And the spirit of God moved upon the face of the waters
‘और ख़ुदा की रूह पानी की सतह पर तैरती थी’
-बाइबल से
एक ब्राह्मण था। एक मुसलमान, एक दलित था।
हालांकि यह उस समय भी थे, जब शहर में पेड़ लगाने के साथ जानवरों की सुरक्षा के लिए ‘बाड़’ या फार्म बनाये जा रहे थे। यह कहानी वहीं से निकली, जहां कांटा चुभने के बाद एक नन्हा ब्राह्मण तैश में आ गया और कांटों की जड़ तक पहुंचने की कोशिश करने लगा। साल बीते, शताब्दियां बीत गईं। न कांटे कम हुए न कांटों की तलाश में आंखों की चुभन में कोई कमी आई।
समय को गवाह बनाया जाये तो यह वही समय था, जब कांटों की जड़ों तक पहुंचने और अनावश्यक कांटे निकालने का काम जोर-शोर से जारी था। राजनीति की सुर्ख जमीन थी और जंग लगी तलवार पर चमकते त्रिशूल भारी पड़े था। यह वही समय था जहां इंसानों की अपेक्षा जानवरों की सुरक्षा बढ़ा दी गई थी।
समय बहुत सी बातों का गवाह था। ज़मीन तप रही थी। आसमान से आग के शोले बरस रहे थे। तलवार के चलाने वाले सहमे हुए थे। जार्ज आर्विल का एनीमल फार्म जाग गया था। गोलीवर के घोड़ों के देश में जश्न मन रहा था। शब्दों ने सत्ता की हुक्मरानी कुबूल कर ली थी। और - खुदा की रूह पानी की सतह पर तैर रही थी।
प्रजापति शुक्ला और तारा शुक्ला -
तारा शुक्ला को पहले इस तरह पानी की कुवत का अंदाजा नहीं था। होता भी कैसे। सुन्दर मुखड़े पर तैरती प्यार भरी मुस्कुराहट। घरवालों को इस तरफ झांक कर अंटार्कटिका की बर्फ नहीं देखनी थी। जिद और स्वाभिमान की बर्फ जो कभी पिघलती ही नहीं। एक छोटी सी मजबूत दुनिया अपने चारों ओर बनाकर बैठ जाती थी।
तभी तो प्रजापति शुक्ला को पूरा भरोसा था उस पर। ‘मेरे पर गई है। बिल्कुल अपने बाप जैसी। विशुद्ध पानी में रची बसी।’
‘पानी -’
‘हां भई हां, जात तो पानी की देखी जाती है।’
‘पानी मतलब कहां का पानी है भाई? जहां का पानी, वैसी ही अकल’
प्रजापति कहां से आये थे या पधारे थे, कोई नहीं जानता था। प्रयाग का पानी रास आया तो वहीं के हो रहे पूर्वज। फिर मिल गई टीचरी। चले आये दिल्ली। पुराना भूलते देर ही क्या लगती है। अब जब देखो पानी का इतिहास-भूगोल जपते रहते हैं। गंगा मैली हो गई। यमुना के पानी में प्रदूषण आ गया। बनारस के घाटों का बुरा हाल है। दिल्ली के बारे में प्रजापति का अपना विचार था। समुंद्र-मंथन के बाद देवताओं के कलश के पीछे राक्षसों का पाप घड़ा भी आ रहा था जो बीच में ही फूट गया और सारी मुसीबत दिल्ली पर आ गिरी।
राक्षस दिल्ली में रह गये। देवता दिल्ली से भाग गये।
लेकिन तब तक देवता दिल्ली से नहीं भागे थे। प्रजापति दिल्ली में रह कर प्रयाग की याद ताजा करते रहते। जी में आता तो कोसना भी देते कि वहीं अगर सब कुछ मिल जाता तो यहां आने की जरूरत ही क्या थी? फिर आहिस्ता-आहिस्ता प्रयाग उनके दिलो-दिमाग से निकलता चला गया। प्रयाग तो निकल गया मगर भीतर बैठा ब्राह्मण, समाज से राजनीति तक की दुर्दशा पर आंसू बहाता रहता। कभी-कभी तारा टोक देती। ‘यह क्या ऊंची जाति और नीची जाति में उलझे रहते हो बाबा।’
प्रजापति के भीतर का पानी ज्वाला बन जाता। ‘पागल हुई क्या। या दिल्ली आ कर मति ही मारी गई। इसीलिए तो दिल्ली का सर्वनाश हुआ। बार-बार लुटी यह दिल्ली। कहां-कहां से कमीने आकर बस गये दिल्ली में।’
‘एक कमीने हम भी-’ तारा शुक्ला ने ठहाका लगाया।
‘अरी चुप कर। हम ठहरे ब्राह्मण। दिल्ली को शुद्ध करने आये हैं।’
‘और जो हम ही अशुद्ध हो गये तो?’
‘क्या?’ जोर से चीखे प्रजापति। तारा हंसती हुई भाग गई थी। लेकिन तारा की आवाज देर तक उनके कानों में गूंजती रही। बचपन याद आ गया। कितनी स्मृतियां कौंध गईं। मैला ढोने वाला केशू और उसकी औरत याद आ गई। बाबा इन दोनों को पिशाच की संतान कहते थे। नरक भोगी। ड्योढ़ी तक को छूने की इजाजत नहीं थी। बाबा की नजर मैला ढोते हुए पड़ जाती तो दोबारा स्नान करना पड़ता। तब ऐसे पक्के हाई स्टाइलिश टॉयलेट कहां हुआ करते थे। मैला ढोने वाला नहीं आता तो बाहर गली में पाखाना बहता रहता था। इन गलियों से गुजरने वाले, गंदी गालियों का तोहफा देकर जाते लेकिन बाबा को इससे फर्क नहीं पड़ता था। बाबा कहते थे, वे सर्वश्रेष्ठ हैं। वे वेदों के ज्ञाता हैं। ब्राह्मण न होते तो यह समाज भी नजर नहीं आता। बाबा का सपना सारे संसार में धर्म-ध्वजा फैलाने का सपना था।
प्रयाग से दिल्ली तक धुंध की एक गहरी लकीर चली गई थी। दिल्ली तक आते-आते धर्म, आस्था, अध्यात्म पर लहराते राजनीति के बादल थे। समय के साथ प्रजापति को यह सीख मिल गई थी कि जन्म को साकार करने के लिए मोह का त्याग करना होता है। मोह का त्याग करने के लिए प्रयाग को छोड़ना होगा, यह उन्होंने कभी नहीं सोचा था।
समय की स्याह स्मृतियों में वो दृश्य अब भी सुरक्षित है, जब उन्होंने रोजगार के लिए प्रयाग छोड़ने और राक्षसों की नगरी दिल्ली जाने का साहस जुटाया था। पत्नी की अचानक मृत्यु के बाद तारा को एक सुरक्षित जीवन देने का सपना था। दिल्ली आकर लगा, वर्ण और गोत्र की रस्में केवल राजनीति तक सीमित हैं। हे भगवान। ब्राह्मण और दलित साथ-साथ वो भी एक ही टेबुल पर बैठ कर खान-पान करते हुए। धर्म का नाश होते हुए देख कर बाबा याद आ गये। अब इसी दिल्ली में धीरे-धीरे उनकी जड़ें जमने लगी थी। स्कूल में टीचरी मिल गई। तारा भी पढ़ने जाने लगी। समय बीता तो दिल पर पत्थर रख कर प्रयाग वाला मकान बेच दिया। अंतर्राष्ट्रीय बैंक से लोन ले कर दिल्ली में एक अच्छा सा फ्लैट खरीद लिया। सपना था, तारा को खुश देखना।

प्रजापति शुक्ला को तब तक पता नहीं था कि सपनों तक जाने वाले रास्ते कभी-कभी घायल भी कर देते हैं। तारा ने एम.बी.ए. किया फिर एक प्राइवेट कम्पनी में जॉब करने लगी। वहीं तारा की मुलाकात हसन से हुई थी। हसन फरूख। उस दिन बाल्कनी से बाहर गिद्ध को मंडराते देख कर लगा था कुछ अनहोनी होने वाली है। देवता गायब थे। मंथन से निकला हुआ विष सामने था।
तारा शुक्ला ने जो कुछ कहा, उसके बाद उनकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया। वे थोड़ा लड़खड़ाये। खुद को संभाला। तारा की ओर देखा। दबी जुबान में बोले - ‘जिंदगी का फैसला ऐसे एक झटके में नहीं किया जाता बेटी। ‘हालांकि वे खुद को संभालने की पूरी कोशिश कर रहे थे, लेकिन हकीकत थी कि उनके पांव के नीचे से जमीन निकल चुकी थी। कुशनाग क्षत्रीय राजा कुशाम्ब ने घृताची नाम की स्त्री से सौ कन्याएं पैदा की थीं। यह कन्याएं वायू दोष से कुबड़ी हो गईं। तारा इस समय कुबड़ी लड़की के तौर पर दिखाई दे रही थी।
राजनीति में यह समय मुसलमानों के लिए उथल-पुथल का समय था। प्रजापति शुक्ला मुसलमानों के घोर विरोधी थे। इस समय मुसलमान समूचे विश्व में मारे जा रहे थे। प्रजापति को लगता था, अचानक यह समूचा देश भी मुसलमानों के विरोध में खड़ा हो गया है। वे मुसलमानों को कटुआ कहते थे। जानवर काटने वाले, मांसाहारी, पत्नियों को तीन तलाक कह कर छोड़ने वाले, चार-चार शादियां करने वाले। उन्हें लगा, यह सब तारा के साथ भी होगा। वायुदोष का असर तारा को कुबड़ी बना देगा।
वह इस खबर को सुनकर सन्नाटे में आ गये थे। इस समय उन्हें ऐसा लग रहा था, जैसे उनका सारा घर स्लाटर हाउस बन गया हो। घर से मदर डेयरी जाते हुए रास्ते में हलाल मीटशाप की दुकान नजर आती थी। वह इस दुकान से आंखें बंद किये गुजर जाते। सुन रखा था, मीटशाप चलाने वाला कुरैशी है। हिन्दू भी उसकी दुकान से मीट खरीदते हैं। पड़ोस के लाला जी, शुक्ला जी की मासूमियत पर कहकहा लगा कर हंसे थे।
‘राम नवमी के दिन कुरैशी दुकान बंद रखता है।’
‘क्यों?’
