कमला बड़ी देर तक कमरे में निढाल पड़ी रही फिर उसे न जाने क्या सूझी कि वो उठकर बाहर चली आयी। उसने दुर्गेश से कहा ‘‘मुझे छत पर ले चलो दुर्गेश’’।
दुर्गेश ने हैरानी से कहा ‘‘अभी टाइम है धूप ढलने में’’।
कमला ने दांत पीसते हुए सख्ती से कहा ‘‘ले चलता है कि चाहता है कि मैं गिर पड़ जाऊँ’’।
दुर्गेश ने भी सख्ती से कहा, ‘‘मम्मी छत पर कौन सा अमृत बरस रहा है जो तू अभी जाकर पी लेगी और अमर हो जायेगी। बाद में जान जायेंगे तो पापा और बड़कऊ हमको ही ताना देंगे।’’
कमला ने सीढ़ियों पर खुद चढ़ने का उपक्रम किया तो दुर्गेश जान गया कि उसकी माँ अब मानेगी नहीं। वो भुनभुनाते हुए आया और सहारा देते हुए कमला को छत तक पहुँचा दिया। कमला छत के एक कोने पर बैठ गयी, वहाँ थोड़ी सी छांह थी वहीं उसने दीवार पर टेक भी लगा लिया। उसने उचटे हुए मन से शून्य में देखना शुरू किया। सामने आम का वहीं पुराना पेड़ था जो चालीस बरस पहले था। पेड़ पर दो तोते बैठे थे जो रह-रहकर बेवजह एक दूसरे को चोंच मार रहे थे। कमला उन्हें एकटक देखे जा रही थी वो पक्षी एक दूसरे पर हमलावर होते फुदककर दूसरी डाल पर जाते। मगर फिर लौटकर उसी शाख पर आ जाते और रह-रहकर लड़ते। कमला ने ध्यान से देखा कि वो दोनों शायद किसी फल के लिये लड़ रहे हों मगर पेड़ तो फल विहीन था। पक्षी भोजन और प्रजनन के लिये ही आमतौर पर लड़ते हैं वरना नहीं लड़ते हैं। लेकिन वो क्यों लड़ी थी अपने पति करमवीर से? वहां ना भोजन की समस्या थी ना प्रजनन की। उसके घर में तब अन्न भी था और बच्चे भी। परिवार के पास खेती भी थी और पति की छोटी सी नौकरी भी।
ये हिन्दी सिनेमा में शोले फिल्म की धूमधड़ाके का साल था। जीवनस्तर उसका भी वैसे ही था जैसे पूरे गांव का था। अपने घर में उसी का राज था जिसमें उसकी बेटी नीलम और बेटा विक्की भी रहते थे और साथ में रहता था उसका मेहरमटका पति। जो सबको हुजूर, साहब, सरकार, मालिक कहा करता था जबकि ब्राह्मण बहुल गांव में उनकी जाति ही सर्वोच्च थी। कमला का जीवन ससुराल में मायके की तुलना में काफी बेहतर चल रहा था। मायके में चार-भाई-बहनों में उसके पिता की मामूली कमाई और बोरिंग करने का रोजगार जीने-खाने से कहीं ज्यादा न था। गांव में ही कमला की पांचवी तक की प्राइमरी में पढ़ाई हुई थी जो चिट्ठी-पत्री के इल्म तक महदूद थी तो वाकई कमला चिट्ठी लिखने से ज्यादा कुछ सीख भी न पायी थी। अठारह बरस की होते-होते उसका विवाह उसकी बुआ के गांव में कर दिया गया। बुआ ने इस शादी की काफी वकालत की थी और एक तरह अड़कर ये विवाह करवाया था। करमवीर घर का अकेला छांड़ और बाप नकुल सेन। करमवीर की मां का देहांत कुछ साल पहले हो गया था। सो, न सास, न ननद, न देवर, न जेठ। एक ससुर वो भी कमाउ बोरिंग का मिस्त्री। कमला को गांव में आकर पता लगा कि उसकी बुआ अपनी मांग में सिंदूर तो अपने पति के नाम का लगाती थी मगर पत्नी धर्म का निर्वाह किसी और के भी साथ कर रही थीं। बुआ की ही ताकीद पर कमला का विवाह करमवीर के साथ हो गया था। करमवीर के क और कमला के क अक्षर की समानता की वजह से वर-कन्या के तमाम गुण मिले थे। वाकई गुण खूब मिले थे क्योंकि करमवीर में कई स्त्रियोचित गुण विद्यमान थे। विवाह के बाद कमला को उसके इन गुणों का पता लगा कि माता विहीन करमवीर वत्सलता और ममता भी तलाशता है सिर्फ कामुकता नहीं। दिन-रात वो कमला के इर्द-गिर्द ही मंड़राता रहता था। करमवीर जंगलात महकमें में मुंशी था। लेकिन वो कर्म का वीर नहीं था अपितु बातों का वीर था। बातों में करमवीर बिल्कुल चाशनी की तरह था जिधर से चखो उधर से मीठा। इतनी लच्छेदार बातें करता था कि मध्ययुग के दरबारी कवि भी पनाह मांगे। निंदा किसी की नहीं, मुंह पर तारीफ और कसीदे मन भर-भर के गढ़ता रहता था। जंगलात महकमें में संविदा के मुंशी की नौकरी में कोई उज्र न था करमवीर ड्यूटी करता या न करता। साहब लोग उसे ड्यूटी से तो नहीं निकालते थे मगर उसकी आधी से ज्यादा तनख्वाह खुद रख लेते थे। जंगल की नौकरी तो ऐसी थी कि जितना कुंआ खोदो उतना पानी पियो। अगर आदमी मौजूद है तो वो जो खुद चुराकर बेच ले वो उसका और संस्थागत चोरी में हर मौजूद शख्स को जो