाया। ‘अमर कोई नहीं होता पिता जी। ये तो बस बातें हैं, कुछ मिसालें हैं, मन बहलाने के लिये। अमरत्व वाली बातों से हमारा मन खुश हो जाता है और कुछ नहीं।’ मैं पिता जी से बोला तो वह गुस्से से मेरी तरफ देखते हुए जोर से चिल्लाए - ‘तेरे अंदर ये ही तो कमी है कि तूने मेरी बात आज तक नहीं मानी, इसीलिये धक्के खाता फिरता है। तुझे मालूम भी है इस काले पहाड़ की चोटी पर काले रंग के विशाल वृक्ष हैं जिनके कोटरों में वृक्षा अमृत भरा हुआ है। वहां आज तक कोई नहीं पहुंच पाया क्योंकि किसी के पास सही विधि ही नहीं थी। मैं तुझे उस पहाड़ के ऊपर चढ़ने की विधि बतलाता हूं। बात ध्यान से सुन, ऊपर खतरा भी बहुत है। वहां अमर होने वास्ते अमृत पीने से पहले तुझे बहुत कष्ट उठाने पड़ सकते हैं मगर जैसा मैं कह रहा हूं वैसे ही करते जाना।’

पिता जी ने एक बार मेरी तरफ देखा कि मैं उनकी बात ध्यान से सुन रहा हूं या नहीं फिर वह दोबारा बोलने लगे - ‘ऊपर चढ़ते जाना, चाहे तुझे कोई कितनी ही आवाज लगाए भूल से भी पीछे मुड़ कर नहीं देखना। बीजा अमृत मत पी लेना। रास्ते के जिन्नों से बचकर रहना।’ पिता जी मुझे उस पहाड़ के बारे में, और रास्ते में आने वाली कठिनाइयों के बारे में एक लम्बा चौड़ा भाषण घोट कर पिलाने लगे तो मैं कुछ अनमने मन से उनकी बात सुनने लगा - ‘तुझे पता भी है इस पहाड़ पर जब पुरसुकूं समीर बहती है, रिमझिम बारिश होती है। वृक्षों के पत्तों की सरसराहट में जब पंछी गीत गाते हैं, तब पहाड़ से आवाज आती है – ‘हे! मानव, मेरे आगोश में पलने वाले वृक्षों में दो प्रकार का अमृत भरा है, वृक्षा अमृत और बीजा अमृत। वृक्षा अमृत से पेड़ जीवों को श्रृंखलाबद्ध अमर बनाए रखते हैं और बीजा अमृत से अपने नव-अंकुरों को जन्म देते हैं। पहाड़ की गोदी में बसे गांव के लोग अमृत पान में कामयाब नहीं हो सके पर तू जरूर होगा।’ पिता जी बोलते गए। अब उनकी आधी से भी अधिक बातें तो मेरे एक कान में घुसकर दूसरे कान से निकल रही थीं पर मुझे पता था कि मुझे वहां जाना ही होगा। मैं बहस जरूर कर लेता हूं पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं पिता जी का आदेश टाल दूं।

‘ठीक है पिता जी, आपका आदेश है तो मैं ऊपर जाकर देखता हूं कि वहां वाकई अमृत है या नहीं।’ इससे पहले कि पिता जी मुझे और बोर करते मैं तेजी से ऊपर चढ़ने लगा।

मैं अपने पिता जी और गांव वालों से बचपन से ही यह दंतकथा सुनता आया हूं कि काले पहाड़ की चोटी पर ऐसे कुछ पेड़ हैं जिनके कोटरों में दो प्रकार का अमृत भरा है। वृक्षा अमृत और बीजा अमृत। वृक्षा अमृत पी कर आदमी कभी नहीं मरता। वह सदा के लिए अमर हो जाता है। अगर गलती से कोई बीजा अमृत पी ले तो वह भी अमर होता है मगर वहीं काला पेड़ बन कर। वह पहाड़ की चोटी पर सदा के लिये पेड़ बन जाता है और फिर सदियों बाद उस पेड़ के कोटर में भी वृक्षा अमृत या बीजा अमृत बनने लगता है। वहां खड़े सारे पेड़ उन आदमियों से ही बने हैं जो अमृत की खोज में वहां पहाड़ की चोटी पर पहुंचे थे।

गांव वाले कहा करते थे कि काले पहाड़ की डगर बहुत कठिन है। आज तक जो भी लोग उस पर वृक्षा अमृत पीने गए उनमें से कुछ बीच रास्ते से ही लौट आए। कइयों को पहाड़ के रखवाले प्रेतों ने खा लिया। कुछ वहां बहने वाली आग की नदी में जल कर मर गए। कुछ किस्मत वाले चोटी के काले पेड़ों के पास पहुँचने में कामयाब भी रहे मगर उन्होंने वहां वृक्षा अमृत पीने के बजाए बीजा अमृत पी लिया और वे वहां सदा के लिये पेड़ बन गए। अब वहां जाने का कोई साहस भी नहीं करता।

