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  • राकेश भ्रमर

गली नम्बर 3

मैं गली नं. तीन हूँ. दिल्ली के मोहल्लों की बहुत सारी गलियाँ नाम से नहीं संख्या से जानी जाती हैं. मैं पूर्वी दिल्ली के एक बड़े मोहल्ले लक्ष्मी नगर के एक बहुत छोटे उप-मोहल्ले कुन्दन-नगर की गली नं. 3 हूँ. यह मोहल्ला दो तरफ से बैंक एन्क्लेव से घिरा हुआ है. एक कोने में लवली पब्लिक स्कूल है तथा उसी से जुड़ा हुआ प्रियदर्शनी विहार है. चौथी तरफ गीता कालोनी है तथा उससे जुड़े अन्य मोहल्ले - जैसे खुरेजी खास ... यह मुस्लिम बहुल इलाका है.

अगर आप दिल्ली के रहने वाले हैं तथा यमुना पार की दिल्ली से वाकिफ़ हैं तो लक्ष्मी नगर मोहल्ले के बारे में अवश्य जानते होंगे. कुन्दन नगर से शायद न हों, क्योंकि लक्ष्मीनगर का यह उप-मोहल्ला इतना छोटा है कि लक्ष्मी नगर के लोग भी शायद ही इससे परिचित होंगे.

कुन्दननगर में केवल पाँच गलियाँ हैं, जो एक दूसरे के समानान्तर हैं. गलियाँ बहुत लंबी नहीं हैं तथा गली के एक छोर पर खड़े होकर आप उसका दूसरा छोर देख सकते हैं. चूँकि मैं गली नम्बर तीन हूँ, इसलिए बाकी गलियों या उप-मोहल्ले के बारे में बहुत कम जानती हूँ. बस इतना ही जानती हूँ, जितना लोग गली में चलते हुए बोलते-बतियाते हैं या घरों से बाहर आकर जब कुछ औरतें जुटती हैं तो उनसे हर घर के अंदर की बातें सुनने को मिलती हैं, वो बातें भी जो लोग अपने बेडरूम से बाहर ले जाना पसंद नहीं करते.

आज मैं आपको अपने दोनों तरफ बसे कुछ खास लोगों के बारे में बताऊँगी. वैसे भी कहानियाँ खास लोगों की ही होती हैं. उनके घर के अंदर हो रही घटनाओं और दुघर्टनाओं की जानकारी आप को दूँगी. यह जानकारियाँ दुःखद भी हो सकती हैं और सुखद भी. कुछ बातों से किसी के दिल को चोट पहुँच सकती है, तो किसी के आत्म-सम्मान को धक्का भी लग सकता है. किसी के घर की इज्जत नीलाम हो सकती है (वस्तुतः वह पहले ही नीलाम हो चुकी है, मैं तो केवल उसका वर्णन कर रही हूँ) तो किसी के घर में खुशियों की बौछार हो रही होगी. गली-मोहल्ले की बातें, यहाँ बसे घर-परिवार की बातें निःसन्देह मेरी सुनी-सुनाई हैं, जो गली के निठल्ले व्यक्तियों और चुगलखोर औरतों के माध्यम से मुझ तक पहुँची हैं. मैं किसी घटना-दुघर्टना की प्रत्यक्ष गवाह नहीं हूँ, इसीलिए पहले बता दिया. आप नोट कर लो; ताकि सनद रहे.

पहले गली में बड़ी रौनक हुआ करती थी. गली भी खुली-खुली होती थी. गर्मी के दिनों में लोग चारपाइयाँ डालकर गली में बैठते थे और आते जाते लोगों से रामजुहार हो जाया करती थी. बूढ़ी-बुजुर्ग औरतें तो दोपहर ढलते ही गली में बैठ जाती थीं. फिर सारे मोहल्ले की चर्चा उनकी ज़ुबान पर होती थी. अच्छी-बुरी सारी बातें उनके मुँह से निकलती थीं. कोई चटखारे लेती थीं, तो कोई च ...च ...च ...च करके अफसोस जताती थीं, तो कोई कुढ़कर कहती थीं, भगवान सब देखता है. जो जैसा करेगी, वैसा ही भरेगी. मसलन उनकी बातों के दायरे में स्त्रीवर्ग ही रहता था. कभी-कभार ही उनकी बातें मर्दाें के इर्द-गिर्द घूमती थीं. वो भी तब जब मर्द के साथ कोई औरत जुड़ी हो.

आजकल औरतें शाम को गली में निकलती तो हैं, पर वह घर के बाहर तभी बैठती हैं, जब बिजली चली जाती है. आज हालत यह है कि सबके घरों में कूलर और एसी लग गये हैं. लोग आरामतलब हो गए हैं. रात-दिन घर के अंदर घुसे रहते हैं. पैसा भी खूब सारा आ गया है लोगों के पास. आपस में मिलना-जुलना कम हो गया है. एक दूसरे के यहाँ कम ही जाते हैं. गली में मिल गये तो दुआ-सलाम हो जाती है, पर उसमें भी कोई आत्मीयता नहीं होती. बस इतना कि आपको जानते हैं, तो राम-राम कर ली, वरना आप अपना रास्ता नापिए.