हिस्सा मिलना था वो मिलता था भले ही वो छोटा सा क्यों न हो। वैसे भी उसकी लफ्फाजी से महकमें के लोगों के लिये उसका होना या न होना दोनों बराबर थे। इधर गांव में तमाम लोगों का अनुमान था कि करमवीर या तो समलैंगिक है या नपुंसक। ये अनुमान बहुतेरों का था गवाही किसी की नहीं। करमवीर का बाप उसके घर में पडे़ रहने को लेकर बेपरवाह था। उसका मानना था कि अभी नई-नई शादी है बाल-बच्चे हो जायेंगे तो काम पर जरूर जायेगा। नकुलसेन भी पांच कोस दूर जाकर जंगल में साहबों के हाथ-पांव जोड़ आते कि करमवीर का रोजगार क्या रहे। ब्राह्मण का विरोध कोई भी कर सकता है मगर वहीं ब्राह्मण जब विनीत होकर याचना करे तो किसी हिन्दू धर्म को मानने वाले को उसकी बात टालना बहुत मुश्किल होता है। आनन्द के दिन कितनी जल्दी बीत जाते हैं किसी को पता ही नहीं लगता।
पांच वर्षों में कमला की गोद दो बार हरी हुई पहले लड़की नीलम और बाद में लड़का विक्की। अब तक ये बात कमला बहुतों से सुन चुकी थी और जवाब देते-देते थक चुकी थी कि उसका पति मिट्ठा नहीं है। मिट्ठा अवधी में एक प्रचलित शब्द है जो बहुतेरे मायनों में प्रयोग होता है। अगर किसी पुरूष को मिट्ठा कहा जाता है तो इसलिये कि उसमें पुरूषार्थ या मर्दानगी की कमी है। ये पुरूषार्थ और नपुंसकता के बीच फिफ्टी-फिफ्टी वाला सेतु था। कमला को बच्चे हुए तो कई लोगों को शक-सुबहा था कि ये करमवीर की संताने हैं या किसी और की। गांव के बूढे़-बुढ़ियों का अनुमान था कि ये बच्चे शायद करमवीर के पिता नकुलसेन से हुए हों। मगर जैसे-जैसे बच्चों का रंग-रूप निकला वे बिल्कुल करमवीर के फोटोकापी थे। बच्चों का रंग-रूप देखकर लोगों का भ्रम दूर हो गया। कुछ प्रश्नों के जवाब जब मनुष्य देते देते थक जाता है और लोग नहीं सुनते, कुदरत उन सवालों के जवाब बड़ी सहजता से दे देती है।
विवाह के आठवें वर्ष में करमवीर का बाप नकुलसेन बोरिंग करते-करते उसकी मशीनरी की दुर्घटना में अपने प्राण गंवा बैठा। तब नीलम छः बरस की थी और विक्की तीन बरस का। ये कहर नाजिल हुआ तो उस घर की चूलें हिल गयी। करमवीर को उसके वालिद की मृत्यु के सबब दस हजार रूपये भी हासिल हुए। ये मदद उसके बाप के साथ के मिस्त्रियों और व्यापारियों ने की थी।
दस हजार रूपये एक बड़ी रकम थी इस समय हिन्दी में प्यार झुकता नहीं नाम की कोई फिल्म धूम मचाये हुई थी। जब तक रूपये रहे करमवीर घर से नहीं हिला। कुछ के वर्षों में जब रूपये खत्म हो गये तो तमाम परेशानियां सामने आयीं। घर में पहले अभाव हुआ फिर फांके की नौबत आ गयी। पंद्रह बीघे की खेती थी लेकिन खेती श्रम से ही फलती है लफ्फाज और मिट्ठा करमवीर की बातों से नहीं। उसके पास न तो कर्मठता थी न उद्यमशीलता। खान-पान, रहन-सहन वैसे ही रखा, पैसा खर्चता तो रहा मगर आया कहीं से नहीं। कमला एक ऐसे घर से ऐसे घर में आयी थी जहां रोज पैसा आता था। उसके पिता भी बोरिंग मैकेनिक थे और ससुर भी। जिस घर में रोज पैसा आता हो चाहे थोड़ा सा ही उस घर की रोज-रोज की दुश्वारियां भी कटती जाती थीं। अब छमाही पर फसल मिलती थीं वो भी आधा या तिहाई। धान या गेंहूं ही मिलता था वो भी बटाई पर। करमवीर खेतों की ओर तक न जाता था सो बटाईदार आधे से ज्यादा खेतों में ही चुरा लिया करते थे और जो कुछ बचता उसे फसल उठने पर आधा-आधा कर लेते थे। इतनी बड़ी खेती भी नहीं थी कि एक छमाही की बटाई फसल के साथ पूरे घर का खान-पान और घर खर्च निकल सके। कमला, करमवीर से बहुत कहती कि ड्यूटी चले जाओ वो जाता भी तो दो चार घंटे में भाग आता। घर में दूध-सब्जी के लाले हो गये सिर्फ धान-गेहूँ में जो बने वो बना लो और फिर उसी को बेचकर खिर्ची-मिर्ची ले आओ। अभाव बढ़ रहे थे, घर की हर बचत स्वाहा हो रही थी मगर जीवन तो चल रहा था।
