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क्या आपने यह किताब पढ़ी है? - "ऐ लड़की!"

  • कृष्णा सोबती
  • 12 अप्रैल 2020
  • 6 मिनट पठन

"ऐ लड़की, अँधेरा क्यों कर रखा है! बिजली पर कटौती! क्या सचमुच ऐसी नौबत आ गई!"

"अम्मी, घर की सारी बत्तियाँ जली हैं। टेबल लैंप अलग से।"

"तो क्या मैं ही रोशनी को अँधेरा कहने लगी हूँ! नहीं– नहीं, अभी मेरे होश–हवास दुरुस्त हैं। हाँ, तुम्हें अँधेरे में चाँदी के साँप दिखते हों तो बात दूसरी है! चुप क्यों हो गई! ज़बान हिलाने से कतराने लगी! और तो और, इस सूसन की भी आँखें गूँगी हो गईं! खटका किस बात का है तुम लोगों को!"

"अम्मी, अपने को ढीला छोड़िए। बीमारी की तकलीफ क्या कम है!"

"यह तो ठीक कह रही हो। पर इतना जान रख, मैंने बीमारी को अपने अंदर धँसने नहीं दिया। अभी तक तो सब कुछ चाट जाती। यह बताओ, तुम क्यों नीली चिड़िया बनी बैठी हो!"

"अम्मी!"

"मेरी देहरी की साँकल तो खुल चुकी! दरवाजे पर खटखट हुई नहीं कि मैं बाहर! मगर, सुन लड़की, मैं मज़बूती से अड़ी हुई हूँ। रोग–बीमारी मनुष्य के बड़े दुश्मन हैं … अपने तन–मन तक की नज़दीकी चाक कर डालते हैं। देह की अपनी गंध तक बाकी नहीं। दवाइयाँ ख़ून में घुल जाती हैं तो बदन डंठल हो जाता है। सिर पर जाने क्या चढ़ा पड़ा है। लड़की, इस कमरे में बीमारी का ही छिड़काव हो गया! पुराना रख–रखाव ही ओझल –"

"धूप जला दूँ!"

" ना, तुम्हारी सूझत कहाँ चली गई! यह मरीज़ का कमरा है। पूजाघर थोड़े है। हाँ, गुलदान में गुलाब लगा सकती हो, सुगंध आती रहेगी। भला कहाँ देखे थे बड़े–बड़े सुर्ख गुलाब! याद ही नहीं आ रही। कहीं दिमाग़़ पर भी तो पपड़ियाँ नहीं जम गईं!"

" अम्मू , यह फिक्र करनेवाली बात नहीं। फूल तो आँखों के सामने आते ही रहते हैं। हर जगह याद ही रहे, यह जरूरी नहीं।

"दवाओं ने अंदर खलबली मचा रखी है। मैं भ्रांत हो गई हूँ। पर यह बता लड़की, तुममें यह बदलाव कैसा! तुम्हारा हुँकारा पहले जैसा नहीं रहा। आवाज़ की चिकनाई गायब होती जा रही है!"

" अम्मू , कुछ ठंडा आए पीने को!

"बात बदल दी न! चलो यह भी मंजूर है। कुछ भी दो। जो तुम्हारे भंडारे से निकले! मेरी बात सुन लड़की, रिश्ते अब अदल–बदल हो गए हैं। बेटी होकर तुम मेरी माँ बनी हो और मैं … चल मुझे छोड़ ... वह जो मेरा मरीज़ है न …"

"कौन अम्मी!"

"वही डॉक्टर!"

अम्मी हँसती हैं!

"मुझे अपनी बीमारी समझ में आ रही है पर उसे नहीं। देहात्म का निस्तारा तो किसी–न–किसी बहाने होना ही है।"

ऊँघ। फोन बजता है। अम्मू चैंककर –

"किसका फोन था।"

"चचा के यहाँ से था।"

"खुलासा तो कर लड़की, मेरे कि तुम्हारे चचा!"

"छोटे चचा थे।"

"मेरे देवर ही न! मुझसे बात ही करवाई होती! अब वह तुम्हारे चचा ज़्यादा हो गए और मेरे देवर कम! ऐसे बात करती हो जैसे वह मेरा पराया हो। अभी तो मैं जीती–जागती हूँ।"

"चचा आपका हाल पूछ रहे थे।"

"मेरी बीमारी की बात सब को बढ़ा–चढ़ाकर तो नहीं बता रही! मैं ब्याहकर आई तो छोटा – सा था। चार–पाँच का रहा होगा। किसी नटखट लड़की ने मेरी गोद में बिठा दिया …"

"आप शरमाईं!"