‘अफवाहें हैं ये, सब कोरी अफवाहें। अनपढ़ गवांर लोगों की पाखण्ड लीला। भला भूत-प्रेत भी कहीं होते हैं। यह अशिक्षित लोगों के मन का वहम है। काले-सफेद पेड़ तो खैर पहाड़ की चोटी पर हो भी सकते हैं मगर ऐसा कोई पेड़ नहीं होगा जिस पर मानव को अमर बनाने के लिए अमृत मिलता हो। मुझे पिता जी और अपने गांव वालों की बातों पर कतई विश्वास नहीं था। पिता जी के कहने से मैं वहां आज इसलिये जा रहा था ताकि इनके दिमाग में बैठे अंधविश्वास और डर को निकालने में कामयाब हो सकूं।’ सोचता हुआ मैं पहाड़ के कुछ ऊपर तक आ गया।

सूर्य देवता अपनी लालिमा बिखरते हुए अभी-अभी उदय हुए थे। सूरज की किरणें जैसे ही धरा पर पड़ी समस्त चराचर प्राणियों ने अपनी आंखें खोल दी। अब वहां पहाड़ पर उगे पेड़ों पर अनेक प्रकार के सुंदर पक्षी चहचहाने लगे। गिलहरियां, बंदर इधर-उधर टहनियों पर दोड़ लगाने लगे। सफेद खरगोशों के सुंदर जोड़े भी वहां मस्ती में एक दूसरे पर कूद कर खेल रहे थे।

‘मैं शाम तक तो चोटी पर पहुँच कर वापिस आ ही जाऊंगा।’ काले पहाड़ की चोटी की तरफ देखता हुआ मैं मन ही मन बड़बड़ाया। ऊपर तक आ मैं किसी ऐसे रास्ते को खोजने लगा जिस पर सुगमता से ऊपर चढ़ा जा सके। वहां केवल तीखी ढलाने थी जिन पर ऊपर जाना आसान नहीं था। थोड़ा आगे जाने पर मुझे एक ऐसा छोटा दर्रा सा नजर आया जिससे बरसात का पानी नीचे आता था।

‘ऊपर चढ़ने के लिए ये रास्ता ही ठीक रहेगा।’ सोचता हुआ मैं नीचे की तरफ लुढ़के बड़े-बड़े पत्थरों के पास से होकर तेजी से ऊपर चढ़ने लगा।

मैं जैसे-जैसे दर्रे से होता हुआ ऊपर की तरफ जा रहा था वह दर्रा तंग हो रहा था। उसके दोनों तरफ ऊंची खड़ी चट्टानें थी। मैंने रुक कर अपनी कलाई से बंधी घड़ी में टाइम देखा तो सुबह के साढ़े दस बज गए थे। मुझे तंग दर्रे में चलते हुए लगभग तीन घण्टे से भी ऊपर हो गए पर अभी मैं थोड़ी ऊंचाई पर ही चढ़ पाया था। ऊपर चढ़ने के चलते मेरी सांसे अब धोकनी की तरह तेज चलने लगी थी।

‘कैसे चढ़ पाऊंगा मैं इतनी ऊंचाई पर? मेरी तो अभी से सांस फूलने लगी है। यहां कुछ देर आराम कर लिया जाए तो कुछ तरोताजा होकर आगे बढ़ा जाये।’ यह सोचते हुए मैं बैठने लगा पर वहां जगह इतनी तंग थी की आराम से बैठा भी नहीं जा रहा था। मैंने चट्टान का सहारा लेकर कुछ देर आराम किया और फिर दोबारा ऊपर चढ़ने लगा। कुछ आगे जाने पर वह दर्रा एक गोल सुरंग के मुहाने पर जाकर खत्म हो गया जिसमें मैं ऊपर चढ़ रहा था।

यह सुरंग इतनी बड़ी थी कि उसमें आसानी से अंदर खड़े होकर चला जा सकता था। उसके अंदर निर्मल जल की धारा बह रही थी। मैंने उस सुरंग के आस-पास नजर दौड़ाई मगर ऊपर जाने के लिए कहीं कोई रास्ता नहीं था। हर तरफ तीखी ढलान वाली चट्टानें थी।

‘मुझे इस सुरंग के अंदर से ही चल कर देखना चाहिये, शायद ये कहीं ऊपर चढ़ने की जगह पर खुलती हो।’ अब मेरे पास और कोई चारा था भी नहीं। या तो मैं उस सुरंग में जाकर देखूं या फिर वापिस दर्रे से नीचे उतर कर पहाड़ पर जाने के लिये किसी और तरफ से रास्ता तलाश करूं।

‘ऊपर जाना ही ठीक रहेगा।’ ये सोचते हुए मैंने वहां बैठ कर ढेर सारा निर्मल जल पिया फिर कुछ देर आराम करने के बाद सुरंग में चलने लगा। मुझे यह देख कर कुछ संतोष हुआ कि सुरंग ऊपर चढ़ाई की तरफ निरंतर जा रही थी। दर्रे की बजाए मुझे सुरंग में चलने में आसानी हो रही थी। मैं लगभग दो घण्टे तक सुरंग में चलता रहा।

‘ऐसा लगता है यह सुरंग काफी लम्बी है।’ अभी मैं ये सोच ही रहा था कि मुझे रुक जाना पड़ा। मेरे आगे उस सुरंग में एक बड़ा हॉल सा आ गया था जिसकी छत बहुत ऊंची थी। उस हॉल के आगे चट्टान की एक विशाल दीवार थी जिसमें आगे अनेक सुंरगें जा रही थी। वहां सुरंगों का एक छत्ता सा बना था। जिस सुरंग से मैं आया था अब आगे वह इस हॉल से अनेक छोटी बड़ी सुरंगों में बंट गई थी।

