कमरे में घुसते ही पूर्णिमा ने अपना हैंडबैग मेज पर फेंका और हाथ-मुंह धोने बाथरूम में चली गयी। जून का महीना, समूचा उत्तर भारत लू के थपेड़ों से आग के गोले की मानिंद दहक रहा था। सेहत महकमे का टीकाकरण अभियान चल रहा था। तमाम बच्चे जो सरकारी कागजों में दर्ज थे वे अपने ननिहाल चले गए थे और बहुतेरे बच्चे ननिहाल आये भी थे लेकिन वे कागजों में दर्ज नहीं थे, तो कुल मिलाकर तस्वीर ये थी कि जिनके लिये टीके थे उन्हें लग नहीं सकते थे और जिन्हें टीके लगने थे वो नदारद,जो मौजूद थे उन्हें लग नहीं सकते थे। यही इस देश की विडंबना है कि जो हाजिर है वो फ़ाकिर है।
सुबह साढ़े सात बजे घर से निकली पूर्णिमा दिन के ढाई बजे भूखी प्यासी लौटी। उसके बोतल का पानी कब का खत्म हो चुका था और बाहर के पानी से उसे इंफेक्शन हो जाता था। वो हाथ-मुंह धोकर बाथरूम से बाहर निकली तो उसने एक गिलास पानी पिया और खुद को बिस्तर पर निढाल छोड़ दिया। आंखे मूंदते ही वो मानो किसी और लोक में पहुंच गयी और उसे झपकी आ गयी। कुछ देर बाद कमरे में एक कर्कश आवाज़ से उसकी तंद्रा भंग हुई कि “खाना ना देगी”।
पूर्णिमा के शरीर में तनिक भी ताब ना था। हाथ झूठ हुआ जा रहा था दर्द से, और कमर की चिलकन उसे बेचैन किये हुए थी। वो किचन में गयी और हाँफते-कराहते ढेर सारा मैगी बना लायी। उसके पति अनिरुद्ध ने उसे घूरते हुए डपटा “मारेगी के, मैगी खिला-खिला के”।
पूर्णिमा हाँफते हुए बोली, ”मुझमें जरा भी ताब ना बची है कुछ भी पकाने की। अभी खा लो प्लीज, शाम को बना दूंगी पूरा खाना। मेरे हाथ और कमर में बहुत दर्द है।“
अनिरुद्ध ने उसे खूंखार नजरों से देखा और सर्द स्वर में कहा, “एक हाथ मेरा पड़ जावेगा तो हाथ और कमर दोनों का दर्द ठीक हो जावेगा।”
ये कहते हुए उसने प्लेट भर मैगी अपनी तरफ खींच ली और खाने लगा। उसका बेटा अभिजीत चाव से मैगी खाता रहा और कार्टून देखता रहा टीवी में। पूर्णिमा ने पति से नजरें ना मिलायी और एक कटोरी में मैगी डालकर दूसरे कमरे में आ गई। उसके हाथ और बदन का दर्द अब पूरे शरीर में फैल चुका था। उससे दो निवाले भी ना खाये गए। उसने पेनकिलर खाकर दो गिलास पानी पिया। खाली पेट पानी कलेजे पर तीर की तरह जाकर लगा। बड़ी देर तक वो जल बिन मछली की मानिंद छटपटाती रही। काफी देर बाद उसे जब कुछ आराम मिला तो उसकी आंख लग गई।
नींद की आगोश में उसे कुछ चैन मिलता महसूस हुआ तभी उसने अपने शरीर पर कोई वजनी चीज महसूस हुई। उसने आंख खोली तो देखा कि उसका पति अनिरुद्ध उसके ऊपर छाने की कोशिश कर रहा है। उसने बलपूर्वक अनिरुद्ध को परे ढकेला और उठ बैठी।
वो कराहते हुए बोली, “आप जानते हैं कि पीरियड में हूँ तब भी।“
अनिरुद्ध कुटिलता से मुस्कराते हुए बोला, “प्रोटेक्शन है,”और फिर उसके ऊपर आ गया।
पूर्णिमा फिर बिदककर उससे दूर हो गयी और रुआंसे स्वर में बोली, “मैं मरी जा रही हूँ, मेरे प्राण निकले जा रहे हैं। पूरा बदन टूट रहा है। मुझे बख्श दीजिये आज प्लीज्।”
अनिरुद्ध ने उसे बलपूर्वक अपनी तरफ खींच लिया और उसके मुँह पर हाथ रखते हुए फुसफुसाया, “बेटा सो गया है,चुप भी रह।”
वो छटपटाई और उसकी पकड़ से छूटने का हर सम्भव जतन करने लगी। पूर्णिमा का विरोध प्रबल होते देखकर अनिरुद्ध ने उसे दो-तीन करारे थप्पड जड़े। एक कुंतल पन्द्रह किलो के अनिरुद्ध के भरे हाथ का थप्पड़ खाकर पूर्णिमा के कान झनझना उठे। उसकी कनपटी पर मानों वज्र का प्रहार हुआ हो, बिल्कुल सुन्न पड़ गयी वो। वो निश्चेष्ट पड़ी रही। उसकी आँखों से आंसू झर-झर बहते रहे। अनिरुद्ध उसे नोचता-खसोटता रहा और फिर अंत में उसे रौंदकर-पीसकर अपना अभीष्ट पूरा करके वहाँ से उठकर चला गया।
पूर्णिमा ने ना तो उठने का उपक्रम किया और ना ही कपड़े पहनने का। वो बिलख-बिलख कर रोती रही, बस एक चादर से अपनी लाज को ढक लिया। उसके बदन का दर्द फिर उभर आया था और फिर उसका पोर-पोर दुखने लगा था। वो तय नहीं कर पा रही थी कि उसका तन ज्यादा घायल था या मन। याद आया उसे वो वक्त जहाँ से उसकी जिंदगी ने करवट बदली थी। तब वो ग्यारह-बारह बरस की थी, चौथी क्लास में पढ़ती थी जब बॉर्डर से उसका बाप अपनी नौकरी और एक पांव गंवाकर लौटा था। उससे साल भर छोटी बहन नीलिमा और भाई चंद्रेश भी पढ़ते थे। वे दोनों बहनें सरकारी विद्यालय में पढ़ती थीं और भाई अंग्रेज़ी मीडियम के प्राइवेट स्कूल में जाता था जो कि दोनों बहनों से छोटा था।
