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  • मेनका शेरदिल

देव्यानी

पिछले दिनों की बात है. पूर्णिमा की शाम थी. समुद्र दूर खिसका हुआ, उतरा हुआ था. पानी तरंगहीन था. उधर क्षितिज पर डूबता सूरज अलग गज़ब ढा रहा था. एक पति-पत्नी का जोड़ा किनारे पर खड़े चुपचाप पानी के विस्तार पर सूरज की किरणों का खेल देख रहा था. आसपास और भी लोग थे, पर ये दो रेतीली ज़मीन पर दो शिलाओं समान खड़े थे. देखने वालों को लग रहा था कि पानी इन भव्य शिलाओं को देखने वास्ते दूर सरक गया है. और सूरज जिसे डूबना था, वो भी इसी वजह मुहुर्त भूल कर, अपनी गति हर बीतती घड़ी विलंब किये जा रहा है.

आसपास कुछ थे, जैसे, ठेलेवाले, वे इन्हें ज़रा बेहतर जानते थे. ये रोज़ाना जो टहलने आते थे. अक्सर – हर दूसरे-तीसरे दिन – आदमी रुककर फूल वाले से मोगरे का गजरा खरीदता था, ज़रा सूंघ कर बड़े प्रेम से और करीने से अपनी पत्नी की वेणी में गूंथता था. सिर साधे, हल्की मुस्कान धरे, पत्नी चुपचाप गजरा गुंथवाने देती थी. बाहरी आचरण से दोनों स्वभाव के बेहद शांत दिखते थे. फिर भी मन के गूढ़ प्रेम-भाव लेश संकेतों से निकल ही आते थे. नहीं, ठेलेवालों को मालुम था ये कठोर-दिल जन नहीं हैं, शिला नहीं, दो वट-वृक्ष से खड़े जीवन साथी हैं.

पच्चीस सालों से अंजलि और महेश पति-पत्नी थे. बीस साल पहले महेश ने इसी समुद्र के सामने खड़े हो कर अपनी विवाहिता पत्नी को अपनी हर साँस पर, अपने जीवन की हर वस्तु पर मन की गहराईयों से सम्पूर्ण अधिकार दिया था. जीवन के हर मोड़ पर, हर पल में, जीवन के अंत तक साथ रहने का वचन दिया था.

पूर्णिमा की उस शाम को अपनी जड़ों को रेत की गहराईयों में घुसेड़े ये दो शांत, वृक्ष-से जन जब समुद्र की शांति नापते दिख रहे थे, उस वक्त उन्हें पानी के सपाट सीने में दुनिया की आत्मा दिखाई दे रही थी. मन की उथल-पुथल बरसों पहले ही थम गई थी, आज तो ज्वारभाटा भी लुप्त था. ऐसे में अचानक महेश बोल पड़ा, लेकिन मैं भटका नहीं था, ये बात तुम समझती हो न?

अंजलि का हाथ महेश की बाँह में लड़ा था. उसने अपनी पकड़ मज़बूत की और घूम कर वापस लौटने लगी. वो भी चलने लगा. सड़क किनारे पहुँचे, तब जा कर वो बोली, हाँ, देव्यानी से तुम्हारा प्रेम सच्चा था. मैं समझती हूँ.

सड़क किनारे सब्ज़ी-वाले इकट्ठा थे. उन्ही से अंजलि मोल-भाव करने में लग गई थी. महेश से शायद रहा नहीं गया, क्योंकि सब्ज़ियाँ थैले में डाल कर जब वे दोनों घर की ओर बढ़ने लगे, वो बोला, उसके मरने के इतने सालों बाद भी वो प्रेम जीवित है ... तुम्हें क्लेश तो नहीं होता न?

वो चुप रही. घर की बिल्डिंग में घुस कर दोनो लिफ़्ट में थे और अंजलि महेश को ऐसे देख रही थी जैसे पूछने जा रही हो कि बैंगन की सब्ज़ी के साथ आज कौन सी दाल खाने का मन है. उसके चेहरे को देख कर उसे एहसास हुआ वो अब तक अपने सवाल के जवाब का इंतज़ार कर रहा है.

कितनी बार वही बात पूछोगे? कब तक? वो बोली. आखिर हमारा प्यार भी तो सच्चा है!

कुछ सोच कर, शायद माहौल बदलने के लिये वो मीठे से मुस्कुराई. उसका हाथ थाम लिया और धीमे स्वर में गुनगुनाने लगी, दिल एक मंदिर है ... और गुनगुनाती रही. घर के दरवाज़े पर पहुँच कर चाभी डाल रही थी. तब भी गुनगुना रही थी, प्यार कि जिसमें ... होती है पूजा ... ऐसे जैसे लोग भजन गुनगुनाते हैं. चौके में थैले से सब्ज़ी निकालती हुई, मग्न गाए चले जा रही थी, ये प्रीतम का घर है ...

***

साल 1988 में ...

मार्च का महीना था. दिल्ली की अतिविषम गर्मी अपने रंग दिखाने लगी थी. सुबह दस बजे की धूप में आँखें चौंधिया रही थी. सवेरे के करबराते पंछी पता नहीं कहाँ छिपे बैठे थे. चारों तरफ़ गर्मी का सन्नाटा था, बस कुछ मजदूरों की खटपट सुनाई दे रही थी. ज़रा फ़ासले पर कुछ वर्दी पहने क्षीण से दिखने वाले माली पार्कों में खुदाई-गड़हाई में लगे थे. बॉय्ज़ हॉस्टिल से आती सड़क के उस पड़ाव पर जहाँ अचानक चढ़ाई बढ़ जाती है वहीं एक लड़की खड़ी लगा कर साईकल के पैडल मार रही थी. सामने से एक लौंडा तेज़ी से साईकिल चलाता आ रहा था, जय संतोषी माता फ़िल्म का गीत गा रहा था. उसके लिये सड़क ढलाऊ थी, सर्र से निकल गया. वो सुधीर लड़की आधी चढ़ाई पार कर चुकी थी. दूर से तना हुआ धनुष लग रही थी. कोई पास आता तो उसे साँस चढ़े पर भी गुनगुनाते हुए सुन पाता. उस लौंडे का गीत अब इस लड़की ने चुरा लिया था. साईकिल छकड़ा सी थी, लग रहा था बॉय्ज़ हॉस्टिल से किसी की उठा लाई थी. चढ़ाई में साईकिल कुछ ज़्यादा खरर-खरर कर रही थी. लड़की हाँफ़ रही थी. कड़ी धूप में पैडल मारते हुए उसका चेहरा भंटा-सा लाल पड़ गया था. किंतु बड़ी दृढ़ता से वो इंस्टिट्यूट की बिल्डिंग की तरफ़ बढ़े जा रही थी. उल्लासमय थी, भक्त नहीं थी फिर भी संतोषी माता की स्तुति वाला वो गाना गाए जा रही थी.

मेन-बिल्डिंग पर पहुँच कर साईकिल गिराते हुए वो सीधे पास की उस बिल्डिंग में घुस गई जहाँ पर ऐम.टैक. के विद्यार्थी मिलते थे. कॉरिडोर में कुछ छात्र क्लास से निकले ही थे. लड़की दौड़ कर उन तक पहुँच गई. एक की पीठ पर ज़ोर से हाथ मारा. लड़के का शोल्डर-बैग ज़मीन पर गिर गया. वो बैग समेटता उस के पहले ही लड़की लपक कर उसकी पीठ पर चढ़ गई. ज़ोर से चिल्लाने लगी. आ गया ... लैटर आ गया ... मैं स्टैनफ़ोर्ड जा रही हूँ ... महेश मैं स्टैनफ़ोर्ड जा रही हूँ ... मुझे बधाई दो, महेश, मैं स्टैनफ़ोर्ड जा रही हूँ.

लड़की बंदरिया-सी उस लड़के की पीठ पर चढ़ी थी, लड़का झेंप रहा था, गोल घूम कर लड़की को नीचे लाने की कोशिश कर रहा था, और आसपास के छात्र, जो सब के सब लड़के ही थे, कोई हाथ उठा कर हंस रहा था, कोई लड़की को कौंग्रैट्स कह रहा था, सब रुक कर तमाशा देख रहे थे.

लड़की आखिर उसकी पीठ से उतर ही गई. तुम यहाँ थे? बोली. अभी तुम्हारे हास्टिल से आ रही हूँ. देखो कैसे पसीने में लथपथ हो गई हूँ.

लड़के ने अब तक अपना बैग उठा लिया था. बैग को झाड़ रहा था. साथ में बाहर निकलने का रास्ता पकड़ लिया था. लड़की भी उसके संग चलने लगी.