‘अब कौन सी सुरंग में आगे जाऊं।’ सोचते हुए मेरा दिमाग चकरा गया। मैंने ऊपर हॉल की तरफ नजर उठा कर देखा तो वहां अनेक बड़े-बड़े चमगादड़ उलटे लटके हुए थे। वे सभी एक दूसरे के साथ कुश्ती सी लड़ने में मग्न थे और झूलते हुए, चीं-चीं करके एक दूसरे को धकिया रहे थे। नीचे उन्होंने काली बीटों की गंदगी का ढेर लगाया हुआ था जिसमें से मुझे तेज गंध आ रही थी। चमगादड़ों से नजर हटा कर मैंने अपने सामने वाली सभी सुरंगों का जायजा लिया। आगे जाने के लिये मैंने उनमें से सबसे चौड़े मुहाने वाली एक सुरंग चुन ली। सोचा कि ये सबसे बड़ी है इसलिये ये बाहर जरूर निकलेगी मगर जैसे ही मैंने उसमें जाने के लिये पांव रखा एक दूसरी सुरंग के रास्ते उड़ते हुए चार-पांच चमगादड़ आ कर छत पर चिपट गए। ‘ये अवश्य ही बाहर से आए होंगे। इसका मतलब ये दूसरी सुरंग ऊपर कहीं जाकर निकलती है।’

मैं उस सुरंग में आगे चल दिया जिसमें से चमगादड़ अंदर आए थे। थोड़ा आगे गया तो इस सुरंग में अंधकार बढ़ने लगा। न जाने क्यों इस सुरंग में बहुत अंधेरा था। शायद इसका मुहाना काफी दूर होगा। मैं उसमें ध्यान से आगे देखता हुआ चलता रहा। कुछ दूर चलने के बाद वह सुरंग बाईं तरफ मुड़ गई। उस तरफ मुड़ने के बाद मुझे आगे लगभग पचास मीटर पर एक झरोखा दिखाई दिया जिसमें बाहर से रोशनी अंदर आ रही थी।

‘ये बाहर जाने का रास्ता हो सकता है।’ खुश होता हुआ मैं तेजी से झरोखे की तरफ बढ़ने लगा। जैसे ही मैं उस झरोखे के पास पहुंचा सुरंग में आगे का दृश्य देख मेरे होश उड़ गए। मैं अपनी पूरी जिंदगी में पहली बार इतना डरा था। वहां आगे झरोखे से महज दस कदम दूर सुरंग के मध्य एक विशाल दैत्यकार काला-प्रेत खड़ा था।

‘ओह! हमारे गांव वाले सत्य ही कहते थे कि इस पहाड़ पर काले दैत्य राक्षस रहते हैं जो आदमी को मार कर खा जाते हैं।’ इससे पहले कि वह दैत्य मुझ पर झपटता मैंने बचाव के लिए झरोखे से बाहर छलांग लगाने का मन बना लिया। अब मेरे लिये एक-एक क्षण कीमती था। मैं एकाएक सर पर पांव रख झरोखे की तरफ दौड़ा।

इससे पहले कि मैं झरोखे से बाहर छलांग लगाता हड़बड़ी में मेरा पैर एक पत्थर से टकरा गया और मैं धड़ाम से झरोखे के बीचो-बीच गिर पड़ा। अब मेरा सिर झरोखे से बाहर था और पूरा धड़ सुरंग के अंदर। मेरी नजर जैसे ही झरोखे से बाहर पड़ी तो मैं सन्न रह गया। डर का एक और प्रहार मेरे ऊपर हुआ तो जैसे मेरे शरीर को लकवा सा मार गया।

वहां नीचे लगभग सौ मीटर गहरी खाई थी जिसमें झरोखे के बिल्कुल नीचे बहुत गहराई में एक समतल चट्टान पड़ी थी। उस पर नीचे दर्जनों मानव कंकाल पड़े थे। उससे आगे भी एक गहरी खाई थी जो नीचे की ओर जाती दिखाई दे रही थी इसलिये उधर से ऊपर जाने का कोई रास्ता नहीं था।

‘इधर दैत्य, उधर खाई।’ अब वहां मेरे लिये दोनों तरफ मौत थी। मौत के खौफ से मेरा शरीर सुन्न पड़ गया। क्या करूं, कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैं पशौपश की स्थिति में तीन-चार मिनट ऐसे ही पड़ा रहा। मैं हैरान था कि आखिर अब तक दैत्य ने मुझ पर हमला क्यों नहीं किया। वह झरोखे के बिल्कुल पास है, अगर वह चाहे तो मुझे एक क्षण में दबोच कर खा सकता है।

मैंने डरते-डरते सिर वापिस सुरंग में कर दैत्य की तरफ देखा। वह बिना हिले-ढुले वहीं पर पहले वाली मुद्रा में खड़ा था। ‘ओह! इसके पांव तो है नहीं, ये चलेगा कैसे?’ जब मेरी नजर उसके पांवों की तरफ गई तो हैरानी में मेरे मुंह से यह वाक्य निकला। उस दैत्य के पांवों की जगह एक तराशी हुई प्लेटनुमा चट्टान थी। मेरा डर कुछ कम हुआ तो खड़ा होकर मैं उस दैत्य को ध्यान से देखने लगा।