"मैं थी तो दुल्हन पर वह तो बच्चा था। नन्हा–सा मेरा देवर। बस मैंने सहलाकर चूम लिया! बड़ी मनभावन घड़ी थी वह! देख–देख लड़कियाँ, बड़ी–बूढ़ियाँ हँस–हँस गईं। मेरी गोद सगुणों से भर गई। नारियल, बादाम, छुहारे … वैसे बूढ़े–बीमारों का हाल–चाल पूछना हफ़्ते में एक बार भी काफी होता है। अभी मैं कुछ देर हूँ! मेहनत से कमाया हुआ जिस्म है। घुलते–घुलते भी वक़्त लगेगा। सुन रही हो न?"

"जी!"

" लड़की, बूढ़ों के लिए न दिल में जगह रहती है, न घर में। मैंने तो पूरा कमरा घेर रखा है। बाद में फ़र्श बिछाकर अपना संगीत रख लेना।"

" अम्मू , ऐसी बातों की क्या ज़रूरत है?"

"कुछ नहीं! यूँ ही फड़फड़ा रही हूँ! तुमने मेरा पिछला वक़्त निभा दिया, अच्छा किया। माँ बनकर मैंने तुम्हें दूध पिलाना था और तुमने बेटी बनकर पीना था। लड़की, यह बंधन निरे हाड़–मांस का नहीं, आत्मा का है। एक–दूसरे से गुँथा हुआ। पर री, जाने क्यों तेरा मणका अलग जा पड़ा है! कहाँ जा रही हो! उठ क्यों रही हो! अभी यहीं बैठी रहो मेरे पास।"

अम्मू ऊँघ जाती हैं। छोटी–सी नींद से जगकर –

"सो गई थी मैं। आँखों के आगे तुम्हारी नानी का मुख झिलमिलाता रहा। जाने कितने बरसों बाद माँ सपने में दीखी। वही उसका हरा मूँगिया जोड़ा और ओढ़नी में से झाँकता उसका स्तन।"

अम्मू तनिक हँसती हैं।

"देख रही हूँ सपना पर मन में यह कि थोड़ा–सा दूध और क्यों न पी लिया। अभी छोटी ही थी मैं कि अगली बहन आन पहुँची। जब–जब माँ को दूध पिलाते देखती तो मैं मगन–सी हो जाती। टकटकी लगाए देखती रहती। एक दिन माँ ने पूछ ही लिया, ‘क्यों री, ऐसे क्या देखा करती हो! तुम छोटी थी तो तुम भी इसी तरह गोद में लेटकर मेरा दूध पिया करती थी।’ मैंने माँ से पूछा, ‘एक बार और पी लूँ!’ लड़की, मेरी बात सुनकर माँ गुस्सा न हुर्इं! ठुड्डी छूकर कहा, ‘मुनिया, माँ का दूध एक बार छूट जाता है तो दुबारा मुँह नहीं लगता! अब यह तेरी छोटी बहन का हिस्सा है। इसका अरमान नहीं करते। यह कुदरत का नियम है। बड़ी होकर सब समझ जाओगी।’ लड़की, उस दिन की ही तो बात लगती है! जब माँ बैठी छोटी बहन को दूध पिला रही थी। बच्चा हो गोद में तो समझो तीनों लोक एक मिश्री के कूजे में। हाँ, माँ को खुराक खानी पड़ती है। बच्चा सब खींच लेता है।"

एकाएक लड़की को घूरकर –

"इस चमत्कार का तुम्हें क्या पता! इसकी जानकारी किताबों में नहीं मिलती। दीवारों को देखते चले जाने से उन पर तस्वीरें नहीं खिंचतीं! ऐसा हो सकता तो जाने तुम क्या–क्या न आँक लेतीं। न लड़की, सेमल के पेड़ से भी कभी सेब उतरते होंगे!"

लड़की खीजकर उठ खड़ी होती है।

"मैं तुम्हें चुभा थोड़े रही हूँ। सखी–सहेलियाँ भी ऐसी बातें कर लेती हैं।"

"मैं किसी से ऐसी बातें नहीं करती और न ही सुनती। …"

"कैसे सुनोगी! सब सपाट है। बीहड़। मुझे तो कुछ दीखता नहीं। क्या तुम्हें दीखता है!"