अच्छा, मैं अमेरिका जाने वाली हूँ, अब तुम ये झोला वगैरह लटकाना बंद कर दो. आज ही तुम्हारे लिये एक अच्छा सा बैक-पैक खरीदने जा रही हूँ. तुम्हे लेना पड़ेगा.

नहीं, लड़के ने बस इतना कहा, फिर चुप रहा. कदम तेज़ी से बढ़ाता रहा. शोल्डर-बैग उसकी माँ ने खुद सिल कर दिया था. बाहर उसका नाम भी काढ़ा था – महेश.

दोनो बाहर पहुँच चुके थे. लड़के का नहीं सुन कर लड़की ने उसका बैग छीन लिया. कहीं से पैन निकाल कर उस पर रगड़ कर लिखना शुरू कर दिया. लिख कर झोला वापस उसे पकड़ा दिया.

अरे, ये क्या किया, देव्यानी?

बैग पर माँ की की कढ़ाई के पहले देव्यानी ने अपना नाम लिख दिया था. देव्यानी का महेश, महेश देख रहा था.

क्या हुआ? डर लग रहा है कि माँ क्या कहेंगी? वो बोली.

नहीं तो ... फिर मुस्कुरा कर, मालुम है मेरी माँ तुम्हे देख कर कितना खुश होगी?

मैं इतनी सुंदर हूँ, इसलिये? उसकी नज़र काँच के बड़े दरवाज़े पर अपने प्रतिबिंब पर पड़ी. हौ! देखो तो धूप में दौड़ते-दौड़ते कैसी काली पड़ गई हूँ. मेरे साथ खड़े तुम एकदम फॉरिनर लग रहे हो.

उसने उसकी बात को अनसुना कर दिया. अपनी बोलता गया. मालुम है, तुम कुछ भी माँ से बोलोगी, वे समझ लेंगीं, लेकिन उनकी बोली, तुम कभी नहीं समझ पाओगी. हमारे यहाँ कोई डाँटता भी है न, तो लगता है प्यार जता रहा है. भाषा ही ऐसी है मैथिली. लेकिन, तुम कैसे समझोगी?

वाह जी वाह, ये क्या बात हुई. कैसे नहीं समझूँगी? सीख लूँगी न.

कब सीखोगी? दो साल से कह रही हो, सीख लूँगी.

अरे? अच्छा ये बताओ, तुम मेरी खबर से खुश क्यों नहीं हुए. देखो तो, तुम्हे सुनाने के लिये पसीने में कैसे तर-बतर हो गई हूँ, और तुम हो कि ...

वो उसे अनमनी नज़र से देखने लगा. कैसी खबर? मालुम तो था मिल जाएगा तुम्हे दाखिला?

देव्यानी न केवल पूरे बैच की सबसे बेहतरीन छात्र थी, प्रोफ़ेसरों और छात्रों की इष्ट, हर-दिल अज़ीज़ थी, ऐक्स्ट्रा-करिकुलर क्रियाकलापों में अग्रणी थी, और ये सब अगर काफ़ी नहीं था, देश के फ़ारमा टाईकून श्री बलराज साहनी की इकलौती संतान थी. देव्यानी चमकता सितारा थी. खुशखबरियाँ उसे ढूँढ कर खुद-ब-खुद उस तक पहुँच जाती थीं.

और तुम जो खुशी में पगला जाती हो, तो और सबों की खुशियाँ फीकी पड़ जाती हैं. बधाई में और सब क्या बोल रहे हैं, तुम्हारी चिल्ल-पौं में सुनने में ही नहीं आ पाता ... वो बोलता जा रहा था.

मैं भी कैसी बुद्धू हूँ! भूल ही गई तुम क्लास में हो ... सच कह रहे हो, खुशी में ऐसी पगला गई थी, सीधा तुम्हारे हॉस्टिल पहुँच गई. अब देखो पसीना-पसीना हो गई हूँ. वो भी अपनी ही कहे जा रही थी.

फिर आखिर बोली, तुम भी साथ चलो न.

नहीं, ये साल तुम्हारे साथ रहने के लिये, ऐम.टैक. किया, नौकरी नहीं की. मुझे अपने परिवार के बारे में भी तो सोचना है. सब उम्मीद लगाए बैठे हैं. अब तुम्हारा बी.टैक. खत्म हो गया, तुम जाओ, मैं नौकरी ढूँढूगा, अपने घर का हाल ठीक करूँगा, तुम्हारे लौटने का इंतज़ार करूँगा. लौट कर तुम्हें मिसेज़ महेश कुमार बनना है, याद है न?

हुह्ह! उस ने सिर झटका कर उस की कोहनी में अपना हाथ घुसा दिया. फिर उछल-उछल कर बढ़ने लगी. गुनगुनाने लगी, यहाँ-वहाँ जहाँ-तहाँ मत-पूछो कहाँ-कहाँ, है संतोषी माँ...

***

कुछ महीनों बाद देव्यानी अमेरिका चली गई. दोनों में रोज़ाना – निरंतर - आरपा-नैट से बातचीत होती रहती थी.

देव्यानी - क्या यार! इत्ती मेहनत करनी पड़ती है यहाँ. काम, काम, हमेशा काम! देखो, फिर एक मिडटर्म आ गया.

महेश – तुम! और मेहनत? तुम जैसे जीनियसों को कब से मेहनत करने की ज़रूरत पड़ गई?

देव्यानी - जीनियस? माई फ़ुट! इंडिया में अंधों में मैं एक कानी राजा थी, बस!यहाँ तो सब एक से बढ़कर एक धुरंधर हैं.

महेश – देव्यानी, सुनो, जीवन का लक्ष्य सबसे बेहतरीन होना तो नहीं है न, हमें तो एक अच्छा जीवन जीना अपना लक्ष्य बनाना है... तुम बेवजह स्ट्रैस में मत रहो ...बस सही-सही मेहनत करो...सर्वश्रेष्ठ होने के चंगुल में न पड़ो.

देव्यानी – क्या बात करते हो! बस चौबीस की हूँ ... अपने प्राईम में हूँ, यार. अब सर्वश्रेष्ठ होने की कोशिश नहीं करूँगी, तो कब करूँगी?

महेश – (चुप).

फिर एक दूसरी बार.

देव्यानी – तुम लड़के लोग भी न – हर जगह एक जैसे ही होते हो – परफ़ैक्ट देवदास! सीने में दिल नहीं, फुलका धरे घूमते हो, फुलका.

महेश – (चुप).

देव्यानी – मैंने तो सब से कह दिया, कि आई ऐम टेकन, ओके! सीधा अपनी रिंग-फ़िंगर दिखाती हूँ. अच्छा, तुम ने मुझे बिना रिंग पहनाए भेज दिया. अगली बार आऊँगी तो रिंग तैयार रखना.

महेश – ठीक है.

देव्यानी – वॉट ठीक है! तुम्हे तो कुछ भी अंदाज़ा नहीं है. क्या नहीं कर रही हूँ मैं खुद को तुम्हारे लिये बचाने के लिये?

महेश – (चुप).

देव्यानी – जो लड़ाई तुम्हे लड़नी चाहिये वो तुम्हारे लिये मैं लड़ रही हूँ.

आरपा-नैट से महेश साईन-ऑफ़ कर देता है.

जाड़ा आया. महेश का जॉब साथ ले कर आया. मुम्बई में महेश को अच्छी नौकरी मिल गई थी.

देव्यानी – तुम्हारे मॉंम-डैड तो बहुत खुश हो रहे होंगे.

महेश – हम धरतीवासियों के लिये जॉब पाना सरल काम नहीं है, राजकुमारी देव्यानी.

देव्यानी – ओ गॉड, महेश. क्या तुम फिर सरल-मुश्किल की मुठभेड़ में पड़ गए. ऑल दैट इज़ सो बोरिंग. फॉर मी, स्काई इज़ द लिमिट, लम्बी उड़ान मारो, छू पाओ तो आसमान छू लो. कितना कठिन, कितना आसान? हू थिंक्स अबाऊट ऑल दैट?

महेश – (चुप).

देव्यानी बातों के मूड में थी. लिखती गई - मालुम है, यहाँ आ कर पता चलता है कि इंडिया का आसमान, आसमान नहीं, केवल बाँस और रस्सी से सम्भला हुआ एक फड़फड़ाता शामियाना है. खुला आसमान तो यहाँ का है, न कोई खंभे, न रस्से, न खूंटी! एकदम खु-ला-! ऊँ-चा-! वहाँ! ऊपर! और देखना, मैं उसे छू कर दिखाऊँगी.

महेश – तुम लौट तो रही हो न, देव्यानी?

