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  • डॉ मनोज मोक्षेन्द्र

रखैल मर्द

एन.सी.आर. यानी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र जिसमें राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के आसपास के क्षेत्र शामिल हैं। जैसे ग़ाज़ियाबाद, रोहतक, गुड़गाँव, नोएडा आदि। जहाँ मानसून आने का समय जून का आख़िरी सप्ताह तय होता है। पिछले दो-चार सालों से न केवल मानसून का आगमन देर से हुआ बल्कि बारिश भी अपेक्षाकृत कम हुई। बहरहाल, यह जुलाई की सात तारीख़ है लेकिन घटाओं का उमड़ना-घुमड़ना और गरजकर कोई पाँच-सात मिनट तक बरस जाना अभी जारी है। गजेंद्र ने अपनी अंगुलियों पर गिनकर कुछ हिसाब लगाया और ख़ुद बड़बड़ा उठा, "अभी डेढ़-दो महीनों तक मौसम का मिज़ाज़ कुछ ऐसा-ही बना रहेगा। न तो गरजकर अच्छी तरह बरसेगा, न ही यह लिज़लिज़ी बरसात थमेगी।"

वह उठकर इधर-उधर टहलने लगा। बारिश की रिमझिम तेज बूंदा-बाँदी और झमाझम में तब्दील हो गई। गजेंद्र ने आश्चर्य से आसमान की ओर टकटकी लगाकर देखा। लेकिन, पूरी तरह भींगने के बावज़ूद उसका मन काँपने से बाज नहीं आ रहा था। उसने अपने चेहरे का रुख आसमान की ओर करके आँखें खुली रखीं और आँखों को बारिश के पानी से धुलने दिया। तभी सिर में हल्का-सा चक्कर महसूस हुआ और वह वहीं जमीन पर धम्म से सिर पकड़कर उकड़ूं बैठ गया। पहले उसे ऐसा कभी नहीं हुआ था जैसाकि उसे लग रहा था कि उसके चारो ओर की छत तेजी से घूम रही है। उसने हथेलियों से जमीन को जोर से जकड़ लिया। पर, घूमना थम नहीं रहा है। तभी उसके कंधे पर किसी ने पीछे से हाथ रखा। छत का घूमना बंद हो गया। उसने अपने कंधे उचकाए। तभी उसे लगा कि जैसे बंद कमरे में यक-ब-यक बिजली गुल हो गई है और कम्प्यूटर के बंद होते ही की-बोर्ड पर भाग रही उसकी अंगुलियाँ फ़िसलकर नीचे गिर गई हैं। जब उसने पीछे सिर घुमाया तो उसे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा: सूरज की चिलचिलाती किरणें बादलों की एक खुली खिड़की से झाँक रही हैं। उसे याद है कि जब बचपन में धूप में बारिश होती थी तो लोगबाग कहते थे कि सियार की शादी हो रही है। बहरहाल, उसने देखा कि बारिश की छमछमाहट अंजली की खिलखिलाहट के साथ एकसार हो रही है। वह उसके सामने खड़ी थी।

"यार, अब तो मुस्करा दो।" वह गजेंद्र के चेहरे पर झुककर मुस्कराई।

वह उसे आहिस्ता से पीछे धकेलते हुए खड़ा हो गया।

"नहीं अंजली, अब मुस्कराने के दिन लद गए हैं। मुझे यह ज़िंदगी बिल्कुल पसंद नहीं है। तुम तो इसमें इतनी रच-बस गई हो कि तुमको इसमें कोई ख़ामी ही नज़र नहीं आती।"

"पर, तुम्हें इससे इतना गुरेज़ क्यों है? हमारे पास अपना मकान है, अपने बच्चे हैं, हम दोनों की अच्छी नौकरी है और समाज में अच्छी इज़्ज़त भी है यानी सुख-चैन से जीने के लिए सारे सामान हैं हमारे पास," अंजली ने अपने माथे पर लुढ़कती हुई पानी की धार को समेटकर नीचे गिराते हुए अपनी आँखें रगड़ी।

"तुम्हें नहीं पता है?" गजेंद्र संज़ीदा हो गया।

"क्या?" अंजली को लगा कि वह कोई ऐसी बात बताने जा रहा है जिसे वह अब तक छुपाए रखा था।

"...कि मेरे आफ़िस वाले मुझे अभी भी इस अधेड़ उम्र में कुआंरा ही समझते हैं। मैंने अपने आफ़िस में अब तक अपने बीवी-बच्चों का ब्योरा तक नहीं दिया है। आख़िर मैं उनसे कब तक झूठ बोलता फिरूं कि मैं शादी-शुदा नहीं हूँ..."

