इस शहर को लगी किस की नज़र है
सहमा सहमा सा सारा शहर है
मेट्रो दिल्ली की जान
सहमी सी सोती हुई
बुदबुदाती हुई अंगड़ाई लेकर
जगने के इंतज़ार में,
युवा दौड़ते भागते कॉलेज जाते हुए
कब आएँगे इस इंतज़ार में?
कॉलेज के कमरे ,
कैंटीन और सालाना मस्ती मेले,
वो मज़े से साथ साथ कविता
किताब पर बहस या अपने ही
हिसाब की मस्ती वाला हॉल
वो कैंटीन की गपशप
वो टीचर से कुछ चुहल
डाँट खाके भी मस्त बेपरवाह वो पढ़ाई
कब आएँगे वो दिन?
रेलगाड़ियाँ अब सूने सूने स्टेशन पर
कुछ राह जाते हुए
चलने से पहले वो डरती है,
साँसो को लेके वो डरती है,
बाज़ार खुल सा गया पर उदास है
डरा रहा सूना शहर आज भाग नहीं रहा,
आज चल भी नहीं रहा
खिड़कियों से खुला आसमान देख रहा है,
नीचे उतर के कब आसमान को छूएँगे?
लफ़्ज़ों की उदासी आज की
ठट्ठे कब मारेगी,
ख़रीदने अपनी ख्वाहिशों को ,
मस्ती करने ,
गपशप करते हुए खाने ,
नाचने ,आने ,जाने से और
अपनो को नहीं देख पाने से
दुनिया खतम नहीं हो रही
कल की तलाश मे हम आज
ख़ुश होने के तामझाम जुटा रहे है
खुद से कहना होगा ना
सब ठीक होगा
हाँ हाँ
हम मुस्कुरा रहे है
अमृता
२२/५/२०२०
दिल्ली
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