***

मई में सैमेस्टर खत्म हुआ. गर्मी की छुट्टियाँ शुरू हुईं. वो कुछ दिनों के लिये घर लौटी. मुम्बई में तीन दिवस बिताए. महेश ने उन तीनों दिनों की छुट्टी ली थी. वो मुम्बई पहली बार आ रही थी. उसे शहर दिखाने के चक्कर में उस ने खुद पहली बार मुम्बई देख डाला.

पहले दिन ताज में लंच किया. खाने भर वो चेहरे पर एक बेवकूफ़ सी मुस्कान चिपकाए बैठी रही. वो पूछता, क्या खाना पसंद नहीं आ रहा है? वो झपकी से निकल आती. कहती, आएम, सो-ओ- हैपी टु सी यू अगेन महेश! उस पहले दिन वो अधजगी अवस्था में ही रही. कुछ बातें नहीं हो पाईं.

दूसरे दिन कुछ शहर घूमा. वही, मरीन ड्राईव, गेटवे ऑफ़ इंडिया, वगैरह! उफ़्फ़, इतनी गर्मी होती है यहाँ! वो कह उठी.

लगता है अमरीका जा कर तुम दिल्ली की उमस भूल गई हो.

नहीं यार! उसने उसकी बाँह पर अपनी जकड़ को और कस दिया. दिल्ली में कुछ महीने ही गर्मी रहती है, सावन में बरसात होती है फिर जाड़ा आता है, ठंड हो जाती है. आदमी सभ्यता से जीवन एक कविता की तरह जीता है. और यहाँ –

वो पाव भाजी के लिये बनी लाइन के पास आ कर रुक गई और बोलती गई. मुम्बई के मौसम का सालाना चार्ट देखा है मैंने. यहाँ पर गर्मी होती है, फिर और गर्मी, फिर कहर की बारिश ... न बाबा न. ये जगह हमारे लिये सही नहीं है. चलो, पाव-भाजी खाते हैं. बहुत सुना है इसके बारे में... कहकर उस ने खुद ही बात खत्म कर दी. महेश का पाव-भाजी का बिल्कुल मन नहीं था. उसने तो दुबारा ताज जाने की योजना बनाई थी जो बेवक्त खाने से टल जाती. यही हुआ. पाव-भाजी की भी धज्जियाँ उड़ीं – अमेरिका के बरगर्ज़ की लत जो पड़ गई थी मैडम को. ताज का लंच भी धरा रह गया.

दोपहर का काफ़ी समय यहाँ-वहाँ घूम कर बिताया. अब यहाँ के गली-नुक्कड़ ही देखो. ज़रा मिलाओ इन्हें अपनी दिल्ली की गलियों से. यहाँ, सिर्फ़ रास्ते हैं, जो अपने हिसाब से मुड़ जाते हैं, साईड में नुक्कड़ बन जाते हैं. जब कि हमारी दिल्ली का हर रस्ता, हर किनारा, अपने में एक इतिहास छिपाए बैठा है. इतना कह कर उसके मुँह से एक आह और निकल आई.

शाम हुई. हाथों में हाथ दबाए, एक दूसरे के कंधे का सहारा लिये, दोनों समुद्र किनारे बैठ कर सूर्यास्त देखते रहे.

कितने प्रिय हैं ये पल! महेश सोच रहा था. काश कि ये खिंचते जाएँ! थमें रहें अनंत तक!

यों ही चुपचाप सूर्यास्त देखते-देखते आधा घंटा बीत गया. तब अचानक वह उठ गई. उफ़्फ़ इन लहरों की कुन-कुन ने ये कैसा सिर-दर्द दे दिया है? चलो घर चलते हैं.

रात, वो देर तक सो न सका. उसे तो लगा था कि ये तीन दिन सुंदर होंगे. वो देव्यानी को बहुत चाहता था. निस्संदेह, देव्यानी भी उसे बेहद चाहती थी. दोनों की मित्रता घनी थी, गूढ़ थी. फिर क्यों वह असंतोष महसूस कर रहा था?

सुबह वो आराम से उठा. देव्यानी को मुम्बई घुमाने की सब योजनाओं को उसने भुला दिया. देव्यानी ने भी उस बारे में कोई रुचि नहीं दिखलाई. उल्टे, पास कैफ़े में नाश्ता कर, उसी ने महेश का हाथ पकड़ा और बाहर घुमाने ले गई. चलते-चलते बात भी वही करने लगी.

हमारे चारों तरफ़ देखो तो कितना भ्रम बुदबुदा रहा है, महेश?

वो हैरान, ध्यान से उसकी बात सुनने लगा.

ये सही है कि हम एक दूसरे को चाहते है. लेकिन उतना सही ये भी तो है न कि हम अपने जीवन को अपनी मनचाही राह देना चाहते हैं. उसी को साकार करने में जुटे हुए हैं. इस दौरान हमारे साथ बहुत सारी बातें बीतेंगी, जिनके बारे में हम चाह कर भी कुछ कर नहीं पाएँगे. कई ऐसी बातें होंगी जिनके बारे में हमें लगेगा कि हम बहुत कुछ कर सकते हैं मगर असल में पाएँगे कि कुछ भी नहीं कर सकते हैं. फिर ऐसी बातें भी होंगी जिन्हें देख कर हम सोचेंगे कि ये हमारे बस के बाहर ही है, जबकि सच ये होगा कि उन को हम भली-भांति कर पाएँगे. मैं इस भ्रम के बारे में बात कर रही हूँ, महेश. हमारी परिस्थितियाँ इस वक्त अस्थिर हैं, भ्रम इसी लिये है. समय के साथ ये सुलझ जाएँगी. हमने एक दूसरे को तो पा लिया है, बस अब इतना विश्वास भर रखना है कि हमारे बनाए हुए रास्ते एक साथ मिल पाएँ.

महेश उसे भौचक्का-सा देखे जा रहा था. चलते-चलते वे एक मशहूर जौहरी की दुकान के सामने आ गए थे. बाहर खड़े चटक दरबान ने सलाम ठोंका, दुकान का बड़ा-सा दरवाज़ा खींचा और वे दोनों चमचमाते शोरूम में पहुँच गए. एक आकर्षक असिस्टैंट उन्हें अंगूठियाँ दिखाने में लग गई. उस पूरे दौरान महेश का मन देव्यानी के शब्दों में ही उलझा पड़ा था. वो हर अंगूठी को अन्यमनस्क आँखों से देख रहा था, हर अंगूठी के लिये हामी भर रहा था. आखिर में, देव्यानी ने ही अंगूठी चुनी. महेश ने अपना बटुआ निकाला और उसे थमा दिया. ये भी नहीं देखा कि कार्ड देव्यानी ने अपना ही इस्तेमाल किया.

दोनों ताज होटल में लंच का इंतज़ार कर रहे थे.

तब जा कर देव्यानी ने अंगूठियाँ निकाली – हिज़ और हर्ज़.

तब जा कर महेश कुछ कह पाया. हमारे रास्ते एक साथ तब ही तो मिल पाएँगे, देव्यानी, अगर हम उन्हें मिलाने की कोशिश करेंगे.

देव्यानी ने डिब्बी से हिज़ वाली अंगूठी निकाल ली थी. सोने के सहज बैंड में एक चमकदार काला पुखराज दमक रहा था. हाँ, सही कहा महेश, लेकिन हमारे रास्तों को मिल पाने के लिये पहले ये भी तो ज़रूरी है न कि वे बन पाएँ. और ये वक्त हम दोनों के लिये वो रास्ते बनाने का वक्त है. इतना कह कर देव्यानी ने उसकी उंगली में अंगूठी सरका दी. फ्रॉम दिस डे ऑनवर्ड्ज़ यू आर माईन!

महेश के मन में अब भी बड़ी उलझन थी. लेकिन वो क्या कहे, समझ नहीं पा रहा था. चुपचाप उसने देव्यानी की उंगली में अंगूठी डाल दी.

कितने भाग्यशाली हैं हम महेश जो एक दूसरे से मिल भी पाए. प्रकृति ने हम दोनों को छाँट कर एक दूसरे के लिये बनाया है. हमारे मनों के बीच में कोई दीवार ही नहीं है. सोचता एक है, महसूस दूसरा करता है. वो कह रही थी.

मगर, देव्यानी ...

वो कुछ कह पाता इसके पहले ही देव्यानी ने उसे टोक दिया. देखना, हमारे रास्ते ज़रूर मिलेंगे!

उस शाम को वो दिल्ली चली गई.