ये लो, मैं भी कहाँ की ले बैठी. बात कर रही थी, गली के घर के लोगों की और मैं बाहर का भूगोल बताने लगी. तो किस्सा कोताह ये कि गली के अन्तिम छोर पर जो बाईं तरफ तीन मंज़िला इमारत है, वह है सूरजपाल सिंह की, जो सी. पी. डब्ल्यू. डी. में इंजीनियर हैं और अभी एक साल पहले ही तबादले पर मुंबई गये हैं. उनका सारा परिवार वहीं रहता है. परन्तु कुछ दिनों पहले उनकी बड़ी लड़की तरुणा यहाँ रहने के लिए आई है. सूरजपाल सिंह का मकान दुमंज़िला है. मकान के निचले हिस्से में एक किराएदार रहता था, अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ. किराएदार तीस वर्ष की वय का सुन्दर, हंसमुख और समझदार युवक था, अपनी पत्नी और बच्चों के साथ खुश. ऊपर वाली मंज़िल में सूरजपाल सिंह अपने परिवार के साथ रहते थे. जब मुंबई तबादला हुआ तो सामान लेकर नहीं गये. उन्हें उम्मीद थी कि जल्दी ही तबादला लेकर वापस दिल्ली आ जायेंगे. पहले अकेले ही गए थे, परिवार काफ़ी बाद में गया था. कुछ दिन मुंबई में रहने के बाद तरुणा वापस दिल्ली आ गई थी.

तरुणा अपने परिवार को छोड़कर दिल्ली में अकेले क्यों रहने आई थी, यह एक रहस्य है. उसने तो सबसे कह रखा था कि वह अपनी बी.ए. की पढ़ाई पूरी करने आई है. साथ ही सिलाई-कढ़ाई का कोर्स ज्वाइन कर रखा है. उसके यहाँ रहने से घर की देख भाल भी हो रही थी.

परन्तु सच यही नहीं था. गली की औरतों का कहना है कि तरुणा का अपने किराएदार के साथ चक्कर था. यह चक्कर सूरजपाल सिंह के मुंबई तबादले के पहले से चल रहा था. तभी तो तरुणा बहाना बनाकर वापस आ गई थी. वह अपने घर के ऊपरी हिस्से में अकेली थी. किराएदार की बीवी किसी स्कूल में टीचर थी. किराएदार प्राइवेट नौकरी करता था. इतने बड़े घर में साथ रहते-रहते कभी न कभी, किसी न किसी कोने में स्त्री-पुरुष की आंखें लड़ ही जाती हैं. आंखें लड़ने के लिए न तो किसी विशेष अवसर की आवश्यकता होती है, न किसी स्थान विशेष की. उम्र का भी इसमें कोई महत्व नहीं होता.

तो किस्सा को था ये कि तरुणा और किराएदार प्रेमेन्द्र के बीच प्रेम की गाड़ी बिना किसी अवरोध के तेजी से दौड़ने लगी. तरुणा के ऊपर कोई प्रतिबन्ध नहीं था और घर में कोई रोकने-टोकने वाला नहीं था. प्रेमेन्द्र आॅफिस से कोई बहाना बनाकर दिन में घर आ जाता था. जब उसके बच्चे और बीवी अपने-अपने स्कूल में होते थे, वह तरुणा को अपने आगोश में लिए किसी कमरे में पड़ा होता. बीवी और बच्चों के आने के पहले ही वह घर से निकल जाता.

प्रेम एक ऐसी क्रिया है, जिसकी जानकारी बाहर वालों को पहले होती है और घर वालों को बाद में. जब पूरी गली में चर्चा होने लगी, तब प्रेमेन्द्र की बीवी अनिता को पता चला कि उसका पति तरुणा के साथ क्या गुल खिला रहा था. घर में लड़ाई-झगड़ा, मार-पीट और मान-मनोबल का दौर शुरू हो गया. यह स्थितियाँ किसी भी घर-परिवार को तोड़ने के लिए पर्याप्त होती हैं. अनिता और प्रेमेन्द्र के बीच तनाव और दूरियाँ बढ़ती जा रही थीं. तमाम कोशिशों के बावजूद हालात सुधरने का नाम नहीं ले रहे थे. पति-पत्नी के बीच जितना ज्यादा झगड़ा होता, तरुणा और प्रेमेन्द्र के प्रेम की डोर उतना ही मजबूत होती जाती.