मगर अचानक आये एक वज्रपात ने कमला की दुनिया ही उजाड़ दी। ऐसे ही कठिन समय में भादौं के महीने में चारो ओर अथाह जल राशि भरी थी। नदी, ताल, नौखान सब लबालब भरे थे। विक्की अलसुबह शौच के लिये निकला तो कमला ने उसे लोटा लेकर जाने की ताकीद की, कि बरसाती पानी के प्रयोग से फोड़ा-फुंसी निकलता है विक्की निकला तो कई घंटों तक नहीं लौटा। कमला खाना बना रही थी तभी रोती बिलखती नीलम आयी कि विक्की स्कूल के कुएं में डूब गया है। गांव भर उधर ही भागा। कुआं यूं तो काफी गहरा था मगर लगातार बरसात से पानी का जलस्तर काफी ऊपर आ गया था। फिर भी कुएं की जगत से पानी की सतह बारह-तेरह फुट नीचे थी। विक्की की लाश उसी में फूली हुई उतराई थी। कमला बदहवास सी पहुँची और उसने कुंए में छलांग लगा दी। कुंए में इतना पानी था कि हाथी भी डूब जाये। कमला विक्की को देखकर कूद तो पड़ी मगर वो खुद डूबने लगी। उसने बहुत हाथ-पांव मारे अंततः वो भी पानी के तल में चली गयी। कई कुशल तैराक भी कुंए में कूदे। रस्सी और चारपाई के सहारे कमला और विक्की कुंए से निकाले गये। विक्की तो मर चुका था कमला भी बहुत सारा पानी पी गयी थी और बेहोश थी। कमला को लाद-फांद कर अस्पताल पहुंचाया गया। उसके तन की, मन की तकलीफें इतनी ज्यादा थीं कि वो हफ्तों अस्पताल में रही बदहवास, विक्षिप्त और अनमनी। कमला जीने की इच्छा को मार चुकी थी वो बस दिन रात रोती ही रहती थी। ये दुख उस घर पर बहुत भारी गुजरा। कुल का दीपक बुझ चुका था। घर में दुख था, शून्य था, उदासी थी दिन-भर लोग रोते-बिलखते रहते थे। ये दुख कमला और करमवीर दोनों को खाये जा रहा था।
नीलम अभी बच्ची थी और बचपन का कोई दुख स्थायी नहीं होता। नीलम स्कूल चली जाती और करमवीर ड्यूटी तो कमला को घर करने को दौड़ता। उसे खुदकशी के तमाम इल्हाम होते। मगर भूख और भविष्य की सोच मनुष्य के जीवित रहने की घड़ी ठोस वजह होती है। पांच खण्डों में बंटा हुआ उसका घर था जिसमें कई पीढ़ियों के फरीकैन थे। पांच खण्डों में एक में करमवीर का निवास था बाकी चार हिस्सों में दूसरों के परिवार रहते थे। उसी के एक खण्ड में बड़कऊ भी रहता था। बड़कऊ जो करमवीर का भतीजा लगता था न सगा न चचेरा मगर था तो उसी पट्टीदारी का रक्त। उनके घर एक थे मगर वे एक ही घराने के नहीं थे। जिस रास्ते से लोगों का निकास था उसके बगल में ही एक नल था। नल के पास ही ईंटे घेर दी गयी थीं। कमला वहीं पर नहा लिया करती थी। मुख्य द्वार पर जब कोई साड़ी या जनाना वस्त्र लटका दिया जाता था तो ये एक सिग्नल था कि कोई स्त्री नहा रही है उतनी देर तक उधर पुरुषों और बालकों के गुजरने की मनाही होती थी। ईंटे तीन तरफ से घिरी थीं सिर्फ एक तरफ से दो फुट का निकास था जो नल से पानी लेने हेतु खुला था। एक दिन कमला दोपहर में नहा रही थी। उस दिन उसे बाल धुलना था। बड़ी देर तक वो अपने बालों को मलती रही और झुकाकर धुलती रही। अपने कपडे़ उसने ब्लाउज, पेटीकोट और अंगिया नल पर रखे थे। जो ईंटों के त्रिकोण से बाहर थे। उसके बदन पर नाममात्र के गीले कपडे़ थे। स्नान के बाद उसने त्रिकोण के रास्ते से बाहर जाने का प्रयास किया तो सामने एक विषधर फन काढे़ बैठा था। कमला को काटो तो खून नहीं। सांप खासा लम्बा और जहरीली प्रजाति का था। नागराज जिन्हें फेटारा भी कहा जाता है, रास्ता रोके जीभ लपलपा रहे थे। ईंट का त्रिकोण सिर्फ ईंट रखकर बनाया गया था ईंट चिन कर नहीं। उस पर चढ़ने की गुंजाइश हर्गिज न थी। कहाँ जाती कमला? फिर लाज के भी तो तकाजे थे। बदन पर कपड़े नाममात्र ही थे। उसने चिल्लाना शुरू किया। बड़ी देर तक पुकारने पर कोई भी नहीं आया। ऐसे खुले गुसलखाने में औरतें उसी वक्त नहाती थीं जब घर और आसपास किसी पुरुष के होने की उम्मीद ना हो। बड़ी देर तक कमला चिल्लाती रही और सांप उसी तरह फन काढे़ जीभ लपलपाता रहा। कमला को लगा अब उसकी मृत्यु निश्चित है। उसने अपने तन के इकलौते और गीले वस्त्र निचोड़ कर हाथ में ले लिया। पेटीकोट लम्बा था कमला ने सोचा वैसे तो सांप को मार पाना असंभव है पर यदि सांप ने आगे बढ़कर हमला किया तो वो पेटीकोट सांप के मुंह पर फेंक देगी और सांप जब कपडे़ में उलझ जायेगा तो वो उसे ईंटों से कुचल देगी। एक हाथ में ईंट और दूसरे हाथ में पेटीकोट लिये वो अपने देवता-पितरों का सुमिरन कर रही थी मगर आज उसे अपनी मृत्यु निश्चित जान पड़ रही थी। मगर न तो सांप टस से मस हो रहा था न ही कमला। ‘‘आई उधर से’’ किसी पुरुष का स्वर सुनाई पड़ा जो इस बात की टोह ले रहा था कि कोई नहा तो नहीं रहा है क्योंकि उसे वहाँ से गुजरना है। ये हरिमोहन था जो उसी पांच खण्डी घर का एक सदस्य था जो उसे अंटी कहा करता था। हरिमोहन को घर एवं गांव में बड़कउ भी कहा जाता था।
