मैंने उस दिन को सामान्य दिन की तरह ही लिया था। ठीक उसी तरह जैसे महीने में एक बार पूर्णिमा और अमावस्या का होना। इसी तरह से चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण को भी तो सामान्य अवस्था के रूप में लेता आया हूँ। कभी ऐसा नहीं लगा कि इन दिनों का मेरी मानसिक अवस्था पर कोई प्रभाव पड़ा हो लेकिन उस दिन … वह भी तो पूर्णिमा का ही दिन था … विज्ञान, खगोल और ज्योतिषीय दृष्टि से चन्द्र ग्रहण का दिन। इस खगोलीय घटना को ज्योतिषियों ने उपच्छाया चन्द्र ग्रहण की संज्ञा दी थी।
कहते हैं कि इस दशा में चन्द्र पृथ्वी की छाया वाली दिशा में आ जाता है। पूर्णिमा तो उजली रात का दिन है जब शशि अपनी उज्जवल किरणों को बिखेरते हुए धरा को रजतमय कर देता है … लेकिन यह चन्द्र ग्रहण की रात मेरे लिए मानसिक संत्रास से युक्त होकर चारों ओर से अंधेरे में घेर रही थी। मुझे लगा कि कहीं यह रात मेरे जीवन में ग्रहण वाली साबित न हो जाए।
वैसे मुझे जब खाँसी और कफ के शुरूआती लक्षण दिखाई दिए थे तब मैंने कोई गौर भी नहीं किया था और फिर करता भी क्यों? मुझे मालूम था कि मैंने लॉकडाउन का पूरी तरह से पालन किया। मैं स्वयं तो घर से कभी बाहर गया ही नहीं। यहाँ तक कि घर के लोगों को भी पूरी तरह से नसीहत दे रखी थी कि घर से बाहर न निकलें और घर पर भी किसी को न आने दें। कितनी तो एहतियात बरत रहे थे। फल-सब्जी का मामला हो या किराने का। वैसे भी कई दिनों तक बाहर से सब्जी ही नहीं खरीदी। किराने का सामान राशन,आलू-प्याज तो लॉकडाउन घोषित होने के साथ ही लेकर रख लिये थे। और फिर अपने टैरेस गार्डन पर भी तो कुछ सब्जियाँ लगा रखी थीं,वे भी साथ दे रही थीं।
यहाँ तक कि दूध की बंदी में दूध का पैकेट लेने के बाद सेनीटाइज करना और अपने हाथों को साबुन से धोना कभी नहीं भूला। तब भी … नहीं-नहीं, तब यह कैसे संभव है! हाँ, मुझे उस समय जरूर बहुत अधिक चिंता हुई थी जब बेटी स्मिता और दामाद नीरज वैवाहिक कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिए अमृतसर जा रहे थे। जाना तो मुझे भी था क्योंकि नीरज के चचेरे भाई की शादी थी। मैंने सपत्नी दिल्ली तक का रिजर्वेशन करवा भी लिया था क्योंकि दिल्ली में ही साहित्यिक कार्यक्रम था जिसमें आयोजित गोष्ठी में मुझे भाग लेना था और कार्यक्रम के बाद वहीं से स्मिता और नीरज के साथ अमृतसर जाना था। शायद वह मार्च के दूसरे सप्ताह की बात रही होगी। उस समय चीन के वुहान प्रांत के अलावा इटली और स्पेन की बातें ही कोरोना को लेकर ज्यादा हो रही थी। वैसे भी, आज भी जब लोगों को सड़कों पर बिना मास्क और दूरी के देखता हूँ तो लगता है कि यहाँ तो लोग मृत्यु के खौफ से अलहदा हैं, बिल्कुल बेखौफ ... हम ही डरकर मरे जा रहे हैं … हाँ तो बात अमृतसर जाने की कर रहा था, सिद्धार्थ को भी जब आने के लिए कहा तो उसने कहा था कि - "मेरा आना तो नहीं होगा क्योंकि मुझे छुट्टियाँ नहीं मिलेंगी और हाँ ... आप लोग भी नहीं जाएंगे।" तब मैंने कहा था कि - "अरे, ऐसा कैसे हो सकता है। मुझे तो दिल्ली के साहित्यिक कार्यक्रम में सम्मिलित होना है। मैंने स्वीकृति भी दे दी थी … और फिर नीरज के चचेरे भाई की शादी है। उन्होंने दो बार फोन कर आने का आग्रह किया हुआ है … भला कैसे टाल सकते हैं। दिल्ली से अमृतसर चले जाएंगे और वापसी पर तुम्हारे पास नागपुर आ जाएंगे … .कम से कम कुछ दिन तुम्हारे साथ भी रह लेंगे।"