"जब तक कि उन्हें खुद ही पता न लग जाए कि तुम किसी औरत के साथ 'लिव इन रिलेशनशिप' में रह रहे हो," अंजली के अपने माथे पर आए बल मिट गए।

"यह भी कोई बात हुई; अरे, सरकारी रिकार्ड में अभी तक मैं बैचलर हूँ। आफ़िस में मेरे कुलीग मजाक उड़ाते रहते हैं कि गजेंद्र, अब नहीं तो क्या शादी बुढ़ापे में करोगे? उन्हें क्या पता कि मैं कई सालों से किसी औरत के साथ अवैध रूप से रह रहा हूँ और मेरे दो बच्चे भी हैं?" गजेंद्र तुनक उठा।

"देखो गज्जू! मैंने तुम्हें पहले ही सारी बातें साफ कर रखी हैं कि मैं तुम्हारे साथ सारी उम्र रहूंगी; लेकिन, शादी-विवाह जैसे फ़िज़ूल के आडंबरों के चक्कर में नहीं पड़ूंगी।" ज़िद उसकी आँखों से झाँकने लगी।

"लेकिन, क्यों? आख़िर, समाज-धर्म भी कोई बात है। सदियों से जो रीति-रिवाज़ चले आ रहे हैं, उन्हें एक ही झटके में कैसे दरकिनार किया जा सकता है? बहरहाल, पड़ोस में लोग हमें शादी-शुदा समझते हैं; जिस दिन उन्हें पता चलेगा की हमारी असलियत क्या है तो उन्हें हम पर थूकना भी बेजा लगेगा। दरअसल समाज में उन्हीं कपल्स को इज़्ज़त बख़्शी जाती है जो शादी-शुदा दंपती होते हैं।" उसने उसे समझाने की भरपूर कोशिश की।

"रीति-रिवाज़, समाज-धर्म, शादी-विवाह, आख़िर इन पचड़ों में पड़कर हम अपने जीवन को जहन्नुम क्यों बनाएं; इनसे हमें क्या लेना-देना है?"

"लेना-देना है क्यों नहीं? ये सामाजिक अनुशासन हैं।" वह फिलॉसफी झाड़ने लगा।

"भांड़ में जाएं ये सामाजिक अनुशासन।" अंजली तुनक उठी।

"देखो, इनसे तुम किनारा करोगी तो हमारी ज़िंदगी कुत्ते-कुतियों की ज़िंदगी हो जाएगी।" गजेंद्र ने नाराज़गी में अपना सिर फेर लिया।

उसके बाद दोनों के बीच चुप्पी तब तक पसरी रही जब तक कि गजेंद्र जीना उतरकर ड्राइंग रूम में नहीं चला गया। लिहाजा, अंजली के ऊपर गजेंद्र की नाराज़गी का कोई असर होने वाला नहीं था।

लगातार होने वाली बारिश ने मानसून के आग़ाज़ पर मुहर लगा दी थी। सुबह, जब गजेंद्र ऑफ़िस के लिए रवाना हो रहा था, तो उस समय भी उसका मुँह गुस्से से फूला हुआ था। रात उसने अलग ड्राइंग रूम में सोफ़े पर बैठे-बैठे तनाव में गुजारी थी। क्योंकि उसने अपने घर-पड़ोस में भी किसी को नहीं बताया था कि वह बिन-ब्याहा दाम्पत्य जीवन व्यतीत कर रहा है। अपार्टमेंट में फ्लैट बुक कराते समय तो उसने सभी से अपना परिचय कराते समय यह बताया था कि अंजली उसकी पत्नी है और अंकुश तथा कृत्या उसके बच्चे। मतलब साफ़ था कि सभी पड़ोसी उन्हें किसी संभ्रांत परिवार से संबंधित मानते थे। अंजली भी पड़ोस में होने वाले सामाजिक-धार्मिक कार्यक्रमों में गजेंद्र की विवाहित धर्मपत्नी के रूप में हिस्सा लेती थी।

ऑफ़िस में गजेंद्र का मन विचलित था। वह चाहकर भी अर्जेंट कामों को निपटा नहीं पा रहा था। उसने जिन फाइलों को सीनियर मैनेजर के पास भेजा था, उन्हें उसने अपने मैसेंजर प्रकाश से वापस मंगा लिया। सीनियर मैनेजर को आश्चर्य हो रहा था कि आख़िर, गजेंद्र को उन फाइलों में क्या कमी याद आई जबकि उसने उसके ड्राफ़्ट को फ़ाइनल कर दिया है। इतना ही नहीं, उसने प्रकाश से कई बार पानी मांगा और सुदेश को चाय के लिए कई बार आर्डर दिया। टाइपिस्ट सुलेखा को बार-बार फटकारा कि वह ठीक से कंप्यूटर पर काम नहीं कर सकती तो फिर से कंप्यूटर ट्रेनिंग पर चली जाय। प्रकाश के बदले जब-जब उसकी दूसरी मैसेंजर सुलोचना उसके पास आई, तो उसने सख़्ती से कहा, 'जब कोई काम होगा तभी मैं तुम्हें बुलाऊँगा। बेकार में यहाँ आकर मेरा दिमाग खराब मत करो। तुम बाहर ही बैठो।' सेक्शन में महिला असिस्टेंटों से भी वह बड़ी बेरुखी से पेश आ रहा था। रोहिणी द्वारा तैयार किए गए प्रारूप में उसने इतनी बार फेरबदल किया कि वह खींझते हुए हॉफ़ सी.एल. लेकर घर चली गई। बेशक, वह रोहिणी से कितने ख़ुशामदी लहज़े से पेश आया करता है। पर, आज न तो वह उसके पास कोई काम समझाने गया, न ही यह कहा कि रोहिणी सुदेश को चाय के लिए आर्डर दे दो। पता नहीं, दूसरी महिला असिस्टेंटों से भी उसे बड़ा कोफ़्त हो रहा था। उसे निःसंदेह, इन सभी महिलाओं में अंजली नज़र आ रही थी। उसे लग रहा था कि ये सभी औरतें ऊपरी तौर पर ख़ुद को शिष्ट पेश करती हैं जबकि ये सारी औरतें अंजली जैसी ही हैं जिन्हें समाज का कोई डर नहीं होता और हर काम में मनमाना करती हैं।