‘ओह! यह कोई भूत-प्रेत, दैत्य नहीं है। लगता है बरसाती पानी की प्रचंड धारा इस गुफा से होकर झरोखे से बाहर गिरती है, तभी पानी ने गुफा के मध्य खड़ी चटटान को तराश कर देत्य रूप दे दिया है। मैं अकारण ही इससे डर गया था। शायद इसी से डर कर यहां आने वाले अधिकतर लोग झरोखे से बाहर छलांग लगा कर मौत के मुंह में समा गए होंगे।’

मैं उस दैत्य के पास जा उसके ऊपर हाथ फिराता हुआ सोचने लगा। यह पास से भी बिल्कुल हू-बहू राक्षस नुमा व्यक्ति दिखाई दे रहा था, इसके हाथ, मुहं, नाक, कान सब बने हुए थे। ‘पानी की प्रचंड धारा इतनी खुबसूरती से आंख कान नहीं बना सकती। यह किसी इन्सान की ही शरारत लगती है। क्या मकसद हो सकता है जिसने ये बनाया होगा। शायद वह चाहता नहीं होगा की कोई ऊपर पहाड़ पर चढ़े।’ सोचता हुआ मैं चट्टानी दैत्य के पास से होकर सुरंग में आगे बढ़ने लगा।

कुछ दूर आगे चलने पर मुझे एकाएक बहुत अधिक गर्मी का अहसास होने लगा। सुरंग में अब जैसे-जैसे मैं आगे बड़ रहा था तपिश बढ़ती जा रही थी। आखिरकार मुझे सुरंग का बाहरी मुहाना दिखाई दे ही गया। मैंने सुरंग का मुहाना देख कर ऐसे चैन की सांस ली जैसे कोई बहुत बड़ी जंग जीत ली हो। पर वहां पर और भी अधिक गर्मी थी। जब मैं सुरंग से बाहर आया तो शाम हो चुकी थी। बाहर अब सूर्य देवता पहाड़ों के आगोश में समाने वाला था। वह मुझे एक बहुत बड़े आग के लाल गोले की तरह दिखाई दे रहा था। फरवरी महीना अभी शुरू ही हुआ था, अभी काफी सर्दी थी।

‘सर्दी के मौसम में यहां इतनी तपिश, आखिर क्या माजरा है?’ सोचते हुए मैंने दाए-बाए देखा तो वहां दूर तक लम्बी पहाड़ी श्रृंखलाएं साफ दिखाई दे रही थी। यह पहाड़ मेरी सोचों से कहीं बहुत अधिक ऊंचा था। मेरे गांव से देखने पर यह इतना ऊंचा दिखाई नहीं देता। बचपन से ही मैं उत्तर की तरफ अपने गांव से इसे देखता आया था। मेरा गांव इसकी तलहटी से महज कुछ किलोमीटर दूर बसा था।

‘सुर्य अभी पूरी तरह से अस्त नहीं हुआ, पहाड़ पर कुछ और ऊपर चढ़ किसी खोह में रात बिता कर फिर ऊपर की तरफ चढ़ाई करूंगा।’ ये सोच कर मैं सुरंग के मुहाने से बाहर निकल आया।

मैं उस गुफा नुमा सुरंग से ऊपर की तरफ पहाड़ पर चढ़ने का कोई आसान सा मार्ग खोजने लगा। वहां कई तरह के पेड़-पौधे और झाड़-झंकार उगे थे। वहां ऊपर चढ़ना मौत को दावत देने के समान था। सामने चट्टानें लगभग सीधी खड़ी थी। जैसे-तैसे कर के मैं उन चट्टानों की खोहों सी में पेड़ो की उभरी जड़ों और बेलों को पकड़ उनका सहारा लेकर ऊपर चढ़ने लगा।

मैं जैसे-जैसे ऊपर चढ़ता जाता तपिश निरंतर बढ़ती गई। अब मुझे वहां पहाड़ की एक साइड से धुएं के गुब्बार से भी उठते नजर आने लगे। ‘शायद वहां पहाड़ पर कहीं आग लगी है।’ यह सोचता हुआ मैं आगे बड़ा। पर जैसे ही मैं उस मोड़ से आगे आया जिधर धुआं उठ रहा था वहां के दृश्य देख कर मैं दंग रह गया। मोड़ से आगे का पूरा दृश्य अब मुझे साफ दिखाई दे रहा था। वहां नरक का साम्राज्य था।

वह पहाड़ ऊपर तक आग और धुआं उगल रहा था जिससे उसका पूरा ऊपरी भाग काला पड़ गया था। ‘शायद इसी लिए हमारे गांव वाले इसे काला पहाड़ कहते हैं।’ ऊपर से लावा विकराल रूप धारण कर नीचे की तरफ बह रहा था। यह आग की एक नदी की तरह दिखाई दे रहा था। लावे की यह नदी शाम के धुंधलके में सोने की मानिंद चमकती हुई नीचे जाकर लम्बी टेढ़ी-मेढ़ी एक बड़ी लकीर सी बन गई थी।

सुरंग से यहां तक आने की मेरी सारी मेहनत बेकार चली गई क्योंकि यहां रात को ठहरना खतरे से खाली नहीं था। ‘मुझे वापिस सुरंग में जाकर रात बितानी होगी।’ ये सोचकर मैं वापिस सुरंग में आ गया। वहां एक समतल चट्टान देख कर मैं उस पर सो गया। बहुत थका हुआ था इसलिये लेटते ही नींद आ गई।