घर मे माँ और दादी के अलावा एक गाय भी थी जो उसके परिवार का हिस्सा थी। गाय घर में रहती थी। पूर्णिमा, दादी और उसकी माँ ही गाय की देखभाल करती थीं। गाय का एक वक्त का दूध बिक जाया करता था, उससे रोज के रोज पैसे मिल जाते थे और उस घर के रोजमर्रा की साग-सब्ज़ी का खर्च निकल जाया करता था। घर में अगर अभाव ना था तो कोई भी चीज पर्याप्त भी ना थी। बस जोड़-गांठकर जिंदगी की गाड़ी घिसट रही थी। उसका पिता आया तो थोड़ी सी पूंजी भी लाया था लेकिन सरधना इतनी भी बड़ी जगह नहीं थी कि किसी उद्यम से किसी के जीवन के सब कष्ट दूर हो सकें।
गांव से थोड़ी दूर सड़क के किनारे किराना की दुकान खोल दी गयी। उसके पिता की नौकरी में नियति ने ऐसा कुचक्र रचा कि वो पेंशनविहीन हो गए। गाय के दूध और किराना की से ज़िन्दगी की गाड़ी किसी तरह चल रही थी। चंद्रेश लड़का होने के कारण नाजो अदा से पल रहा था उसे पता था कि वो कुलदीपक है। नीलिमा गोरी और छोटी होने का एडवांटेज ले रही थी, बाकी बचीं दो घरेलू जनाना। फिर ले-देकर पूर्णिमा ही बची जो भूसा, पशु-चारा, घर से दुकान के बीच में दौड़ते-दौड़ते हल्की सांवली से गहरी सांवली हो गई थी।
उसे तन तो लड़की का मिला था, बारंबार इस बात का एहसास भी कराया जाता था कि वो लड़की है मगर उससे सारे काम लड़कों वाले ही लिए जाते थे। अलसुबह ही उठकर माँ और दादी की मदद से गाय का गोबर हटाना और उसे घूरे पर सहेजना। क्योंकि गोबर से उपले बनते थे जो घर में भी इस्तेमाल होते थे और बिकते भी थे। जल्दी-जल्दी दादी की मद्द से दूध निकालना, तैयार होकर साइकिल से पढ़ने जाना और जाते समय होटल पर ताजा दूध पहुंचाना। फिर सरकारी स्कूल में ज्यादा से ज्यादा पढ़ लेने की कोशिश करना क्योंकि ट्यूशन मयसस्सर नहीं था। पढाई से लौटते समय बड़े बाजार से थोक में किराना का सामान खरीदना दुकान के लिये और फिर इस सबके बाद घास मंडी से घास का गट्ठर उठाये लाना वो भी पहले से लदी-फन्दी साइकिल पर। पूर्णिमा घर पहुंचते ही हल्का-फुल्का खाकर खाना या नाश्ता पिता के लिए दुकान पर पहुंचाती और फिर आसपास के घरों और गांवों में किराने का तकादा करने चली जाती। वो तकादे से लौटती तो फिर गाय में उलझ जाती। दो-चार सौ मीटर गायों को घुमा भी देती थी ताकि खूंटे से बंधी-बंधी वो बीमार ना पड़ जाए। फिर दिन ढलते ही गायों को दुहने का उपक्रम चालू हो जाता। शाम का दूध अड़ोस-पड़ोस में ही बिक जाता था। पाई -पाई वसूलना और फिर पाई-पाई का हिसाब रखना, यही उसके जीवन का मूलमंत्र रह गया था। गाय-दूध से निबटती तो खुद पढ़ने बैठ जाती और भाई-बहन को भी पढ़ने बैठा देती और तब तक पढ़ती रहती जब तक उसकी नजरें नींद से बोझिल ना हो जातीं। घर में उसे पहली आवाज़ पूर्णिमा कह कर दी जाती तो दूसरी आवाज़ बिल्लो कहकर ही पुकारी जाती। बिल्लो शब्द से उसे बहुत चिढ़ होती थी इसलिये नहीं कि बिल्लो उसके रंग को लेकर उसे कहा जाता था बल्कि वो बिल्ली, जिससे वो बहुत चिढ़ती थी उससे जुड़ा उसको लगता था। वो बिल्ली, जिससे दूध की रखवाली में बिल्लो घंटों अपलक निगरानी करती थी,और बिल्लो के एक झपकी मारते ही वो बिल्ली उसका दूध गिराकर भाग जाती थी। दूध गिरते ही उसका उस दिन का बजट गड़बड़ हो जाता था। पूर्णिमा को इससे दोहरी खीझ होती थी एक तो धन का नुकसान दूसरे बिल्ली से हार जाने की खीझ। इसीलिये वो जितना बिल्ली से चिढ़ती जाती उतना ही उसे बिल्लो सुनने को मिलता।
उसकी छोटी बहन नीलिमा उससे सिर्फ एक बरस छोटी थी और आयु के इस छोटे अंतर को बहुत बड़ा मानते हुए नीलिमा ने खुद को तमाम जिम्मेदारियों से मुक्त कर रखा था पूर्णिमा के बड़ी होने के सबब। नीलिमा गोरी थी, बाल सुनहरे और कद भी थोड़ा निकला हुआ जबकि पूर्णिमा गहरी सांवली,मझोला कद, दरम्याना शरीर। उसके सर के बाल भी दिन-ब-दिन पतले होते जा रहे थे औऱ उसकी रंगत भी दिन-ब-दिन झुलसती जा रही थी।
इन्हीं संघर्षों से जूझती हुई पूर्णिमा स्कूल से निकलकर कब इंटर कालेज की पढ़ाई पूरा होने की कगार पर पहुँच गई उसे पता ही नहीं चला। पता तो तब चलता जब ज़िन्दगी उसे सांस लेने की फुरसत देती तब ना। जैसे जैसे उसके अंगों का आकार बढ़ता गया वैसे-वैसे बढ़ती गयी उसकी ज़िम्मेदारियाँ और बढ़ते गए समाज के ताने। लोग कहते कि नीलिमा तो अच्छा लड़का पा जावेगी, गोरी है ना। वो ब्याह कर किसी राजकुमार के साथ चली जायेगी और ऐश करेगी मगर पूर्णिमा तो बिल्लो है ना, उसका क्या होगा?