‘गोश्त नहीं बिकता।’
‘तो क्या मुसलमान रामनवमी में गोश्त नहीं खाते?’
‘आप भी ना शुक्ला जी।’ लाला जी जोर से हंसे। ‘मुसलमान क्या गोश्त खरीदेंगे। कुरैशी बताता है कि गोश्त की असल बिक्री हिन्दुओं से होती है। हिन्दू सब खाते हैं शुक्ला जी।’
स्लॉटर हाउस के रजिस्ट्रेशन को लेकर तूफान मचा तो कुरैशी की दुकान महीनों बंद रही। वे खुश थे कि अब इस ओर से आखें बंद करके जाना नहीं पड़ेगा। अच्छा हुआ। कमबख्त खुद ही चला गया। यह भारतीय इतिहास का भी नया मोड़ था, जहां नयी राजनीति के सूर्ख पन्नों को देखने और पढ़ने के बावजूद भी उन्होंने आंखें बंद कर रखी थी। कभी-कभी तारा बिटिया की बात सुन कर चौंक जाते। रातों को देखते, बिटिया चुपचाप अंधेरे कमरे में टहल रही है। वह बाबा के मुंह से विभाजन की सैंकड़ों कहानियां सुन चुके थे। ताकत हर बार सत्ता पर भारी पड़ती है। सत्ता इस बार आठ सौ वर्ष के लम्बे अंतराल के बाद उन्हें भारी दिखाई दे रही थी। इसलिए मीडिया से सत्ता तक उन्हें कहीं कोई दोष नजर नहीं आ रहा था। लेकिन तारा ने अचानक उन्हें पराजित कर दिया था। इस समय सारा घर उन्हें हिलता हुआ नजर आ रहा था। और इससे भी ज्यादा, कैफियत यह थी कि धुंध में गोश्त काटता हुआ कुरैशी उनकी नजरों के सामने था। घर में अचानक गोश्त की बदबू भर गई थी। वे उठे। वही किया जो ऐसे अवसर पर बाबा करते थे। जी भर कर स्नान किया। वापस आये तो तारा वहीं सोफे पर बैठी हुई थी। वे चुपचाप आकर पास बैठ गये। इस मामले को नजर अंदाज करना आसान नहीं था। ठीक यही समय था, जब मस्जिद से लाउडस्पीकर पर अजान की आवाज उन्हें सुनाई दी। यह आवाज उन्हें जहर लगती थी। एक बार तारा से अजान का तजकिरा किया तो तारा काट खाने को दौड़ी थी। तुम्हारा कोई काम बगैर लाउडस्पीकर के होता है क्या? जागरण करते हो तो सारी रात लाउडस्पीकर बजता है। अब लग रहा था, बाबा की तरह वे घर में संकुचित दायरा खींचने में नाकाम रहे। बिटिया ने आसानी से अपनी आजादी में दूसरे धर्म को जगह दे दी और उन्हें पता भी नहीं चला। उन्होंने तारा की तरफ देखा, धीरे से बोले।
‘तुमने सब सोच लिया है?’
‘सोचना कैसा।’
‘ओह-’ तारा का यह सवाल उन्हें निराश कर रहा था। उन्होंने हिम्मत बटोरी। ‘तुम इसका अंजाम जानती हो ना?’
‘हां।’
उन्होंने स्वर कड़ा किया - ‘नहीं जानती हो। यह तो जानती हो ना, इस समय कैसी हवा बह रही है?’ वह लव जिहाद का नाम लेते हुए ठहर गये।
बिटिया ने उनकी ओर देखा। ‘तो आप डर रहे हैं?’
‘नहीं’
‘नहीं, आप डर रहे हैं’ वह हंसी - ‘आप अपने ही लोगों से डर रहे हैं कि वो हमारे साथ आपको भी मार डालेंगे।’
‘क्या?’
प्रजापित शुक्ला ने इससे पहले मरने वाली बात नहीं सोची थी। लेकिन यह सच था। इस समय देश में ऐसे कई हादसे हो चुके थे। लेकिन यह हादसे प्रजापति शुक्ला को गलत नहीं लगते थे। वे इसे एक तरह की प्रतिक्रिया मानते थे। इतिहास के पन्नों पर ऐसी कई वहशतें आबाद थीं। इन वहशतों की कहानियां सुनते-सुनते वे बड़े हुए थे। तुगलक, खिल्जी से लेकर बाबर और औरंगजेब तक। उनके पास एक तसल्ली थी, क्या यह सब केवल यहां हो रहा है? इस समय सारा विश्व इनके खिलाफ है। यह क्रिया के विपरीत एक प्रतिक्रया है। ऐसा होना था, और जो हिंसा करते हैं, हिंसा एक दिन उनके घर का रास्ता भी देख लेती है। उन्होंने सर उठाया। बिटिया आंखें गड़ाये उनकी ओर देख रही थी।
‘आपने जवाब नहीं दिया। आप हिंसक कैसे बन गये?’
‘प्रतिक्रिया.... वे कहते हुए ठहरे। बिटिया ने उन्हें बोलने का अवसर नहीं दिया। वो गुस्से में कह रही थी। ‘आखिर आप जीत गये। तलवार की जगह त्रिशूल उठा लिया। पहले पीछे से वार करते थे। अब आगे से करने लगे। आप जानते भी हैं, इस समय देश में तेजी से एक बदबू फैल चुकी है। आप महसूस नहीं करेंगे। अखबार से टीवी तक आपने उनसे सब कुछ छीन लिया है। जानते भी हैं, वे कैसी जिंदगी गुजार रहे हैं?’’
प्रजापति शुक्ला इस बार गुस्से से बोले। ‘तरफदारी मत करो। प्यार पर नकाब मत चढ़ाओ।’
‘नकाब?’ तारा चौंक गई।
वो हंसे -’एक दिन तुम्हें भी नकाब लगाना होगा।’
‘नहीं’
‘क्यों?’
‘उसे नकाब पसंद नहीं।’
‘अच्छा, गोश्त मांस खाने वाले को नकाब पंसद नहीं?’
‘वो गोश्त-मांस नहीं खाता।’
प्रजापति शुक्ला अपनी जगह गुस्से से उछले - ‘क्या फालतू बात है। मुसलमान होकर गोश्त नहीं खाता?’
‘बचपन में उसके घर वालों ने एक बकरा पाला था। बकरीद में उसने बकरे को जिबह होते देख लिया। तब से गोश्त मांस नहीं खाता।’
‘वही तो ... कटुए ... एक के नहीं खाने से क्या होगा?’
प्रजापति शुक्ला उसकी आंखों में देख रहे थे। असमंजस की स्थिति में थे। खेल बिगड़ चुका था। तारा ने फैसला कर लिया था। वे अब कुछ अधिक पूछने की स्थिति में नहीं थे। फिर भी जी कड़ा कर के पूछ ही लिया।
‘यह सब हुआ कैसे?’
‘मतलब?’
‘प्रेम?’ प्रजापति शुक्ला ने सर झुका लिया।
‘इसकी वजह पानी है।’
‘पानी?’ प्रजापति फिर अपनी जगह से उछल गये। ‘वह कैसे?’
उन्होंने बिटिया की तरफ देखा। वह गहरी सोच में डूबी हुई थी। फिर आहिस्ता-आहिस्ता उसने बोलना प्रारम्भ किया। ‘मैं पहली बार उसके घर गई थी। उसने मुझे ड्राइंगरूम में बैठाया। फिर मेरे लिए पानी लाया। पानी का गिलास मेरी तरफ बढ़ाने से पहले उसने दोनों हाथों को जिस श्रृद्धा से फैलाया और दायें हाथ से गिलास मेरी तरफ बढ़ाया, यह मेरे लिए एक अद्भुत क्षण था। मैंने उससे पूछा, तुम लोग ऐसे किसी को पानी देते हो? उसका जवाब था ... हां, हम मेहमान को पानी पेश करते हुए अपनी खुश-किस्मती पर नाज करते हैं।’
‘बकवास!’ प्रजापति शुक्ला तेज आवाज में बोले। ‘सब हमसे छीना। सब हमसे सीखा। तुमने सुना नहीं। अतिथि देवो भवः, हमारे यहां अतिथि को भगवान कहा जाता है।’
प्रजापति कुछ देर तक कमरे में टहलते रहे। कमरे से गोश्त की बदबू किसी हद तक खत्म हो चुकी थी। वे अच्छी तरह जानते थे कि इस समय उनके इनकार का अर्थ क्या हो सकता है, वे आहिस्ता से बोले।
‘मेरी एक शर्त है। मैं मिलना चाहूंगा।’
‘मंजूर’
‘लड़का मुझे पसंद नहीं आया तो?’
‘जो आप कहेंगे मैं वही करूंगी। लेकिन मेरी भी एक शर्त है।’ उसने बाबा की आंखों में झांक कर देखा ‘आप धोखा नहीं देंगे?’
‘मतलब?’