सुबह पक्षियों के कलरव से मेरी आंख खुल गई। मैंने बाहर आ कर चारों तरफ देखा। ‘शायद यहीं कहीं काले पेड़ हों।’ वहां पेड़ तो बहुत थे मगर कोई काले रंग का नहीं था। मैं एक बार फिर ऊपर चढ़ने लगा। लावे की नदी के पास पहुँच कर मैंने देखा कि वहां ऊपर केवल आग के दरिया के साथ-साथ ही जाया जा सकता है।

जब मैं ऊपर गया तो सुबह के समय ही गर्मी में पसीने से भीग कर मेरा बुरा हाल हो गया। एक बार तो मन में आया कि वापिस नीचे चल दूं मगर अब मेरी इज्जत का सवाल बन गया था। गांव वाले मेरा मजाक उड़ाएंगे और पिता जी की डांट भी बहुत सहनी पड़ेगी। इससे अच्छा तो मैं यहीं इस आग के दरिया में डूब मरूं। आगे चलने का दृढ़ निश्चय करते ही मुझ में बला की हिम्मत, चुस्ती-फुर्ती आ गई। वहां आग मुझे झुलसाए दे रही थी मगर मैं अब हिम्मत नहीं हार रहा था। मैं लावे की नदी की तरफ से खड़ी चट्टानों की ओट ले लेकर ऊपर चढ़ने लगा। इससे मुझे चट्टानों का पिछला भाग झुलसने से बचा रहा था।

पहाड़ पर कुछ और ऊपर जाने पर एक और समस्या पैदा हो गई। वहां चट्टानों पर काई जमी थी और बहुत अधिक धुंध सी बनी हुई थी। शायद नीचे कहीं पानी था जो प्रचंड गर्मी के कारण भाप बनकर इन चट्टानों से टकरा रहा था। काई की वजह से इन पर फिसलन बहुत हो गई। अब मुझे बहुत ही संभल कर आगे पांव रखने पड़ रहे थे। मैं जानता था की अगर यहां से पांव फिसला तो मैं सीधा आग के दरिया में जा गिरूंगा।

ऊपर चढ़ते हुए मेरा बुरा हाल हो गया। शरीर था की बुरी तरह झुलस रहा था। चढ़ते हुए कई बार ऐसा लगता जैसे मैं पहाड़ की चोटी के बिल्कुल नजदीक हूं मगर चलते-चलते सुबह से शाम हो गई पर चोटी अब तक नहीं आई।

अब मुझे पानी की भयंकर प्यास लगने लगी। कंठ सूख चुका था और गले में कांटे से उग आए थे। मुझे ये अहसास होने लगा कि अब मैं नहीं बच पाऊंगा क्योंकि यहां रात बिताने का कोई ठोर ठिकाना नहीं था। शाम होने के बाद अंधकार में चला तो चार कदम पर ही आग के दरिया में जा गिरूंगा पर लगता है आज भगवान मेरा साथ दे रहा था।

चलते-चलते अब मैं इतने ऊपर आ गया कि मुझे पहाड़ का बिल्कुल उपरी भाग दिखाई देने लगा। आग का दरिया अब पीछे छुटने लगा। आखिरकार मैं रात होने से पहले काले पहाड़ की चोटी पर पहुँच ही गया। जब मैं पहाड़ के ऊपर पहुँचा तो हवा के ठण्डे झोंकों ने मेरी दिन भर की सारी गर्मी दूर कर दी। वहां ऊपर मंद-मंद ठण्डी समीर बह रही थी।

‘या..हू..., मैं जोश में भरकर दो-तीन बार जोर से चिल्लाया। मुझे ऊपर आकर इतनी खुशी हुई जैसे मैंने एवरेस्ट फतह कर ली हो। मुझे तो ऐसा लग रहा था जैसे माऊंट एवरेस्ट पर भी इतनी कठिन चढ़ाई नहीं होती होगी।

पहाड़ के शिखर पर कटोरे नुमा एक झील थी जिसमें साफ पानी भरा था। झील के किनारों पर किसी अज्ञात प्रजाति के वृक्ष थे। ऐसे वृक्ष मैंने अपने जीवन में पहले कभी नहीं देखे थे। उनका मोटा तना काजल की तरह काला था परंतु पत्ते और टहनियां सुनहरी रंगत लिए हुए थे।

‘हां ये ही काले पेड़ हैं।’ पिता जी और गांव के सारे बुजुर्गों की हर बात सत्य साबित हो रही थी। आज सुबह से आग के दरिया किनारे चलने से मेरे शरीर का सारा पानी निचुड़ चुका था। होठों पर इस प्रकार पपड़ियां जम गई थी जैसे चिकनी सुखी जमीन नमी के अभाव में फट जाती है। ऊपर आते ही मैं भाग कर झील के किनारे पड़ी हुई एक समतल चट्टान पर ओंधा गिर गया। उस चट्टान का निचला सिरा पानी में डूबा हुआ था। मैंने अपना पूरा सिर पानी में डुबो लिया। फिर जी भर पानी पीने के बाद मैं उस झील में नहाने लगा। पानी में बहुत गहरे गोता लगा कर देखा तो मुझे उस झील का नीचे कहीं कोई ओर-छोर नजर नहीं आया। ‘जरूर यह झील लावा निकलने का मुहाना रही होगी।’ सोचते हुए मैंने पानी से बाहर निकल उसकी बनावट पर ध्यान दिया। वाकई यह ज्वालामुखी के मुहाने पर बनी थी। उसके किनारे काले गोल कटोरनुमा थे।