उसके मुँह पर तो उसे जल्दी कोई कुछ ना कहता था पर पीठ पीछे सब उसे बिल्लो ही कहते थे। पूर्णिमा को इस सबकी चिंता ना थी और ना अपने विवाह को लेकर कोई खटका। उसे चिंता थी तो अपने भाई, बहन, पिता और गायों की। उसने अपने आपको पढाई और जिम्मेदारियों की भट्ठी में झोंक दिया था जहाँ उसका तन ही नहीं मन के उल्लास और सपने बहु झुलस चुके थे। घर-दुकान, दूध और पढ़ाई, सरकारी कालेज में गणित-विज्ञान की वो भी बिना ट्यूशन के।
उसने सुन रखा था कि गणित-विज्ञान पढ़ने से नौकरी आसानी से लग जाती है और नौकरी ना भी मिले तो प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने से इन विषयों के ट्यूशन भी खूब निकलते हैं। लाइब्रेरी से इधर-उधर ट्यूशन,कोचिंग पढ़ने वाले लड़के-लड़कियों से मिलकर वो नोट्स बनाती। शहर के सबसे सस्ते फ़ोटो स्टेट की दुकान पर वो नोट्स के फोटो स्टेट करवाती। यथा सम्भव तो तमाम पन्ने वो पैसा बचाने के लिये खुद लिख डालती।
जिंदगी बेशक बहुत बेरहम और मुश्किल थी मगर उससे जंग जारी थी। पूर्णिमा के फौजी बाप ने उसे यही सिखाया था कि अपनी मेरिट पर अपने मोर्चे पर लड़ते रहो, भले ही परिस्थिति कितनी ही विपरीत और विकराल हो और अंजाम कुछ भी हो। उसकी जिंदगी में बाप की दुश्वारियों से लड़ने के अलावा फिलवक्त कोई मकसद ना था। उसका पापा अक्सर उससे प्यार से कहता कि “मैं शय्या पर पड़ा हुआ लक्ष्मण हूँ और तू मेरी हनुमान है बेटी।” तब वो खुद को कुछ कुछ ऐसा ही समझने लगती और जिंदगी की दुश्वारियों से लड़ने की उसमें दुगुनी ताकत आ जाया करती थी, उसे अपने कर्तव्य तब रामकाज नजर आने लगते थे।
पापा से पैसे लेकर पूर्णिमा डाकखाने में दो-दो आरडी जमा करती थी। एक-एक रुपये के लिये डाक खाने के क्लर्क से लेकर बस कंडक्टर तक से जूझना उसकी जिंदगी का हिस्सा था। दो सलवार-कुर्ते और एक पुरानी साइकिल से उसने अपने बचपन से यौवन तक का सफर तय किया। उसके पास दो सलवार-कुर्ते, दो स्वेटर, एक चप्पल और एक ही जोड़ी जूते हुआ करते थे। उसके कालेज के लड़के -लड़कियां ये शर्त लगा कर बता देते थे कि आज पूर्णिमा कौन से कपड़े पहन कर आएगी। ये सब सुनती तो उसकी आत्मा बहुत आहत होती लेकिन वो खुद को तसल्ली देती कि “उसका भी टाइम आयेगा”।
पूर्णिमा कभी भी किसी शादी-विवाह में नहीं जाती थी क्योंकि वहाँ पर या तो उसके कपड़ों की चर्चा होती थी या उसके रंग की। ऐसा नहीं था कि सबकी रंगत उजली ही थी मगर अधिकांश लड़कियां अपने चेहरों पर लिपाई-पुताई करके अपनी असली रंगत ढाँपकर गोरा दिखने का प्रयास करती थीं। कपड़े ना भी हों तो मंगनी भी मिल जाते थे मगर ये सब उसके लिए था जिसके जीवन में ज़िन्दगी को लेकर कोई उत्साह हो, सौंदर्य हो, महत्वपूर्ण दिखने की चाहत हो। पूर्णिमा के लिये तो जीवन एक युद्ध का मोर्चा था जिसमें वो छोटी-छोटी मुठभेड़ रोज जीत रही थी।
भले ही पूर्णिमा के पापा को नींद आ जाती थी मगर पूर्णिमा को नींद रात-रात भर नहीं आती थी इस बात पर कि उसके पापा के दो जवान बेटियां हैं। सब अपनी-अपनी ज़िंदगी जी रहे थे मगर वो अपने मोर्चे पर जिंदगी से लड़ रही थी पूरी मुस्तैदी से और सभी के मोर्चे पर भी थोड़ा-थोड़ा। उसका भाई चंद्रेश क्रिकेट में ही उलझा हुआ था। क्रिकेट खेलना, क्रिकेट देखना और क्रिकेट की बातें करना बस यही उसका जीवन था। लेकिन क्रिकेट का फैशन ही उसने कुबूल किया था, मेहनत नहीं। वो अपने किट, बैग और जूते बदलता रहता। वो दो लीटर दूध पीता, दूध को बेचकर फल खरीदता और खाता, सूखे मेवे खाता और कभी भी सुबह आठ बजे के पहले सो कर ना उठता।
वैसे भी चंद्रेश कभी मेरठ से आगे खेलने नहीं जा पाया मगर उसकी माँ और दादी उस पर बलि-बलि जातीं मानो चंद्रेश, विराट कोहली बन जायेगा और उनकी ज़िंदगी की डगमगाती कश्ती को पार लगा देगा। पूर्णिमा की छोटी बहन नीलिमा ने आर्ट साइड से पढ़ाई करने का निर्णय किया और कताई-बुनाई जैसे आसान विषय को चुना, वो अक्सर अपने सिंगार-पटार में ही उलझी रहती थी। उसका अपने कॉलेज के एक लड़के कामेश से चक्कर भी चल रहा था।