एक ताज होटल दिल्ली में भी है. आई थी देव्यानी यहाँ कई साल पहले, तब वो स्कूल में थी. पाकिस्तानी क्रिकेट टीम यहीं ठहरी हुई थी. देव्यानी अपनी सहेलियों के संग इमरान खान से मिलने आई थी. पता नहीं क्या सोच कर होटल रिसैप्शिननस्ट ने खिलाड़ी के कमरे का फ़ोन भी लगा दिया था. इमरान खान तो नहीं, लेकिन नीचे उतर कर उसका रूम-मेट, टीम का एक लीडिंग बल्लेबाज़ आया था.

सॉरी इम्मी नहीं है, क्या मेरा ऑटोग्राफ़ चलेगा? उसने लड़कियों से पूछा था.

लेकिन वे अब चहचहाती लड़कियाँ कहाँ रही थीं, वे तो मूर्तियाँ बन गई थीं. उस गठीले नौजवान खिलाड़ी की आकर्षक आँखों ने एक-एक को स्तब्ध कर दिया था.

सुना तो था ये देश बुत-परस्त है, मगर यहाँ आते ही खुद को बुत-बनी सुंदरियों से घिरा पाएगा, ऐसा उस बल्लेबाज़ ने नहीं सोचा था. वो बोलता गया, क्या करेंगी मेरे ऑटोग्राफ़ का? एक-एक कर हर बुत को देखता गया. कौन बताएगा मुझे?

लड़कियाँ एकसाथ कुछ भिनभिन-सा करने लगीं. किसी को कुछ समझ नहीं आ पाया. लेकिन उस जवाँ-मर्द ने हार नहीं मानी. शर्त रख दी. रिसैप्शन से एक राईटिंग-पैड उठाया और लड़कियों की ओर बढ़ा कर बोला, अच्छा, ऐसा करते हैं, जो मुझे अपना ऑटोग्राफ़ देगा, उसी को मैं अपना ऑटोग्राफ़ दूँगा. देखते ही देखते बुतों का समूह तितलियों के झमक्के में बदल गया था.

आज, कई सालों बाद उन तितलियों में से एक राजकुमारी बन गई थी. उसी ताज होटल की लॉबी के सामने वाले हॉल में देव्यानी के माता-पिता ने उसकी शान में दिल्ली के रईस-परिवारों को निमंत्रित किया था. एक तरह का स्वयंवर था ये, बस देव्यानी को इस बारे में मालुम न था. पिता, बलराज, आमंत्रित अतिथियों के बीच भौंरा बने घूम रहा था और ताजमहल-सी भव्य माँ, नीलकमल, देव्यानी को एक-एक कर के मेहमानों से परिचित करा रही थी. पार्टी खत्म होने तक उस के हाथ में चुने हुए अतिथियों की सूची थी. आगे के सात दिन देव्यानी की ब्रैकफ़ास्ट, लंच और डिनर डेट्स बुक्ड थीं.

अगले दिन तक देव्यानी को अपने माता-पिता के इरादों का भान हो गया. डिनर डेट में जाने से पहले वो झल्ला उठी, आप मेरी छुट्टियों का सारा मज़ा किरकिरा कर रही हैं, मम्मा. क्यों मिला रही हैं इन सब लड़कों से?

सामने लाल सोफ़े पर फूलमाला सी पड़ी नीलकमल अपनी बेटी को तैयार होते हुए देख रही थी. दो तनी उंगलियाँ वी-आकार बना रही थीं, बीच में सिगरेट जली हुई थी. नीलकमल ने सिगरेट का कश खींचा और धुआँ फूकते हुए बोली, आकर्षक लड़कों से मिल कर किसी का मज़ा किरकिरा कैसे हो सकता है? समझ नहीं आता.

डेट के लिये जाते हुए देव्यानी कहती गई, आपका कमिटमैंट रखने के लिये जा रही हूँ. लेकिन शादी तो मैं सही वक्त आने पर अपने दोस्त महेश से ही करूँगी.

देव्यानी के जाने के बाद नीलकमल सोफ़े पर कुछ देर वैसे ही पड़ी रही.

सिगरेट सुलगाती रही.

याद करने की कोशिश करती रही कि देव्यानी के किसी महेश नाम के दोस्त को वो जानती है कि नहीं.

***

मई 1990 ...

समय कैसे निकल गया, पता नहीं चल पाया. काम में महेश की खूब तरक्की हो रही थी. पाँव जम रहे थे. देव्यानी ग्रैजुएट कर रही थी. कई बड़ी अमरीकी कम्पनियों से बढ़िया जॉब-ऑफ़र भी थे. पिता बलराज चाहते थे वो लौट आए, आ कर बिज़नैस में उनका हाथ बटाए. वो चाहती थी कि अपनी पसंद की कम्पनी में काम का अनुभव प्राप्त करे.

तुम आ रहे हो न? उस ने महेश को कहा था. अपने माता-पिता से उसे मिलाने का ये अच्छा अवसर था.

लेकिन काम की नई ज़िम्मेवारियों ने महेश को बाँध लिया था. उसका आना मुश्किल था. मुम्बई में उस ने फ़्लैट खरीद लिया था, जो मिसेज़ कुमार के बिना सूना पड़ा था, उसने लिखा था. आखिर में उस ने ये बात भी कह डाली कि कुछ समय पहले बिहार में उस के माता-पिता से मिलने दिल्ली के कोई मिस्टर और मिसेज़ बलराज साहनी आए थे. कई महीने बीत गए, उनके यहाँ से कोई खबर नहीं आई. क्या इस मामले में उसे कोई जानकारी है?

देव्यानी को ये बात जान कर हैरानी हुई थी. बलराज का अमेरिका काफ़ी आना-जाना रहता था. इन दो सालों में हर दूसरे महीने बाप-बेटी मिल ही लेते थे. लेकिन बिहार में महेश के घर जाने का ज़िक्र एक बार भी नहीं उठा था. उस ने तय कर लिया कि अब कि बार वो इस बात को ज़रूर उठाएगी.

देव्यानी के माता-पिता ग्रैजुएशन सैरेमोनी के लिये आए थे. सैरेमोनी के बाद वो होटल में अपनी माँ के पलंग पर बैठी थी. उसके चारों तरफ़ तोहफ़ों का घेरा था ... कपड़े, परफ़्यूम, मेक-अप, गहने ... ये सब उसकी माँ उसके लिये लाई थी. वो हर चीज़ को खोल-खोल कर देख रही थी. तब उसकी माँ ने उसे अपने करीब खींचा और 3-4 फ़ोटो सामने कर दीं, जैसे ताश के पत्ते पकड़ा रही हो.

बता, इनमें से तुझे कौन सा लड़का पसंद है?

देव्यानी ने फ़ोटो बिना देखे ही गिरा दिये और माँ से पूछा, क्या आप महेश के घर गई थीं?

कुछ पल के लिये नीलकमल भौचक्की-सी रही. जब सम्भल पाई तो पलंग से उठ गई.

ओह, वो लोग, कहते हुए ड्रैसिंग-टेबल पर पहुँच गई.

एक-एक कर के बालों की चिमटियाँ खींचने लगी. एक-एक कर बालों की लटें जूड़े से निकल कर गिरने लगीं.

कितना दिलचस्प था उनके घर तक का सफ़र!

वो खीस निकाल कर हंसने लगी. देर तक हंसती रही.

अगर तेरे डैड को वहाँ से लौटने पर अस्पताल में भर्ती न होना पड़ता तो मैं उस सफ़र को मनोरंजक कहती. चल बताती हूँ हम वहाँ कैसे पहुँचे. पहले हमने पटना की फ़्लाईट पकड़ी. फिर ट्रेन से एक छोटे शहर में पहुँचे, फिर नाँव से नदी पार की, तब जा कर उनका गाँव आया, घर बैल-गाड़ी पर बैठ कर पहुँचे. घर क्या था, झोपड़-पट्टियाँ थीं चारों तरफ़. नीलकमल के लम्बे बाल उसके चेहरे के चारों तरफ़ फैले हुए थे.

तेरे डैड ने तेरी खातिर क्या नहीं किया? खबर भी है तुझे! गुस्से में नीलकमल थरथर काँप रही थी. दुर्गा माँ का प्रचण्ड रूप लग रही थी.

किसी ने आँगन में दो कुर्सियाँ डाल दीं. बाप सामने चारपाई पर बैठ गया. माँ किचन की खिड़की की सलाखों के पीछे से देखती रही. दरवाज़े पर, उस घर की हर खिड़की पर गाँव की भीड़ ऐसे जमा थी जैसे कि हम चिड़ियाघर के अजूबे हों. कैसे ऊटपटांग लोग थे?

तो, वो गाँव के माहौल से है! तो क्या हुआ, माँ? मैं महेश से शादी करूँगी, उसके घर से नहीं.