अंजली के प्रति नाराज़गी के कारण शाम को वह घर जाने से पहले अपने दोस्त हरेंद्र के यहाँ चला गया और जब उसकी पत्नी रिचा ने डिनर के लिए उस पर दबाव डाला तो वह कोई ज़्यादा ना-नुकर किए बिना, डाइनिंग टेबल पर जम गया और छककर खाना खाया। यह भी नहीं सोचा कि जब अंजली उससे खाना खाने का अनुरोध करेगी तो वह क्या बहाना बनाएगा? लिहाजा, लेट-लतीफ़ घर पहुंचने के बाद वह तबियत खराब होने का बहाना बनाकर बेडरूम में सोने चला गया। बच्चों ने उससे स्कूल का ज़रूरी होमवर्क कराने का अनुरोध किया तो उसने उन्हें डाँटकर भगा दिया। अंजली समझ गई कि गजेंद्र अपनी ज़िद के कारण ही यह सब कर रहा है; लेकिन, वह वैसा कभी नहीं करेगी जैसाकि वह चाहता है। आख़िर, वह भी औरत है जिसे इस देश के संविधान में पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त है। यह उसकी स्त्री-अस्मिता की लड़ाई है और वह इस लड़ाई में उससे कभी मात नहीं खाएगी। कल वह इस विषय पर उससे खुलकर बहस करेगी; यों भी कल इतवार की छुट्टी है। दोनों घर पर ही रहेंगे।

अगली सुबह जल्दी उठकर, गजेंद्र ने ख़ुद चाय बनाई और चाय का कप लेकर बालकनी में आ गया और अखबार पढ़ने बैठ गया जबकि अंजली की चाय केतली में ही छोड़ दी और उसे जगाकर यह भी नहीं कहा कि तुम्हारी चाय केतली में छोड़ दी है; निकालकर पी लेना, नहीं तो वह बासी हो जाएगी। चुनांचे, वह चाय की चुस्कियाँ लेते हुए मुश्किल से अख़बार के पहले पेज़ की हेडलाइनें ही पढ़ पाया था कि अंजली को उसकी आहट बालकनी में होने की मिल गई थी और वह किचेन से चाय का कप लिए उसके सामने आई और मचिया खींचकर बैठ गई। गजेंद्र को उसका इस तरह आकर उसके पास बैठना अच्छा नहीं लगा। अब वह समझ गया कि इतवार की छुट्टी दोनों के बीच तूं-तूं मैं-मैं करते हुए ही गुजरेगी। उसने अपना माथा पीटा, "आख़िर, हर हफ़्ते यह इतवार क्यों आ जाता है? ऑफ़िस में फाइलों में सिर खपा-खपाकर अच्छा-भला टाइम गुजर जाता है।"

फिर भी वह इस कोशिश में था कि वह ज़्यादा से ज़्यादा समय तक चुप्पी साधे रहे। ऐसा बच्चों के लिए भी बेहतर होगा; अन्यथा वे भी सबेरे-सबेरे शोरगुल से जग जाएंगे। यों भी, अंजली के साथ सास-बहू के टीवी सीरियल देखते हुए वे कोई बारह बजे रात तक तो जगते ही रहे होंगे। उसने मन ही मन कहा, 'इन बेहूदे टीवी सीरियलों ने हमारे समाज की औरतों को कितना बिगाड़ रखा है और इनकी वज़ह से ही बच्चों ने असमय परिपक्व होने की मुहिम छेड़ रखी है। कितना आश्चर्य है कि माँ-बाप उनके ऐसे विकास पर कोई एतराज़ करने के बजाय खुश होते हैं!'