कामेश मशहूर हलवाई लखीराम का बेटा था और सरधना में उसकी खूब चलती हुई दुकान थी। वो नीलिमा के चक्कर में ही कॉलेज आता था, बाकी उसे अपना व्यापार ही सम्भालना था। पूर्णिमा को जब इस चक्कर की खबर लगी तो उसने नीलिमा को बहुत डांटा-फटकारा। घर में सभी ने इस बात का विरोध किया मगर नीलिमा उस लड़के को किसी दम छोड़ने को राजी ना हुई। एकांत में ले जाकर पूर्णिमा ने नीलिमा को घर की इज्ज़त की दुहाई दी तो नीलिमा ने सर्द स्वर में कहा, “दीदी , तू तो बिल्लो है। तुझे तो कोई मिला नहीं, किसी ने तुझे पूछा नहीं तो तू मुझसे जलन रखती है। मैं कामेश से ही शादी करूंगी। वो कमाता-खाता, गोरा चिट्टा है। भले ही मेरी जाति का नहीं है तो क्या गोरा है, कमाऊ है और मेरे पीछे दुम हिलाता फिरता है। यही बहुत है मेरे लिये। घरवाले मानें या ना मानें पर शादी मैं हर हाल में उसी से करूंगी। मेरी चिंता मत करो बस तुम अपनी फिक्र करो। मैं अगर तेरे से पहले इस घर से चली गयी तो तुझे कोई ना पूछेगा। वैसे भी तू यहीं रह और गोबर काढ़। मुझे नहीं रहना इस तबेले में।”
पूर्णिमा अपने को नीलिमा और चंद्रेश का गार्जियन समझती थी मगर नीलिमा के इन शब्द बाणों ने उसका कलेजा छलनी कर दिया था और मान को जमींदोज। उसे लगा कि रोज छोटी छोटी मुठभेड़ जीत रही वो जिंदगी के मोर्चे की जंग हार गयी है। उसके महत्व को भाँपकर घरवालों ने उससे इस विस्फोटक स्थिति में यथास्थिति बनाये रखने का अनुरोध किया जो उसने भारी मन से मान भी लिया। इसी बीच इंटरमीडिएट का रिजल्ट आ चुका था, पूरे कस्बे में उसने टॉप किया था और मेरठ जोन में उसने दूसरा स्थान पाया था। उसका फायदा ये हुआ कि उसे कुछ ट्यूशन मिल गये जो उसकी जिंदगी की दुश्वारियों का खासा कम करने लगे थे।
कालेज में दाखिला हुआ तो अच्छे नम्बरों की बदौलत उसकी बिल्डिंग फीस, विकास शुल्क आदि माफ हो गया।कालेज में उसकी मेधा छुपी ना रह सकी। और इसी कॉलेज के एक विद्यार्थी ने इसकी चर्चा अपने घर पर भी कर दी थी। बीएससी की पढ़ाई के तीसरे साल तक पहुंचते-पहुँचते पूर्णिमा अपने ट्यूशन और कॉलेज में हर साल टॉप करने के बदौलत आस पास के गांवों में मशहूर हो गई थी। पूर्णिमा को ताड़ते रहने वाला युवक अनिरुद्ध लगातार दो वर्षों से एम काम की परीक्षा में फेल हो रहा था। वो पूर्णिमा के पल पल की खबर रख रहा था मगर पूर्णिमा उसे नहीं जानती थी। अनिरुद्ध ने अपना सारा रिसर्च और योजना अपने पिता जीतनलाल को बताई। जीतनलाल झोलाछाप पशु-चिकित्सक के तौर पर अपनी सेवाएं देता था।
जीतनलाल गांव-गांव जाकर पशुओं को टीका लगाता था और थोड़ा बहुत पशुओं का उपचार भी कर लेता था। उसका काम मोटा था मगर बुद्धि मोटी नहीं थी। बैलों का इलाज करते-करते वो जान गया था कि एक बैल उसके घर में भी पल रहा है उसका बेटा अनिरुद्ध। वो अपने बेटे को राजा कहता था और दुनिया उसे अनिरुद्ध के नाम से पुकारती थी मगर समझती उसे बैल ही थी। अनिरुद्ध बुद्धि से बैल था मगर दिखता बिल्कुल भयानक सांड की तरह था जो कि सांड की तरह सिर्फ एकांगी देखता था भोजन, और भोजन, और भोजन फिर कसरत।
पहले तो अनिरुद्ध ख्वाब देखा करता था कि वो इतना गोरा है कि हीरो बन सकता है। मगर किसी नेकबख्त ने उसे सलाह दे दी कि वो भीमकाय देहदशा और बेडौल शारीरिक सौष्ठव से ना सिर्फ डरावना दिखता है बल्कि उसे देखकर वितृष्णा पैदा होती है। फिर अनिरुद्ध ने सोचा कि वो हट्टा-कट्टा है पुलिस में सिपाही बन जायेगा और खूब वसूली करके ऐश करेगा। लेकिन जीवन में एक भी प्रतियोगी लिखित परीक्षा पास ना हो पाने के कारण उसके अरमान धरे के धरे रह गए। गुंडई में भी उसने जाने का प्रयास किया मगर जिस रफ्तार से इलाके के बच्चे-बच्चे में कट्टे का प्रचार-प्रसार हुआ उसमें उसके शारीरिक बल का कोई खास उपयोग ना हो पाया उसमें भी। फिर भी उसे टोल टैक्स पर रख लिया एक ठेकेदार ने। लेकिन एक बार टोल टैक्स की वसूली में उस पर फायर हुआ और वो मरते-मरते बचा तब से उसने गुंडई से तौबा कर ली।
अनिरुद्ध उर्फ राजा सिर्फ शारीरिक बनावट से पुरुष था और बुद्धि से बैल,इस बात की भनक बहुत पहले उसके बाप को लग गयी थी। सो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रहने वाले जीतनलाल ने जुगाड़ लगाकर सुदूर पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के एक ग्रामीण इंटर कॉलेज से उसके एक हमउम्र सॉल्वर को पैसा देकर हाईस्कूल और इंटरमीडिएट का इम्तिहान दिलवाया। बीकॉम भी उसी सॉल्वर के बुते पर अनिरुद्ध का हो गया। प्रवेश परीक्षा के फॉर्म पर शुरू में ही फ़ोटो किसी और की लग जाती थी और फिर प्रवेश पत्र उसी के बनकर आते थे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के निवासी अनिरुद्ध को बाप के पैसे के बुते पर पूर्वी उत्तर प्रदेश के अंतिम इलाके से डिग्रियां मिलती गयीं।