झील के पानी में नहा कर मुझे कुछ राहत सी महसूस हुई। वहां खड़े काले वृक्षों को देख कर मैं जोश से भर गया। पानी से प्यास तो शांत हो गई मगर अब पेट में भूख लगने लगी थी।

‘अमर होने के बाद शायद भूख-प्यास भी सदा के लिये गायब हो जाये।’ ये सोचते हुए वहां अब मेरा पूरा ध्यान पेड़ों पर बने कोटरों में अमृत खोज कर जल्दी से अमर होने पर लग गया। ‘जरूर इन पेड़ों के ऊपर वृक्षा अमृत है जिसे पी कर मैं अमर हो सकता हूं।’ मैं तना पकड़ कर एक काले वृक्ष के ऊपर चढ़ गया।

मैंने ऊपर से उस पेड़ का जायजा लिया। ‘ओह! तो ये है किसी भी व्यक्ति को सदा के लिये अमर करने वाला अमृत।’ जहां पर तने से शाखाएं शुरू हो रही थी उनके बीच में एक छोटा सा कोटर नुमा खोखर सा बना हुआ था जिसमें सुनहरे पीले रंग का पेय भरा था। यह खोखर बिल्कुल झील की छोटी सी प्रतिलिपी लग रहा था। उसके किनारे भी काले पत्थर की तरह सख्त से थे। यह पेय उसके मोटे टहनों से बूंद-बूंद कर इस प्रकार नीचे रिस रहा था जैसे किसी पेड़ पर गोंद निकलता है।

‘हां ये ही वृक्षा अमृत है। इसे पी कर अब मैं अमर हो जाऊंगा।’ मैंने उत्साह में भरकर वह पेय पदार्थ पीना चाहा तो मेरे हाथ जहां के तहां रुक गए। अचानक मेरे दिल से आवाज आई- ‘ये बीजा अमृत भी तो हो सकता है जो मुझे इस विराने में सदा के लिये इन जैसा काला पेड़ बना देगा। इसकी क्या गारंटी है कि ये ही वक्षा अमृत ही है।’ सोचता हुआ मैं असमंजस में पड़ गया।

मैंने उस पेड़ के एक ऊंचे टहने पर चढ़ कर वहां खड़े सभी वृक्षों को ध्यान से देखा। सभी के तनों के ऊपर एक जैसा पेय पदार्थ भरा हुआ था। वहां सारे वक्षों का एक झुरमुट सा बना था मगर झील की दूसरी तरफ एक ऐसा विशाल वृक्ष भी था जो उन सब से लम्बा था। वह झील के दूसरे किनारे पर अलग से अकेला खड़ा था। उसके आस-पास दूसरा कोई वृक्ष नहीं था। न जाने उस पेड़ में क्या बात थी कि मैं उसकी तरफ आकर्षित हो रहा था।

‘वह वृक्ष और पेड़ों से अलग है। उसके पत्ते भी अलग प्रकार के दिखाई दे रहे हैं। जरूर वो ही अमर करने वाले अमृत का वृक्ष हो सकता है।’ सोचता हुआ मैं उस पेड़ से नीचे उतर आया और नदी के दूसरी तरफ जा कर अकेले खड़े लम्बे पेड़ पर चढ़ गया। उस वृक्ष को लेकर मेरा गणित एकदम सीधा था। बाकि क्योंकि एक जैसे पेड़ थे जो मेरे विचार से अनेक लोगों द्वारा बीजा अमृत पीने से बने थे, जो पेड़ सबसे अलग है उसमें ही वृक्षा अमृत हो सकता है।

अब तक रात हो गई थी। वहां चांदनी रात में वह पेड़ बहुत सुंदर दिखाई दे रहा था। ‘अमर होने के बाद तो कोई चिंता ही नहीं रहेगी। मैं अब अमृत पी इस पेड़ से नीचे उतर कर यहीं किसी चट्टान पर सो जाऊंगा और सुबह उठकर आराम से नीचे उतर घर चला जाऊंगा। आराम से ही क्यों मैं लम्बी-लम्बी छलांगे लगाता हुआ नीचे उतरूंगा क्योंकि अमर होने पर कहीं से भी गिरकर मरूंगा तो बिल्कुल भी नहीं।’ ये सोचते हुए अभी मैंने अपने हाथ के चुल्लु में उस वृक्ष के कटोर का पेय भरकर अपने मुंह की तरफ किया ही था की मेरे कानों में एक सरगोशी सी हुई।

‘पहले हमसे जितना लिया है उतना हमें लौटाओ राही तब अमर होना।’

‘राही.... कौन बोला ये।’ मैंने चौंकते हुए चारों तरफ देखा पर कहीं कोई नहीं था।

‘ओह! शायद ये पेड़ ही बोलता है। मैं जितना पेय पीऊंगा ये उतना ही कोटर में डालने को कह रहा है। कोई बात नहीं अभी डाल देता हूं। मैंने वह पेय पदार्थ पी लिया। वह बहुत स्वादिष्ट था। उस पेड़ से उतरकर मैं नीचे आया और दो-तीन चौड़े पत्तों की कटोरी सी बना उसमें झील से निर्मल जल भरकर उस ऊंचे पेड़ के कोटर में डाल दिया।