‘मतलब यह कि आप पहले से ही यह तय करके नहीं जायें कि आपको रिश्ते से इनकार करना है।’
‘ऐसा नहीं होगा। ब्राह्मण की जबान है।’

तारा आश्वस्त थी। हसन में कोई कमी नहीं। इसलिए सवाल ही नहीं कि हसन बाबा को पसंद नहीं आये। प्रजापति आश्वस्त थे, तारा आज भी राजनीति की चाणक्य नीति को नहीं जानती। ब्राह्मण का झूठ भी सच होता है। ब्राह्मण तो सर्वश्रेष्ठ है। खिड़की खोली। नीला आसमान धुंध में खो गया था। तेज हवा चल रही थी। बुरे विचारों का अपना सौंदर्य है। कुरूपता अगर ब्राह्मण के चेहरे की है तब भी उसमें देवताओं की चमक का आभास होता है। धर्म और रिश्ते में एक को बचाना हो तो रिश्ते की तिलांजलि दी जा सकती है। खिड़की बंद की। पलटे तो भीतर की कुरूपता की चमक चेहरे पर थी। मांसपेशियों में खून का दौरान बढ़ गया था। वे अचानक चौंके। तारा की पीठ का कूबड़ अब पहले से कहीं नुमायां था। फिर कई दृश्य आंखों में कौंद गये। हिजाब पहने हुई तारा, जानमाज पर बैठी हुई तारा, नमाज में लीन तारा। मांसाहारी तारा। लड़का अगर दलित होता तो? किसी भी हालत में असहमति से सहमति की ओर उनका झुकाव नहीं था। अब केवल राजनीति का भरोसा था। राजनीति जो निनान्वे पत्थर विरोध में उछालती है। फिर सौवां पत्थर जखमों को सहलाने आ जाता है। सत्ता हिमायत और विरोध से अलग एक जटिल दास्तान बन चुकी थी। पत्थर चलाने और सहलाने का यही खेल अब प्रजापति शुक्ला को भी खेलना था। उस रात एक सपना आया। नागपुर से रस्सी तुड़ा कर एक सांड पहले लखनऊ आया, फिर चलता हुआ अचानक उनके कमरे आ गया। आग की उठती हुई लपटों के बीच प्रजापति शुक्ला थे। वे चौंक कर, उठ कर बैठ गये। सपने अकसर सच होते हैं। मगर वह सांड? वो आग की लपटें? इन लपटों से बचने के लिए उन्हें असाधारण ब्राह्मण योनि में प्रवेश लेना था। प्रजापति बाबा के प्रभाव में थे अब। बाबा जो कहा करते थे, ब्राह्मण चाहे तो नियोग क्रिया द्वारा दलित स्त्री को शुद्ध कर सकता है। मुसलमान को क्यों नहीं? इस समय हसन उनके सामने था और वायु दोष से प्रभावित अशुद्ध तारा शुक्ला की पीठ पर दोबारा कूबड़ पैदा हो गये थे। अब हसन से मिलना बाकी था।

‘तुम मासूम जानवरों को मारते हो?’
‘और इसलिए आपने इंसानों को मारना शुरू कर दिया?’
‘बको मत, जानवरों की बलि देने का हक किसने दिया?’
‘आपको इंसानों में भेद भाव करने का हक किसने दिया?’
‘तुमने मंदिर तोड़े?’
‘इतिहास नहीं जानता। जिसने तोड़े पाप किया। लेकिन यही पाप अब आप क्यों कर रहे हैं?’
‘कुछ जानते भी हो जज़्या क्या होता है?’
‘हां मुगलों के बारे में पढ़ा है। यह भी एक धार्मिक और मांसिक क्रूरता है। लेकिन- आप जज़्या लीजिए हमें सुरक्षा दीजिए?’
‘मारे जाओगे?’
‘कब?’
हसन मुस्कुरा रहा था।
प्रजापति शुक्ला को याद भी नहीं रहा कि वे हसन के घर कब पहुंचे। और यह वार्ता कब कैसे आरम्भ हो गई।
तारा ने हसन को फोन कर दिया था। हसन ने शाम आठ बजे आने को कहा। साउथ एक्स के पौश इलाके में एक छोटा सा फ्लैट। प्रजापति ने महसूस कर लिया था कि इस इलाके में मुसलमान नहीं होंगे। हसन घर के बाहर ही मिल गया था। जरा फासले से उन्होंने हसन को देखा। गोरा रंग मासूम सा चेहरा, लम्बा कद। जींस और टीशर्ट में। क्या मुसलमान ऐसे होते हैं? पांव नहीं छुए हसन ने। हाथ जोड़ दिये। भीतर कदम रखने से पहले ही उनकी जबान चल पड़ी थी। हसन ने ड्राइंगरूम में बैठने के लिए कहा। उन्हें गुस्सा आ रहा था। और हसन बस मुस्कुराये जा रहा था। उन्होंने पलट कर फ्लैट का जायजा लिया। चमकती हुई दीवारें। दो जगह दीवार पर पेंटिंग थी। लेकिन कहीं कोई इस्लामिक पेंटिंग नजर नहीं आई कहीं टोपी या जानिमाज दिखाई नहीं दिया।
‘नमाज पढ़ते हो?’
‘हां’
‘कब?’
‘कभी-कभी जुमा के दिन’
‘टोपी?’
‘रुमाल बांध लेता हूं।’
‘यहां धार्मिक कैलेंडर नहीं है?’
‘धर्म दिल में होता है।’
‘ओह-‘ अचानक वे चौंके। एक दरवाजा जरा सा खुला था। प्रजापति शुक्ला ने इशारा किया। ‘वहां क्या है?’
‘टॉयलेट।’
प्रजापति चीखे- ‘टॉयलेट का दरवाजा खोल कर रखते हो? तभी सारे घर में पाखाने की गंध फैली है।’
‘सारी, अभी बंद करता हूं।’
हसन ने आगे बढ़ कर दरवाजा बंद कर दिया। फिर थोड़ा आगे बढ़ कर पूछा - ‘आपके लिए पानी लाऊं?’
‘इसी हाथ से पानी लाओगे?’
‘हां।’
‘अथार्त टॉयलेट का दरवाजा बंद करने के बाद हाथ नहीं धोओगे?’
‘दरवाजा बंद करने पर हाथ धोने की क्या जरूरत है?’
‘है?’ प्रजापति जोर से चीखे। ‘यही अन्तर है तुम में हम में। हमारे यहां कहीं भी जाओ, टॉयलेट का दरवाजा खुला नहीं मिलेगा। मगर तुम्हारे यहां।’
हसन उनकी बात सुनने के लिए रुका नहीं। बाथरूम से लौट आया। उनकी ओर भीगा हाथ दिखाया। फिर फ्रिज खोल कर पानी की बोतल निकाली। प्रजापति को तारा शुक्ला की बात याद आ रही थी। ‘मैं उसके पानी लाने के तरीके पर फिदा हो गई।’ वे जोर से चीखे।
‘बोतल और गिलास ले आओ। पीना होगा तो मैं खुद ले लूंगा।’
बोतल और गिलास रखने के बाद हसन एक तरफ सोफे पर बैठ गया। वे गहरी निगाहों से हसन की ओर देख रहे थे। इस समय दिमाग में बहुत कुछ चल रहा था। कुरूपता में सौंदर्य है। वे धीरे से मुस्कुराये। हसन की ओर देखा।
‘अगर मैं इस रिश्ते से इनकार कर दूं तो?’
‘आपको हक है, फिर भी, हम दोनों आपको समझाने की कोशिश करेंगे। जो देश में हो रहा है, वो राजनीति है। सब कुछ राजनीति से मत आंकिये’
‘नहीं आंकता। क्या धर्म के रक्षक तुम्हें छोड़ देंगे?’
‘इस पर हम दोनों ने सोचा है। यह विवाह खामोशी से होगा।’
प्रजापति चीखे - ‘ब्राह्मण हमें छोड़ देंगे?’
‘बात आगे बढ़ी तो सारा इल्जाम मैं अपने सर ले लूंगा। तारा पर कोई आंच नहीं आने दूंगा। रास्ते से हट जाऊंगा।’
‘फिर अभी क्यों नहीं?’
हसन के चेहरे पर आने वाले परिवर्तन को प्रजापति शुक्ला ने साफ महसूस किया था। एक घबराहट उसके भीतर भी थी। हसन जानता था ऐसा हो सकता है। इस समय देश में यही हो रहा था। धर्म रक्षकों द्वारा पीड़ित मुस्लिम महिलाओं को, पति को छोड़ कर हिन्दुओं से शादी की सलाह दी जा रही थी। फिर ऐसे संकट में एक ब्राह्मण लड़की का मुस्लिम लड़के की ओर झुकाव खून खराबे का सबब बन सकता था। उधेड़बुन दोनों ओर चल रही थी। जीवन के निजी फैसलों पर धर्म हावी था।
‘पानी तो लीजिए।’ हसन पूछ रहा था।
‘पहली बार वे प्यार से हसन की ओर मुड़े। ‘नहीं ले सकता।’
‘क्यों?’
‘जानते हो यहां आकर क्या लगता है?’ भड़कना मत। बचपन से ऐसा लगता रहा है। तुम लोग बड़ी-बड़ी शमशीरें रखते हो ना? यह शमशीरें खून में सनी नजर आती है। अभी भी ऐसा लग रहा है, जैसे बोतल में पानी की जगह खून भरा हो। माफ करना।’
वे उठ खड़े हुए।
हसन उन्हें छोड़ने बाहर तक आया। दरवाजे पर वे कुछ क्षण खड़े रहे। चुपचाप। यह शून्य में तैरने वाला एक लम्हा था। लेकिन इस लम्हे की गूंज बहुत ज्यादा थी। कुछ ऐसी ही गूंज, अनूगूंज के बीच हसन भी था। फिर वे ठहरे नहीं। तेजी से आगे बढ़ गये।
वे जान रहे थे कि तारा बेसब्री से उनके आने की प्रतीक्षा कर रही होगी। जवाब उन्होंने सोच रखा था। बेल बजाई। दरवाजा तारा ने खोला। तारा का स्वर सहमा हुआ था।
‘क्या रहा?’
‘पानी पसंद नहीं आया?’
प्रजापति शुक्ला का संक्षिप्त उत्तर था। वे तारा की प्रतिक्रिया देखने के लिए थोड़ा रूक गये - ‘तुम्हें कोई शक?’