न, भूल जाओ उसे. हमारी और उनकी दुनिया का कोई मेल नहीं. ऐसे लोग सिर्फ़ फ़िल्मों में अच्छे लगते हैं.

माँ, महेश मेरा दोस्त है. उसके बारे में इस तरह तो न बोलिये.

बलराज, जो दूसरे कमरे में फ़ोन पर था और कुछ देर से माँ-बेटी की बातें सुन रहा था, तीर की तरह कमरे में घुस गया. घुसते ही बोला, एक बात कान खोल कर सुन लो देव्यानी. एक गंदी नाली का कीड़ा हमारे परिवार का हिस्सा नहीं बन सकता. आईंदा मैं उस लड़के का ज़िक्र न ही सुनूँ.

देव्यानी उठ खड़ी हुई. सीधा अपना बैग उठाया और जाने लगी.

कहाँ जा रही हो, पीछे से बलराज गरज कर बोला.

वो दरवाज़े की ओर बढ़ती गई. सिसकियाँ भरते हुए बोली, माँ ने कहा था वो झोपड़ी जैसी जगह में रहते हैं. नाली आपके मन में है, डैड.

दरवाज़े पर पहुँच कर वो रुकी और मुड़ कर अपने माँ और बाप को एक आखिरी बार देखा. उसकी आँखें भरी हुई थीं. आप उसे इस तरह कैसे पुकार सकते हैं डैड? आप तो उस से मिले ही नहीं हैं.

वो मेरा दामाद नहीं बन सकता. बलराज ने बस इतना ही कहना सही समझा.

मैं आपसे कल एयरपोर्ट में मिलूँगी, कह कर देव्यानी वहाँ से चली गई.

घर पहुँच कर उसने एक स्टार्ट-अप कम्पनी में नौकरी की अपनी स्वीकृति भेज दी. कम्पनी छोटी थी, काम में ज़िम्मेवारी अधिक और शुरुआत की तन्नख्वाह $100,000. अगले दिन एयरपोर्ट में माँ ने उसे कस कर सीने से लगा लिया, पिता ने कंधे पर हाथ डाल कर कहा, नए जॉब के लिये बधाई. मुझे तुम पर बेहद गर्व है, दिव्या, कह कर उसे आलिंगन में भींच लिया. भींचने में दबाव हल्का ही था, मगर ये खानदानी साहनी दबाव बरसों तक उसके संग रहा.

***

जॉब जॉइन करने के बाद वो खामोश रही. महीना बीत गया, तब जा कर महेश को लिखा.

महेश, जो खाई हमारे दोनों परिवारों के बीच है, उसे मैं तो अनदेखा कर सकती हूँ, लेकिन मेरे माता-पिता हर्गिज़ नहीं कर सकते हैं. इसलिये, मैं तुम से कोई वादा नहीं कर सकती हूँ. शायद मैं कभी शादी के बंधन में ही न बंधू. और अब मैं ये नया जॉब कर रही हूँ. याद है, पतंग बन कर खुले आसमान में उड़ने के सपने देखे थे हमने. बस वही सपना साकार होने वाला है, ऐसा लग रहा है. कितनी सारी सम्भावनाएँ दिख रही हैं. मैं खुद को कितनी बढ़िया स्थिति में पा रही हूँ. ऐसी स्थिति में मैं खुद को वापस लौटने को कैसे समझाऊँ? लौटूँ, तो कहाँ लौटूँ? एक बात और है. ये सच है, मैं तुम्हे बेहद चाहती हूँ. फिर भी, पिछले दिनों में कई बार खुद से पूछ चुकी हूँ कि क्या तुम्हें वाकई में इतना चाहती हूँ कि अपने माता-पिता से नाता ही तोड़ दूँ. जवाब टटोलती हूँ. हर बार ‘न’ ही पाती हूँ.

महेश योद्धा आदमी था. आसानी से हार मानने वालों में से नहीं था. हम दोनों मज़बूत इंसान हैं. इंतज़ार करेंगे. हमारे रास्ते समय साथ लाएगा. हमें अभी कुछ तय करने की आवश्यकता नहीं है. मैं तुम्हे बस ये याद दिलाना चाहता हूँ कि तुम्हारा कोई नाता मेरे साथ भी है. उसे तुम अनदेखा नहीं कर सकती हो. तुम जो चाहती हो करो. अपने सपने साकार करो. तुम जानती हो सबसे ज़्यादा खुशी मुझे ही मिलेगी. लेकिन जब तुम्हे लगे तुम लौटने के लिये तैयार हो, तो प्लीज़, लौटना मेरे पास ही. लौटने में चाहे तुम्हे साल लग जाए, दो साल, पाँच साल ... जितना समय लगे, मैं तुम्हारा इंतज़ार करूँगा.

उस बेबस प्रेम-पुर्ज़े को देव्यानी ने कुल एक बार पढ़ा था, खूब देर तक आँसू बहाए थे, फिर अपने फ़्लैट के हॉलवे में खड़ी कंसोल की ऊपरी दराज़ में पड़ी चाभियों, सिक्कों, बैटरियों और बिज़नैस कार्डों के बीच तहों में छोड़ दिया था. हर बार जब वो चाभी निकालने के लिये उस दराज़ को खींचती वो पुर्ज़ा हज़ारों चीखें चीखता, विनती करता, हाथ फैलाता, कई बार उसकी उंगलियाँ पुर्ज़े का स्पर्श भी करतीं, मगर मुख्यतः वो पुर्ज़ा दराज़ में पड़ी अन्य वस्तुओं की तरह भुलाया हुआ पड़ा रहता.

पहले दिन से ही उसे अपने जॉब से प्रेम हो गया था. अट्ठारह काम के लती वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की टीम थी. हरेक देर तक काम में लगा रहता था, कई अक्सर वहीं सो जाते जहाँ जगह मिलती - लाऊँज के सोफ़े में, ऑफ़िस-डैस्क पर. एक था जिसने अपने ऑफ़िस को ही घर बना लिया था. वहीं काम करता, एक चादर ला कर रखी थी, कभी मेज़पोश बना कर उस पर खाना खाता, कभी डैस्क पर लटका कर उसका पर्दा बना लेता. पर्दे के पीछे, डैस्क के नीचे सो जाता. इस तरह की जीवन-शैली अपनाने में देव्यानी को देर नहीं लगी. ट्रेन होने में समय नहीं लगा, तीन महीने में जब एक प्रौजैक्ट की ज़िम्मेवारी उस पर आ गई, सब की तरह वो भी काम में जुट गई.

ऊँचे दाँव के खेल में मेहनत भी ऊँची, बर्न-आऊट भी अपरिहार्य हो गए. हर शुक्रवार की शाम अपने साथ एक अक्रियाशीलता ले कर आती. तब इन परिश्रमकों के जीवन का एक अलग, अविवेचित रूप सामने आता ... शुक्रवार की शामें दिलचस्प बारों के राऊँड लगाने में, अलग तरह के पार्टी सीन में बीत जातीं, उन सब अड्डों में बीत जातीं जहाँ ये कुछ लम्बे पलों के लिये बेपरवाह, विचारहीन उपभोगों के अधीन हो जाते.

अनुसंधान के जिस मोहक संसार में देव्यानी ने छलांग लगा ली थी, उस में से तैर कर बाहर निकलने का ख्याल उसे सपनों में भी नहीं आता था. लेकिन वहाँ, मुम्बई में, महेश इंतज़ार कर रहा था. जवाब तो उसे देना था.

इतना तय है, महेश, मैं वो लड़की नहीं हूँ जो तुम्हारी पत्नी बन सके, उस ने आखिर लिख ही दिया. तुम्हारे लिये शादी में जीवन की पूर्ति है. मेरे लिये शादी केवल एक पेचीदा स्थिति है. बंधन है.

महेश ने उसे तुरंत जवाब दिया, देव्यानी, तुम अकेली नहीं रह सकती हो. इस दुनिया में कोई भी अकेला नहीं रह सकता है. हरेक को जीवन-साथी की ज़रूरत होती है. तुम अपने दिल से ही पूछो, वो तुम्हे सच बताएगा.

उस ने महेश को कोई जवाब नहीं भेजा.

न कोई पत्र लिखा, न ई-मेल, न ही फ़ोन पर बात की. उस के हर संदेश को ठुकराती रही. पूरे सात महीने यों बीते. फिर उसके पास महेश की शादी का निमंत्रण आया. महेश अपनी सहकर्मी, अंजलि, के साथ अपना जीवन बाँटने जा रहा था.

***

मार्च 1991 ...

उसके परम-प्रिय मित्र की शादी थी. क्या ऐसा हो सकता था कि वो न जाए? खुश थी वो. बड़ी आत्मीयता के साथ महेश उस से मिला था, उसे और अंजलि को एक दूसरे से परिचित कराया था.