अचानक सूबे का निजाम बदला तो नया फरमान आ गया तो फॉर्म भरने के समय ही काफी पड़ताल होने लगी और परीक्षा के समय भी एक अतिरिक्त पहचान पत्र अनिवार्य कर दिया गया। अनिरुद्ध डर गया कि वो अगर पकड़ा गया तो उसकी सारी पिछली डिग्रियां सन्देह के घेरे में आ सकती हैं फिर उसकी योजनाओं का क्या होगा? फिर वो जेंटलमैन से पुनः बैल बन सकता है जो कि उसका गांव उसे समझता है। सरधना में उसने उसी कालेज में नाम लिखवाया जिसमें पूर्णिमा पढ़ती थी। उसने फेल और बेइज्जती के डर से प्राइवेट फॉर्म भरा मगर पूर्णिमा पर नजर रखने के लिये वो जब तब कालेज जाता रहता था और पूर्णिमा पर पूरा रिसर्च और तीन साल एम काम में फेल होने के बाद उसने अपनी योजना अपने पिता जीतनलाल को बताई। जीतनलाल हैरान रह गया कि पहली बार उसके बैलबुद्धि बेटे ने लोमड़ी जैसी चालाकी की बात की है।
जीतनलाल ने अपने स्तर पर भी पूर्णिमा के बारे में खूब दरयाफ्त की। बाप-बेटे ने अपनी योजना लासनी को बतायी जो कि बैलबुद्धि की जननी थी और जिसने ही अनिरुद्ध को राजा का सम्बोधन देने के साथ ये गुमान भी दिया था कि वो गोरा है तो दुनिया से ऊपर है। लासनी ने राजा को स्पेशल और उसकी दो गोरी बहनों को भी दुनिया से स्पेशल होने का एहसास कराया था क्योंकि वे तीनों गोरे थे और गोरी-गोरी लासनी के बच्चे थे। ये और बात थी कि बचपन में बमुश्किल सभी के पेट भरते थे और तन पर कपड़े होते थे।लेकिन इन गोरे लोगों के परिवार में जिसके विवाह की उम्मीद की जा रही थी वो पूर्णिमा तो बिल्लो थी। पहले पहल बिल्लो सुनकर सबने मुंह बिचकाया मगर जीतनलाल और राजा ने अपने घर की जनानियों को आश्वस्त किया कि वही बिल्लो उनके घर की तकदीर बदल सकती है।
गालिबन जीतनलाल और उसके घर की चार गोरी चमड़ियां बिल्लो को घर लाने के ख्वाब देखने लगीं ताकि उनकी ज़िंदगी बदल सके। बिल्लो की मेधा और मेहनत के चर्चे चले तो उस घर में सबने अपने अपने हिसाब से प्रतिक्रिया दी। राजा की दोनों बहनें भी उसकी तरह ही बैलबुद्धि थीं मगर एक बात उनके हक में थी कि वो उसकी तरह गोरी थीं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण परिवेश में गोरी और हट्टी-कट्टी लड़कियों को बहुत महत्व दिया जाता है। अव्वल तो इनसे सन्तति गोरी होती है। दूसरे लड़की हट्टी-कट्टी हो तो खेत,घरेलू काम-धाम और मवेशी भी देख लेती हैं वो। राजा की बहनें विशाखा और रेखा दो-तीन बार दसवीं में फेल होकर घर बैठी थीं। वे दोनों अपने रंग-रूप और कद काठी पर काफी मेहनत करती थीं ताकि घर की आर्थिक स्थिति सुधरने पर उनका उचित विवाह हो सके। चूंकि वे दोनों दसवीं भी पास ना कर सकीं इसलिये गांव से शहर की दूरी तय ना कर सकीं। फिल्मी गाने देख-सुनकर उन दोनों युवतियों ने भी खूब सपने पाल लिये। मगर गांव में खाप पंचायत का ख़ौफ़ और पूरे गांव में समान गोत्र के लोगों का रहन-सहन के कारण उनके प्रेम विवाह का स्थायी समान ना निकल सका। गालिबन उन दोनों युवतियों ने अफेयर भी किये और शारीरिक संसर्ग भी, लेकिन सामाजिक रूप से वे दोनों पाक-साफ ही बनी रहीं।
उधर पूर्णिमा के घर में भी बहुत कुछ बदल रहा था। दोनों बहनों के नाम पर रेगुलर डाकखाने में पैसा जमा हो रहा था। कन खाकर धन बटोरा जा रहा था। फौजी की नौकरी छूटने के बाद जो रुपये मिले थे वो बैंक में एफडी के रूप में जमा थे और वो रकम सबको पता थी। पूर्णिमा अपनी ही कमाई से अपनी शादी के लिये पैसे जुटा रही थी अलबत्ता शादी, घर-गृहस्थी में उसकी कोई रुचि ना थी लेकिन ये सब वो अपने बाप की जिम्मेदारियों के सबब कर रही थी। जो रकम बेटियों की शादी में जानी है इस घर से, वो अगर किसी तरह से बच जाती तो? ऐसा सोच रहे थे चंद्रेश, उसकी माँ और दादी।
जीतनलाल ने एक नए सत्य को गढ़ने के लिये अनिरुद्ध को दिल्ली भेज दिया और ये बात उड़ा दी कि अनिरुद्ध दिल्ली में बैंक सेवाओं की तैयारी कर रहा है। जो अनिरुद्ध बैंक से पैसा निकालने का फॉर्म नहीं भर सकता था वो प्रतियोगी परीक्षा के जरिये बैंक में नौकरी पा सकता है ये बात हजम कर पाना गांव वालों के लिए खासी मुश्किल थी। मगर जीतनलाल का ये किस्म का निवेश था,उसे पता था कि अनिरुद्ध यहाँ रहा तो फौजी और उसकी तेज-तर्रार बेटी मिनटों में अनिरुध्द को भांप लेंगे फिर पूर्णिमा जैसी लड़की से उनके बैल बेटे का विवाह हर्गिज़ नहीं हो पायेगा। जीतनलाल सोचता था कि यदि वो पूर्णिमा को नहीं ला सका तो उसके बाद उसके बैलबुद्धि बेटे को दाना-पानी कौन देगा, क्योंकि अनिरुद्ध किसी लायक नहीं था।