लड़की तमतमाई–सी कमरे से बाहर हो जाती है। अम्मी अपने ख़यालों में –

"पहले इनसान बनाता है। जमा करता है। यह मेरा है। यह भी मेरा है। फिर धीरे–धीरे मुट्ठी खुल जाती है। सब सरकने लगता है। देह तो एक वरण है। पहना तो इस लोक में चले आए। उतार दिया तो परलोक। पर–लोक। दूसरों का लोक। अपना नहीं। जाने कितने नक्षत्र स्थित हैं इस ब्रह्मांड में। कोई जीनेवालों का। कोई मरनेवालों का। और कोई हम जैसे बीमारों का। सूसन, मेरी बात सुन। यह बुढ़ापा आदमी की सारी शोभा खींच लेता है। जिस पर भी उतरे यह समय, बहुत बुरा।"

फुसफुसाकर अपने से ही –

"आप्रेशन, डॉक्टर, दवापट्टी, इंजैक्शन, गुलूकोस, आक्सीजन … डॉक्टर बनकर जिस्म को फरोल डाला। मार सैकड़ों सुइयाँ चुभो डालीं। बदन में अब रह ही क्या गया! सिर्फ़ आवाज़ बाकी है। छत को देखते रहो या आँखें मूँदे अपने पिछवाड़े को। कभी तो ऐसा भासता है ज्यों किन्हीं तहख़ानों में जा उतरी होऊँ। पुरानी–से–पुरानी परछाईं आँखों में घूम जाती है। सोचें तो व्यतीत से भी क्या डरना! अगन से पहले का धुआँ है! कुदरत ने काया की जड़त तो सौ साल के लिए बना रखी है! गिरकर टाँग न टूट जाती तो मैं अच्छी–भली थी!"

सूसन दवा पिलाकर बत्ती हल्की करती है –

" अम्मीजी, थोड़ी नींद ले लीजिए।"

 

उपन्यास वर्णन -

ऐ लड़की यह एक लंबी कहानी है - यों तो मृत्यु की प्रतीक्षा में एक बूढ़ी स्त्री की, पर वह फैली हुई है उसकी समूची ज़िंदगी के आर-पार, जिसे मरने के पहले अपनी अचूक जिजीविषा से वह याद करती है। उसमें घटनाएँ, बिंब, तसवीरें और यादें अपने सारे ताप के साथ पुनरवतरित होते चलते हैं - नज़दीक आती मृत्यु का उसमें कोई भय नहीं है बल्कि मानो फिर से घिरती-घुमड़ती सारी ज़िंदगी एक निर्भय न्योता है कि वह आए, उसके लिए पूरी तैयारी है। पर यह तैयारी अपने मोह और स्मृतियों, अपनी ज़िद और अनुभवों का पल्ला झाड़कर किसी वैरागी सादगी में नहीं है बल्कि पिछले किये-धरे को एकबारगी अपने साथ लेकर मोह के बीचोबीच धँसते हुए प्रतीक्षा है - एक भयातुर समय में, जिसमें हम जीवन और मृत्यु, दोनों से लगातार डरते रहते हैं, यह कथा निर्भय जिजीविषा का महाकाव्य है। उसमें सहज स्वीकार, उसकी विडंबना और उसकी ट्रैजीकॉमिक अवस्थिति का पूरा और तीखा अवसाद है। यह कथा अपनी स्मृति में पूरी तरह डूबी स्त्री का जगत् को छोड़ते हुए अपनी बेटी को दिया निर्मोह का उपहार है। राग और विराग के बीच चढ़ती-उतरती घाटी को भाषा की चमक में पार करते हुए कोई यह सब जंजाल छोड़कर चला जाने वाला है। लेकिन तब भी यहाँ सब कुछ ठहरा हुआ है: भाषा में। कोई भी कृति सबसे पहले और सबके अंत में भाषा में ही रहती है - उसी में उसका सच मिलता, चरितार्थ और विलीन होता है। कथा-भाषा का इस कहानी में एक नया उत्कर्ष है। उसमें होने, डूबने-उतराने, गढ़ने-रचने की कविता है - उसमें अपनी हालत को देखता-परखता, जीवन के अनेक अप्रत्याशित क्षणों को सहेजता और सच्चाई की सख्ती को बखानता गद्य है। प्रूस्त ने कहीं लिखा है कि लेखक निरंतर सामान्य चेतना और विक्षिप्तता की सरहद के आर-पार तस्करी करता है। ऐ लड़की कविता के इलाक़ेे से गद्य का, मृत्यु के क्षेत्र से जीवन का चुपचाप उठाकर लाया-सहेजा गया अनुभव है।

Rajkamal Prakashan

Available on Kindle

Kindle Price: 110.25

https://www.amazon.in/Aai-Larki-Krishna-Sobti/dp/8126716096/

 

सम्पादकीय नोट - "क्या आपने यह किताब पढ़ी है?" किसी तरह पाठकों की नज़रों में अच्छी लिखी किताबें लाने और पढ़वाने की हमारी सबसे नई कोशिश है.

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