लेकिन शादी की पूजा के दौरान जब पंडित ने दूल्हे और दुल्हन से कहा आपका और आपकी पत्नी का स्थान एक ही होगा. वो स्थान हृदय से बढ़कर नहीं होता है और जब पंडित के इन शब्दों के तुरंत बाद अंजलि ने जयमाला महेश को पहनाने को बढ़ाई, और महेश ने सिर झुका कर माला ग्रहण की और फिर दुल्हन के गले में माला डाली, उस वक्त देव्यानी को लगा जैसे दोनों ने अपने-अपने हृदय निकाल कर एक दूसरे के सीने में डाल दिये हैं. वो चौंक गई. उसका ध्यान महेश की उंगलियों पर गया. उस ने दो साल पहले उसकी दी हुई अंगूठी उतार दी थी. हाँ, शायद यही उचित था, लेकिन वो तो अब भी अपनी अंगूठी पहनी हुई थी.

शादी से लौटने पर वो इस बात से जूझती रही कि उसका परम-प्रिय मित्र अब उसका नहीं रहा. आने वाले दिन और हफ़्ते बड़ी मायूसी ले कर आए. उसे बिल्कुल उम्मीद नहीं थी कि वो इतना सूनापन महसूस करेगी. और इतने क्रोध से भर जाएगी.

काम उसका फिर भी उसी रफ़्तार से चलता रहा. कहीं किनारे से सूनापन, मायूसी और क्रोध चुपचाप उसे देखते रहे.

***

जम कर काम करने वालों को इनाम भी तगड़ा मिलता है. देव्यानी की कम्पनी का प्रौडक्ट साल के अंत तक तैयार हो चुका था, मुनाफ़ा दिखना शुरू हो गया था, कई भावी अधिग्राहक कम्पनियाँ ताक लगाए बैठी थीं. कम्पनी का सी.ई.ओ. तो महीनों से सबसे बेहतर सौदा तय करने में लगा था. सौदा ऐसा पटा, कम्पनी के बीसों कर्मचारी मालामाल हो कर अपने रास्ते निकल गए. रईस देव्यानी, अपने बुते पर और धनी हो गई. एक बड़ी कम्पनी में अनुसंधान की वी.पी. नियुक्त हुई, अलग वर्ग में उठने-बैठने लगी. अब उसके चारों तरफ़ लोग ज़्यादा नहीं थे. थे तो बस शेर और चीते. उसी में घुसड़-पुसड़ के अपने आप को वो घुसेड़ती गई. चार सालों में सात पद बदले. उसके नाम के चर्चे होने लगे, फ़ौर्ब्स लिस्ट में जगह बन गई, वैनिटी फ़ैयर के कवर से झाँकती दिखी. स्वर्णासन पर बैठी थी, कब सफलता आ कर उसके कदम चूमने लगी, उसे खुद पता नहीं चला.

तीव्र चढ़ाई चढ़ कर चोटी पर बैठे इंसान को बड़े आत्म-संयम की आवश्यकता होती है. गिरना आसान होता है और भयावना भी. आसपास के आकर्षण-विकर्षण बढ़ जाते हैं सो अलग. ये दुनिया का नियम है कि इंसान चोटी के जितना पास होता है, उतने ही प्रशंसक उसके पीछे लग जाते हैं. उसे निरंतर लुभाते हैं. आदमी वो तनहा होता है जिसके पास कुछ नहीं होता है, जो चोटी से दूर, सपाट समतल ज़मीन पर पड़ा होता है. देव्यानी जहाँ थी वहाँ दुनिया की तमाम खूबसूरती पलकें बिछाएँ बैठी थीं. उन्ही के मोह-कशिश में वह स्वेच्छया फंसी थी. पैसे और पावर की भरमार तो थी ही, अब चित्रकार, कवि, सुडौल मौडल, आकर्षक नौजवान, सुंदर लोग उसके इर्द-गिर्द मंडराते रहते थे. भरपूर उसका मन बहलाते. लेकिन खुशी उसे छू न पाती. उसे सूनेपन, मायूसी और क्रोध की पारदर्शी दीवारों ने जो घेर रखा था.

फिर एक दिन एक सुंदर ऐक्टर उसके जीवन में आया. औरों की तरह महीने-दो महीने टिका रहा, फिर चला गया. जाने के बाद देव्यानी का जीवन तबाह कर गया. वो बीमार था.

***

दिसम्बर 1995 ...

सामान सब बंध चुका था. टैक्सी का इंतज़ार था. वो मुम्बई जाने वाली थी.

सोफ़े पर लेटे हुए उसने बस कुछ देर के लिये आँखें मूंदी थीं. इतनी देर में गले के नासूर तुलतुलाने लगे. थूक निगलना कठिन हो गया. साँस लेने में दिक्कत होने लगी. वो हाँफ़ने लगी. जी मिचलाने लगा. फिर जो अचानक उठी तो कुछ देर तक हिचकियाँ आती रहीं. आँखें फटी रह गईं.

सामने खिड़की से उसे बाहर का नज़ारा दिख रहा था. खिली धूप थी, मगर तेज़ हवा चल रही थी. घर के सामने राक्षस-सा एक पेड़ था. पेड़ की डालों की पत्तियाँ बुरी तरह से थरथरा रही थीं. उस हवा में घर की दहलीज़ पर, खिड़की के फ़ौरन बाहर जो विंड-चाईम टंगी थी वो अंधा-धुंध बजे जा रही थी.

परसों जब वो दवाईयाँ लेने फ़ार्मेसी गई थी, वहीं पर वो विंड-चाईम खिलौने जैसी पड़ी हुई थी. पता नहीं क्या सोच कर खरीद लाई थी. अब हवा ने उस में जान डाल दी थी. शोर मचा कर रख दिया था, जी कुलबुला गया. जागने पर भी विंड-चाईम का दंगल उसे बरदाश्त नहीं हो पा रहा था. तुरंत उस पर लपक पड़ी. भूल गई कि बदन कब का टूट चुका था. दो महीने से बीमार जो थी. अब ज़मीन पर गिरी पड़ी थी. गुस्सा इतना भरा था कि हिम्मत फिर भी नहीं हारी. खदेड़ कर अपने को खिड़की तक ले आई, दोनों हाथों से चौखट को पकड़ कर खुद को ऊपर खींचा और खड़ी हो गई. फिर दम लगा कर खिड़की को खिसकाया और चौखट पर चढ़ गई. कुछ देर दीवार का सहारा लिये खड़ी रही, साँस खींची. फिर हाथ उठाए, विंड-चाईम उतारी. नीचे उतरी और ज़मीन पर बैठ कर एक-एक कर के चाईम की हर नली को मोड़ डाला. तब जा कर चैन आया.

कल शाम को डॉक्टर नन्दा ने उसे बुलाया था. अपनी क्लीनिक में नहीं, पास समुद्र-तट पर बुलाया था. डॉक्टर भी आखिरकार रहमदिल होते हैं. बात नाज़ुक थी, और बतानी बहुत ज़रूरी. इसीलिये, समय निकाल कर बीच पर बुलाया था.

दिस इज़ ए क्लासिक केस ऑफ़ रैपिड प्रोग्रैशन, देव्यानी.

कल का दिन आज की तरह सुनहरा नहीं था. आसमान पर अंधियारे बादल फैले हुए थे. बादलों के बीच छेदों से छन कर आती धूप की बौछार बीमार देव्यानी को बरछियों-सी चुभ रही थी. सागर भी आसमान वाला गहरा कम्बल चढ़ाए हुए था. लहरें ऊँची उछालें मार रही थीं, लगातार दहाड़ रही थीं, सागर का तमाम गुस्सा ला-ला कर किनारे डाल रही थीं. डॉक्टर नन्दा ने उसे कैसी मनहूस जगह बुलाया था?

आप मुझे सीधे-सीधे बताइये बात क्या है, घुमा फिरा कर कहने की कोई ज़रूरत नहीं है, डॉक्टर. खींझ कर उस ने डॉक्टर से कहा था.

हाँ, तुम सही कह रही हो. हिचकिचाते हुए डॉक्टर बोलीं. काश कि ये बीमारी हम ने पहले पहचान ली होती. लेकिन ... लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है. तुम ... तुम बहुत बीमार हो देव्यानी. तुम्हारा सी.डी.4 काऊंट 40 है, मॉर्बिडली लो. तुम्हारा शरीर कोई उपद्रवी रोग बरदाश्त नहीं कर सकता है. तुम्हे खुद को और रोगों से बचाना बहुत ज़रूरी है. तुम्हारा अपने परिवार वालों के साथ रहना ज़रूरी है. कोई देखभाल करने वाला हो... अकेले न रहो.