दोनों के कप में से चाय खत्म होने और गजेंद्र द्वारा अख़बार की हेडलाइनें पढ़ने के बाद ख़ुद अंजली ने उसके कंधे पर हाथ रखा तो उसे थोड़ी जुगुप्सा-सी हुई। ताज़्ज़ुब इसलिए नहीं हुआ क्योंकि इतने सालों तक हर बात में पहल अंजली ही करती रही है। यहाँ तक कि दोस्ती को प्यार में बदलने की शुरुआत भी उसी ने की थी; सनातनी कुटुंब से संबंध रखने वाले गजेंद्र ने तो इस बारे में सोचा तक नहीं था। कोई बारह साल पहले, मेन मार्केट के 'गुड मॉर्निंग' रेस्तरॉ में एक-दूसरे के सामने बैठकर नाश्ता करते हुए अंजली ही अपना पैर उसके पैरों पर रखकर धीरे-धीरे सहलाने लगी थी। वह भली-भाँति अंजली की उस गतिविधि का मतलब समझ गया था और वह दोस्ताना जल्दी ही प्यार में तब्दील हो गया। उसके बाद, वे एक नए मोहल्ले में किराए के मकान में मकान-मालिक से स्वयं को पति-पत्नी बताकर एक-साथ रहने लगे। गलती तो गजेंद्र की भी थी; पर, जवानी के जोश में उसे भी यह सब अच्छा लगा। दो बच्चे भी पैदा हो गए। बाद में, उसमें अपराध-बोध पैदा हुआ था; लेकिन इस नाज़ायज़ संबंध से अंजली पर कोई फ़र्क पड़ने वाला नहीं था। जब इस विषय पर गजेंद्र कुछ कहना चाहता तो वह तपाक से बोल पड़ती, "गज्जू! दिल्ली के एनसीआर क्षेत्र में और ख़ास तौर से नोएडा में लिव इन रिलेशनशिप में रहने वालों की तादात कोई पचास हजार से कम क्या होगी? फिर, हम कोई अपराध तो कर नहीं रहे हैं; कायदे से अपने संबंध निभा रहे हैं। हमारे साथ सब कुछ वैसा ही हो रहा है, जैसाकि एक परिवार में होता है।"

जब अंजली के पेट में पहली बार गर्भ ठहर गया तो गजेंद्र मन ही मन बहुत खुश हुआ, 'चलो, अब अंजली ख़ुद ही मुझसे शादी करने के लिए ख़ुशामद करेगी और फिर वह किसी मंदिर में भगवान को साक्षी मानकर या कोर्ट में जाकर शादी कर लेंगे--बाक़ायदा घर से कुछ लोगों को बुलाकर और चंद दोस्तों की मौज़ूदगी में। पर, जब कई दिनों तक अंजली ने कुछ भी नहीं कहा तो एक शाम ऑफ़िस से लौटने के बाद ख़ुद गजेंद्र ने उससे कहा, "अंजली! क्या तुम्हें बिन-ब्याही माँ बनने का मलाल नहीं होगा?"

वह हँस पड़ी, "मैं तुम्हारे ही बच्चे की माँ बनने जा रही हूँ--क्या तुम्हें इससे खुशी नहीं हो रही है? बहरहाल, मुझे अनब्याही माँ बनने से कोई एतराज़ नहीं है।"

"मुझे तो एतराज़ है। ऐसा करो कि तुम अबोर्शन करा लो।" गजेंद्र ने एक तयशुदा प्रतिक्रिया की।

"क्या तुम किसी और के साथ घर बसाना चाहते हो? ठीक है, बसा लो। मुझे कोई एतराज़ नहीं है। लेकिन, मैं यह बच्चा नहीं गिराऊँगी।" उसने जिस बेफ़िक्री से बात की, उससे गजेंद्र तुनक उठा।

"लेकिन, यह सही कदम नहीं है।"

"मुझे अच्छी तरह पता है कि क्या सही कदम है और क्या गलत कदम। मैं कोई नाज़ायज़ काम नहीं कर रही हूँ। अमेरिका में तो ऐसे पैदा हुए बच्चों को नाज़ायज़ मानते ही नहीं जबकि कुआँरी माँएं उन्हें पैदा करके लावारिस छोड़ देती हैं। हम तो ऐसा कुछ भी करने नहीं जा रहे हैं।" उसने अपनी बात को सतर्क वज़नदार बनाने की भरसक कोशिश की।

उसके इस निश्चयात्मक उत्तर के बाद गजेंद्र मुँह बिचकाकर रह गया था और उसने बात को तिल का पहाड़ बनाने के बजाय, चुप रहना ही बेहतर समझा। रात को जब तक वे नींद के आग़ोश में नहीं चले गए, दोनों के बीच शीत-युद्ध चलता रहा जबकि पूरे दिन ज़रूरत की बातों और चीज़ों का आदान-प्रदान बच्चों के माध्यम से ही होता रहा।

छः महीने बाद।

ऐसा कभी-कभी होता था कि अंजली और गजेंद्र दोनों ने आफ़िस से लौटकर एक-साथ घर में कदम रखा हो। उस दिन गजेंद्र शाम के कोई पाँच बजे से ही ड्राइंग रूम में बैठा हुआ था। पहले जल्दी आकर अमूमन वह ख़ुद किचेन में चाय बनाता था और चाय का कप लेकर सोफ़े पर जम जाता था। सो, अभी वह चाय की एकाध चुस्कियाँ ही ले पाया था कि अंजली ने भी दरवाज़े पर दस्तक दिया। कृत्या ने दौड़कर दरवाज़ा खोला। अंजली आदतन जैसे ही बेटी का मुँह चूमकर अंदर दाख़िल हुई, गजेंद्र उसे देखते ही बोल उठा, "अरे, अभी तुम भी...?"

अंजली कुछ नाराज़गी के साथ मुस्करा उठी, "क्यों मैं पहले नहीं आ सकती?"