कमला ने कातर स्वर में कहा ‘‘हरिमोहन, सांप बैठा है सामने। डस लेगा मुझे किसी तरह मेरे प्राण बचाओ।’’
हरिमोहन ने ईंटों की दीवार के उस पार से पूछा तो कमला ने पूरी बात और लोकेशन बतायी। ये भी बताया कि किसी और को न बुलाना और न बताना क्योंकि उसके शरीर पर कपड़े नाममात्र ही है। उसने अपने एक हाथ में ईंट और दूसरे हाथ में गीले पेटीकोट होने की भी बात बतायी। हरिमोहन ने उसे उसी अवस्था में बैठे रहने को कहा। कुछ ही मिनटों में हरिमोहन ने भाले से सांप को पीछे से छेदकर झुका दिया और गुप्ती से उसकी गर्दन काट दी। कमला ये सब देखकर बहुत भयाक्रान्त हो गयी और जड़ हो गयी। उसे तन ढकने का भी होश न रहा। कटता, संघर्ष करता, छटपटाता और दम तोड़ता सांप देखकर उसकी रूह फना हो गयी। वो जिस अवस्था में बैठी थी वहीं फ्रीज हो गयी बिल्कुल। सांप को मारने के बाद उसे फेंकने चला गया हरिमोहन। वो लौटा तो उसने देखा कि कमला अब भी उसी तरह पेटीकोट और ईंट पकडे़ बैठी है। हरिमोहन ने नल पर से उठाकर कमला के कपडे़ उसे दिये और हाथ से सहारा देकर उठाया। हरिमोहन की मदद से कमला ने यंत्रवत कपडे़ पहने और उसे सहारा देकर कमरे में लाया। कमला बड़ी देर तक भयाक्रान्त रही और हरिमोहन बड़ी देर तक कमरे के दरवाजे के बाहर बैठा रहा। दोनों ही खासे असहज थे। कमला जानती थी कि अब उसके शरीर का कोई हिस्सा हरिमोहन से छुपा हुआ नहीं रहा, उसके मन में बड़ा हाहाकार था कि जिसने प्राण बचाये लाज की झीनी चादर भी उसी के समक्ष तार-तार हो गयी अब बाकी क्या रहा। उधर हरिमोहन भी कमरे के बाहर बैठा विचलित होता रहा कि जिस हाल में उसने कमला को देखा था उसके बाद उसका दिलो दिमाग उसके वश में नहीं था।
अट्ठाइस साल की कमला और उन्नीस साल के हरिमोहन इस असमंजस से तब तक जूझते रहे जब तक नीलम स्कूल से पढ़कर वापस नहीं आ गयी। हरिमोहन पूरा दिन उस बरामदे में ही पड़ा रहा उसने अपने सारे काम मुल्तवी कर दिये। कमला ने उसे चाय और खाना दिया। हरिमोहन गया नहीं और कमला ने उसे जाने को कहा नहीं। फिर तो ये रोज का शगल हो गया। हरिमोहन, नीलम के स्कूल जाते ही आ जाता वहीं चाय-पानी वहीं खाना। दोनों एक दूसरे से नजरे न मिला पाते मगर रहते थे दोनों एक दूसरे के आस-पास ही। कमला अपने घर-बाहर के कामों के लिये अक्सर उसे बुलवा लेती और हरिमोहन अपने सारे काम छोड़कर कमला के इर्द-गिर्द ही मंड़राता रहता था। गांव में एक भी पक्का शौचालय नहीं था इसी साल देश में इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी। अंधेरा होते ही शौच के लिये जाना उनके मिलन का सबसे मुफीद वक्त होता था। करमवीर अब जंगल से दूसरे-तीसरे ही लौटता था। नीलम सो जाती थी तो हरिमोहन रात-बिरात भी आ जाता थां उनका घर अंदर से भले बंटा था मगर बाहर से एक ही था। नीलम बच्ची थी, बिस्कुट और टाफी से ही खुश हो जाती थी मगर गांव इस मसले पर सुलग रहा था। अचानक कमला ने एक युक्ति निकाली उसने करमवीर को इस बात के लिये राजी कर लिया कि पशुओं के बाडे़ में जब पशु ही नहीं हैं तो क्यों ना एक ढाबली में किराना की दुकान खोल ली जाये। अव्वल तो इससे घर में चार पैसे आयेंगे और दूसरे वो नीलम के स्कूल चले जाने के बाद अकेली पड़ जाती है और विक्की को याद करके रोती रहती है। दुकान खुलने से वो मसरूफ रहेगी और विक्की की याद से छुटकारा भी मिला देगा। विक्की वाला इमोशनल कार्ड काम कर गया और कुछ ही दिनों में पशुवाडे़ के इकलौते कमरे के बाहर ढाबली रखा दी गयी। ढाबली पान-तमाखू और बाकी गृहस्थी की खिर्ची-मिर्ची से गुलजार थी। किराना की ढाबली खोलना इस गांव के लोगों का एक बड़ा ही प्रिय शगल था। ऐसी ढबलियां अक्सर छठे-छमाही किसी न किसी घर में खुलती थी और फिर अगली छमाही तक बंद भी हो जाती थीं। औरत ने दुकान खोली तो चल निकली। पान-तमाखू और नैनसुख के तलबगार दिन भर पहुंचने लगे। गांव में उसके आगे हरिमोहन के चर्चे दबे-हुए चल ही रहे थे। सो गांव के तमाम रंड़ुआ-छंड़ुआ पान-तमाखू के बहाने भाग्य आजमाने कमला की दुकान पर मंडराते रहते