‘नहीं।’
‘फिर ठीक है।’
हालांकि इस समय दोनों का मन शंकाओं से खाली नहीं था। प्रजापति जानते थे, कि तारा इस बात को सहज स्वीकार नहीं करेगी। कोई और बात होती तो उसे स्वीकार करना आसान भी होता। लेकिन यह बात तो प्रेम से जुड़ी थी। प्रजापति की शंका यह थी कि उनकी बात सुनकर भी तारा ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी।
वे थक गये थे। पानी के शफ्फाफ झरने के नीचे खड़े हो गये। गोरे-गोरे शरीर पर प्रशंसा की दृष्टि डाली। अचानक चौंक गये। पानी की जगह एक स्याह धार झरने के बीच से गिरती दिखाई दी। टंकी का पानी गंदा तो नहीं गया? अभी कुछ दिन पहले ही तो टंकी साफ करवाई थी? फिर शुद्ध चमकते पानी के बीच यह स्याह धार? बहते पानी को रोक कर विचारमग्न वे कुछ देर तक खड़े रहे। मिरर में अपने चेहरे को देखा। चेहरे पर बिछी हुई झुर्रियों के जाल में भी स्याहपन फैल चुका था। इस समय यही स्याही उन्हें गुस्लखाने की दीवारों पर भी नजर आ रही थी। जल्दी से, तौलिये से शरीर को पोंछा। आधे स्नान से वे कभी नहीं उठे थे। लेकिन अब दोबारा नहाने की कल्पना उन्हें भयभीत कर रही थी। झरने से वैसा ही स्याह पानी टपका तो? मिरर में इस समय उनका चेहरा तक स्याह पड़ चुका था। वे तेजी से दरवाजा खोल कर बाहर निकल आये।
घटनाओं की अदृश्य झुर्रियां
वहां बसंत देर से पहुंचता है।
वहां चेहरा बनने से पहले
झुर्रियों का जाल बिछ जाता है।
कुछ अदृश्य घटनायें हैं। और/
एक सहमे हुए भविष्य के पिंजरे में
वे मुर्दा पड़े हैं/
यह मानने और नहीं मानने की बात नहीं है। लेकिन यह झुर्रियां साफ दिख जाती है। वे नाजुक समय के त्रिशूल पर टंगे हैं। जहां गोश्त और जानवर के नाम पर उन्हें मार भी दिया जाता है और जानवरों को पालने की सलाह भी दी जाती है। रिश्ते और राजनीति के इसी नये मोड़ पर खड़ी थी तारा शुक्ला। डसने वाली खामोशी में हजारों तरह के सवालों से गुजरते हुए इस समय उसकी उपस्थिति किसी बुत के समान थी। अगर वह ब्राह्मण के घर पैदा नहीं होती तो? अगर हसन किसी ब्राह्मण के घर जन्म लेता तो? ब्राह्मण के घर जन्म लेने में उसका अपना क्या योगदान है? जैसे हसन का जुर्म सिर्फ यह कि वह मुसलमान घर में पैदा हुआ। इलाहाबाद से दिल्ली तक की सड़क पर परछाइयों का एक घेरा था। उसका संयम जवाब दे रहा था। उसने हसन में सिर्फ हसन को देखा था। किसी मुसलमान को नहीं देखा था। दिल के रौशन आइने में प्रेम आ जाये तो धर्म कहीं दूर रह जाता है। समय हालात ने धर्म को प्रेम पर हावी कर दिया था।
तारा शुक्ला उस दिन ‘कैफेटेरिया’ में हसन से मिली। दोनों आमने-सामने बैठ गये। काफी की चुस्कियां लेते हुए भी एक गहरी खामोशी माहौल में बनी हुई थी। काफी देर बाद इस खामोशी को तारा ने ही तोड़ा।
‘तुम लोग हमेशा से ऐसे हो?’
‘मतलब?’ हसन चौंक गया था।
तारा, हसन की आंखों में गौर से देख रही थी।
‘मतलब शमशीर वाले। जैसा तुम्हारे बारे में सोचा जाता है।
हसन अपनी जगह से उछला। ‘शमशीर? मतलब टेररिस्ट?’
‘शायद-’ तारा कहते हुए ठहरी। ‘लेकिन तुम्हारे चेहरे पर कहीं खून के दाग नहीं? कपड़ों पर भी नहीं?’
‘ओह...’ हसन मुस्कुराया।
‘सुनो हसन’ तारा अब भी उसकी ओर देख रही थी। ‘इतिहास मैंने भी पढ़ा है। तुम ताकतवर घोड़ों पर आये। मुहम्मद बिन कासिम, खिल्जी, कभी तुगलक बन कर... कभी तैमूर के वंशज बन कर... बस एक कहानी भूला दी गई। तुम्हें एक सजा गर्व करने की भी मिली है। मगर आधे अधूरे बादशाहों के इतिहास में तुम्हारे असल इतिहास को दबा दिया गया।
‘मतलब’
‘तुम हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती बन कर भी आये थे। हजरत अली हिजवेरी बन कर भी। तुम्हारा इतिहास बल्कि बड़ा इतिहास सूफी संतों का भी रहा है। तुम शाह वलीउल्लाह बन कर भी आये। मुगलों के इतिहास में तुम अकबर और दारा शिकोह बन कर भी आये। तुम दोस्त बन कर आये, मगर इतिहास ने छल किया तुम्हारे साथ। आज भी कर रहा है। इतिहास ने तुम्हारे हाथों में प्यार के कासा की जगह शमशीर थमा दी।’ तारा ठहर गई। ‘अच्छा सुनो। तुम धर्म मानते हो?’
‘हां’
‘कितना?’
‘नहीं जानता।’
हसन ने पलट कर पूछा। ‘तुम मानती हो?’
‘हां’
‘कितना?’
‘नहीं पता’
काफी ठंडी हो गई थी।
तारा फिर आहिस्ता से बोली। ‘हमारे बीच धर्म आ गया है।’
‘हां’
मैं अपने पिता को जानती हूं। जानती हूं कि ब्राह्मण होना क्या होता है।’
‘प्यार में डर नहीं होता’ हसन आहिस्ता से बोला।
‘शायद। धर्म ने प्यार को कमजोर कर दिया।’
‘कोई रास्ता?’ हसन तारा की आंखों में झांक रहा था।
‘प्यार धर्म का लिबास पहन ले तो?’
‘किस धर्म का?’
‘जो बहुसख्यक हो। जो मजबूत हो।’
‘फिर प्यार कहां रहा?’
खामोश वातावरण में तारा का कहकहा गूंजा। ‘फिर एक दिन प्यार करने वालों का कासा गुम हो जायेगा। वे घोड़ों पर आयेंगे। हाथों में असलहे ले कर।
‘शमशीर?’
‘नहीं।’
‘त्रिशूल?’
‘नहीं... असलहे... हम इक्कीसवीं सदी के जश्न में डूबे हैं। शमशीर और त्रिशूल से वल्र्ड ट्रेड टावर नहीं गिराया जाता। शहर गुजरात और मुजफ्फर नगर नहीं बनते।
हसन की आवाज कमजोर थी। ‘बनने के लिए तो जानवर का गोश्त ही काफी है।’
तारा की चमकती आंखों में अचानक चोर दरवाजे से भय दाखिल हो गया था। वह उठ खड़ी हुई।
‘चलो खेल देखते हैं।’
वे अब सुनसान सड़क पर निकल आये। गर्द उड़ रही थी। मई की गर्मी अपने शबाब पर थी। इस समय ट्रैफिक भी सहमा हुआ था। आसमान पर घोड़े उड़ रहे थे। शून्य में हजारों की फौज तैर रही थी। हसन के कानों में अब भी तारा के शब्द कौंध रहे थे। इतिहास ने छल किया तुम्हारे साथ। वे पता नहीं, भीषण गर्मी की आग में कितनी दूर तक पैदल चलते रहे।
तारा फिर ठहर गई। ‘सुनो हसन। कुंवर नारायण की एक कविता याद आ रही है। मैं मुसलमानों से नफरत करने चला तो सामने गालिब आ गये। ईसाइयों से नफरत करने चला तो शैक्सपीयर आ गये। हम नफरत करना ही क्यों चाहते हैं?’
ठीक उसी समय गर्द और धूल की एक आंधी गुजर गई। तारा की आवाज इस आंधी में खो गई।
तारा ने सही कहा था। चलो खेल देखते हैं। एक नया खेल समय ने प्रजापति के फ्लैट खरीदने के साथ खेलना शुरू किया था। प्रजापति ने फ्लैट खरीदने के लिए अंतर्राष्ट्रीय बैंक से लोन लिया था। उसकी किस्तें दो बरस से भरी नहीं गई थी। यह दो बरस आर्थिक उतार-चढ़ाव में गुजरे थे। इसलिए बैंक से आने वाली चिट्ठियों को भी प्रजापति नजरअंदाज करते आये थे। सोचते थे कि पैसा हो जायेगा तो एक साथ बड़ी रकम भर देंगे। बैंक से अचानक नोटिस आ गई तो प्रजापति शुक्ला के होश उड़ गये। यह नई मुसीबत थी। वो अन्तर्राष्ट्रीय बैंकों का हाल जानते थे। यह मकान हाथ से निकल सकता था। लेकिन यह भी जानते थे कि उनकी स्थिति ऐसी नहीं कि किसी अच्छे बड़े वकील की सेवाएं ले सकें। मकान संकट में था। तारा और अपने भविष्य को लेकर वे भीतर तक टूट गये थे। प्रेम अध्याय के पन्नों से निकले तो मकान का जिन्न सामने आ गया। मकान के लिए इधर-उधर हाथ छानने, मंत्रियों के दफ्तर के चक्कर लगाने के बाद एहसास हुआ, कोई सरकार अपनी नहीं होती। दफ्तरों में उनका ब्राह्मण होना भी काम नहीं आया। बर्सों से रंगों-रौगन न होने के कारण फ्लैट की दीवारें जर्जर हो चुकी थी। उस रात वे एक डरावने सपने से निकले थे। उन्होंने देखा कि अंतर्राष्ट्रीय बैंक ने उनसे उनका फ्लैट छीन लिया है। वे तारा के साथ इस भीषण गर्मी में सड़कों पर भटक रहे हैं। प्रजापति शुक्ला को गुस्सा था कि कैसी हिंदुत्व की सरकार है जो एक ब्राह्मण से उसकी जमीन छीन रही है। उनकी बात सुन कर उनके पड़ोसी लाला जी खिलखिला कर हंसे थे।
‘धर्म नहीं शुक्ला जी, पहले मकान को बचा लो।’
‘कैसे?’