वह पेय पदार्थ पी अब मेरे शरीर में एक नई तरह की उर्जा का संचार हो रहा था। मेरा मन मयूर नाचने को कर रहा था। ‘ हा हा हा अब मैं अमर हो गया हूं। अब कभी मेरी मौत नहीं होगी। मेरे बच्चे, पौत्रे, परपोत्रे बुढ़े हो कर मरते रहेंगे पर मैं सदा जवान और अमर बना रहूंगा।’ खुश होते हुए मैं वहां पड़ी एक विशाल समतल चट्टान पर चढ़ कर सचमुच नाचने, कूदने लगा।

काफी देर तक नाचने के बाद जब मैं थक गया तो उसी चट्टान पर बैठ गया। ये देखने के लिये वहां से मैंने एक छोटा पत्थर उठा अपने हाथ पर दे मारा कि अमर होने के बाद देखूं दर्द होता है या नहीं। मगर यह क्या? मेरे नीचे रखे हाथ पर जैसे ही पत्थर लगा दर्द से मैं बिलबिला पड़ा। मेरे हाथ में पत्थर लगने से क्यों दर्द हुआ मेरी समझ में नहीं आ रहा था। गांव वालों का तो कहना था कि अमर होने के बाद शरीर को चाहे जितना मर्जी काट डालो वह फौरन जुड़ जाता है और दर्द भी नहीं होता।

‘तो क्या मैं अमर नहीं हुआ। अब ये कैसे पता चले कि मैं अमर हो गया हूं या नहीं?’ मैं अपने से ही सवाल जवाब करता हुआ कुछ देर तक असमंजस सी की स्थिति में रहा। तभी मेरे पेट में कुछ चुभन सी हुई। ऐसा लगा अमाशय में कोई छोटा सा कीड़ा कुलबुला रहा हो। मैंने पेट को हलके हाथ से सहलाया मगर कोई फायदा नहीं हुआ। पेट में सरसराहट के साथ अब हल्का-हल्का दर्द शुरू हो गया।

‘अब ये क्या नई मुसीबत है। यहां तो काई डॉक्टर, वैध भी नहीं है जो मुझे पेट दर्द की गोली खिला देगा। शायद भूख की वजह से दर्द हो रहा है।’ सोचते हुए मैं खड़ा हो कर इधर-उधर टहलने लगा। पूनम की चांदनी रात में वहां चारों तरफ निरवरता फैली थी मगर कभी-कभी पहाड़ के नीचे लावे के उद्गम स्थल से बड़ाम-बड़ाम की आवाजें रात की खामोशी को भंग कर देती थी। वहां रात में सब पेड़-पौधे जैसे खामोशी की चादर ओढ़े सो रहे थे। टहलने के बावजूद भी मेरे पेट का दर्द था कि कम होने के बजाए बढ़ता ही जा रहा था। कुछ देर बाद ही मेरे पेट में इतना भंयकर दर्द शुरू हो गया कि में कराहने लगा। दर्द जब असहनीय हो गया तो मैं वहीं चट्टान पर लेट कर लोट-पोट होने लगा। अब अमर होने की मेरी सारी मस्ती, सारी खुशी काफूर हो चुकी थी और मैं परमात्मा से हाथ जोड़ कर विनती कर रहा था कि हे! प्रभू मुझे किसी तरह इस दर्द से निजात दिलवाइये।

थोड़ी देर में ही दर्द इस कदर बढ़ गया कि मुझ पर बेहोशी सी छाने लगी। मुझे लगा जैसे कोई चीज मेरे पेट को फाड़ कर बाहर आना चाहती है। चट्टान पर पड़ा मैं पेट पकड़ कर चीखते चिल्लाते हुए दर्द से कराह रहा था तभी उस पहाड़ के नीचे इतनी तेज गड़गड़ाहट हुई की समूचा पहाड़ जोर से हिल गया। मेरे पेट में एक बार फिर दर्द का भयंकर गुब्बार सा उठा और काले रंग का एक छोटा सा पौधा मेरा पेट फाड़कर बाहर निकल आया।

अब मैं आंखे फाड़े उस पौधे को देख रहा था। यह उन्हीं पेड़ों का छोटा सा प्रतिरूप था जो वहां झुरमुट में उगे हुए थे। अब मुझे लग रहा था कि वो अलग खड़ा पेड़ ही बीजा अमृत था और यहां आए हुए सभी लोग मेरी तरह कुछ ज्यादा ही समझदार थे। उन्होंने भी मेरी तरह बीजा अमृत पिया था।

‘क्या तुमने वो सब लौटा कर अमृत पिया है जो तुम हमसे लेते हो।’ उस नन्हे पौधे के पत्तों से मुझे आवाज सुनाई दी।

‘हां, हां, मैंने उससे भी अधिक शुद्ध जल तुम्हारे कोटर मे डाल दिया था जितना मैंने पिया था।, मैं दर्द से कराहता हुआ बोला।

‘मूर्ख प्राणी, हम तुम्हें खाना देते है। पहनने के कपड़े, इंधन, फर्निचर, घर, उद्योगों और अन्य सैकड़ों चीजों के लिये तुम हमें बेदर्दी से काट कर इस्तेमाल करते हो, क्या एक चुल्लू भर पानी हमारी कीमत हो सकती है? तुमने हमारे जंगलों का सफाया कर हमारी हरी-भरी बस्तियों को उजाड़ दिया है। क्या तुम हमें उतने ही लगाते हो जितने काटते हो?’