थे। अब पूरा दिन कमला दुकान करती थी और नीलम घर-स्कूल-दुकान में उलझी रहती थी। इसी बीच जंगल महकमें में दरख्तों की छंटाई के साथ मुलाजिमों की भी छंटाई हो गयी जिसमें करमवीर भी छंट गया। पुरूष के लिये बेरोजगार होना हमेशा जिल्लत का सबब रहा है। सो उस जिल्लत से बचने के लिये करमवीर जंगल में ही पड़ा रहता था। जलौनी लकड़ी, शहद बेचकर गुजारा हो जाता था उसका। इधर हरिमोहन पास के शहर से थोक में सौदा ला-लेकर देता और कमला उसे बेचती रहती। धीरे-धीरे पूंजी बन रही थी। दुकान चल निकली और साथ में चल निकले उनके संबंधों के चर्चे। कमला अब हरिमोहन को बड़कऊ कहती थी और बड़कऊ हे, हो, कहकर कमला को संबोधित करता था ताकि अंटी कहने के अपराधबोध से बचा रहे। करमवीर मुस्तकिल तरीके से जंगल में ही रहता था और फसल बंटवाने या किसी खास वजह से ही गांव आता था। नीलम भी इन सबके बीच बड़ी हो रही थी, सब देख-सुन और समझ भी रही थी। करमवीर ने कमला को बहुत समझाया पर वो टस से मस न हुई। कमला को दुकान बंद करने की चेतावनी मिली तो ढाबली खिसकाकर हरिमोहन के हिस्से में रखवा दी गयी। उनके घर जुडे़ हुए थे तो पशु-बाडे़ भी जुडे़ हुए थे। तीन भाइयों की चार बीघे वाली खेती वाले हरिमोहन को तमाम वर देखुआ देखकर लौट चुके थे। किसी ने हरिमोहन का विवाह करने का साहस नहीं किया। कई साल तक ये खेलमखेला चलता रहा। गांव कब तक चुप बैठता, बदनामी बढ़ रही थी। कमला पर एक दो बार करमवीर ने सख्ती की और हाथ उठाया तो हरिमोहन लाठी लेकर खड़ा हो गया। कमला जो खर्चा-अनाज करमवीर से लेती थी वो भी बंद। जिन्दगी की गाड़ी इन्हीं हिचकोलों के साथ बढ़ रही थी। नीलम तब जीवन के पंद्रह वसंत पूरे कर चुकी थी। जब वो गांव में रिश्तेदारी में आये हुए एक लड़के के साथ शारीरिक संसर्ग करते हुए अपने ही घर में पकड़ी गयी थी। नीलम निश्चिन्त थी कि मां दुकान पर है और पिता जंगल में। उसे ऐसा करते देखा तो हरिमोहन के छोटे भाई ब्रजमोहन ने जो कि नीलम के पूरे परिवार से खार खाये बैठा था, क्योंकि उसके भाई की बदनामी की वजह से उसकी भी शादी नहीं हो पा रही थी। गांव अपने आप में अनूठा था। जो हजरात कमला के संबंधों पर चुप थे, रस ले रहे थे वो भी बेटी नीलम के नाम पर आग-बबूला हो गये। ब्रजमोहन की गुहार पर नीलम के साथ का लड़का तो भाग निकला मगर नीलम की बहुत पिटाई हुई। नीलम की पिटाई के बाद बामन स्त्रियों का दल कमला पर टूट पड़ा। सभी ने एक स्वर से नीलम के इस कुकृत्य का जिम्मेदार कमला को माना। बहती गंगा में सभी ने हाथ धोये। दबे-छिपे जो महिलायें किसी अवैध संबंध में संलिप्त थीं उनका भी सतीत्व जाग उठा और उन्होंने कमला पर वार किये।
महिलाओं ने अपने जीवन की तमाम भड़ास कमला पर निकाल दी। उसे इतना मारा कि उसके सिर के बडे़ हिस्से के बाल जड़ से उखाड़ दिये। आगे के तीन दांत तोड़ दिये, मुंह पर कालिख और कीचड़ पोता तथा कमला के तन के सारे कपडे़ भी फाड़ डाले। हरिमोहन इस घटना के वक्त गांव में नहीं था जब ये मार पिटाई शुरू हुई तब। उसका तीसरा छोटा भाई उसे खोजते हुए गांव से बाहर वाली सड़क पर आ गया ताकि हरिमोहन जब भी लौटे तो उसे अगाह किया जा सके नहीं तो वो भी भीड़ के कोप का शिकार हो सकता था। राधामोहन ने ये बात हरिमोहन को बतायी और उसे गांव पहुंचने से पहले ही वापस लौटवा दिया। गांव आज आर-पार निर्णय करने का मन बना चुका था। गांव से एक व्यक्ति को मोटरसाइकिल से भेजकर करमवीर को बुलवाया गया। वो आया तो उसे गांव का हाल मालूम पड़ा। माँ बेटी पिटी हुई पड़ी थीं। गांव ने उस पर दबाव बनाया कि वो फैसला करे मगर करमवीर उल्टे बिफर पड़ा ‘‘किसके घर में कौन किससे फँसा है, कौन किसको रखे है? गांव चाहे तो इस बात का हिसाब-किताब रखे मगर मेरी बीवी को छोड़ दो। मैं देखूंगा कि उसका क्या करना है’’? गांव के लोगों ने करमवीर को मिट्ठा, हिजड़ा, छक्का कहते हुए खूब मां-बहन की गालियां दी। एक-दो लोगों ने तो करमवीर की गिरहबान भी पकड़ ली। मगर जैसी कमला की हालत थी उसकी तबियत और भी बिगड़ सकती थी और थाना पुलिस भी हो सकता था। करमवीर, नीलम को गांव में नहीं छोड़ सकता था। अबोध आयु थी, शर्मिन्दगी और रंगे हाथ पकड़े जाने की ग्लानि भी थी। जिसके सबब नीलम कोई भी गलत कदम उठा सकती थी, कहीं भाग सकती थी किसी नदी नाले में डूब कर मर सकती थी। बेटा तो करमवीर खो चुका था अब बेटी नहीं खोना चाहता था। औलाद माता-पिता को समान रूप से प्रिय होती है भले ही वो लड़का हो लड़की, समाज उनमें भेद का अनुमान लगाता रहता है। बीवी आज बचे या ना बचे, बेटी को भी नहीं खोना चाहता था करमवीर।