‘एक बार मैं भी फंस गया था इस चक्कर में। एक काबिल वकील है। मैं बात करूंगा तो पैसे भी कम लेगा। मेरी मानो तो जल्दी मिल लो। मकान गया तो ब्राह्मण को लेकर कहां-कहां भटकोगे शुक्ला जी?’
‘नाम क्या है उस वकील का?’
‘चैत डोमर’
‘डोमर ... डोम ...’ प्रजापति शुक्ला अपने स्थान से उछले।
‘हां डोम जाति का है। मगर अब कहां के डोम-डोमिन। सब पढ़-लिख कर ब्राह्मण बन गये हैं। और ब्राह्मणों से उनकी जमीन छिन गई है।’
पहले हसन, अब डोम। प्रजापति शुक्ला के माथे पर बल पड़ गये थे। लाला जी ने फोन नम्बर दिया। बात कराई। पहली मुलाकात प्रजापति ने तारा के साथ की। कड़कड़डुमा कोर्ट में चैत डोमर किसी केस के सिलसिले में आये हुए थे। वहीं खड़े-खड़े कुछ देर तक रस्मी बातचीत हुई। लेकिन चैत डोमर को देख कर वे चौंक गये थे। सांवला रंग, लेकिन आकर्षक चेहरा। उम्र पैंतीस के आस-पास। लबो-लहजे से भी कोई डोम नहीं कह सकता था। पहली प्रतिक्रया तो यही थी कि जरूर किसी ब्राह्मण की संतान होगा। प्रजापति निगाहों को पढ़ना जानते थे। बातचीत के दर्मियान चैत डोमर बार-बार उनकी बेटी तारा को देखता रहा था। उसने विजीटिंग कार्ड निकाल कर दिया। ‘मौसम विहार में मेरा बंगला है। कल सुबह नौ बजे आ जाइये। अकेले आइयेगा।’
जाते-जाते डोमर ने पलट कर उनकी तरफ देखा फिर अपने सहकर्मियों के साथ आगे बढ़ गया। एक बड़ी सी गाड़ी थी। प्रजापति के पास न गाड़ी थी, न गाड़ी की पहचान रखते थे। लेकिन वे इतना जान गये कि चैत डोमर एक पहुंचा हुआ वकील है। और यह वही है जो उनके मकान को बचा सकता है।
दूसरे दिन ऑटो से चैत डोमर के घर पहुंचने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई। एक छोटा सा खूबसूरत सा बंगला था। बंगले के बाहर पहरेदार थे। रिसेप्शन पर एक सुन्दर सी लड़की बैठी हुई थी। लड़की उन्हें लेकर एक हॉलनुमा कमरे में ले गई। कमरे की दीवार पर बड़े साइज का टीवी लगा हुआ था। प्रजापति को एहसास हुआ कि यह जरूर कांफ्रेंस रूम होगा। कांफ्रेंस रूम के बाहर शीशे के घेरे में कई मेज़ें लगी हुई थी। जहां युवा लड़के-लड़कियां काम कर रहे थे। कुछ देर बाद एक लड़की आई, जो उन्हें लेकर पहले फ्लोर पर चली गई। दरवाजा खुला था। सामने एक खूबसूरत सा ड्राइंगरूम था। सोफे के दाये तरफ एक्यूरियम के रंगीन पानी में मछलियां नृत्य कर रही थीं। दीवारों पर ऐब्सट्रेक्ट पेंटिंग कतार से लगी थी। वो सोफे पर बैठ गये। यह विश्वास करना कठिन था कि यह किसी डोम का घर हो सकता है। वही डोम, जिसे उनके बाबा देख भी लेते तो उन्हें नहाना पड़ता था। क्षण भर रुक कर उन्होंने एक्यूरियम की मछलियों की ओर देखा। यह एहसास हुआ, समय के नृत्य में बहुत कुछ बदला जा चुका है। बस, वे ही देख नहीं सके। समय के घूमते पहिये के साथ बहुत कुछ उल्टा-पुल्टा हो चुका है।
तेज कदमों से चलता हुआ डोमर उनके पास आ कर ठहर गया। हाथ जोड़ा। सामने सोफे पर बैठ गया। कुछ देर प्रजापति की तरफ देखता रहा। फिर जोर से हंसा।
‘मकान बचा कर क्या करेंगे आप? देखते नहीं, मौसम में बदलाव हो रहा है। स्टीवन हाकिंग ने कहा है कि ‘रिस्टराइडस के टकराने से अगले सौ वर्ष में नये ग्रह पर बसने की तैयारी होगी। आपको क्या लगता है, नये ग्रह पर ब्राह्मण होंगे? वो हंसा, ‘वैसे कहां रहते हैं आप?’
‘रहने वाला तो इलाहाबाद का हूं लेकिन बर्सों से दिल्ली में हूं।’
‘ओह-’ चैत डोमर संजीदा हो गया। ‘इलाहाबादी ब्राह्मण। फिर तो मेरे यहां का पानी तक नहीं लेंगे? उसके चेहरे पर मुस्कुराहट थी। ‘यह बंगला तीन वर्ष पहले बीस करोड़ में खरीदा। आफिस भी यहीं से हैंडल करता हूं। लाला जी ने आपके केस के बारे में बता दिया था। कहीं भी जायेंगे तो लुट जायेंगे आप। अंतर्राष्ट्रीय कम्पनी है। मकान हड़प लेगी। मैं बचा सकता हूं आपको। क्यों? बाद में बताऊंगा। पहले कुछ मेरे बारे में जान लीजिए।
‘जी’ प्रजापति आहिस्ता से बोले।
‘जात का डोम हूं। इसलिए डोमर अपने नाम के साथ लगा रहने दिया। क्यों हटाउं? मां-बाप मैला ढोते थे। मैंने तरक्की की। यह बंगला देखिये। मुझे देखिये खुद को देखिये। जात पैसों की होती है, यह बचपन में ही मेरी समझ में आ गया था। छः हजार जातियों में ब्राह्मण सर्वश्रेष्ट और भंगी सबसे नीचे। क्या ऐसा है इस समय?
‘नहीं’
‘मनूस्मृति में चांडाल, अपात्र हमारे कितने ही नाम थे। मुर्दार जलाने वाला। मुर्दों की उतरन पहनने वाला। अछूत, नरक का भोगी। मल उठाने वाला। लेकिन इतना तो तय है कि हम न होते तो आपका यह समाज भी नहीं होता।’
प्रजापति शुक्ला के चेहरे पर इस बीच कई रंग आये और चले गये। वे वास्तव में बंगले की तड़क-भड़क देख कर सहमे हुए थे। आधी कसर चैत डोमर के संवाद ने निकाल दी थी। चैत डोमर अब भी उनकी ओर देख रहा था।

‘माफ कीजिए, यह समझना मुश्किल है कि आप इतनी नफरत हमारे लिए कहां से लेकर आये? उपनिषद से? वेदपुराण से? बुरा मत मानिये हम एक सड़े-गले बदबूदार अतीत और इतिहास को देखते-पढ़ते बड़े हुए। आप समझ रहे हैं ना? एक भयानक इतिहास में जीना कैसा होता है?’ डोमर ने गहरी सांस ली। मुस्कुराया फिर ठहर कर बोला। इतिहास का यह सफर अभी भी चल रहा है। हां, कुछ लोग इस इतिहास से बाहर निकल कर आपकी बराबरी करने लगे। या कुछ के कद आप से भी बड़े हो गये।’
‘जी’ प्रजापति बोलते-बोलते रुक गये।
‘विश्वास नहीं होता। अब, जबकि यह दुनिया तेजी से बदल रही है, आप अब भी पुरानी परम्पराओं को निभा रहे हैं? तोड़ दीजिए इन परम्पराओं को? फिर सब ठीक हो जायेगा। समझ रहे हैं ना?’

चैत डोमर ने इस बार गहरी नजरों से प्रजापति को देखा।
‘देखिये। यह बात बता दूं। मैंने आपके केस में इंटेरेस्ट क्यों लिया? मैं घुमा फिरा कर बात नहीं कहता। मुझे आपकी बेटी पसंद आ गई है। मैं अकेला हूं। विवाह करके घर बसाना चाहता हूं आप देखिये, पूरा घर खाली है। मैं आपके घर को बचा सकता हूं और आपसे इसके एवज मुझे कुछ नहीं चाहिये। सोच लीजिए समय है आपके पास।’
वह उठ खड़ा हुआ। प्रजापति अंदर तक हिल गये। ऐसा लगा, जैसे बाबा अब जा कर मरे हों। शमशान में उनकी चिता सुलग रही हो। चैत डोमर के बंगले से बाहर आये तो कदम लड़खड़ा रहे थे। जी चाहा था, उसके मुंह पर थप्पड़ मार दें। लेकिन क्या यह साहस वे कर सकते थे? और अगर उनके मुंह पर थप्पड़ मारने का साहस एक डोम करता तो क्या वे उसे रोक सकते थे? सारे रास्ते वे चिंतन करते रहे। कुरैशी हलाल मीट की दुकान खुली हुई थी। कुरेशी उन्हें पहचानता था। उसने नमस्ते किया तो बदले में कमजोर स्वर में उन्होंने भी जवाब दिया। यह पहली बार हुआ था। इतिहास की एक इमारत, पुरानी हो कर बोझ ढोते-ढोते कब गिर पड़ी, उन्हें पता भी नहीं चला।
चैत डोमर ने जो भी कहा, वो सम्भव नहीं था। धर्म के इतिहास की प्राचीन इमारत के ढा जाने के बाद भी वे ऐसा नहीं कर सकते थे। यह रात बेचैनी की रात थी। वे पागलों की तरह टहल रहे थे। यह सम्भव नहीं। पर दूसरा रास्ता क्या था? एक रास्ता यह था कि मकान का सौदा कर लें। एडवांस पैसा लेकर अंतर्राष्ट्रीय बैंक का पैसा वापस कर दें। लेकिन नोटबंदी के दौर ने यह रास्ता भी बंद कर रखा था। सस्ती कीमत पर मकान बेचने के बाद और अंतर्राष्ट्रीय बैंक का कर्ज चुकाने के बाद उनके पास पैसे ही कितने बचते? फिर सस्ते में फ्लैट भी कहां मिलता? सरकार उनकी होकर भी उनकी नहीं थी। एक अछूत था, जिसने मकान बचाने के लिए रिश्तों की शर्त रख दी थी। एक मुसलमान था, जिस से सारा जीवन वे फासला रखते आये थे। धुंध में तैरती अदृश्य झुर्रियों में एक मकान था, जिसकी बोली लग रही थी। और एक वो थे। प्रजापति शुक्ला। ब्राह्मण... सर्वश्रेष्ट.. वे मल और गोश्त के बीच खड़े थे। इसके बावजूद भी रास्ता गुम था। संकट से बाहर निकलने का अंतिम रास्ता चैत डोमर तक जाता था। वे एक क्षण को जमीन पर बैठ गये। देवता के स्थान से गिर कर अब वे निचली पायदान पर थे, जिसे समझौता कहते हैं। आंखें बंद की। पता भी नहीं चला, कब तारा शुक्ला पास में आकर बैठ गई।
‘क्या बात है?’