तेज़ हवाएँ डॉक्टर नन्दा के सुंदर चेहरे के चारों तरफ़ सजी काली, घुंघराली लटें इधर उधर उड़ा रही थीं. उन के गालों को आँसुओं ने भिगो दिया था. वो बोलती जा रही थीं, नए इलाज ... सागर की दहाड़ें उनके शब्द डूबो रही थीं. हिम्मत न हारना ... शब्दों के मायने नहीं रहे थे.

देव्यानी को पहले ही अपनी कम्पनी से नोटिस मिल चुका था. अब अपनी दुनिया चकनाचूर हो कर पैरों पर पड़ी दिख रही थी. वो डॉक्टर को फटी आँखों से देख रही थी. इतनी कमज़ोरी में लंबा सफ़र? कोई दवा?

तुम्हारा इम्यून सिस्टम पूरी तरह हार चुका है. अब कमज़ोरी बढ़ेगी ही.

कमज़ोरी की अवस्था में मनहूसियत वैसे ही महसूस कर रही थी. चारों तरफ़ अंधेरा फैलने लगा था. डॉक्टर नन्दा से मिलने के बाद वो घर लौट रही थी, आसपास का पड़ोस शांत पड़ा था. वहाँ रहने वाले सब परिवार वाले थे. घर के अंदर टीवी देख रहे थे या खाना खा रहे थे. लैम्प-पोस्ट भी कम थे. था तो बस अंधेरा, सन्नाटा, शरीर की कमज़ोरी और मन की घबराहट! सब एक साथ हावी हो गए.

मन की आवाज़ों को दबाने के लिये उसने रेडियो ऑन कर लिया. ज़ोर से रॉक बजने लगा. वो एक चौराहे पर रुकी और समझ नहीं पाई कि गाड़ी किस तरफ़ मोड़े. अपने ही घर का रास्ता भूल गई. गाड़ी बिना सोचे घुमा दी, चिंघारती हुई बढ़ गई.

स्टीरिंग पर उस के हाथ काँप रहे थे. डैम! ग़लत रास्ता पकड़ लिया था.

फिर मुड़ गई.

अंधेरे में हर रास्ता एक जैसा लगता है. ये वाला भी ग़लत निकला. अचानक उसने ब्रेक मार दिया और एक लंबा घुमाव ले कर रिवर्स करने लगी.

वापस चौराहे में पहुँचना ज़रूरी था. अब ही, इस मनहूस क्षेत्र से निकलना ज़रूरी था. तुरंत! फ़ौरन!

कुछ था जो उसे अच्छा नहीं लग रहा था. न! बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था.

इसलिये रिवर्स में पैडल ज़ोर से दबा दिया.

रुको! क्या कर रही हो?

उफ़, यही घड़ी मिली थी मन में बंद आवाज़ों को उठने को. उसने रेडियो का वॉल्यूम बढ़ा दिया.

क्या हो गया है तुम्हे? फिर वही आवाज़.

प्लीज़! वो अपने मन से मिन्नत करने लगी. अभी नहीं! अभी मुझे तंग न करो. झटके से गाड़ी को रिवर्स में बायीं ओर घुमा दिया.

ऐसा न करो! रुक जाओ! भगवान के नाम पर रुक जाओ! बचाओ!

देव्यानी के मन में दहशत फैल गई. दिल की धड़कन बेलगाम दौड़ने लगी. ये उसे क्या हो रहा था? क्यों ये सदाएँ तंग कर रही थीं? किसी भी तरह इस वीरान जगह से निकलना ज़रूरी था. और ये ... ये रेडियो भी न... झुक कर उसने रेडियो ऑफ़ कर दिया.

फ़— यू! गो टू हैएएएल!

ये कैसी आवाज़ें हैं भगवान! क्या मेरा अंत आ गया है?

उसने जो गाड़ी मोड़ी, ग़लत लेन में मोड़ी. ठीक सामने तेज़ी से एक ट्रक आ रहा था. हैडलाईट ने उसकी आँखें चकाचौंध कर दी थीं. उसे लगा अब उसका अंत आ गया है, अलविदा संसार ... लेकिन ट्रक सही वक्त पर रुक गया. वो बच गई.

देव्यानी ने ऐक्सलरेटर को आगे तक दबा दिया. निमिष भर में उसकी गाड़ी गायब हो गई.

***

रैज़िडैन्शियल नेबरहुड था. शांत था. शाम के सात बजे यहाँ अंधेरा हो चुका था. वहीं चौराहे पर सड़क के किनारे एक अधेड़ उम्र की औरत पैर पसारे बैठी थी. उसके दोनों हाथ सामने टंगे से थे. भावशून्य दृष्टि से वो अपने सामने का खाली विस्तार देख रही थी. सड़क के पार कुत्ते को रस्सी से पकड़े उसका पति हक्का-बक्का सा खड़ा था. जब होश संभाल पाया, सड़क पार करने लगा. पत्नी के पास पहुँच कर भर्राती आवाज़ में उस से पूछा कि वो ठीक तो है. आदमी भीतर तक हिल चुका था.

अभी कुछ पल ही बीते थे. पति-पत्नी रोज़ाना की तरह कुत्ते को टहलाने निकले थे जब हीट-सीकिंग मिसाईल की तरह रिवर्स में चलती एक गाड़ी आदमी की बीवी के पीछे ही पड़ गई थी. बीच सड़क में उसकी प्रिय बीवी हवा में हाथ उठाए, पागल औरत की तरह मिन्नतें कर रही थी, चीख रही थी, दौड़ रही थी. सड़क के किनारे आदमी खड़ा वो भयावना दृश्य देख रहा था. असहाय था. कुछ कर नहीं पा रहा था. फिर अपने आप गाड़ी चली गई. उसे ये सोचता छोड़ गई कि वो घटना वाकई में घटी थी या सिर्फ़ उसकी कुकल्पना थी.

तुमने देखा, हनी, कैसे वो कुत्तिया आज मेरा भर्ता बनाने को उतारू हो गई थी! पति-पत्नी फिर से चलने लगे. बीवी शिकायत करती रही. आदमी चुप ही रहा. उस धुंधले अंधियारे को देखता रहा जिसमें वो गाड़ी गायब हो गई थी.

***

घर पहुँचते ही देव्यानी ने पीछे दरवाज़ा बंद किया और अंदर घुसती चली गई. लिविंग रूम पीछे छोड़ कर हॉल में पहुँची, हॉल की दीवार पर लगे बड़े से शीशे पर नज़र पड़ी. उसके कदम रुक गए. आँखें फटी रह गईं. चेहरे की लकीरें एक एक करके उभरने लगीं. उसका चेहरा बुरी तरह से सिकुड़ गया. शीशा दिखा रहा था कि डॉक्टर से मिलने वो केवल अंतर्वस्त्र पहने गई थी. बाकी के कपड़े पहनना ही भूल गई थी. इतनी बेसुध हो गई थी? वो शीशे पर सिर टिका कर रोने लगी. आँखों से बहता आँसुओं का तार देर तक नहीं टूटा. जब आखिरकार वो सम्भली, उसे समझ आ गया था कि उसे करना क्या था. शीशे के सामने खड़ी वो धीरे-धीरे अपना निरीक्षण कर रही थी.

मांस नहीं है, शेष रही सब साँस अस्थिपंजर में!

नज़र खिसकते-खिसकते चेहरे पर पहुँची. वो मुस्कुरा दी.

महेश, मैं आ रही हूँ!

***

जनवरी 1996 ...

समुद्र-किनारे मुम्बई के सनक्रैस्ट अपार्टमेंट की चौदहवीं मंज़िल में उस ने 2-कमरों का फ़्लैट साल भर के लिये किराये पर लिया था. एक फ़ुल-टाईम नर्स और एक नौकरानी भी थी. उसे यहाँ आए एक महीना बीत गया था. वो सारा समय उस समुद्र को ही देखने में बिता रही थी जिसमें कुछ वर्ष पूर्व उस ने भरपूर बेरुखी दिखाई थी. बारिश का मौसम था. वर्षा निष्ठुरता से सागर की सपाट चादर को भेदे जा रही थी. तेज़ बुखार, पीड़ा और ठिठुरन में फंसी उसकी कुछ करने की इच्छा नहीं होती थी. सागर को पिटता देखती, कुछ सुकून मिलता. थक कर नज़र फेर लेती, और दूसरी खिड़की से बगल वाली इमारत दिखती. उस इमारत की चौदहवीं मंजिल के अपार्टमेंट की खिड़की को देखने लगती. कुछ देर देखती ही रहती. ये खिड़की महेश के अपार्टमेंट की थी. महेश कहाँ रहता है, ये बात उसे काफ़ी समय से मालूम थी. भाग्य से उसे ये अपार्टमेंट किराये पर मिल गया था. महीना बीत गया था, लेकिन अब तक उसने महेश से मिलने की कोशिश नहीं की थी.