अनिता कई बार घर छोड़कर चली गई. परन्तु प्रेमेन्द्र नहीं माना. वह कुंआरी तरुणा के लिए दीवाना था. दो बच्चों की औरत की तुलना में वह ज्यादा जवान, दिलकश और सुन्दर थी. लोग तो प्रेमिका के लिए पत्नियों का कत्ल तक कर देते हैं; यहाँ तो प्रेमेन्द्र दोनों को साथ रखने के लिए तैयार था. परन्तु कोई बीवी पति की प्रेमिका को अपने जीवन में कभी नहीं बर्दाश्त कर सकती. प्रेमिका भले ही दूसरी बीवी बनकर रहना स्वीकार कर ले. तरुणा दूसरी बीवी बनने के लिए तैयार थी, परन्तु अनिता नहीं.

बात हद से ज्यादा बिगड़ती जा रही थी. बात खुलने के बाद तरुणा और प्रेमेन्द्र दोनों निरंकुश हो गये थे. वह दोनों अब बाहर घूमने भी जाने लगे थे. अनिता घर में बैठी कुढ़ती और बेवजह अपना गुस्सा बच्चों पर उतारती; परन्तु इसमें बच्चों का क्या दोष? वह तो यह तक नहीं जानते थे कि मम्मी-पापा में किस बात को लेकर रोज़ लड़ाई होती है. पापा मम्मी को पीटते हैं और मम्मी गुस्से में घर का सामान पटककर तोड़ती रहती हैं. दोनों के मुँह से ऐसी गालियाँ निकलती थीं, जो बच्चों ने कभी नहीं सुनी थी.

यह स्थिति किसी भी बच्चे के मानसिक और शारीरिक विकास के लिए स्वस्थ नहीं होती. अनिता इसे समझती थी, परन्तु प्रेमेन्द्र समझने के लिए तैयार नहीं था. वह तरुणा के प्यार में अन्धा हो चुका था. अपने परिवार के टूटने और बच्चों के भविष्य की बरबादी को लेकर कोई चिन्ता उसके मन में नहीं थी. वह प्रेम के सुनहरे ख्वाबों की दुनिया में विचरण कर रहा था.

बहुत सोच समझकर अनिता ने सूरजपाल सिंह का घर छोड़ने का इरादा किया, परन्तु प्रेमेन्द्र तैयार नहीं हुआ. किसी भी कीमत पर वह यह घर छोड़ने के लिए तैयार नहीं था. अनिता के बस में नहीं था कि वह सारा सामान लेकर किसी दूसरे घर चली जाती. गुस्से में एक दिन उसने छोटा-मोटा सामान उठाकर बाहर फेंक दिया. इस बात पर प्रेमेन्द्र ने अनिता की पिटाई कर दी. वह चीख-चीखकर रोने लगी. अगल-बगल के घरों की औरतें, बच्चे और मर्द सूरजपाल सिंह के घर के सामने खड़े हो गये थे. सभी लोग इस नाटक का कारण जानते थे, इसके बावजूद कोई उन दोनों को समझाने के लिए आगे नहीं आया. किसी के फटे में टांग अड़ाना वह उचित नहीं समझते थे. इस झगड़े का जो मूल सूत्र था, मुख्य पात्र ... तरुणा ... वह पहली मंज़िल के अपने कमरे में आराम से बैठकर टी.वी. देख रही थी. जब भी अनिता और प्रेमेन्द्र में लड़ाई होती, वह अपने कमरे में छिपकर बैठ जाती थी.

इस मौके पर गली की औरतें कुछ इस प्रकार बातें करतीं.

आय हाय, देखो तो इस करम जली को ... दूसरों के घर में आग लगाकर कैसे छिपकर बैठी है. मुंहझौंसी ... ऐसी मर्दखोर लड़कियों को आग में झोंक देना चाहिए.

हाँ, बहना, इसकी हिम्मत तो देखो, घर में रहने वाले किराएदार को ही खटिया पर गिरा लिया. यह न सोचा, शादी-शुदा मर्द है. कहाँ तक उसका साथ निभाएगा?

जवान छोकरी और बछेड़ी जब गर्म होती है, तो बहुत उत्पात मचाती हैं. ऐसी छोकरियों को मर्द और बछेड़ियों को सांड़ ताकते ही रहते हैं.

बूढ़े सांड के साथ क्यों फंसी? इतनी बड़ी दिल्ली में क्या उसे कोई जवान और कुंआरा लड़का न मिलता. मुंबई भी रहकर आई है. जवान छोकरों की कहाँ कमी है?

ये तो ठीक है, परन्तु बहना, बाहर का आदमी घर लाती तो सबको पता नहीं चलता. खुद बाहर जाती तो भी लोगों की चौकन्नी आंखों से कहाँ बच पाती. घर में मौका ही मौका था. दो मंज़िला घर ... सारा दिन सन्नाटा ... किसी भी कोने में लिपटे पड़े रहो. कौन देखने आता है?