चोटिल मां-बेटी को ट्रैक्टर-ट्राली पर लादकर महराजगंज बाजार पहुँचा करमवीर अभी इलाज शुरू भी न हुआ था कि हरिमोहन वहाँ पहुँच गया। करमवीर ने उसे देखा मगर चुपचाप ही रहा। नीलम की मल्हम पट्टी और कमला की भर्ती कराने के बाद तनिक संयत होते ही करमवीर का धैर्य जवाब दे गया और उसने पीछे से हरिमोहन पर लाठी से हमला कर दिया। हरिमोहन का सिर फूट गया, रक्तधारा बह निकली। करमवीर बमुश्किल दो-तीन लाठियां और मार पाया था कि हरिमोहन ने उसे काबू में कर लिया। वो बदन से तगड़ा था उसने करमवीर को उठाकर पटक दिया और उस पर अनवरत लात-घूंसे बरसाने चालू कर दिये। हरिमोहन को जब करमवीर ने मारा तब तक नीलम चुपचाप खड़ी देख रही थी उसे लगा ये उसका गुस्सा है, जिसे उसके पिता निकाल रहे हों मगर जैसे ही हरिमोहन करमवीर पर भारी पड़ा तो वो खुद भी पीछे से हरिमोहन को नोचने-खसोटने लगी। हरिमोहन ने उसे गंदी सी गाली देते हुए झटका और दूर धकेल दिया। वो बेतहाशा गिरी और उसका होंठ कट गया। नीलम के मुंह से बड़ी तेजी से खून गिरने लगा। नीलम को घायल देखकर हरिमोहन फिर करमवीर पर पिल पड़ा। बाप को पिटता देखकर नीलम बेतहाशा अपनी माँ के पास गयी और रोते-बिलखते बोली, ‘‘मम्मी, पापा को बचाय लेव, बड़कऊ मारे डाल रहा है। वो हमको भी गरियाया मारा है’’ कमला ने ये सुना तो उसके होश फाख्ता हो गये कि आज अगर हरिमोहन ने करमवीर को मार डाला तो गांव और पुलिस दोनों उसे जीने नहीं देंगे। अस्पताल के बेड से वो हांफती कराहती किसी तरह उस स्थान पर पहुंची। करमवीर बेहोश पड़ा था और हरिमोहन अब भी उस पर लात-घूंसे बरसा रहा था। उसने हरिमोहन से करमवीर को छुड़ाने की बहुत कोशिशें की पर वो कामयाब न हो सकी। वो जानती थी कि करमवीर अगर आज यहां मर गया तो अनर्थ होना निश्चित है। बाजी हाथ से निकलते देख वो हरिमोहन के पैरों पर पड़ गयी और करमवीर की जान बख्श देने के लिये गिड़गिड़ाने लगी। अंततः हरिमोहन पसीज उठा और उसने करमवीर को छोड़ दिया। हरिमोहन ने सहारा देकर कमला को अस्पताल के बडे़ तक पहुंचाया। अगली सुबह जब कमला ने दरयाफ्त करायी तो पता लगा कि चोटिल अवस्था में ही करमवीर अलसुबह ही नीलम को लेकर कहीं चला गया है। अस्पताल में लोगों ने ये भी बताया कि जाते वक्त करमवीर से ये पूछा गया था कि जिस चोटहिल औरत को तुम लाये हो उसकी देखभाल कौन करेगा पैसा कौन भरेगा तो इसके जवाब में करमवीर ये कह गया था कि उस औरत से अब उसका कोई सम्बन्ध नहीं रह गया और उसे कोई मतलब नहीं है। कमला की देखभाल करना उसी पुरूष की जिम्मेदारी है जो उसके सिरहने पूरी रात बैठा रहा था यानी कि हरिमोहन। कमला ये जान चुकी थी कि सब कुछ जानने समझने के बावजूद करमवीर उसे अस्पताल लाया क्योंकि तब तक वो कमला को अपनी पत्नी मानता था और बाद में उसे इस हाल में छोड़कर बेटी ले जाने का मतलब था कि करमवीर ने उससे अब हर वास्ता तोड़ लिया है। ये निर्णायक घड़ी थी यहां से जिन्दगी ने अपने रास्ते बदल लिये। कमला गांव न लौटी और वहीं से हरिमोहन के साथ शहर चली गयी। गोण्डा शहर में ही हरिमोहन ने ग्रेन फैक्ट्री में नौकरी कर ली। नौकरी क्या थी मजदूरी ही थी, पर जीवन किसी तरह बीत रहा था। कुछ और बरस तक जिन्दगी की गाड़ी ऐसे ही हिचकोले खाते हुए चलती रही। घर के खर्चे पूरे न पडे़ तो कमला ने पुलिस लाइन्स के सामने चाय-पान की छोटी सी गुमटी रख ली। पुलिसवालों की आमदरफ्त बनी रहती। कभी-कभार करमवीर भी आता उसे कुछ कहता भी, समझाता भी मगर कमला बस एक ही बात की रट लगाये रहती कि उस रात अस्पताल में वो किसके भरोसे उसे छोड़कर चला गया था वो मर जाती तो? वो उनके लिये मर चुकी है। हरिमोहन भी करमवीर की इस आवाजाही से हैरान रहता। वैसे हरिमोहन गुप्ता सिपाही की आमदरफ्त से भी काफी परेशान