‘हमें माफ कर दो भाई।’ मेरी दर्द से जान निकली जा रही थी। मैंने पेट पकड़ कर खड़े होने की कोशिश की तो वह चट्टान जोर-जोर से हिलने लगी। देखते ही देखते वहां भयंकर जलजला आ गया। वहां पेड़-पौधे, चट्टानें सब नीचे की तरफ लुढ़कने लगे। भुकंप में जब मैं वहां से नीचे आग के दरिया की तरफ फिसला तो मेरा सर एक काले पेड़ से जा टकराया। एक जोरदार झटका सा लगा और मैं पेड़ पकड़ कर उठ बैठा।

मुझे ऐसा लग रहा था जैसे बहुत बड़ा भुकंप आ गया था। सब कुछ हिल रहा था। मैं अपनी खाट का पायें की तरफ से एक सिरा हाथ में पकड़े हिल रहा था। अर्ध-निद्रा सी की हालत में मुझे लगा कि ऐसे तो मेरा पूरा परिवार छत के नीचे दब कर मर जायेगा। मैं ‘हालण आ गया, हालण आ गया, कह कर चीखते हुए दोनों खाटों को बरामदे में से घर से बाहर निकलने वाले गेट की तरफ जोर से खींचने लगा तो मेरी पत्नी और दोनों बच्चों की आंख खुल गई।

मैं तो बस उन्हें मरने से बचाना चाहता था। जब तक मेरा परिवार खाट से उठा मैं दोनों खाटों को लोहे के गेट के पास तक खींच ले आया था। मैने हालण-हालण चिल्लाते हुए तेजी से जब अपना लोहे का दरवाजा खोला तो आस-पड़ोस के लोग भी घरों से बाहर निकल आए।

‘कहां आया है हालण, मुझे तो दिखाई नहीं दे रहा।’ मेरी पत्नी दोनों बच्चों का हाथ पकड़ गेट से बाहर आकर मुझसे बोली।

इससे पहले कि मैं कुछ कहता मेरे पास वाले घर की पड़ोसन बोल पड़ी - ‘हां हां बहुत जोर के दो-तीन झटके लगे। मैं तो ओठा खाट से गिर ही गई होती।’ मेरे घर के सामने वाला नेशी भी बोला- ‘अच्छा चाचा, इतनी जोर से तो नहीं आया था, पता नहीं लगा, मुझे भी बस छोटे-छोटे झटके से आए मालूम पड़े हैं। मैं पैशाब करने उठा था, मैं तो समझा बिमारी की वजह से मुझे चक्कर आ रहे हैं।’

हमारे पड़ोस के इस लड़के को टी.बी. की बिमारी थी। मुझे ठीक से याद नहीं पर लगभग रात के साढ़े बारह के करीब बज चुके थे। मेरे हालण-हालण कह कर चींखने की आवाज सुन वहां जितने भी पड़ोसी जागे थे वे अलग-अलग तरीके से उस भुकंप के बारे में अपने अनुभव बतला रहे थे जो कभी आया ही नहीं था। अब मैं पूर्ण होश में आ चुका था, अपने सपने से बाहर वास्तविक जहान में था और जानता था कि यहां मेरे गांव में कोई भुकंप नही आया है। यह केवल मेरे दिमाग की आभासी दुनिया में समायी कहानियों में आया हुआ था।

 

लेखकीय परिचय.

नाम- नफे सिंह कादयान, पता:- गांव-गगन पुर, जिला- अम्बाला, डाक घर- बराड़ा-133201 (हरि.) mob.9991809577

जन्म- 25 मार्च 1965, कार्य – खेती-बाड़ी, नव-लेखन। Email-nkadhian@gmail.com

हरियाणा साहित्य अकादमी रचनाकार डॉट कॉम पर साहित्यकार- N.-10,

मुख्य सम्मान:-

1 -हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा व्यवस्था कहानी के लिये सम्मान. वर्ष -2009

2 - B.D.S साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा श्रेष्ठ लेखन के लिये डॉक्टर भीमराव अम्बेदकर राष्ट्रीय फैलाशीप अवार्ड वर्ष-.2013

3 -हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा चैतन्य पदार्थ ( विज्ञान निबंध पदार्थ सरचना ) पुस्तक के लिये श्रेष्ठ कृति पुरस्कार- वर्ष 2017,

रचनायें:-

9 पुस्तकें:- ( विज्ञान, राजनीति, सामाजिक विषयों पर जिसमें दो उपन्यास, एक हरियाणवी रागणी संग्रह है प्रकाशित।)

कहानियां, आलेख, संस्मरण, गजल़, कविता, पत्र दैनिक ट्रिब्यून, हंस, हिमप्रस्थ, हरिगंधा, कथायात्रा, शुभ तारीका, हरियाणा साहित्य अकादमी की व अन्य पत्र पत्रिकाओं, पुस्तकों में प्रकाशित।

मेरा जीवन जीने का तरीका- मस्त रहो, सदा खुश रहो, जो खा लिया अपना, रह गया बैगाना।

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