वे वहीं जमीन पर मूर्त बैठे रहे। तारा पास आकर बैठ गई।
प्रजापति की आवाज कमजोर थी। ‘मकान को बचाना चाहता हूं।’
तारा शंका से उनकी ओर देख रही थी। ‘आज आप किसी वकील से मिलने भी गये थे?’
‘हां गया था’- प्रजापति की आवाज बोझिल थी। धीरे से बोले ‘धर्म संकट में है।’
‘पहले मकान को बचायेंगे या धर्म को?’
‘धर्म को’
‘फूटपाथ पर रह लेंगे? मंदिर में भी जगह नहीं मिलेगी। 11 प्रतिशत ब्राह्मण सिर्फ राजनीति में मजबूत हैं। बाहर आम जीवन में उन्हें भी कोई जगह नहीं देता।’
प्रजापति की आवाज कमजोर थी। ‘मकान बचाता हूं तो धर्म जाता है।’
‘मकान बचाइये। धर्म सुरक्षित रहेगा। वैसे भी बाहर सुरक्षा के लिए आपने ऊं और स्वास्तिक के निशान तो बना रखे हैं।’
प्रजापति बारूद के ढेर पर खड़े थे। ‘वो बिना पैसे मुकदमा लड़ेगा लेकिन, उसने एक शर्त रख दी है ...’
अदृश्य परछाइयों ने इस बार तारा शुक्ला को निगल लिया था। तेज भूकंप आया और गुजर गया। तारा ने डूबती सांसों को बराबर किया। प्रजापति की ओर देखा फिर धीरे से कहा।
‘मेरी भी एक शर्त है। मैं उससे पहले मिलना चाहूंगी।’
(3)
और खुदा की रूह पानी की सतह पर तैर रही थी।
प्रजापति शुक्ला आश्वस्त थे, कि प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाली उनकी बेटी मकान के महत्व से अवश्य परिचित होगी। मकान छिन जाने का दर्द, प्रेम के छिन जाने के दर्द से ज्यादा गहरा होता है। सिर्फ एक रात में प्रजापति विश्वास और आस्था की कई सीढ़ियों से नीचे उतर आये थे। सबसे ऊपर वाली पायदान पर धर्म की सुरक्षा उनके हाथ में थी। सुरक्षा से चैत डोमर तक आते-आते केवल तसल्लियों का सहारा था। वितर्क, तर्क पर हावी था। धर्म के नाश होने की कथा इस समय केवल काल्पनिक कहानी भर थी। भीतर का ब्राह्मण कहीं खो गया था। प्रजापति को बाबा याद आ रहे थे। क्या धर्म का अस्तित्व केवल इतना सा है? धर्म की इमारत एक सेकेण्ड में धाराशायी हो जाती है? उस दिन की सुबह आम सुबह से अलग थी। उन्होंने पूजा पाठ भी नहीं किया। एक आम आदमी की तरह स्नान करके वे बाहर निकल आये। न श्लोक का उच्चारण किया न घर के मंदिर में माथा टेका। एक नाराजगी थी, जिसने अब तक के उसूल बदल डाले थे।
इसके विपरीत तारा शुक्ला की सोच अलग थी। लेकिन किसी भी परिणाम तक पहुंचने से पहले एक बार वो चैत डोमर से मिलना चाहती थी। प्रजापति ने चैत से पूछ कर समय निर्धारित कर दिया। उसका असल विरोध उस पुरुष मांसिकता से था, जो आज भी द्रौपदियों को दांव पर लगा रहे हैं।
यह एक आम सी सुबह थी। सड़क पर ट्रैफिक का चीखना आरम्भ हो गया था।
सामने एक छोटा सा खूबसूरत सा बंगला था लेकिन तारा को इस बंगले से कोई दिलचसपी नहीं थी। पहरेदारों को शायद तारा के आने की पूर्व सूचना दी जा चुकी थी। एक चौकीदार तारा को साथ लेकर एक खूबसूरत से ड्राइंगरूम में आ गया । चैत पहले से ही इंतजार कर रहा था। उसने गर्मी का सूट पहन रखा था। आकर्षक व्यक्तित्व था उसका। चैत ने हाथ जोड़े फिर कहा।
‘आइये, आपको बंगले का दीदार करा दूं।’
तारा मुस्कुराई। ‘मेरी कोई दिलचस्पी नहीं।’
‘ओह’ चैत ने इशारा किया। ‘बैठिये। पानी तो लेंगी? या आप भी ब्राह्मण पिता की तरह अछूत के घर पानी पीना पसंद नहीं करतीं?’
तारा जोर से हंस दी। ‘अछूत? इस बंगले में रहने वाला अछूत कब से हो गया?’
चैत डोमर एकदम से चौंक गया। उसे एहसास हो चुका था कि प्रजापति और तारा में अंतर है। यह अंतर समय की भी देन है। तारा पर आसानी से काबू नहीं पाया जा सकता। उसने मुस्कुराने की कोशिश की। ‘बंगला आ जाने से अछूत बदल जाता है क्या?’
‘क्यों नहीं।’ तारा हंसी।
‘कैसे?’
‘कमरे में कौन सी खूश्बू इस्तेमाल करते हैं आप?’ तारा ने बात ही बदल दी।
‘आपने बताया नहीं, अछूत बदल कैसे जाता है?’
‘जैसे ब्राह्मण बदल जाता है।’
‘ब्राह्मण कब बदला?’
‘ब्राह्मण पहले भी भिक्षा मांगते थे, अब भी मांगते हैं। अब मांगने के अंदाज बदल गये हैं। पहले भिक्षा के लिए आपके पास नहीं जाते थे। अब जाने लगे हैं।’ तारा हंसी।
‘ओह।’
‘आप क्या पूवर्ज जैसे हो सकते हैं?’
‘मतलब मल उठाने वाला?’ चैत डोमर तारा की आंखों में झांकने की कोशिश कर रहा था।
‘यही समझिये। अब आप पुराने पेशे पर नहीं जा सकते। कई कारण है। अर्थ व्यवस्था में आप ऊंची पायदान पर चले गये। शिक्षित हैं। पायेदान से खिसके तब भी अपने पेशे तक नहीं लौटेंगे।’
‘लेकिन दाग तो रह जाता है। यह हाथ देखिये,’ चैत डोमर ने अपने हाथों को आगे किया। ‘समय गुजरने के बाद भी लगता है इन हाथों की बदबू नहीं गई। बदबू के सफर के खत्म होने में दो एक पीढ़ी तो निकल जायेगी।’
‘अब क्या फर्क पड़ता है आपको। सब कुछ तो है आपके पास। पैसा। बंगला ... गाड़ी।’ तारा गहरी आंखों से उसकी ओर देख रही थी। हां एक चीज नहीं है। दो-एक पीढ़ी बाद आप उसके लिए भी झूठा दावा तो कर ही सकते हैं।’
चैत डोमर अपनी जगह से उछला था। ‘मतलब क्या है आपका?’
तारा का लहजा सपाट था। ‘आपकी दिलचस्पी मुझ में है या मेरे ब्राह्मण होने में है?’
‘ओह!’ चैत डोमर जोर से हंसा। ‘अब समझ आई आपकी बात। कितनी दूर से चलती है आप? भिगा कर मारती हैं। मेरी दिलचस्पी आप में है।’
‘मेरे साथ मेरे ब्रहमण होने में भी हैं।’
‘हो सकता है।’
तारा एक क्षण को रुकी फिर कहा, ‘ अभी आप अपने दाग दिखा रहे थे। हाथों के दाग ... साथ रही तो यह दाग मुझे बार-बार महसूस होंगे। मैं पिता के सिंद्धांतों को नहीं मानती। अभी मेरा पानी पीने का मन था। आपने दाग दिखा कर पानी पीने की इच्छा अभी खत्म कर दी। अच्छा अब चलती हूं।’
तारा उठ खड़ी हुई।
‘चलिये मैं गेट तक छोड़ आऊं।’
चैत डोमर बाहर गेट तक आया। तारा को देख कर मुस्कुराया।
‘मैं वकील हूं। लेकिन आज जिरह में आप जीत गई। मैं अपना पक्ष नहीं रख पाया। कुछ दाग वाकई बहुत गहरे होते हैं। पीढ़ियों तक भी समाप्त नहीं होते। अच्छा सुनिये। आपको अपनी गाड़ी से छुड़वा दूं।’
‘नहीं इसकी जरूरत नहीं’
चैत धीरे से बोला। ‘आपने मेरी उत्सुक्ता की आंच बढ़ा दी है। अच्छा वकील जल्द हार नहीं मानता।’
प्रजापति तारा के इंतजार में टहल रहे थे। तारा के आते ही उन्होंने पूछा।
‘क्या हुआ?’