रहता था। करमवीर की मनुहार चलती रही और चलती रही गुप्ता सिपाही की वरदहस्त और क्योंकि पुलिस लाइन की दुकान गुप्ता की बदौलत ही थी। हरिमोहन के साथ रहते हुए कमला इस त्रिकोण में पिसती ही रही। इस दौरान कमला दो बच्चों की मां बनी बेटी सरगम और बेटा दुर्गेश। इन हालात में जिन्दगी पंख लगाकर उड़ती रही। हरिमोहन को लगता था कि ये बच्चे गुप्ता सिपाही के हैं। कमला कहती थी कि ये बच्चे हरिमोहन के हैं और गुप्ता सिपाही कहते थे कि ये बच्चे कमला का पति करमवीर भी तो उसके घर आता जाता रहा है तो शायद......? विचलन सभी किरदारों का हुआ मगर किसी ने किसी का परित्याग नहीं किया। समय की नब्ज भापकर हरिमोहन ने अपने विवाह के तमाम प्रयत्न किये मगर वो सारे निष्फल ही रहे। उसके छोटे भाइयों का विवाह अवश्य हो गया था और वे सब अपनी घर गृहस्थी में रमे थे। गुप्ता सिपाही ने कमला के साथ अपने रिश्तों को तफरीह ही माना और उसने अपना संपर्क कई औरतों से होने की बात कहके पल्ला झाड़ लिया। गुप्ता सिपाही ने सामाजिक रूप से कमला के दो बच्चों का पिता करमवीर को ही बताया। करमवीर नीलम को नानी, मौसी के घर छोड़ आता था और कमला को वापस लाने की मुसलसल मनुहार भी करता रहता था। किरदारों के जीवन की गुत्थियां उलझती गयीं इसी बीच नीलम जवान हो गयी। गांव उसके बचपन की हरकत को बचपना समझकर भुला चुका था। इस उहापोह की हालत में भी एक बात तो साफ दिख रही थी कि जो नीलम से विवाह करेगा वहीं करमवीर की संपत्ति का वारिस होगा। इसी बीच नीलम के ननिहाल में उसकी समवय युवती माया की पहली डिलीवरी के दौरान मृत्यु हो गयी। माया भले ही नीलम की हम उम्र थी मगर नीलम उसे मौसी पुकारा करती थी। उसका पति मनोज जो कि चीनी मिल में कामदार था, वो गोण्डा में ही पोस्ट था और विवाह के साल भर के अन्दर ही जच्चा-बच्चा दोनों को गंवा बैठा था। करमवीर ने काफी ठोंक बजाकर और नीलम को राजी करके नीलम का विवाह मनोज से करा दिया। मनोज भी दूरदर्शी था। वो जानता था कि कामदार की नौकरी में वो बरसों में उतना नहीं कमा सकता था जितना कि करमवीर के सोलह आना मालियत वाले खेतों से कमा सकता था। वो खेत जो सरयू नहर परियोजना का हिस्सा थे और जिनके भाव इस वक्त आसमान छू रहे थे। शादी के बाद मनोज नीलम के साथ उसके गांव में ही रहने लगा और कुछ समय बाद नीलम की भी गोद हरी हो गयी और उसने एक बेटे को जन्म दिया। बेटे का मोह दिखाकर, वक्त की नजाकत भांपकर नीलम अपने पिता को अपनी मां के खिलाफ खूब उकसाती थी। उसने सुन रखा था कि करमवीर के मर जाने के बाद उसकी जायदाद में एक हिस्सा कमला का भी लगना था। नीलम की बात मानकर करमवीर ने अपनी खेती-बाड़ी नीलम के नाम वसीयत कर दी। अब वो अपने नाती जीतू को ही देखकर जीते थे जिसमें उन्हें अपने मरे हुए बेटे विक्की का अक्स नजर आता था। जिन्दगी ने शायद अपनी गति से समझौता कर लिया था। हरिमोहन कभी कमला के साथ रहता था तो कभी कमला से अलग। जब कभी गुप्ता सिपाही कमला के आस-पास होते थे तब हरिमोहन वहां नहीं फटकता था। बहुत साल तक ये रिश्ते ऐसे ही आपस में उलझे रहे कि कौन किसका क्या है? गुप्ता सिपाही बाद में दरोगा बनकर बजनौर चले गये। कमला की दूसरी बेटी सरगम अब बीस बरस की हो चुकी थी और किसी नर्सिंग होम में नौकरी करती थी। बेटा दुर्गेश भी बड़ा हो गया था और इंटर में बढ़ता था। हरिमोहन को कमला के दोनों बच्चे समझते चाहे जो थे मगर पुकारते बड़कऊ ही थे। कमला के बच्चे जब-तब करमवीर से मिलते रहे। फिर जब तक कमला का कैंसर ठीक से पता लगता तभी डाक्टर ने बता दिया कि कमला मौत की कगार पर है, बचना नामुमकिन है। हरिमोहन ने अपनी सारी जमा पूंजी, पूरी सम्पत्ति बेचकर कमला के इलाज में खर्च कर दी मगर कोई खास फायदा न हुआ। कमला के दोनों बच्चे करमवीर को पापा कहते। मां का हाल बताते। करमवीर विचलित होता रहता, पैसों के बारे में पूछता तो बच्चे बताते कि बड़कऊ सब कुछ बेच-बाच कर इलाज करा रहे हैं। नीलम और मनोज को भी इस बात की भनक लग रही थी, वो दोनों करमवीर पर दबाव बना रहे थे कि वे कमला को फूटी कौड़ी देने के बारे में न सोंचे। हरिमोहन के पैसे खत्म हुए तो उसने गुप्ता सिपाही से संपर्क किया