तब उसने कहा था कि - "नहीं पापा, आप लोगों को कहीं आना-जाना नहीं है। स्मिता और नीरज से भी कह दें कि अमृतसर न जाएं। कोरोना बहुत तेजी से फैल रहा है। हालांकि अभी चीन,इटली और स्पेन ही ज्यादा प्रभावित हैं लेकिन भारत में भी फैलने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। आप इस बात को क्यों नहीं समझ पा रहे हैं कि हमारे देश में भी कोरोना की एन्ट्री बाहर के देशों से आने वाले लोगों के कारण हुई है। नीरज के कजीन और उसकी होने वाली दुल्हन भी तो अमेरिका से दो दिन पहले ही आए हैं। इसीलिए हमें कोई रिस्क नहीं लेना चाहिए और फिर प्यारा सा भांजा अयांश भी छोटा है, उसे साथ लेकर जाना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।"
सिद्धार्थ की बातों को उस समय सभी ने बड़े ही हल्के अंदाज में लिया था लेकिन फिर भी शादी में नीरज और स्मिता ही गए थे। मैंने सिद्धार्थ को पीठ पीछे बहुत कोसा भी था और कल्पना से कहा भी था कि - "इसे डॉक्टर क्या बना दिया, हर जगह डर बैठाकर जाने से रोक देता है। पिछली बार गुवाहाटी भी उसके कारण ही नहीं जा पाए थे।" उस समय कल्पना ने भी मेरी हाँ में हाँ मिलाई थी लेकिन जब नीरज और स्मिता शादी के बाद अमृतसर से दिल्ली और वहाँ से वापस इंदौर लौटे थे और उन्हें सर्दी-जुकाम ने जकड़ लिया तो सभी की चिंता बढ़ गई और सिद्धार्थ की बातें याद आने लगी। कल्पना ने मुझसे कहा भी कि देखो आप तो सिद्धार्थ की किसी भी बात को गंभीरता से नहीं लेते। आखिर वह सच ही तो कह रहा था।
जब सिद्धार्थ को स्मिता और नीरज के स्वास्थ्य की बात बताई तो उसने भी राय दी कि सभी एक दूसरे से दूरी बनाकर रखें और दो सप्ताह तक ध्यान दें। उससे बातचीत के चार दिन बाद ही तो लॉकडाउन शुरू हो गया था और सभी जन अपने घरों में कैद होकर रह गए थे।
जब नीरज और स्मिता का बुखार दो-एक दिन में ठीक हो गया तभी हम सभी चिंता मुक्त हो पाए थे लेकिन आज जब सिद्धार्थ से फिर बात हुई और मेरी खाँसी की आवाज सुनी तो उसके डॉक्टरी सवाल भी शुरू हो गए। स्वाभाविक था कि मेरी चिंता भी शुरू होना ही थी। पहले तो मैं यही कहता रहा कि - "हल्का कफ है और थोड़ी बहुत खाँसी है,ठीक हो जाएगी।"
लेकिन सिद्धार्थ इतने भर से कहाँ मानने वाला था, पूछता रहा - "कब से है खाँसी? खाँसी सूखी है या कफ वाली? कफ है तो कैसा है? कफ का कलर कैसा है? बुखार तो नहीं है? जुकाम भी है क्या? ब्लड प्रेशर और शुगर चेक की थी या नहीं? और भी ना जाने क्या-क्या। इतने प्रश्नों से तो मैं खुद को और बीमार समझने लगा और सोच में पड़ गया कि कहीं मैं भी चपेट में तो नहीं आ गया हूँ! हालांकि उसके सभी प्रश्नों को मैंने नकार दिया था किन्तु फोन रखने के बाद मन से मैं स्वयं ही उलझ सा गया मुझे लगा कि शायद हल्का बुखार तो रहा ही होगा ... वैसे भी थर्मामीटर लेकर देखा तो था नहीं … हाथ-पैरों में दर्द भी बना हुआ है … हल्का सा सर्दी-जुकाम भी तो था। रात में कफ और खाँसी के कारण पिछले दो-तीन दिन से कहाँ सो पा रहा था?