कैसे माँ-बाप हैं, जवान बेटी को दिल्ली में अकेला छोड़ रखा है. कोई फ़िक्र नहीं कि लड़की यहाँ क्या कर रही हैं?

इसी ने माँ-बाप को पट्टी पढ़ा रखी होगी. माँ-बाप भी बेचारे क्या करें. बच्चों का भविष्य बनाने के लिए कितने पापड़ बेलते हैं. उनकी हर बात मानते हैं. वहीं बच्चे माँ-बाप को धोखा देकर अनाचार में लिप्त हो जाते हैं. बच्चे जब माँ-बाप के विश्वास को धोखा देने लगते हैं, तो माँ-बाप भी क्या कर सकते हैं. वे अपने बच्चों के पीछे-पीछे 24 घण्टे तो रह नहीं सकते.

बच्चों को पढ़ायें-लिखायें नहीं, उन्हें बाहर न भेजें, तब भी तो बात नहीं बनती. आज के ज़माने में हम बेटियों को घर में बन्द करके नहीं रख सकते. उन्हें ज़माने के साथ चलने के लिए उचित शिक्षा और मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है.

इसके बावजूद हमारी सन्तानें भटक जाती हैं.

हाँ, बाहर निकलने पर बच्चे सही और गलत दोनों बातें सीखते हैं.

अब तरुणा को ही लो, यहाँ पढ़ने के लिए आई है, परन्तु आज तक तो उसे स्कूल-काॅलेज जाते हुए नहीं देखा. घर से बाहर ही नहीं निकलती. उसी के साथ किसी कमरे में पड़ी रहती है.

अब तो यह गली घिना गई है. किसी के घर की बहू-बेटी ने ऐसा नहीं किया. सूरजपाल सिंह की जिस तरह पूरे मोहल्ले में पगड़ी उछली है, अब क्या मुँह दिखाकर वह इस घर में रहेगा. ऐसी बेटियों को तो गला दबाकर मार देना चाहिए.

लेकिन बहन, प्रेम के मामले में क्या सारी गलती लड़की की ही होती है. लड़का भी तो लड़की को अपने जाल में फंसाने के लिए तरह-तरह की चालें चलता है, मीठी बातों से लड़की को लुभाता है और झूठ के आडम्बर से लड़की को फुसलाने की कोशिश करता है.

छिछोरे लड़के ऐसा ही करते हैं, परन्तु प्रेमेन्द्र तो अच्छा भला, सीधा-सादा दिखता है. समझदार पति और एक अच्छे पिता की तरह अपने परिवार के साथ खुश था, लेकिन अब देखो, किस तरह अपनी बीवी को मारता-पीटता है. बच्चों के भविष्य की उसे कोई चिंता नहीं है. एक कुंआरी लड़की के लिए बसा-बसाया घर-परिवार बर्बाद किए दे रहा है.

बाद में पछताएगा. अभी पत्नी की कीमत उसे समझ में नहीं आ रही है, परन्तु तरुणा के घर वाले क्या एक शादी-शुदा मर्द के साथ अपनी बेटी ब्याह देंगे?

अरे कहीं कुछ नहीं होगा. यह सब जवानी का खेल है. जब दोनों का मन भर जाएगा, तब खुद ही एक दूसरे से अलग हो जाएँगे. अभी जितना चाहे खेल खेलें. एक दिन यहीं प्रेमेन्द्र पिटा हुआ मुँह लेकर पत्नी और बच्चों को मनाकर लाएगा ... देखना.

औरतों की बातें इसी तरह चलती रहतीं.

अनिता ने फोन पर तरुणा की माँ से बात की थी, परन्तु सारी बातें जानने के बाद भी वह दिल्ली नहीं आई थीं. सूरजपाल सिंह की तबियत ठीक नहीं थी, अतः उनका तुरन्त दिल्ली आना संभव नहीं था. अनिता ने कई लोगों से गुहार लगाई, हाथ-पैर जोड़े. आखिर में कुछ रिश्तेदारों ने हिम्मत दिखाई और अनिता का साथ देने का वायदा किया.

सबसे पहले अनिता ने शकरपुर थाने में रिपोर्ट लिखाई. इसमें उसके स्कूल के एक साथी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उसकी एस.एच.ओ. से जान-पहचान थी. पूरी वस्तुस्थिति से अवगत होने के बाद उसने एक दारोगा और दो सिपाहियों को अनिता के साथ उसके घर पर भेजा.

दारोगा ने घर पहुँच कर सबसे पहले प्रेमेन्द्र को चार झापड़ रसीद किए, चूतड़ में लात मारी और कान से पकड़ कर गली में खींच लाया, फिर उसकी कमर में डण्डा जमाते हुए कहा, साले, हरामी की औलाद! मजनू बनने चला है. बीवी और दो बच्चों को अनाथाश्रम भेजेगा? बता, साले ... शरीर में बड़ी ताकत है तेरे? अभी मार-मार भुर्ता बना दूँगा, फिर बैठने लायक नहीं रहेगा. चल, अभी जाकर एक ट्रक लेकर आ और सारा सामान लादकर दफा हो. दुबारा इस गली तो क्या मोहल्ले में नज़र आया तो तिहाड़ जेल में ही नज़र आएगा.