पूर्णिमा के मौसा सुग्रीव के गायों-भैंसों की दवा-दारू जीतनलाल कभी-कभार कर दिया करता था जो उसके गांव से महज दो कोस की दूरी पर रहता था। जीतनलाल ने सुग्रीव से अपने पुराने सम्बन्धों को दारू के जरिये प्रगाढ़ और नया कर लिया था। उसने दारू के जरिये सुग्रीव को शीशे में उतारा। हफ्तों दारू की ठेकी पर साथ-साथ दारू पीने के बाद जीतनलाल ने सुग्रीव के सामने अपना प्रस्ताव रखा। दारू अब सुग्रीव की रगों में खून बनकर दौड़ रही थी और फिर जीतनलाल सुग्रीव की जेबें भी गुलजार रखता था। जीतनलाल के कहने पर सुग्रीव ने फौजी से जाकर कहा कि उसे पचहत्तर हजार रुपये उधार चाहिये उसे ये पैसे अपने मित्र जीतनलाल के बेटे अनिरुद्ध की नौकरी के लिये देने हैं। जीतनलाल तीन लाख रुपये दे रहा है और बहुत ही जल्द अनिरुद्ध की नौकरी हरियाणा के ग्रामीण बैंक में लग जायेगी वो भी क्लर्क की।इस उधारी को सुग्रीव ने फौजी के लिये एक मौका बताया और इस मौके को भुनाते हुए पूर्णिमा की शादी अनिरुध्द से करा देनी चाहिए क्योंकि दोनों सजातीय भी थे।
फौजी का मन सुग्रीव की बातों से आश्वस्त नहीं था मगर बेटी का अच्छा विवाह हो सकता है ये सोचकर उसने पैसे सुग्रीव को दे दिये। महीने भर बाद ही सुग्रीव ने फौजी को रकम वापस कर दी और ये इत्तला भी दी कि बहुत ही जल्द अनिरुद्ध रोहतक में बैंक क्लर्क की नौकरी जॉइन कर लेगा, बस चंद दिनों की बात है। सुग्रीव ने फौजी को बताया कि अभी जीतनलाल उसका एहसानमन्द है शादी की बात मान सकता है, वरना एक बार अनिरुद्ध ने ड्यूटी जॉइन कर ली तब उसके दहेज को पंख लग जाएंगे जो फौजी के कूवत के बाहर की बात होगी। जीतनलाल और अनिरुद्ध का जो सत्य सुग्रीव ने अपनी गवाही के बूते पर बताया था उसका सत्यापन कौन करता, फौजी कहीं भी आ-जा नहीं पाता था और चंद्रेश भी दूसरा अनिरुद्ध था। पूर्णिमा खुद लड़की, बाप बेबस, धनहीन घर पर बैठा भाई शोख और शौकीन बस क्रिकेट की फंतासियों में उलझा। सो पूर्णिमा के भावी जीवन की सच्चाइयों को कौन परखे जो बन्दा कहीं दिल्ली में रह रहा था फिलवक्त।
अनिरुद्ध एक वर्ष तक दिल्ली में रहा और शुरू के कुछ महीनों के बाद अपने सुरसा जैसे पेट को पालने के लिए एक ट्रांसपोर्ट में नौकरी कर ली इधर गांव में उसके शुभचिंतक इस बात को लगातार प्रचारित करते रहे कि वो बैंक क्लर्क में चयनित हो गया है और अब बैंक पीओ की नौकरी कर रही है। शादी की चर्चा चली तो बीएससी अंतिम वर्ष की छात्रा पूर्णिमा ने विद्रोह कर दिया कि वो अभी शादी नहीं करेगी अलबत्ता बाद में जिससे कहेंगे उससे कर लेगी मगर आत्मनिर्भर होने के बाद। मगर घरवालों के निरंतर दबाव और अपने बेबस फौजी बाप के बारे में सोच कर वो टूट गयी और उसने शादी के लिए रजामंदी दे दी। उसके रजामंद होते ही उसकी मां, भाई और दादी बहुत खुश हुईं क्योंकि रखे हुए पैसों में ना सिर्फ पूर्णिमा की शादी हो जायेगी बल्कि कुछ बच भी जाएगा और खेत भी ना बिकेंगे। नीलिमा को भी खुशी थी कि पूर्णिमा के विवाह के बाद वो जल्दी से जल्दी लव मैरिज कर सकेगी। फौजी को भी बहुत तसल्ली थी कि पूर्णिमा के बहुत संघर्षों के बाद उसका विवाह एक रोजगारयाफ्ता लड़के से हो रहा है और अब वो सुखी रहेगी। और अंत में पूर्णिमा को भी इस बात की तसल्ली हो गयी कि उसकी शादी के सबब से उसके बाप को ना तो ज्यादा परेशानी उठानी पड़ेगी और ना ही घर की जमीनें बिकेंगीं।
डाकखाने की आरडी तोड़कर बहुत ही सादे ही सादे माहौल में और सीमित संसाधनों में उसका विवाह हो गया। साल भर भी ना बीता कि पूर्णिमा की गोद हरी हो गयी। पूर्णिमा के सामने अब सारे भेद खुल चुके थे कि ये विवाह जीतनलाल और सुग्रीव की दारू की दोस्ती का नतीजा था। विवाह के बाद लगातार एक वर्ष तक जब अनिरुद्ध घर पे रहा तब ना सिर्फ उसकी झूठी नौकरी की पोल खुली बल्कि बैलबुद्धि की भी पोल खुली। पूर्णिमा को लड़का पैदा होते ही लड़का महत्वपूर्ण हो गया और पूर्णिमा हाशिये पर आ गयी। ननदों और उसकी सास का उसके रुप रंग का मजाक उड़ाना और उसे बिल्लो पुकारना अब आम बात हो चली थी। बच्चा हुआ तो खर्चे भी बढ़े। पूर्णिमा प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती, ट्यूशन भी करती, घर का पूरा काम और गाय का गोबर तक उठाती थी क्योंकि दूध उसके बच्चे की पहली जरूरत थी। उसने अनिरुद्ध की बहुत चिरौरी की कि वो कोई छोटी-मोटी नौकरी कर या रोजगार का प्रयास करे। आखिर एक दिन अनिरुद्ध ने पत्ते खोले कि नौकरी तो पूर्णिमा को ही करनी पड़ेगी, इसीलिए तो उसने बिल्लो लड़की से शादी की खुद गोरा होने के बावजूद। उसने ये भी बताया कि सुग्रीव को इसीलिये महीनों शराब पिलाई गयी