फिर मन को समझाने के लिए मैंने खुद से ही कहा - "अरे नहीं, मुझे कोरोना कैसे हो सकता है! बार-बार हाथ धोते रहने से मेरी हथेलियों का रंग ही उजला गया है ... लोगों ने बहुत समझाया लेकिन उसके बाद भी अखबार बंद करवा दिया … सब्जी भी फेरी वाले से कहाँ लेते हैं, वह तो कॉलोनी में मुकाती जी रहते हैं और अपने खेत की ताजी सब्जियाँ मोहल्ले में बेच रहे हैं तो उन्हीं से खरीद भी रहे हैं ... उनसे सब्जी लेने में भी तो पूरी सावधानी ... दूध वाले को भी कह रखा है कि मास्क पहनकर आना और सैनीटाइजर का उपयोग करना ... फिर कोरोना वाइरस कैसे घुसकर आ सकता है! कल्पना ने कितना विरोध किया था और फिर कामवाली बाई मीरा भी तो आने को तैयार थी किन्तु मैंने ही तो मना कर दिया था ... बोल भी दिया था कि घर के कामों में हाथ बंटा दूंगा मैं लेकिन अभी बाहरी लोगों का प्रवेश नहीं! फिर कैसे!"
मैं सोचता रहा। उधर रात में जब कफ और खाँसी के कारण थोड़ा साँस लेने में तकलीफ सी लगी तो मैं उठकर बैठ गया था, पसीना-पसीना हो गया ... कुछ समझ में नहीं आ रहा था ... यह भी विचार घर करने लगा कि यदि कहीं कुछ हो गया तो … क्या होगा! बेटा-बहू भी तो नागपुर में हैं। लॉकडाउन के चलते कैसे आ पाएंगे! और यहाँ … बेटी-दामाद साथ में है और प्यारा सा नाती अयांश भी ... कहीं मेरे संक्रमण का प्रभाव इनपर भी हुआ तो? और फिर कल्पना का क्या होगा? वह तो वैसे भी बीमार-बीमार सी रहती है।
सिद्धार्थ ने कहा भी था कि - "मम्मी का खास तौर पर ध्यान रखना होगा। घर में सबसे ज्यादा हाई रिस्क पर वही हैं।"
मेरे दिमाग में यही सब उथल-पुथल मची हुई थी। पूर्णिमा पर जिस तरह से समुद्र की लहरें चढ़ती-उतरती रहती है ठीक उसी तरह मेरी मनोदशा थी ... ज्वारभाटा बनी हुई विचार श्रृंखला … सुन रखा था कि कुण्डली में जिनका चन्द्रमा कमजोर रहता है, उनकी मानसिक अवस्था चन्द्र ग्रहण और पूर्णिमा वाले दिन बहुत अस्थिर हो जाती है ... तो क्या मेरा चन्द्र कमजोर है? आज ही खुद को इतना कमजोर क्यूँकर महसूस कर रहा हूँ?"