प्रेमेन्द्र की भद्द पिट गई. भरे मोहल्ले में, छोटे-बड़े सभी लोगों के बीच उसकी पुलिस ने पिटाई कर दी थी. वह अपना सा मुँह लेकर रह गया. किसी की आंख से आंख नहीं मिला पा रहा था. तुरन्त गया और एक ट्रक किराए पर ले आया.

पुलिस की धमकी और रिश्तेदारों के हस्तक्षेप से प्रेमेन्द्र अपने बीवी बच्चों के साथ सूरजपाल सिंह का मकान छोड़कर चला गया. कहाँ गया था, कुछ पता नहीं चला. बाद में तरुणा भी मुंबई चली गई. सूरजपाल सिंह अभी तक मुंबई में हैं. उनकी वापसी नहीं हुई है. उनके घर में अब कुछ कालेज के छात्र किराए पर रहते हैं.

परंतु इस सब में एक बात मेरी समझ में नहीं आई कि जवान, जहीन और कमसिन सुन्दर लड़कियाँ शादी-शुदा मर्दो के फेर में कैसे पड़ जाती हैं. आपके पास इसका उत्तर हो तो अवश्य बताइगा. गली की बूढ़ी-जवान औरतें भी इसी बात पर हैरान हैं.

स्त्रियों का चरित्र बड़ा विचित्र होता है. वह अपने ही चरित्र की बखिया उधेड़तीं रहती है. कौन लड़की किस लड़के के साथ घूमती-फिरती है, किस औरत की आंख किस मर्द से लड़ी है और कौन औरत अपने घर से ज्यादा पड़ोसी के घर में रहती है, यह सब बातें औरतों के मुख से ही पता चलती हैं, वरना पुरुष तो दाल-रोटी के चक्कर में घनचक्कर बना रहता है. उसका दिमाग धन-दौलत को दुगुना, तिगुना और चौगुना करने में लगा रहता है. कुछ समय बचता है, तो दारू-गोश्त की पार्टी में शामिल होकर या तो अपना गम गलत करता है या ज्यादा कमाई होने का जश्न मनाता है.

कमाई की बात चली है, तो गली में घुसते ही बाई तरफ जो पाँचवाँ मकान है, उसमें रहने वाले छाबड़ा साहब की कमाई का कोई ओर-छोर नहीं है. वह नगर निगम में क्लर्क थे. तनख्वाह के अलावा ऊपरी आमदनी भी बेहिसाब होती थी. बच्चों को अच्छे स्कूल में भर्ती करवाया था, परन्तु सभी दसवीं बारहवीं के बाद लुढ़क गये. कहते हैं, जिसका साथ सरस्वती नहीं देती, उसका साथ लक्ष्मी अवश्य देती है, अगर आदमी मेहनती से ज्यादा जुगाडू हो. मेहनती आदमी पसीना बहाता है और सारे दिन बदबू मारता रहता है. इसलिए लक्ष्मी उसके निकट नहीं आती. जो आदमी सुबह-शाम धूप अगरबत्ती जलाकर लक्ष्मी की पूजा करता है और शुभ लाभ के लिए अशुभ काम करता है, दूसरों के साथ छल-कपट करता है, धोखे से दूसरों का धन लूट लेता है, सरकारी काम में बेईमानी करता है, घटिया सामान लगाकर उत्तम गुणवत्ता वाले सामान की कीमत वसूल करता है, टूटी सड़कें और कमजोर पुल बनाता है, लक्ष्मी उसके घर में ऐशो-आराम से रहती है.

गोविन्द राम छाबड़ा के ऊपर लक्ष्मी की बहुत कृपा रही. नौकरी के दौरान ही उन्होंने अपने मकान का विस्तार तीन मंज़िल तक कर लिया था. उनके तीन बेटे थे. प्रत्येक बेटे को एक-एक मंज़िल दे रखी थी. खुद छोटे बेटे के साथ भूतल पर रहते थे. पेंशन पाते थे. बैंक में खासी जमा-पूंजी थी, जिसके लालच में तीनों बेटे उनकी सेवा लक्ष्मी माता से भी ज्यादा करते थे. गोविन्द राम ने तीनों बेटों को नौकरी में रहते हुए ही नगर निगम में बतौर ठेकेदार लगवा दिया था. अब उनके बेटे प्रथम श्रेणी के ठेकेदार थे और लोक निर्माण विभाग के बड़े-बड़े ठेके लेने लगे थे. ठेकेदार वे अवश्य प्रथम श्रेणी के थे, परन्तु कार्य तृतीय श्रेणी से भी घटिया करते थे. अधिकारियों को तगड़ा कमीशन देते थे, अतएव समय पर उनके बिलों का भुगतान हो जाता था. कई बार तो काम किए बिना ही भुगतान पारित हो जाता था. इस दुनिया में मूर्ख लोगों की भी कमी नहीं है. कुछ सिरफिरे होते हैं जो छाबड़ा जैसे कर्मशील कर्मचारियों और उनके बेटों जैसे धाकड़ ठेकेदारों की शिकायतें करते फिरते हैं. सतर्कता विभाग की जांच होती थी, परन्तु थोड़े दिनों बाद जांच बन्द हो जाती थी. वहाँ भी पैसे का खेल होता था. जहाँ पैसे का खेल होता है, वहाँ सरकारी काम या जनता की भलाई के बारे में कौन सोचता है. सभी अपनी-अपनी अंटी को कसने में लगे रहते हैं.