थी और उसकी जेबें गरम की गयी थीं,इसलिये नहीं कि अनिरुद्ध नौकरी करे। इसलिये पूर्णिमा अपना बच्चा पाले, खुद को पाले वरना लौट जाए अपने मायके। लौटकर मायके जाने का ख्याल पूर्णिमा में सिहरन भर देता था। क्योंकि उसकी शादी को साल भर भी ना बीता था कि उसकी बहन नीलिमा ने लव मैरिज कर ली थी एक दूसरी जाति मे। पूरे गाँव में उनके परिवार की थू-थू हो रही थी क्योंकि लड़का निम्न जाति का था। ये शादी पहले कोर्ट में हुई फिर मन्दिर में फेरे हुए। क्योंकि फौजी ने कह रखा था कि वो लड़का अगर उनके दरवाजे पर बारात लेकर आया तो वो लड़के का पांव नहीं पूजेगा अलबत्ता उसके सीने में गोली दाग देगा।
सो नीलिमा अपने कपड़े लेकर घर से ससुराल चली गयी, वो जब-तब मायके तो आती थी, मगर उसके पति या ससुराल पक्ष के अन्य किसी ने उसके घर आने की हिमाकत नहीं की क्योंकि फौजी ने ऐसा होने पर खून-खराबा कर डालने की धमकी दे रखी थी और नीलिमा जानती थी कि उसका फौजी बाप कोरी धमकियां नहीं देता, कर भी सकता है। पूर्णिमा को दिन रात अपनी बहन के चरित्रहीन होने के ताने मिलते कि वो खुद तो बिल्लो है और उसकी बहन छिनाल। पूर्णिमा की ननदें क्या-क्या गुल खिला रही थीं ये बात उसको बखूबी पता थी। उसकी बहन पर इतने आक्षेप मगर पति के बहनों के बारे मे वो जुबान खोल दे तो उसकी जुबान खींच ली जाये।
पूर्णिमा के मायके वापस जाने के सारे रास्ते बंद थे। उसका वापस जा कर मायके में रहने का मतलब बाप को बेवक्त मौत देना था वो बाप जो बदनामी और बेबसी में पहले ही तिल-तिल मर रहा था। फौजी ने पहली बार में सिर्फ पैर गंवाए थे मगर पहले पूर्णिमा की धोखे से की गयी शादी और उसके बाद नीलिमा के दूसरी जाति के प्रेम विवाह से उपजी बदनामी से वो बहुत भीतर तक कहीं टूट गए थे। उनका बेटा चंद्रेश निकम्मा था वरना वो सुग्रीव और अपने दूसरे दामाद को कब की गोली मार कर खुद को भी समाप्त कर चुके होते। बेटी पूर्णिमा का खयाल आता तो उनकी जीने की उम्मीदें बढ़ जाती थीं। लेकिन उसके साथ हुए धोखे का खयाल आता तो फौजी थोड़ा और मर जाता। जिंदगी घिसट रही थी सब अपनी-अपनी जिन्दगियों को बदलने के लिये हाथ-पांव मार रहे थे, लेकिन ज़िन्दगी के दुख वाले हिस्से बहुत लंबे थे।
इसी तरह पांच साल गुजर गए ,पूर्णिमा का बेटा अभिजीत अब स्कूल जाने लगा था। इस दौरान अनिरुद्ध के जीवन में कुछ बदला था तो वो दो चीजें थीं, उसका वजन और मूर्खता, दोनों ही बहुत बढ़ गए थे। मौका हो, पैसा हो, तो शराब भी पी लेता था वो। इन्ही झंझावतों के बीच निकली स्वास्थ्य विभाग की भर्ती। सारे पद महिलाओं के लिये आरक्षित थे और उसमें भी पिछड़ी जातियों का आरक्षण था। जीतनलाल को इस भर्ती में एक अवसर नजर आया। इसी दिन के लिये तो उसने सारी तैयारियां की थीं। फिर उसका बैल अब पूरा सांड बन चुका था और ये इंसानी सांड एक औलाद भी पैदा कर चुका था। ये औलाद ही तो पूर्णिमा को अनिरुद्ध के पास रोके हुई थी वरना पूर्णिमा मृत्यु, पिता का घर या स्वछंदता कुछ भी चुन सकती थी।
भर्ती के लिये लाखों फार्म पढ़े। लिखित परीक्षा हुई और फिर इंटरव्यू। इस इंटरव्यू में ही तो सारा खेल होना था। लिखित परीक्षा में एक पद के सापेक्ष पांच लोग बुलाये गए थे और इन पांचों में जो एक लड़की चार लाख दे सकेगी उसी की नौकरी पक्की। मेरठ क्षेत्र में चार लाख देने वालों की कमी ना थी। पैंतालीस सौ रुपये की प्राइवेट स्कूल की नौकरी और बमुश्किल दो हजार रुपये महीने में ट्यूशन से कमाने वाली पूर्णिमा के लिये चार लाख रुपयों का इंतजाम आसमान से तारे तोड़कर लाने जैसा था। लेकिन यही वो मौका था जब जिंदगी बदल सकती थी।
जीतनलाल ने भी प्रयास शुरू कर दिए पूर्णिमा भी हाथ पांव जोड़कर अपने मायके से पचास हजार ले आयी, उसने अपने सारे जेवर बेच डाले, जीतनलाल ने अपनी समस्त बचत को इकट्ठा किया और यथासम्भव हर जगह से कर्जे उठाये। पूर्णिमा ने नीलिमा से भी उधार लिया। नीलिमा के चरित्र से जीतनलाल को आपत्ति थी मगर उसके पैसों से नहीं। अंततः चार लाख जुट ही गये। चार लाख, पूर्णिमा की ऊंची मेरिट और भाग्य के साथ देने से उसको नौकरी मिल ही गयी। वैसे इस क्षेत्र में चार तो क्या आठ लाख देने वालों की कमी ना थी। नौकरी वास्तव में मेरिट से ही मिली थी, चार लाख तो बस मिठाई का खर्चा था। प्रयोगशाला सहायक की दो साल की ट्रेनिंग और ढाई हजार रुपये मानदेय और चार लाख खर्चने के बावजूद सरधना से मुजफ्फरनगर जाकर ट्रैनिंग करना आसान नहीं था। पूर्णिमा अलसुबह उठकर बेटे को तैयार करके स्कूल भेजती, उसके लिये टिफ़िन बनाती, घर भर के लिए खाना बनाती फिर दो रोटियां अपने वास्ते बाँधकर ट्रेनिंग पर जाती। दिन भर ट्रेनिंग करके देर शाम जब वो घर पहुंचती तो फिर घर भर के लिये खाना बनाती और वहीं किचन में बैठे-बैठे बेटे को भी पढ़ाती। अनिरुद्ध तो बस चूल्हा ताकता रहता था कि कब उसे खाना मिले, कब पूर्णिमा कमरे में जाये और वो उसे रौंद सके। पूर्णिमा को दिन भर ज़िन्दगी रौंदती थी और रात भर अनिरुद्ध,एक बार ,दो बार,कई बार।