जो अब बिजनौर में दरोगा था। वो गुहार लेकर बिजनौर तक गया तो गुप्ता ने उसे न सिर्फ दुत्कारा बल्कि पिटवाया भी और कमला को रंडी बताया। गुप्ता ने कहा कि ‘‘रंड़ी को भोगा जाता है, ढोया नहीं जाता है’’। गुप्ता ने हरिमोहन को धमकी दी कि दुबारा उससे मिलने का प्रयास किया तो वो उसका एनकाउंटर करवा देगा। हरिमोहन की जब सारी जमा पूंजी स्वाहा हो गयी, गुप्ता से भी निराशा हो गया अधिकतम उधारी उठा ली तब हारकर वो करमवीर से मिला। उसने करमवीर के पांव छूते हुए कहा ‘‘अपनी पत्नी को ले जाओ, वो तुम्हारी अमानत है मैं गलत था’’। यही बात उसने कमला से भी कहा’’ तुम नीलम के पापा की अमानत हो’। उन्हीं के पास अब लौट जाओ। तुम्हारे जीवन पर उनका हक मैंने छीना लेकिन तुम्हारी मृत्यु पर उन्हीं का हक है और हाँ ये तो तुम्ही जानती होओगी कि दुर्गेश और सरगम का असली बाप कौन है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता मगर तुम अपने बच्चों को ये ही बताना कि वे सब करमवीर के ही औलादे हैं। इसका यकीन तुम्हे अपने बच्चों को कैसे दिलाना है ये तुम जानो मगर ऐसे जवाब ही बताना कि कल को अगर दुनिया सवाल करे तो वे लोगों को अपने जवाबों से संतुष्ट कर सकें। तुम्हारे बाद हम भी सन्यास ले लेंगे और अयोध्या चले जायेंगे। इसीलिए धन-परिवार और मोह-माया से खुद को मुक्त कर लिया है वैसे भी तुम्हारे बच्चों को इज्जत की जिन्दगी और गुजारे लायक धन-संपदा उसका बाप ही दे सकता है, मैं नहीं।’’ कुछ दिन बाद हरिमोहन ने कमला और करमवीर की विधिवत भेंट करा दी। दुखहरण नाथ मन्दिर पर हरिमोहन और कमला ने पहले ईश्वर से माफी मांगी और फिर करमवीर के चरणों पर गिरकर माफी मांगी। करमवीर तो था ही नरमदिल मिट्ठा। उसने उन दोनों को माफ कर दिया। अगले दिन अपने जीवन के अंतिम कुछ दिन बिताने के लिये कमला दुर्गेश और सरगम के साथ गांव लौट आयी। उसके आते ही नीलम ने विग्रह शुरू कर दिया। उसकी बरसों की योजना पर पानी फिर गया कि उसका पुत्र जो स्वाभाविक रूप से इस घर का धन का वारिस था अब शायद नहीं रहेगा। बरसों बरस के स्थापित मिथक जो सत्य जैसे प्रतीत होते हैं वो जब टूटते हैं तो तकलीफ होनी स्वाभाविक थी। नीलम का भी यही हाल था। अब वारिस उसका बेटा नहीं शायद उसका भाई दुर्गेश बने। करमवीर के जिस घर धन का भोग अब तक नीलम उसका पति, पुत्र करते रहे थे अब वो जगह शायद दुर्गेश और सरगम ले लें। नीलम की बरसों बरस की ख्वाबों की खेती-बाड़ी एक झटके में कमला नाम की आंधी से उड़ गयी। तिरिया बनाम तिरिया। बेटी ने मां को कुलच्छनी साबित करके घर-धन पर कब्जे की जुगत की उसी मां ने पति के पैरों पर गिरकर अपनी ब्याही बेटी को मायके के घर धन से महरूम कर दिया। मां बेटी के बीच में पिसा तो मिट्ठा करमवीर। करमवीर जानता था कि वसीयत जानलेवा हो सकती है सो उसने कचहरी में जाकर अपनी पुरानी वसीयत को निरस्त कर दिया कि उसके बाद उसकी संपत्ति का वारिस वहीं होगा जो कानूनन सही होगा। यानी उसके तीनों बच्चे नीलम, दुर्गेश और सरगम। नीलम ने जब ये सुना तो बहुत बवाल करा तो फिर करमवीर ने उसे अपने घर से जाने को कह दिया मगर वो टली नहीं। क्योंकि घर से जाने का मतलब है धन से जाना।
अचानक पीछे से दुर्गेश ने पुकारा ‘‘मम्मी छत से नीचे चलो, पंडितजी आये हैं।’’
दुर्गेश का सहारा लेकर कमला उठी और पेड़ की उन चिड़ियों की तरफ देखते हुए बोली, “बेटा, अपने पापा का ख्याल रखना। नीलम जिज्जी से बवाल ना करना और बड़कऊ को भी माफ कर देना’’।
कमला ने ये कहकर दुर्गेश की प्रतिक्रिया जानने के लिये उसी तरफ देखा तो वो हाथ में मोबाइल लिये कान में इयरफोन लगाये गाने सुन रहा था मगर उसने सहमति में सिर हिलाया। दुर्गेश सहारा देकर कमला को नीचे लाया।
कुछ रोज बाद कमला का देहान्त हो गया। उसकी अन्येष्टि करमवीर ने की। हरिमोहन अयोध्या जाने वाला था मगर कमला की कर्माही होने तक करमवीर ने उसे रोक लिया है। हालाँकि घर में सभी शोक-संतप्त हैं मगर नीलम और उसके पिता के झगड़े की आवाजें जब तक गूंजती रहती हैं जिन्हें गांव वाले मिट्ठा का पंवारा कहकर हंसी में उड़ा देते हैं।
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