लक्ष्मी की कृपा से छाबड़ा के तीनों लड़कों ने विज्ञान विहार में अलग-अलग तीन कोठियाँ बनवा ली थीं. लक्ष्मीनगर के ज़िला केन्द्र में तीनों के शोरूम थे. सभी से अच्छा-खासा किराया आता था. ठेकेदारी से बेशुमार कमाई थी ही. कौन कहता है कि बेईमानी के पैसे से बरक्कत नहीं होती. छाबड़ा साहब का परिवार दिन-दूनी रात चौगुनी उन्नति कर रहा था. उनकी उन्नति में कहीं कोई बाधा नहीं थी. लक्ष्मी जी विष्णुजी की शैय्या से उठकर छाबड़ा के मकान के पूजावाले कमरे में विराजमान हो गयी थीं.

लक्ष्मी किस प्रकार मेहनती आदमी की छाया से दूर रहती हैं, इसका भी प्रत्यक्ष उदाहरण इसी गली के अन्तिम छोर के अन्तिम मकान में विद्यमान है. कुन्दननगर में जब प्लाॅट बिक रहे थे, तब गली नं. 3 में अधिकतर प्लाॅट यू.पी. के लोगों ने खरीदे थे, लेकिन मकान बनाने तक सारे मकान पंजाबियों के हाथ बिक गये. यू.पी. वालों के बारे में एक बात प्रसिद्व है कि वह लोग मिलकर कभी नहीं रह सकते. दूसरी तरफ पंजाबी एक दूसरे के साथ मिलकर आगे बढ़ते हैं.

यू.पी. वालों ने धीरे-धीरे अपने प्लाॅट बेचने शुरू कर दिये और अलग-अलग जाकर बस गये. गली नं. 3 पूरी तरह से पंजाबियों की हो गयी, जो जोड़-तोड़ में माहिर थे. बस गली के अन्तिम छोर वाला मकान बाकी रह गया. यह मकान रामपाल का था, जिसने अपनी गाढ़ी कमाई से एक मंज़िला मकान बनवा लिया था. उसके आगे बनाने की कभी हिम्मत नहीं पड़ी. हिम्मत पड़ती भी कैसे ... घर में इतने पैसे कभी नहीं आए कि दूसरी मंज़िल की एक ईंट भी रख सकता.

रामपाल ने गली के मोड़ पर एक जनरल स्टोर खोला था. दुकान छोटी थी, पर गुज़ारे लायक बच जाता था. घर की दाल-रोटी चल रही थी, लड़के बच्चे पढ़-लिख रहे थे; परन्तु इतनी कमाई नहीं हो रही थी कि रोज़ न सही तो महीने में एकाध बार छप्पन भोग बनते. लक्ष्मी मैया की पूजा रोज़ करता था, परन्तु लक्ष्मी भी उधर का ही रुख करती हैं, जिधर पहले से ही पैसे की चमक से आंखें चकाचौंध हो रही हों.

रामपाल की दुकानदारी तब ठप्प पड़ने लगी, जब बगल में एक बड़ा जनरल स्टोर खुल गया. स्टोर में सारा पैक्ड सामान मिलता था, भले ही वज़न में वह कम हो और कीमत में भी थोड़ा ज्यादा होता था, परन्तु आधुनिकता के मारे लोगों को जगमगाती चीज़ें अधिक लुभाती थीं. वज़न और कीमत से उनको कोई लेना-देना नहीं होता था. जेबों में नोट कुलबुलाते थे और समय की इतनी कमी उनके पास होती है कि आधा-सामान लेकर पूरे पैसे देकर जाते हैं.