वह अपना बैग आलमारी में रखते हुए बाथरूम की ओर चलने को हुई।

"अरे, मेरे कहने का अर्थ ये था कि ऐसा को-इन्सीडेंस कभी-कभी ही होता है।" वह किंचित अपराध-बोध से बोल उठा।

जब अंजली वापस ड्राइंग रूम में आई तो उसे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, "अरे, वाह!"

क्योंकि इन्हीं चन्द मिनटों में गजेंद्र किचेन में जाकर उसके लिए भी एक कप चाय बना लाया था।

चाय पीते हुए गजेंद्र के चेहरे पर एक ख़ास किस्म की चमक थी--अंजली ने पूछ ही लिया, "गज्जू, क्या बात है; बहुत खुश लग रहे हो?"

"अरे हाँ, कल सन्डे को मैंने अपने कुछ दोस्तों को घर पर इनवाइट कर रखा है।" वह हकलाकर बोल रहा था जैसेकि उसकी हकलाने की आदत पैदाइशी हो।

"पर, किस लिए?" अंजली के माथे पर शिकन साफ़ नज़र आ रही थी।

"मैंने उनसे कह रखा है कि मैं एक मंदिर में शादी करने जा रहा हूँ। उनकी मौज़ूदगी में मंदिर में हम फेरे लेंगे और फिर उनके साथ शाम की पार्टी में हम सभी शामिल होंगे।" वह फिर हकलाने लगा।

"पर, तुम किससे शादी करने जा रहे हो?" अंजली ने बड़े पराएपन के साथ सवाल किया।

"अरे, तुम्हारे साथ, और किसके साथ?" आश्चर्य-मिश्रित भोलापन उसके शब्दों में रचा-बसा था।

"लेकिन, मैंने तो इसकी इज़ाज़त तुम्हें कभी नहीं दी।" उसकी आवाज़ सख़्त होती गई।

"अंजली, अब ऐसी फ़िज़ूल की बातें मत करो। ये मेरी इज़्ज़त का सवाल है। जब तुम्हें मेरे ही साथ रहना है तो यह औपचकारिकता भी पूरी कर लो। तुम्हें तुम्हारे बच्चों की क़सम! कल वो आ रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि हमारे अवैध संबंध का हर जगह भांडाफोड़ हो जाए और मैं शर्म से आत्महत्या कर लूँ।" वह लगभग गिड़गिड़ाने लगा।

"पर, मैंने तो तुमसे अलग होने का पक्का मन बना लिया है। पता नहीं, कैसे मैंने तुम्हारे जैसे दकियानूस आदमी के साथ रिश्ता बनाया। असल में मैं तुमसे उकता चुकी हूँ। अब ऐसे रिश्ते को चलो, रफ़ा-दफ़ा करते हैं। मैं कल ही अपने सारे सामान पैक करके यहाँ से चली जाती हूँ। कल के बाद हम-दोनों के रास्ते अलग-अलग। मुझे भी फिर तुम्हारी कोई शिक़ायत नहीं सुननी पड़ेगी।" उसने अपना भावशून्य चेहरा उसकी ओर मुखातिब रखा।

गजेंद्र के तो होश ही उड़ गए। उसने कभी सोचा भी नहीं था कि अंजली इस हद तक चली जाएगी। मालूम नहीं, वह शादी की बात पर इतनी खींझ क्यों जाती है? क्षण-भर को उसने कुछ सोचा फिर मेहराई आवाज़ में ख़ुशामद करते हुए बात बनाने लगा, "अरे, ये भी कोई मज़ाक का टाइम है, अंजली?"

"नहीं, ये कोई मज़ाक नहीं है। मैं पूरी तरह गंभीर हूँ। मैं तुम्हारी रोज़-रोज़ की चिक-चिकबाज़ी से ऊब चुकी हूँ--शादी, शादी, शादी..."

"पर, यह कैसे संभव है? आख़िर हमारे दो बच्चे भी हैं। क्या तुम्हें अपने बच्चों से कोई लगाव नहीं है?" वह भी एकदम से तनाव में आ गया।

"उन्हें तुम अपने पास ही रखना। मेरी उनमें कोई दिलचस्पी नहीं है। मैं एक आज़ाद औरत हूँ जो किसी प्रकार के बंधन में नहीं रहना चाहती। अलग होने का फ़ैसला मैंने बहुत सोच-समझ कर लिया है। मुझे ऐसा आदमी कतई पसंद नहीं है जो मुझसे मेरी आज़ादी छीनना चाहता हो।" उसके चेहरे पर रोब की लाली उतरा आई।

गजेंद्र को लगा कि अब उससे और ज़्यादा बहस कराना मुनासिब नहीं है। चलो, दोस्तों को कल बुलाने का कार्यक्रम किसी तरह टाल देते हैं और उन्हें किसी बहाने से टरका देते हैं। अब, अधिक ज़रूरी है--इस ज़िद्दी औरत को मनाना अन्यथा अलगाव के बाद मोहल्ले में ही हमारी थू-थू हो जाएगी। यूँ भी हमारे संबंधों पर परदा पड़ा हुआ है और समाज में किसी को भी नहीं पता है कि हम दोनों लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहे हैं।