तारा का नपा-तुला जवाब था। ‘पानी पसंद नहीं आया।’
‘क्या?’ प्रजापति चौंक गये। ‘हम तो पानी तक डूब चुके हैं। बिटिया, मैंने कई वकीलों से बात की। जो फीस मांगी जाती है वो देने के हम काबिल नहीं हैं। पानी को पसंद तो करना पड़ेगा?’
‘चाहे पानी जहरीला क्यों न हो?’
प्रजापति ने कमजोर स्वर में कहा। ‘अन्तर्राष्ट्रीय बैंक से क्या लड़ना आसान है? मकान बचाने के लिए कुछ तो सोचना होगा?’
‘फिर आपने वहां पानी पीने से मना क्यों किया?’
प्रजापति भीतर के ब्राह्मण को मारने पर तुल गये थे। तारा से बोले, ‘समय के साथ चलना होगा बेटी।’
लेकिन प्रजापति जान रहे थे। तारा को समझाना आसान नहीं। क्योंकि तारा के रास्ते में हसन भी आता है। तारा के इनकार का एक कारण हसन भी है। उस दिन चैत डोमर ने फोन किया तो उन्होंने डरते-डरते हसन के मामले को सामने रख दिया। चैत ने समझाया, डरने की बात नहीं है। एक बार में कोई समस्या हल नहीं होती। आप भी हार मत मानिये। तारा से कहिए कि हसन को मेरे पास भेजे।
तारा ने प्रजापति की बात सुनी तो जोर से चीखी।
‘हसन क्यों मिलेगा? इस मामले का हसन से क्या संबंध है।’
‘मिलने में क्या हर्ज है। हो सकता है, हसन के मिलने से समस्या का समाधान निकल आये।’
तारा के लिए इस नई समस्या को समझना मुश्किल था। लेकिन वो इतना जानती थी कि हसन उसकी किसी बात से इंकार नहीं करेगा। विरोधी परिस्थितियां आमने-सामने थी। एक हसन था, जिससे वो प्यार करती थी। एक चैत डोमर था, जो उससे शादी करना चाहता था। एक ब्राह्मण पिता थे, जो दो अछूत में एक अछूत के लिए कमजोर हुए थे। कमजेार इसलिए हुए थे कि मकान बचाना था। एक वो थी, जो बाबा की तरह मकान तो बचाना चाहती थी, लेकिन बाबा की शर्तों पर नहीं। जीवन में पहली बार उसने बाबा को असहाय महसूस किया था। घटनाओं की अदृश्य झुर्रियों में अब एक चेहरा बाबा का भी था, जहां चैत डोमर के रूप में वो एक सुरक्षित भविष्य का सपना देख रहे थे। बसंत देर से आया। तब आया जब एक टूटते पिंजरे का भय उनके चेहरे पर फैल चुका था।
उस दिन कैफेटेरिया में उसने हसन को सारी बातें खुल कर बता दी।
हसन हंसा। ‘तो तुम चाहती हो, तुम्हारे लिए मैं उस चैत डोमर से मुलाकात करूं?’
‘हां।’
‘और कहूं तारा मेरा प्रेम है। लेकिन अब उसे तुम्हारे हवाले करता हूं।’
तारा हंसी - ‘ऐसा मैंने कब कहा।’
हसन हंसा। ‘लेकिन तुम्हारी बात से अर्थ तो यही निकलता है।’
‘बिल्कुल भी नहीं।’ तारा ने हसन का हाथ थाम लिया। ‘लेकिन मैं चाहती हूं कि तुम मिलो। और तुम पता करो कि उसके दिल में क्या है?’
‘ठीक है।’
हसन खामोश था। कैफेटेरिया की सामने वाली खिड़की से धूप का टुकड़ा गायब हो गया था। बाहर सम्भव है आसमान पर बादल छा गये हों। लेकिन इस समय दोनों चुप थे और इस बात से बेखबर भी कि नियति कुछ और ही खेल खेलने जा रही है।
चैत डोमर और हसन -
नोट - यह अलग तरह की मुलाकात थी। इस मुलाकात में क्या हुआ इसका पता न प्रजापति को है और न ही तारा शुक्ला को। राजनीति की हर बिसात पर बड़ी घटनाओं के पीछे कुछ अनदेखी घटनाओं का भी हाथ रहा है। यह घटना उनमें से ही एक है।
चैत डोमर इंतहाई मुहज्जब अंदाज में बातें कर रहा था। घर की सजावट काबिले-दीद थी। केवल एक बात हसन को खटक रही थी। ड्राइंगरूम में दीवार पर एक पेंटिंग थी, और जिसमें एक सुअर की तस्वीर बनी हुई थी। यह पेंटिंग ड्राइंगरूम में सलीके और करीने से रखे महंगे सामानों से मैच नहीं कर रही थी। चैत में इतनी जहानत थी कि हसन के चेहरे पर पैदा हुई लकीरों से उसके अंदर का हाल जान गया था। वह जोर से हंसा। इस पेंटिंग को मैंने वाशिंगटन के एक माल से खरीदा था। अच्छी है ना?
वह हसन की तरफ मुड़ा ‘पहली बार में ही यह पेंटिंग मुझे पसंद आ गई थी। यह मेरी पहचान है।’ इतना कह कर वह जोर से हंसा। आगे बढ़ कर हसन ने उसे फ्रीज खोलते हुए देखा। दूसरे ही क्षण एक खूबसूरत से गिलास और पानी की बोतल के साथ वह उसके सामने था। उसने हसन की आंखों में झांका और ठहर-ठहर कर कहना शुरू किया।
‘अब देखिये यह गिलास, यह गिलास मेरा नहीं है। इसे मैंने चाइना से खरीदा था। और यह पानी की बोतल बिसलेरी है, यह भी मेरी नहीं। आपको एतेराज न होतो पानी पी सकते हैं। वैसे मेरे पास हाई क्वालीटी का एकुवा गार्ड भी है। कंपनी की चीज हमारी कैसी हो सकती है? लेकिन इसके बावजूद कुछ लोग ... आप समझ रहे हैं ना...’
इतनी देर में पहली बार हसन ने उसके चेहरे पर खौफनाक गुस्से का अक्स देखा था। लेकिन किसी माहिर अदाकार की तरह चैत ने अपने गुस्से पर फौरन काबू पा लिया। अब वह मुस्कुरा रहा था। डोम, भंगी, कुछ भी कह लीजिए। हमारी कदर तो मुगलों ने की। मेहतर के नाम से पुकारा। एक मुसलमान दोस्त था। उसने बताया कि मेहतर का मतलब क्या होता है। अब आप बताइये। कितनी खूबसूरत जबान है, यह उर्दू भी। इंसानों की गंदगी का बोझ ढोने वाले, चांद से भी ज्यादा खूबसूरत हो गये।
जहां चैत डोमर बैठा था, उसके पुश्त पर किताबों की अलमीरा थी। कानून से संबंधित मोटी-मोटी किताबें उसके पेशे का परिचय कराने के लिए काफी थीं। हसन ने उसका गौर से जाइज़ा लिया। इस समय वह नील रंग की सफारी में था। उसने शादी नहीं की थी। जात पात की राजनीति और सिस्टम को लेकर वह अब भी अपने तअस्सुरात छिपाने में नाकाम था। मगर इसके बावजूद उसकी कोशिश जारी थी। अचानक उसके होंटों पर एक रहस्मय मुस्कुराहट पैदा हो गई।
‘आप तो पानी पीने से इनकार नहीं करेगें?’
हसन ने एक नजर चैत डोमर पर डाली। उसके हाथ से पानी की बोतल ली। गिलास में पानी उड़ेला। एक सांस में पी गया। फिर कुछ देर तक चैत डोमर को देखता रहा।
‘इतना बड़ा बंगला। इतने पैसे वाले। फिर इन सबके बावजूद अतीत में क्यों जीते हैं। एक समय था, जब हिन्दुओं के घर में मुसलमानों के लिए भी गिलास अलग होते थे। क्या आज ऐसा है?’
चैत डोमर मुस्कुराया। ‘आज भी ऐसा है। आज भी वही इतिहास है। हम से हाथ मिलाने के बाद ऐसे लोग भी हैं, जो वाशबेसिन में जाकर हाथ धोते हैं। ऐसे लोग राजनीति से आम, जीवन तक मौजूद हैं। आपके साथ भी, अब भी यही हो रहा है। ब्राह्मण आपके घर पानी नहीं पीयेगा। बहाना बना देगा।’
चैत मुस्कुराया। ‘पानी तो एक बहाना है सर जी। मैं पानी के बहाने व्यक्ति की सोच का अंदाजा लगाता हूं। दूर क्यों जाइये, अभी हाल में, एक चुनावी सभा में एक ब्राह्मण ने कतार में खड़े एक दलित नेता का हाथ झटक दिया। विज्ञान बढ़ा है सर जी, आदमी नहीं बढ़ा। आदमी तो बहुत छोटा है सर जी। जानते हैं, मैंने क्यों आप को मिलने के लिए कहा?’
‘नहीं।’
‘हम सब तरफ मारे जा रहे हैं। समूचे देश में। इस सच से तो आप इनकार नहीं करेंगे? दलित महादलित, मुसलमान, अगड़ा, पिछड़ा, ओ बी सी,’ चैत डोमर, हसन की आंखों में झांक रहा था। ‘राजनीति से समाज तक हमारी एकता जरूरी है। जहां आप हमारा समर्थन कर सकते हैं, वहां आप कीजिए। जहां, हम आपका समर्थन कर सकते हैं, वहां हम आपका करेंगे।’
हसन दुविधा में था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि इस समय इस गुफ्तगू का औचित्य क्या है? वह धीरे-धीरे चैत डोमर को पढ़ने की कोशिश कर रहा था।
चैत ने आगे कहा। ‘हमारा आगे बढ़ना अभी भी एक बड़े समाज को गवारा नहीं है। वे हमें सदियों में नहीं अपना सके। अब क्या अपनायेंगे। आप मेरी बात समझ रहे हैं ना?’