रामपाल के लड़के बड़े हो रहे थे. घर का खर्चा बढ़ रहा था, परन्तु आमदनी में कोई खास इजाफा नहीं हो रहा था. बड़ा लड़का आठवीं के बाद घर बैठ गया था, तो बाप ने उसे दुकान पर बिठाना शुरू कर दिया. सौदा-सुलफ देने लायक हो गया तो दुकान के सामने बरामदे में एक तखत डालकर उस पर सब्जी की दुकान डाल दी. इस प्रकार घर में दो पैसे ज्यादा आने लगे; परन्तु इतने नहीं कि छाबड़ा के लड़कों की कमाई से होड़ ले सकें. रामपाल उनकी एक इकाई के बराबर भी नहीं था.

अब तो रामपाल बूढ़ा हो गया था, ज्यादा काम उससे होता नहीं था. सब्जी की दुकान पर उसका छोटा बेटा बैठने लगा था. दो दुकानों के बावजूद उसके घर की आर्थिक स्थिति ज्यों की त्यों बनी रही, परन्तु उसे किसी से कोई गिला नहीं था. वह उसी तरह सबसे हंसता-बोलता था, जैसे जवानी के दिनों में सबसे हंसता-बोलता था. छाबड़ा साहब के लड़कों की तरह उसके लड़कों के मुँह नहीं फूले और वह ऐंठकर भी नहीं चलते हैं. उनके घर हर साल नई गाड़ी भी नहीं आती है, परन्तु उनके घर में मिलने-जुलने वालों की कमी नहीं है. रिश्तों से वह मालामाल है. उसके दोनों बेटों की शादियाँ हो चुकी हैं. बहुएं आकर नाती-पोतों से घर को भरे दे रही हैं, परन्तु आमदनी के स्रोत सूखे जा रहे हैं.

गली के हर घर की एक अलग कहानी है. परन्तु सभी घरों की कहानियों में एक समानता है. प्यार-मोहब्बत, छल-कपट, सुख-दुख और धोखा-बेईमानी सबके घरों में होता है. यह मानव जीवन की कहानियाँ हैं. हर कहानी की अलग-अलग कहानी बयान करना संभव नहीं है. कहानी लंबी हो जाएगी और आप ऊबने लगेंगे. तीन मुख्य घरों की तीन मुख्य कहानियों को मैंने बयान कर दिया है. इससे आप को गली के स्वभाव का पता चल गया होगा. तीन नं. गली के साथ तीन बातें जुड़ी हों, तो तारतम्य बना रहता है, जोड़-घटाना भी आसान हो जाता है.

हाँ, चलते-चलते कुछ और बातें मैं गली के बारे में बता देती हूं.

पहले गली में लोग पैदल आते-जाते थे. बाहर से कोई आता तो भले ही किसी के घर के दरवाजे तक रिक्शा आ जाता था; वरना गली के लोग रिक्शा गली के मोड़ पर ही छोड़ देते थे. लेकिन अब परिस्थितियाँ बहुत बदल गई हैं. एक दो घरों को छोड़कर लगभग सभी घरों के सामने बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ खड़ी हैं. सुबह गाड़ी निकालना मुश्किल हो जाता है और शाम को उन्हें खड़ा करना. दरअसल गली संकरी है और गली के दोनों तरफ गाड़ियाँ खड़ी होने के कारण बीच में रास्ता बिलकुल नहीं बचता है. तब किसी न किसी गाड़ी को आगे-पीछे करवाना पड़ता है. तब गाड़ी आगे निकल पाती है. जिसको गाड़ी हटानी पड़ती है, वह मन ही मन भुनभुनाता है, गालियाँ भी देता होगा, परन्तु गली का मामला होने के कारण न चाहते हुए भी उसे यह कार्य करना पड़ता है; क्योंकि उसके लिए भी किसी और को भी कभी अपनी गाड़ी हटानी पड़ती है.

इतनी सारी गाड़ियाँ गली में आ जाने से मेरी दुर्गति होती रहती है. लोग जब पैदल चलते थे, तब उसके पदचाप की एकरस ध्वनि और उनकी बातों का सिलसिला आपस में मिलकर एक मधुर संगीत पैदा करते थे. मेरे कान धन्य हो जाते थे, परन्तु अब ... अब तो एक-एक टन की गाड़ियाँ मेरे सीने पर बेरहमी से घुर्र-घुर्र करके दौड़ती हैं, तो मेरे कराहने की आवाज गाड़ी की कर्कश ध्वनि में विलुप्त हो जाती है. पेट्रोल और डीजल के काले धुएं ने मेरी नज़र धुंधली कर दी है, फेफड़ों में काला कार्बन जमा हो गया है. रात-दिन खाँसती रहती हूँ. दिन ब-दिन मेरी देह टूटती जा रही है. हर साल मेरी मरहम-पट्टी होती है, परन्तु बेरहम लोगों को कोई रहम नहीं आता. वह रात-दिन मेरे सीने को भारी-भरकम गाड़ियों से रौंदते रहते हैं. पता नहीं कब तक जिऊँगी मैं? अब तो लगता है, मेरे दिन भी पूरे हो गए हैं. कितने सारे लोगों को भगवान के घर से आते और भगवान के घर जाते देख चुकी हूँ. कितनी ही बेटियां मेरे सामने इसी गली में खेल कूदकर बड़ी हुईं, स्कूल-कालेज जाकर शिक्षा प्राप्त की, गली के आवारा छोकरों के साथ नैन-मटक्का किया, अपने प्रेमियों के साथ गली के मोड़ या लवली पब्लिक स्कूल के मोड़ तक जाकर बाॅय-बाॅय किया और फिर एक दिन लक्ज़री कार में बैठकर अपने पिया के घर चली गईं. इसी प्रकार न जाने कितनी दुल्हनें इस गली में आईं, बच्चे पैदा किए, लाड़-प्यार से पाल-पोसकर उन्हें बड़ा किया. वही लड़के जवान होने के बाद अपनी बीवी के साथ किसी अन्य शहर में बस गये. अब तो ऐसे बुजुर्गों के घर भी कोई नहीं आता. सच में दुनिया बड़ी बेरहम हो गई है. रिश्तेदार तो रिश्तेदार, सगे लड़के भी बुढ़ापे में माँ-बाप का साथ छोड़ देते हैं.