गजेंद्र का हाव-भाव एकदम बदल-सा गया। वह सोफ़े पर से मुस्कराते हुए उठा और अंजली के कंधों को दोनों हाथों से पकड़ते हुए अपनी नज़रें उसके चेहरे पर टिका दी, "डार्लिंग, इतने दिनों से तो मैं भी केवल मजाक के मूड में ही शादी-वादी की बात करता रहा हूँ। दरअसल, मैं भी तुम्हारी ही लीक़ पर सोचता रहा हूँ। सच्चे प्रेम में शादी जैसी औपचारिकता की क्या ज़रूरत है? बस, तुम मेरे साथ सारी उम्र रहो, यही मेरी इच्छा है।"

"देखो, गज्जू! अभी तुम ऐसे बात कर रहे हो; कल तुम फिर वही पुराना राग अलापने लगोगे। बेहतर यही होगा कि हम अपनी विरोधी सोच के अनुसार अलग हो जाएं। जब हमारे-तुम्हारे विचार ही नहीं मिलते तो एक-साथ रहने की औपचारिकता क्यों निभाई जाए? मैं तो समझती हूँ कि तुम्हें अपने मुताबिक कोई अलग औरत तलाश कर लेनी चाहिए। मैं भी कुछ ऐसा ही करूंगी।"

"पर, इन बच्चों का क्या होगा?"

"देखो, यह ज़िम्मेदारी तुम्हारी होगी। मैं तुम्हारी लापरवाही की वज़ह से नौ-नौ माह तक इन बच्चों को ढोने की ज़िम्मेदारी पहले ही निभा चुकी हूँ। अब उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करने और अपने पैरों पर खड़ा करने की ज़िम्मेदारी तुम्हारी है। तुम हमेशा हिंदुस्तानी मर्द बनने का दम भरते रहे हो; अब वो दमखम कहँ चला गया? मैं तो अपना ट्रांसफ़र मुम्बई कराने जा रही हूँ। वहीं, फिर से एक नई ज़िंदगी की शुरुआत करूंगी।"

गजेंद्र के कुछ और कहने से पहले ही वह उठकर दूसरे कमरे में चली गई।

गजेंद्र के पैरों तले जमीन खिसती-सी जान पड़ी। उसे पक्का यक़ीन हो गया कि अभी तक अंजली उसका यूज़ कर रही थी और अब वह उसे एक डिस्पोज़बल सामान की तरह जितनी ज़ल्दी हो सके, उतनी ज़ल्दी निपटा देना चाहती है। हाँ, अब उसका शारीरिक जोश भी ठंडा पड़ रहा है जबकि अंजली का ज़िस्म ठंडा होने का नाम ही नहीं ले रहा है। वास्तव में, उसने बच्चों की परवरिश करने और गृहस्थी जमाने में ही अपनी सारी मर्दानगी लगा दी। जबकि अंजली परिवार में हर चीज़ को लप्पेबाजी में ही निपटाती रही है। वह तो ऐसी औरत रही है जिसने उसमें दमदार मर्द का समय रहते भरपूर फ़ायदा उठाया; बेशक, उसने उसे रखैल मर्द की तरह ही तो यूज़ किया है। गजेंद्र ने भी उसका साथ किचेन और पूजाघर से लेकर ऑफ़िस तथा घर से बाहर हर बात में दिया। वह मगज़मारी करते हुए पसीने-पसीने हो गया। अरे, वह तो इस समाज का ऐसा पहला कुपात्र है जिसे एक औरत का रखैल कहा जाना चाहिए। उसने अपना माथा जोर से पीटा। यदि वह चाहता तो अंजली के ढर्रे पर चलते हुए उसको एक रखैल की तरह ही रखता और ऑफ़िस में रोहिणी और सुलेखा के साथ गुलछर्रे उड़ाता--एकता कपूर की टी. वी. सीरियलों में लफ़ंगे मर्दों की भाँति। अंजली से रिश्ता बनाते समय उसने सोचा था कि औरत तो औरत होती है जिसे कभी भी, कहीं भी मोटीवेट करके अपने मन-मुताबिक ढाला जा सकता है। पर, क्या वह कभी उससे मोटीवेट हुई? कभी उसके निर्णयों पर अमल किया? कभी नहीं। हाँ, अंजली ने उसके साथ कोई वैचारिक तालमेल बैठाने की भी ज़हमत नहीं उठाई। दरअसल, वह तो ख़ुद उसके हाथों एक कठपुतली की तरह नाचता रहा। उसकी ज़िद के सामने उसने हर बात में हर ज़गह घुटने टेके। उसने क्या कभी औरत और मर्द के काम में भेद किया? कभी नहीं। उसने कोई शिकायत किए बिना किचेन में खाना बनाया, बच्चों की देख-रेख की और यहाँ तक कि महरी वाले काम भी किए। जबकि अंजली या तो ठाठ से बाज़ारों में खरीद-फ़रोख़्त करती रही, अपने यार-दोस्तों के साथ हिल स्टेशनों पर पिकनिक मनाने जाती रही और छुट्टियों के दिन बेड पर पड़े-पड़े बदन तोड़ती रही--बेशक, घर का सारा काम-धाम उसके ज़िम्मे छोड़कर।