फिर मैंने अपने मन को कुछ कड़ा करने की कोशिश की। खुद को समझाने के लिए अपने आप से कहा - "नहीं, यह तो मन का वहम है, मुझे कुछ नहीं होने वाला। पिछले तीन महीने से हल्दी वाला दूध दोनों समय ले रहा हूँ और फिर तुलसी, गिलोय, काली मिर्च, लोंग का काढ़ा तो सुबह उठते ही बिना नागा पी लेता हूँ ... खुद भी लेता हूँ और सभी को पीने के लिए मजबूर करता हूँ। तब कैसे कोरोना संक्रमण का प्रभाव हो सकता है। मैंने बरसो पहले योगासन छोड़ दिए थे, उन्हें भी तो अब फिर से नियमित रूप से कर रहा हूँ। नहीं-नहीं … मुझे कोरोना संक्रमण नहीं हो सकता।"
मैंने स्वयं को आश्वस्त करना चाहा और फिर कुछ देर इस करवट तो कुछ देर उस करवट किन्तु नींद कोसो दूर थी, साँसे अटकती सी लगी। सोचा कि कल्पना को जगा दूं लेकिन अभी यह सब बताना किसी को मुनासिब भी तो नहीं। यदि बता दिया और जाँच करवाने की नौबत आ गई तब! भले ही मैं पॉजीटिव न भी हुआ तो भी क्वारेंटाइन सेंटर पर भेज दिया जाएगा। घर वालों से सम्पर्क में भी परेशानी … और फिर वहाँ कौन ध्यान देने वाला है? लावारिस से पड़े रहना है ... कई लोग तो वैसे ही मर-खप गए और घरवाले चेहरा भी नहीं देख पाए। अब करें तो क्या करें। मन को मैंने फिर समझाया, कुछ देर अनुलोम विलोम और कपाल भांति किया वज्रासन की मुद्रा में बैठकर। हाँ यह सब इतना सावधानी से कि कल्पना की नींद ना टूटे। इसके बाद शवासन की क्रिया शुरू कर दी … उधर रात्रि का निशिथ प्रहर गुजर चुका था ... त्रियामा प्रहर में चन्द्रमा भी ग्रहण से मुक्त हो रहा था और इधर मैं भी अपने तनाव से मुक्त होकर निद्रावस्था में लीन हो चुका था और चन्द्रमा ग्रहण से मुक्ति पाकर अपने पूर्ण शबाब पर दमक रहा था।
लेखक परिचय - प्रदीप उपाध्याय
21जनवरी,1957 को झाबुआ मध्यप्रदेश में जन्में डॉ.प्रदीप उपाध्याय तीन विषयों में स्नातकोत्तर के साथ विधि स्नातक हैं।मध्यप्रदेश शासन अन्तर्गत राज्य वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक के पद पर रहते हुए वर्ष 2016 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण कर चुके हैं।वर्ष 1975 से लेखन में सक्रिय हैं। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में कहानी,लघुकथा,कविताएँ,व्यंग्य आलेख तथा विभिन्न सामाजिक,राजनीतिक विषयों पर आलेख एवं शोधपत्र प्रकाशित हुए हैं।
प्रकाशित व्यंग्य संकलन- मौसमी भावनाएँ ,सठियाने की दहलीज पर,बतोलेबाजी का ठप्पा, बच के रहना रे बाबा, मैं ऐसा क्यूँ हूँ!प्रयोग जारी है , ये दुनिया वाले पूछेंगे तथा व्यंग्य की तिरपाल, ढाई आखर सत्ता के,भरे पेट की भूख,मेरे चयनित व्यंग्य (प्रकाशनाधीन)
कहानी संग्रह-रिश्तों की कड़वाहट,का से कहूं, मैं और मेरी कहानियां
लघुकथा संग्रह-परख
ललित निबन्ध - प्रेम न बाड़ी उपजै (मेरी विचार यात्रा)(प्रकाशनाधीन)
अन्य- मेरी पत्र यात्रा (प्रकाशनाधीन)
वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर ,भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में व्यंग्य संकलन 'मौसमी भावनाएँ' के लिए पवैया सम्मान से सम्मानित,वर्ष2018-19 में व्यंग्य संकलन 'सठियाने की दहलीज पर' के लिए अम्बिका प्रसाद दिव्य स्मृति प्रतिष्ठा पुरस्कार, संस्मरण लेखन हेतु रचनाकार आर्ग.द्वारा पुरस्कृत, वर्ष 2019 में सर्वभाषा ट्रस्ट द्वारा श्याम सिंह त्यागी स्मृति हिंदी सेवा सम्मान,वर्ष 2021में डॉ एस एन, तिवारी स्मृति साहित्य सम्मान, हास्य-व्यंग्य विधा में उत्कृष्ट साहित्यिक सेवाओं के लिए 'जय विजय' रचनाकार सम्मान-2021, व्यंग्य संग्रह 'ये दुनिया वाले पूछेंगे' को सर्वोत्कृष्ट कृति का वर्ष 2022 में जयपुर साहित्य सम्मान।
पताः-16,अम्बिका भवन,उपाध्याय नगर,मेंढकी रोड,देवास,म.प्र.
मोबाइल-9425030009
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