एक दिन नर्स किसी काम से बाहर निकली थी. दोपहर थी, काम कम था, नौकरानी पड़ोस में किसी से बात कर रही थी. देव्यानी कुछ उठाने को कुर्सी से उठी और धड़ाम से गिर गई. उसे अपने पैरों का यों जवाब देना चौंका गया. वो बेतहाशा अपनी छड़ी ढूँढने लगी. लड़खड़ाती हुई फ़्लैट से बाहर निकल आई, लिफ़्ट में घुसी, बिल्डिंग से बाहर नपे कदम से सीधा महेश की बिल्डिंग की ओर बढ़ने लगी. हर कदम लेने से पहले गहरी साँस लेती. उसे ये रास्ता बिना गिरे पूरा करना था. बिल्डिंग पर पहुँच दरबान के कान में कहा, महेश कुमार ... और गिर पड़ी.

महेश उस वक्त घर पर नहीं था. उस की बीवी नीचे उतर कर आई. ज़मीन पर जीन्स पहने कोई अनजान कृशकाय लड़की बेहोश पड़ी थी. तुमने ग़लत नाम सुन लिया होगा, कह कर वो लौट गई. और पड़ोसी भी उतर कर आए, देखा, फिर उसे वहीं छोड़ कर चले गए. आखिर दरबान ने पुलिस को बुलाना ठीक समझा. महेश तब ही काम से लौटा था. लड़की को ज़मीन पर पड़ा देख दरबान से उस के बारे में पूछा.

घंटा भर पहले आई थी, आते ही लुढ़क कर गिर गई. मुझे लगा था इसने आपका नाम लिया है.

मेरा नाम? दरबान की बात सुन कर वो झुक कर देखने लगा और देव्यानी को देखते ही चीख उठा. तुरंत उसे उठाया, लिफ़्ट में ले गया.

महेश अपने दरवाज़े पर पहुँच गया था. गोद में देव्यानी थी, मुश्किल से जेब में चाभी ढूँढ रहा था, साथ में दरवाज़े की घंटी बजा रहा था. इधर देव्यानी इशारा कर रही थी, कराहते हुए कह रही थी, नहीं ... बस विदा लेने ... बहुत बीमार हूँ महेश.

अंदर, बीवी, अंजलि, के भौंचक्कित चेहरे को अनदेखा किये, अंजलि से सटे हुए बेटे और उन दोनों के भी पीछे खड़े उसके माँ-बाप जो अब उस के साथ मुम्बई में ही रहने लगे थे, इन सब को अनदेखा किये उसने देव्यानी को दीवान पर लिटाल दिया. फिर अपने एक डॉक्टर मित्र को फ़ोन लगाया और बोला, अपनी एक दोस्त को अस्पताल ला रहा हूँ, यार. बहुत खराब हाल लग रहा है. प्लीज़ मुझसे वहाँ मिलना.

फ़ोन कटा, तब माँ ने पूछा, कौन है ये?

वो अपनी बीवी, अंजलि, के पास गया, उसे कंधों से पकड़ा और उसकी आँखें खोजते हुए बोला, माँ, ये देव्यानी है.

क्या चाहती है? पिता चिल्ला उठे.

वो अब भी अंजलि को ही देख रहा था. जैसा की आपको दिख रहा है, ये ज्यादा कुछ नहीं चाह सकती.

यहाँ क्यों आई है? दिल्ली में इसके माँ-बाप हैं, उन्हें फ़ोन लगाओ. उन से कहो के आएँ और इसे ले जाएँ. पिता गुर्राते हुए बोले जा रहे थे. कोई पुराना गुबार था, निकाल रहे थे.

मैं ऐसा नहीं कर सकता. देव्यानी मुझ से मिलने आई है.

अब अंजलि बिना आवाज़ किये रोने लगी थी.

मैं इसे यहाँ हर्गिज़ नहीं रहने दे सकता, पिता फिर बोले.

ये यहाँ नहीं रहेगी, कह कर वो देव्यानी को ले कर चला गया.

उस शाम को महेश ने देव्यानी के फ़्लैट से अंजलि को फ़ोन कर के पूरा हाल बताया. उस के पास ज़्यादा समय नहीं है, अंजलि. मैं उसे नहीं छोड़ूँगा. तुम और मैं बाद में बात कर सकते हैं.

लेकिन, उसके माँ-बाप ... वो बोली.

तुम उन से बात करो. उन से कह दो कि उस की देखभाल मैं ही करूँगा.

अंजलि खुद कभी फ़्लैट में नहीं आई. रोज़ नौकर के हाथ महेश के लिये खाना भेजती थी. लेकिन वो वही खाता था जो देव्यानी के लिये तैयार होता था. घुटे हुए केले और दही, या दाल. कई बार बिना दूध वाली कम पत्ती की चाय और सूखी रोटी दोनों का खाना होता था.

मैं यहाँ तुम्हारा परिवार तोड़ने नहीं आई हूँ, वो उस से कहती थी.

मुझे मालूम है, तुम मुझ से मिलने आई हो.

अंजलि ने बलराज और नीलकमल को इत्तला कर दी थी. दोनों मुम्बई आ गए थे और रोज़ाना देव्यानी से मिलने आ जाते थे. शाम होती, देव्यानी को महेश को सौंप कर लौट जाते थे.

जब देव्यानी का बात करने का मन नहीं होता था, तब महेश उसके लिये किताबें पढ़ता था, लेटे रहने से बदन दुखने न लगे, जगह-जगह दबाता था. जब ज़्यादा सो चुकने के बाद फिर सोने को होती, उसे जगाए रखता. जब उसकी सोच उलझने लगती, उसे बातें याद दिलाता. जब वो सो रही होती, तब पानी में रुई डुबो कर उसके होंट नम रखता. पीड़ा में वो कराह रही होती, बेबस उसे देखता रहता.

तुम अपना समय बरबाद क्यों कर रहे हो, वो उस से कहती.

मैं जिस से प्यार करता हूँ उस के संग वक्त गुज़ार रहा हूँ.

मैं बस एक राख का ढेर हूँ. लाख फूको, आग नहीं जलेगी. उलटे धूल आँख में चली जाएगी. अंधा कर देगी.

आग? राख? अच्छा, वो गाना ... राख के ढेर में शोला है न चिंगारी है ... वो गाने लगा.

बीमार है. अकेले कैसे छोड़ सकता हूँ तुझे? वो बोला.

तुम्हारा मतलब, अकेले मरते कैसे छोड़ सकते हो? उसका हाथ एक सूखे पत्ते की तरह उसके पास पड़ा हुआ था. महेश ने उसे संभाल कर अपने दोनों हाथों के बीच कर लिया और बोला, मरना तो सब को है, मेरी जान.

रोज़ सवेरे नए खिले फूल के उत्साह के साथ वो जागती थी. छड़ी उठाती और लड़खड़ाती हुई ड्रॉईंग रूम में झाँक कर देखती कि हाँ, वो आज भी यहीं है.

एक दिन समुद्र किनारे टहलते हुए वो कह बैठी, मुझे बताओ, मैं कहाँ फिसली थी, महेश? लहरों की गरज ऊँची थी. वो दुबारा से, इस बार उस के कान में बोली, मेरी गलती क्या थी, महेश?

वो लहरों को देख रहा था. बोला, चीर कर उस पार पहुँचने के लिये सब कुछ भूल कर छलांग लगानी ही पड़ती है. तुमने वही तो किया था, देव्यानी. खुद में दोष मत ढूँढो.

उसे महेश से जवाब की तृप्ति नहीं मिली. चुप रही. वापस लौट रहे थे, तब आखिर बोली, लेकिन मैंने तुम्हे हमेशा चाहा है.

वो उसके कंधे को सहारा देते हुए चल रहा था. मेरे लिये बस यही मायने रखता है.

 

मेनका शेरदिल फ़िज़कल कैमिस्ट्री में पी.ऐच.डी हैं. यूरोप में कॉस्मैटिक कम्पनी लोरीयाल में रसायनज्ञ हैं. इंडौलजी के पुराने ग्रंथ पढ़ने का शौक रखती हैं. कई लघु कथाएँ लिखी हैं. हाल में एक उपन्यास पूरा किया है.

लेखिका से सम्पर्क के लिये ई-मेल-menkasherdil@yahoo.com

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