सोचते-सोचते गजेंद्र का सिर फटने लगा। वह बेकाबू हो गया। वह सोफ़े से उठकर तेज कदमों से टहलने लगा। उस पल उसने एक निर्णय लिया और स्टडी रूम में पढ़ रहे बच्चों को अपने साथ लेकर बाहर निकल गया। उसने सीधे रोहिणी के घर की ओर अपनी कार का रुख किया। वहाँ पहुँचकर उसने बच्चों को रोहिणी के ड्राइंग रूम में बैठाया और रोहिणी से कहा, "मुझे तुमसे अपनी निजी ज़िंदगी के बाबत एक गंभीर विषय पर बात करनी है।" फिर वह उसके साथ सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर कमरे में चला गया। कोई डेढ़ घंटे बाद, वह नीचे आया और ड्राइंग रूम में कार्टून फिल्म देख रहे बच्चों को लेकर अपनी कार में आ गया। उसने रोहिणी से कहा, "तुम आगे की सीट पर बैठो।"

जब वह अपने फ्लैट में दाख़िल हुआ तो अंजली अपनी अटैची लगा रही थी। उसका दिमाग़ एकदम बदला-बदला सा लग रहा था। उस पल अंजली भी उसके इस बदले हुए हाव-भाव को देखकर हैरान थी। वह ड्राइंग रूम में रोहिणी को बैठाते हुए जोर से बोल उठा, "अंजली मैडम! आज शाम मैं रोहिणी के साथ मंदिर में शादी के फेरे लेने जा रहा हूँ। तुम भी उसमें इनवाइटेड हो। हाँ, कल शाम को मैं अपनी शादी की खुशी में एक शानदार पार्टी देने जा रहा हूँ। तुम आओगी तो बहुत अच्छा लगेगा।"

अंजली ने कभी सोचा भी नहीं था कि गजेंद्र इतने जोरदार तरीके से प्रतिक्रिया करेगा।

उसने रोहिणी को घूरकर देखा, "तुम्हें पता होना चाहिए कि जिस आदमी से तुम शादी करने जा रही हो, वह दो बच्चों का बाप भी है। क्या ऐसे आदमी के साथ तुम शादी करना चाहोगी?" उसकी स्त्री-सुलभ ईर्ष्या उसके शब्दों में साफ़ झलक रही थी।

रोहिणी मुस्करा उठी, "मुझे गजेंद्र ने तुम्हारे और तुम्हारे बच्चों के बारे में सब कुछ बता दिया है। मैं उनकी ऑफ़िस असिस्टेंट हूँ और उनकी भावनाओं को भलीभाँति जानती हूँ। उनके जैसा सुलझा हुआ व्यक्ति खोजने से भी नहीं मिलता। मैं तो इनके साथ रहकर ख़ुद को धन्य समझूंगी।"

"क्या तुम इन बच्चों को एक माँ का प्यार दे सकोगी?" अंजली आपे से बाहर हुई जा रही थी।

"अब इन बातों से तुम जैसी औरत का क्या लेना-देना है जिसके पास कोई जज़्बात ही नहीं है। तुम तो ख़ुद इन्हें छोड़कर जा रही हो। तुम न तो माँ बनने लायक हो, न पत्नी ही। दरअसल, तुममें औरत तो है ही नहीं। तुम क्या हो--यह ख़ुद से पूछ लो।"

पहली बार, ऐसा लगा कि जैसे अंजली निरुत्तर हो गई हो। उसने गजेंद्र को कातर नज़रों से देखा। गज़ेंद्र ने नज़रें फेरते हुए रोहिणी से कहा, "चलो, शिवाले चलते हैं। शादी के फेरे लेने से पहले हमें ढेर सारे काम करने हैं। हाँ, कल की पार्टी के लिए ख़ास बंदोबस्त भी करना है।"

जब गजेंद्र रोहिणी और अपने दोनों बच्चों को लेकर कार की ओर बढ़ रहा था तो अंजली बुदबुदाकर फ़फ़क पड़ी, "गजेंद्र, मैं तो सिर्फ़ मजाक कर रही थी।"

 

लेखक डॉ मनोज मोक्षेन्द्र - परिचय

लेखकीय नाम: डॉ. मनोज मोक्षेंद्र {वर्ष 2014 (अक्तूबर) से इस नाम से लिख रहा हूँ। इसके पूर्व 'डॉ. मनोज श्रीवास्तव' के नाम से लिखता रहा हूँ।}

वास्तविक नाम (जो अभिलेखों में है) : डॉ. मनोज श्रीवास्तव

पिता: श्री एल.पी. श्रीवास्तव,

माता: (स्वर्गीया) श्रीमती विद्या श्रीवास्तव

जन्म-स्थान: वाराणसी, (उ.प्र.)