‘नहीं?’ हसन का जवाब सपाट था। ‘सीधे मकसद पर आ जाइये, राजनीति की क्या जरूरत है?’
‘ओह’ चैत डोमर ने लम्बी सांस खींची। ‘इसे राजनीति मत कहिये। अब देखिये इस कहानी में क्या है? एक ब्राह्मण की बेटी। एक डोम... एक मुसलमान।’
‘ओह... यह तो मैंने सोचा भी नहीं था... प्रेम में राजनीति?’
‘राजनीति नहीं समर्थन मांग रहा हूं।’ चैत डोमर की आवाज में खनक आ गई थी। ‘अब देखिये ब्राह्मण आपको गवारा नहीं करेगा। आप दूसरे धर्म के हैं। लेकिन हम हिन्दू हैं। हम आर्थिक मजबूती के साथ उनके बराबर में खड़े हैं।’
‘क्या सचमुच बराबर में खड़े हैं।’
चैत की आंखों में नागवारी सिमट आयी थी। ‘हम जहां खड़े हैं, वहां आकर वे भी अपनी जात-पात भूल जाते हैं। यहां इस कहानी में आप नहीं होते तो मुझे पूरा समर्थन प्राप्त था।’
‘तो आप मेरा नहीं, एक मुसलमान का समर्थन मांग रहे हैं?’
‘हां, क्योंकि वे आपको स्वीकार नहीं करेंगे।’
‘प्रजापति नहीं करेंगे। लेकिन तारा ने तो मुझे ही स्वीकार किया है।’ हसन मुस्कुराया।
प्रजापति कुछ देर के लिए मौन हुआ। उसकी आंखें एक्यूरियम की तरफ देख रही थी। वह फिर हसन की तरफ पलटा।
‘यह दुविधा न होती तो आपको क्यों बुलाता?’
हसन ने गौर से चैत डोमर को देखा।
चैत पर निराशा सवार थी। वह अचानक कुर्सी पर हिलने लगा था। हसन ने गौर से उसकी तरफ देखा।
‘क्या आप इसे प्रेम कहेंगे।?’
‘नहीं।’
हसन ने ठहर कर कहा ‘अच्छा मान लीजिए मैं आपके दर्मियान से हट जाता हूं। सोच कर बताइये। यह विवाह समझौता होगा या इंतकाम?’
चैत ने यह वाक्य सुना ही नहीं। वो किसी को जोर से आवाज दे रहा था। एक सेवक आया तो उसने एक्यूरियम की ओर इशारा किया। ‘एक्यूरियम का पानी नहीं बदला गया। मुझे कितनी बार बताना होगा कि अंद का पानी बदला नहीं जाये तो पानी गंदा हो जाता है। वो जोर से चीखा। ‘लगता है वो सुनहरी मछली मर गई।’
एक्यूरियम के रंगीन पानी में इस समय ठहराव था। मछलियां नजर नहीं आ रही थी। भीतर जल बुझ रहे रंगीन बल्बों की रौशनी में, शीशे के छोटे से एक्यूरियम में इस समय हसन को गहरे सन्नाटे का एहसास हुआ। अभी इसी सन्नाटे की ज़द मे वो स्वंय भी था।
हसन खामोशी से चैत डोमर के घर से बाहर निकल गया। धूप तेज थी। आग की बारिश हो रही थी। सड़क पर ट्रैफिक ज्यादा नहीं था। वो जानता था कि प्रजापति और तारा को इस बात का इंतजार होगा कि चैत डोमर से उसकी क्या बातें हुई? रिश्तों की राजनीति के इस बोसीदा पृष्ठ पर ऐसा अंधेरा सिमटा हुआ था, जिसके बारे में वो कुछ भी कहना या बताना नहीं चाहता था। ध्यान बटाने के लिए उसने एक्यूरियम की सुनहरी मछली के बारे में सोचना शुरू किया। क्या वह सचमुच थी? क्या वो सचमुच गंदे पानी में मर गई थी?
खिड़की के बाहर धूप की किरणों का नृत्य जारी थ।
चैत डोमर से मुलाकात के बाद हसन और तारा एक बार फिर कैफेटेरिया में थे। दोनों तरफ बोझिल कर देने वाली खामोशी हावी थी।
आखिर इस खामोशी का अंत हसन ने किया। ‘बाबा कहां हैं?’
‘वे ठीक है।’
‘यह तुम कैसे कह सकती हो?’
‘क्यों कि मैं उन्हें जानती हूं। तारा ने ठहर कर हसन की आंखों में झांकने की कोशिश की। ‘आदिम इतिहास के दुखद पन्नों से निकल कर अब वे एक नये सपने की फैंटेसी में जी रहे हैं।’
हसन अपनी जगह से उछला। ‘तुम्हारा मतलब है...’
तारा ने उसकी बात बीच में ही काट दी। ‘तुम नहीं समझोगे। पराजित हो कर भी जीत के एक नये अध्याय को खोला जा सकता है।’
‘तो क्या इस नये अध्याय में वे सब कुछ भूल सकेंगे।?’
‘हां।’
‘अतीत को भूलना आसान होता है?’
‘नये सपने को जगह देने के लिए अतीत को भूलना होता है।’ तारा का जवाब था।
‘फिर तुम क्या करोगी।’
‘मैं’ तारा एक क्षण को सोच में डूब गई। ‘पता नहीं मकान बीच में नहीं आता तो निर्णय लेने में आसानी होती।’
इस बार हसन के चेहरे पर एक पराजित मुस्कान थी। ‘अच्छा यह बताओ, अब इस कहानी में ‘मैं’ कहां हूं?’
तारा जोर से हंसी- ‘जहां पहले थे। अपनी कुर्सी पर।’
‘और तुम?’ हसन को यह पूछने का साहस नहीं हुआ।
लेकिन उसी क्षण एक घटना घटी। मेज के ठीक सामने वाली खिड़की पर वो पेंटिंग आ गई, जो हसन ने चैत डोमर के ड्रइंगरूम में देखी थी। सूअर वाली पेंटिंग- और उसे तअज्जुब हुआ था कि यह पेंटिंग इतनी खूबसूरत दीवार पर आवेजां क्यों है? हसन ने आंखे मल कर दोबारा देखा। खिड़की से धूप गायब थी। सूअर पेंटिंग से बाहर आने की कोशिश कर रहा था।

मुशर्रफ़ आलम ज़ौक़ी परिचय जन्म: 24 जनवरी 63, आरा (बिहार)। शिक्षा: एम.ए. (इतिहास) पताः डी-304, ताज इन्कलेव लिंक रोड, गीता कालोनी दिल्ली 110031 फोन: 9899583881 (2015 में साहित्यिक योग्यदान के लिए अन्तर्राष्ट्रीय फरोगे-उर्दू दोहा क़तर एवार्ड से सम्मानित जौकी का एक लम्बा साहित्यिक इतिहास रहा है। कोलिम्बया यूनिवर्सीटी और कैट जैसी संस्थाओं ने भी उनकी उपलभ्दियों की सराहना की है। प्रेमचन्द की परम्परा में जौकी ऐसे रचनाकार हैं, जो दोनों भाषाओं में समान रूप से जाने जाते हैं। उनकी कई कृतियों पर धरावाहिक और टेलीफिल्मों का निर्माण हो चुका है। हिन्दी-उर्दू दोनों भाषाओं में उनके लेखन पर एम फिल और पीएचडी हो रही है।) कहानी संग्रहःबाज़ार की एक रात, शाही गुलदान, फरिश्ते भी मरते है, भूखा इथोपिया, मंडी, सदी को अलविदा कहते हुए, लैंडस्केप के घोड़े, फ्रिज में औरत, फिजिक्स,कैमिस्ट्री अलजेब्रा, इमाम बुखारी का नैपकिन, मत रो सालिग राम, नफरत के दिनों में, एक अंजाने खौफ की रिहर्सल, सर्वश्रेष्ठ प्रेम कहानियां, आदि। उपन्यासः उक़ाब की आंखें, (पहला उपन्यास) बयान, मुसलमान, नीलामघर, पोकेमान की दुनिया, जिब्ह, शहर चुप है, प्रोफेसर एस. की अजीब दास्तान वाया सुनामी, ले सांस भी आहिस्ता, पतझड़ के शोकगीत, नालाए-शबगीर, मार्ग अंबोह बाल साहित्यः कंगन (एन.बी. टी.) आलोचनाः अपना आंगन, उर्दू साहित्य संवाद के सात रंग। संपादित पुस्तकेंः उदास नस्लें, सुर्ख बस्ती, जनपथ के उर्दू विशेषांक तथा हंस के मुसलमान विशेषांक में सह-संपादक की भूमिका निभाई। जंगली कबूतर, विभाजन की कहानियां, अहमद नदीम क़ासमी की कहानियां, बेदी, जोगेन्दर पाॅल तथा इसमत चुगताई की कहानियां। नाटकः एक सड़क अयोध्या तक, चार ड्रामें, गुडबाॅय राजनीति, सम्मान एवं परस्कारःदिल्ली अल्पसंख्यक लेखन अवार्ड ( २०२०) अन्तर्राष्ट्रीय फरोगे-उर्दू, दोहा क़तर सम्मान, बिहार उर्दू अकादमी पुरस्कार (२०१५ लेखन) कृश्नचन्दर पुरस्कार, कथा-आजकल सम्मान, दिल्ली उर्दू अकादमी का इलेक्ट्रोनिक मीडिया सम्मान, जामिया अलीगढ़ का मिल्लीनियम सम्मान और सरसैयद सम्मान तथा अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार पुरस्कार 2007।