अनिरुद्ध को पूर्णिमा इंसानी बैल समझती थी क्योंकि भोजन और प्रजनन के अलावा उसे दुनिया में कुछ सूझता ही नहीं था। सास,ननद को पूर्णिमा से कोई मतलब ही नहीं था कि वो जिये या मरे। इन्हीं झंझावतों में ट्रेनिग पूरी हुई पूर्णिमा की। अब पोस्टिंग की कवायद शुरू हुई। उसमें भी जो राजधानी जाकर पचास हजार दे दे,तो घर के पास ही पोस्टिंग मिल सकती थी। लेकिन अब क्या बेचे पूर्णिमा, कहाँ से लाये पैसा। वैसे भी उसे मामले में एक उम्मीद नजर आयी कि जिंदगी इस नर्क से बाहर उसे चाहे जहां लेकर जाए तो वो अपने बच्चे के साथ इज्जत से चली जायेगी, भले ही एक रोटी में गुजारा हो। जीतनलाल और अनिरुध्द ने सांसद, विधायक के सामने नाक रगड़ी कि पूर्णिमा की पोस्टिंग यहीं हो जाये, और पूर्णिमा ने ईश्वर से बस एक ही चीज की प्रार्थना की, कि उसकी पोस्टिंग यहाँ के अलावा चाहे जहाँ हो जाये ,ईश्वर उसे इस नरक से निकाले। वो नरक जहां उसे अब तक सिर्फ दुत्कार और फटकार ही मिली है।
समय का चक्र बदला ,सिफारिश काम ना आयी, पश्चिमी उत्तर प्रदेश छोड़कर अपने घर से चार सौ किलोमीटर दूर उसे गोंडा जिले के तरबगंज ब्लॉक में पोस्टिंग मिली। विभाग ने पोस्टिंग कहीं और की थी ,लेकिन बड़े साहब का हुक्म था कि पीएचसी पर बैठो। उसने गोंडा में कमरा ले लिया, मगर बीस किलोमीटर दूर नौकरी आसान ना थी, जहाँ पब्लिक ट्रांसपोर्ट ना के बराबर था इस बाढ़ पीड़ित क्षेत्र में। कई बार ड्यूटी पर उसके पहुंचने से पहले साहब लोग पहुंच जाते ,अक्सर किसी तरह हाथ-पांव जोड़कर नौकरी बचाती रही वो। वेतन मिलने में वक्त था अभी क्योंकि प्रमाण पत्रों का सत्यापन बाकी था। हारकर वो नौकरी बचाने के लिए फिर बाप की शरण में गयी। उस बाढ़ पीड़ित क्षेत्र के रास्तों में उसके स्कूटी चलाने की गुंजाइश ना थी सो उसने पिता से मिन्नत करके एक मोटर साइकिल खरीदवाया और उसी पर अनिरुद्ध के साथ आती जाती।
अनिरुद्ध दिन भर उसके साथ पीएचसी पर ही बैठा रहता।“खाली दिमाग,शैतान का घर”उसमे पीएचसी पर खूब दलाली-मक्कारी शुरू कर दी और हर काम पर वसूली भी।गुनाह उसने किये, शिकायत पूर्णिमा की हुई। प्रोबेशन पीरियड में ही बर्खास्तगी का नोटिस आ गया। नतीजतन अब तक की कमायी गयी सारी जमा-पूंजी नौकरी बचाने में ही स्वाहा हो गयी। साहबों के पांव भी पड़ी, बहुत पैसे भी दिए तब जाकर नौकरी बची। पूर्णिमा ने बाकी के कर्जे निपटाने शुरू किए वैसे ही जीतनलाल ने अपनी बेटियों के विवाह के लिए पैसे मांगने शुरू कर दिये और दलील ये दी कि “घूस से ही तो नौकरी लगी है,”।
पूर्णिमा अब तक अपने ससुर के पैसों की किस्तें भर रही है और अनिरुद्ध लगातार दूसरे बच्चे का दबाव बनाए हुए है। पूर्णिमा बिस्तर पर लेटे लेटे यही सब सोचती रही और उसकी आँखों से आंसू बहते रहे। तब तक उसके बेटे अभिजीत ने पुकारा, “मम्मी, यहाँ आओ, जल्दी आओ।”
पूर्णिमा ने कपड़े पहनने का यत्न नहीं किया और चद्दर से बदन को लपेटकर अभिजीत के पास पहुँची।अभिजीत ने उत्साह से टीवी के कार्टून की तरफ उँगली करते हुए कहा, “मम्मी इस बैल को देखो, पहले तो ये बिल्लो था, अब ये गोरा हो गया।”
पूर्णिमा ने ठंडी सांस ली और बेटे से बोली, “हाँ बेटा,हर बिल्लो को गोरे बैल के साथ बंधना पड़ता है। मेरे भी बैल का रंग गोरा है।“
अभिजीत को उसकी बात समझ ना आई मगर बड़ी देर तक माँ और बेटा एक दूसरे को निहारते रहे थे ।

नाम -दिलीप कुमार
1980 में गोंडा में जन्म ,
पुणे विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त ,(M.Sc,B.Ed. , diploma in computer )
लेखन की विधा -कहानी, उपन्यास,व्यंग्य, लघुकथा, साहित्यिक लेख आदि
कुछ समय तक मनोरंजन माध्यमों हेतु लेखन
2 कथा संग्रह,1 उपन्यास,2 लघुकथा संग्रह प्रकाशित
1 उपन्यास,1 कथा संग्रह व एक व्यंग्य संग्रह प्रकाशनाधीन
लेखन हेतु कई पुरस्कार प्राप्त
सम्प्रति -शिक्षण और लेखन (मुंबई व बलरामपुर में निवास )
व्हाट्सएप्प -9956919354
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