बस एक मैं हूँ, जो न तो कहीं जाती हूँ, न यह कंक्रीट के मकान कहीं सरकते हैं. हमारा नाता अटूट है. अभी पिछले दिनों गली के लोगों ने नगर निगम में जाकर शिकायत दर्ज करवाई थी कि डामर की सड़क हर बरसात में टूट जाती है, अतः इसे पक्की सीमेन्ट की बना दिया जाए. नगर निगम ने मंजूरी दे दी है. अब अगली बरसात के बाद मैं भी कंक्रीट की हो जाऊँगी. कंक्रीट की हो जाने के बाद मैं भी इन मकानों की तरह मुर्दा हो जाऊँगी. फिर मेरे सीने में कोई हृदय नहीं धड़केगा, मेरे कानों में कोई आवाज नहीं पड़ेगी, मेरी पत्थर की आंखों से कोई दृश्य नहीं दिखाई पड़ेगा. मैं किसी के सुख-दुःख की भागीदार नहीं बन पाऊँगी.

शायद आज के हालातों को देखते हुए वह अच्छा ही हो. जिस तरह से आज लोग संवेदनहीन, स्वार्थी और हिंसक हो गये हैं और आपस में रिश्ते बेमानी हो गये हैं, वैसी हालत में मेरी जैसी बूढ़ी गली अपनी संवेदनाओं के सहारे कैसे ज़िन्दा रह पाएगी.

मेरा पत्थर हो जाना ही अच्छा है. पत्थर की मूर्तियां कम से कम पूजी तो जा सकती हैं.

 

प्रकाशन - सरिता, मुक्ता, गृहषोभा, भूभारती, मेरी सहेली, कंचनप्रभा, नवभारत टाइम्स, सारिका, दिनमान, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवनीत, हिन्दुस्तान, दै. जागरण, दै. भास्कर, नई दुनिया, सन्मार्ग, पांचजन्य, आजकल, पाखी, कथाक्रम, कथादेश, कादम्बिनी, हंस, साहित्य अमृत, माधुरी, जाह्नवी, राष्ट्रधर्म, नवभारत, अक्षरा, अमर उजाला, कलमकार,नवजीवन, जनसत्ता, अमर उजाला, तथा देष की अन्य जानी-मानी हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं में चार सौ से अधिक कहानियां, कविताएं, ग़ज़लें, लेख आदि प्रकाषित.

प्रसारण - दूरदर्शन लखनऊ तथा आकाशवाणी रामपुर, जबलपुर, शहडोल, वाराणसी और मुंबई से रचनाओं का प्रसारण एवं पाठ.

प्रकाषित कृतियां : 1. हवाओं के शहर में, जंगल बबूलों के, रेत का दरिया और शबनमी धूप (ग़ज़ल संग्रह),

2. उस गली में, डाल के पंछी, ओस में भीगी लड़की और काले सफेद रास्ते (उपन्यास),

3. अब और नहीं, सांप तथा अन्य कहानियां, प्रष्न अभी षेष है, आग बुझने तक, मरी हुई मछली, वह लड़की और उनका बेटा (कहानी संग्रह),

4. कुछ कांटे, कुछ मोती (निबंध-लेख संग्रह)

5. दीमक, सांप और बिच्छू (व्यंग्य संग्रह)

6. प्राची की ओर (संपादित ग़ज़ल संग्रह)

7. उसके आंसू (लघुकथा संग्रह)

8. अम्मा क्यों रोईं (कविता संग्रह)

साहित्यिक गतिविधियांः ‘प्राची’ नामक एक अव्यावसायिक साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक मासिक पत्रिका का संपादन.

सम्पर्क -rakeshbhramar@rediffmail.com

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