शिक्षा: जौनपुर, बलिया और वाराणसी से (कतिपय अपरिहार्य कारणों से प्रारम्भिक शिक्षा से वंचित रहे) १) मिडिल हाई स्कूल--जौनपुर से २) हाई स्कूल, इंटर मीडिएट और स्नातक बलिया से ३) स्नातकोत्तर और पीएच.डी. (अंग्रेज़ी साहित्य में) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से; अनुवाद में डिप्लोमा केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो से

पीएच.डी. का विषय: यूजीन ओ' नील्स प्लेज: अ स्टडी इन दि ओरिएंटल स्ट्रेन

लिखी गईं पुस्तकें: 1-पगडंडियां (काव्य संग्रह), वर्ष 2000, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, न.दि., (हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा चुनी गई श्रेष्ठ पाण्डुलिपि); 2-अक्ल का फलसफा (व्यंग्य संग्रह), वर्ष 2004, साहित्य प्रकाशन, दिल्ली; 3-अपूर्णा, श्री सुरेंद्र अरोड़ा के संपादन में कहानी का संकलन, 2005; 4- युगकथा, श्री कालीचरण प्रेमी द्वारा संपादित संग्रह में कहानी का संकलन, 2006; चाहता हूँ पागल भीड़ (काव्य संग्रह), विद्याश्री पब्लिकेशंस, वाराणसी, वर्ष 2010, न.दि., (हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा चुनी गई श्रेष्ठ पाण्डुलिपि); 4-धर्मचक्र राजचक्र, (कहानी संग्रह), वर्ष 2008, नमन प्रकाशन, न.दि. ; 5-पगली का इन्कलाब (कहानी संग्रह), वर्ष 2009, पाण्डुलिपि प्रकाशन, न.दि.; 6. 7-एकांत में भीड़ से मुठभेड़ (काव्य संग्रह--प्रतिलिपि कॉम), 2014; अदमहा (नाटकों का संग्रह--ऑनलाइन गाथा, 2014); 8--मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में राजभाषा (राजभाषा हिंदी पर केंद्रित), शीघ्र प्रकाश्य; 9.-दूसरे अंग्रेज़ (उपन्यास), शीघ्र प्रकाश्य

--अंग्रेज़ी नाटक The Ripples of Ganga, ऑनलाइन गाथा, लखनऊ द्वारा प्रकाशित

--Poetry Along the Footpath अंग्रेज़ी कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य

--इन्टरनेट पर 'कविता कोश' में कविताओं और 'गद्य कोश' में कहानियों का प्रकाशन

--महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्याल, वर्धा, गुजरात की वेबसाइट 'हिंदी समय' में रचनाओं का संकलन

--सम्मान--'भगवतप्रसाद कथा सम्मान--2002' (प्रथम स्थान); 'रंग-अभियान रजत जयंती सम्मान--2012'; ब्लिट्ज़ द्वारा कई बार 'बेस्ट पोएट आफ़ दि वीक' घोषित; 'गगन स्वर' संस्था द्वारा 'ऋतुराज सम्मान-2014' राजभाषा संस्थान सम्मान; कर्नाटक हिंदी संस्था, बेलगाम-कर्णाटक द्वारा 'साहित्य-भूषण सम्मान'; भारतीय वांग्मय पीठ, कोलकाता द्वारा साहित्यशिरोमणि सारस्वत सम्मान (मानद उपाधि)

"नूतन प्रतिबिंब", राज्य सभा (भारतीय संसद) की पत्रिका के पूर्व संपादक

लोकप्रिय पत्रिका "वी-विटनेस" (वाराणसी) के विशेष परामर्शक, समूह संपादक और दिग्दर्शक

'मृगमरीचिका' नामक लघुकथा पर केंद्रित पत्रिका के सहायक संपादक

हिंदी चेतना, वागर्थ, वर्तमान साहित्य, समकालीन भारतीय साहित्य, भाषा, व्यंग्य यात्रा, उत्तर प्रदेश, आजकल, साहित्य अमृत, हिमप्रस्थ, लमही, विपाशा, गगनांचल, शोध दिशा, दि इंडियन लिटरेचर, अभिव्यंजना, मुहिम, कथा संसार, कुरुक्षेत्र, नंदन, बाल हंस, समाज कल्याण, दि इंडियन होराइजन्स, साप्ताहिक पॉयनियर, सहित्य समीक्षा, सरिता, मुक्ता, रचना संवाद, डेमिक्रेटिक वर्ल्ड, वी-विटनेस, जाह्नवी, जागृति, रंग अभियान, सहकार संचय, मृग मरीचिका, प्राइमरी शिक्षक, साहित्य जनमंच, अनुभूति-अभिव्यक्ति, अपनी माटी, सृजनगाथा, शब्द व्यंजना, अम्स्टेल-गंगा, शब्दव्यंजना, अनहदकृति, ब्लिट्ज़, राष्ट्रीय सहारा, आज, जनसत्ता, अमर उजाला, हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, दैनिक भास्कर, कुबेर टाइम्स आदि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं, वेब-पत्रिकाओं आदि में प्रचुरता से प्रकाशित

आवासीय पता:--सी-66, विद्या विहार, नई पंचवटी, जी.टी. रोड, (पवन सिनेमा के सामने), जिला: गाज़ियाबाद, उ०प्र०, भारत. सम्प्रति: भारतीय संसद में प्रथम श्रेणी के अधिकारी के पद पर कार्यरत

मोबाइल नं० 09910360249, 07827473040, 08802866625

इ-मेल पता: drmanojs5@gmail.com; wewitnesshindimag@gmail.com

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