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  • जानार्दन

सींकिया की गड़िया बीरन

प्रिय पाठकों! यह पीढ़ियों से उलझे व शोषित समाज की कथा है. यह एक ऐसी काली मिट्टी की कहानी है जिसकी कोख में अमृत भी है और विष भी. यह एक ऐसी कहानी भी है, जहाँ अतीत वर्तमान का रास्ता रोके खड़ा है. कहानी के अटपटेपन के लिए खुद कहानी और उसका समाज दोषी है. लेखक को दोषी न माना जाए.

बाबा साहेब की प्रतिमा के सामने सौ डेढ़ सौ लोगों के बीच एक बारह-पंद्रह साल लड़की चीखे जा रही थी, उसका नाम सुजाता था. वह मुसईराम की बेटी थी.

"जब तक हमारा समाज पढ़ाई–लिखाई करके आगे नहीं आता तब तक यह सब ऐसे ही चलता रहेगा. बाबा साहेब को अगर आप लोग मानते हैं तो उनके बताए रास्ते पर चलिए. शिक्षित होइए, संगठित होइए और संघर्ष करिए. यही हम बहुजनों का नारा है. इसी से हमारा और हमारे भविष्य की मुश्किलें खत्म हो सकेंगी. संविधान हमारी माँ है. हम उसका सम्मान करते हैं.”

फिर हाथ हवा में लहराते हुए आवाज बुलंद की - "डॉ. भिमराव अंबेडकर!”

भीड़ नें हुंकार दिया - "अमर रहें! अमर रहें!”

- बाबा के विचार!

- अमल में, अमल में!

- हमारी आस्था!

- संविधान हमारा!

सभा विसर्जित हो गई.

***

उस रात बड़का टोला में हलचल मच गया. बड़का टोला के लोग समझ नहीं पा रहे थे कि छोटकान (आबादी के हिसाब से छोटी जाति के लोगों का पुरवा) के चार मुसहरों की मौत से चमार टोला का कैसा नाता?

रामआधार पटेल ने कहा भी - "चार मुसहरों को मार डाला गया और उनके मर्डर को प्रशासन तक सामान्य मौत मान कर चल रही है तो ये साले चमार-सियार किस नाते हल्ला मचा रहे हैं?”

बड़ईक सिंह का बेटा, लल्लन सिंह, जो पास के कॉलेज से बी.ए. कर रहा था ने कहा - "बहुजन होने के नाते दादा.”

"बहुजन! कैसा बहुजन? कहीं यह कांशीराम को बहुजन तो नहीं?”

"ठीक पकड़े हो दादा. यह सब उसी बहुजन के नाते हो रहा है. बड़का लोगन की बड़कई गई समझो. मुसहरों को मार कर अच्छा नहीं किया आप लोगों ने.”

रामअधार पटेल, जो खुद को सिंह ज्यादा और पटेल कम समझते थे, ने कहा - "कीड़े-मकोड़े और मुसहर-मक्कार का क्या जीना, क्या मरना? ना भी मारो तो तीस पैंतीस में चुचुक के अमहर हो जाते हैं. चालीस होते-होते तीखती सज जाती है. उनको मार कर बड़का टोला नें मुक्ति दे दिया. बाकी ई बात तुमको नही समझ में आने वाली. काहेसे कि तुमहू ढोर-चमार के संगत में रहने लगे हो. लेकिन परंपरा, मान-सम्मान के वास्ते हम बड़े बूजुर्ग को सोचना होता है. तुमको जितना प्रगतिशील बनना है बन लो. एक दिन ई विरासत तो तुम्ही सभन को सभालना है.” पूरे युवकों पर नजर फिराते हुए वाक्य समाप्त हुआ.

पहलवान सियाराम, जो पहलवानी के नाम पर चमर टोला और मुसहरान की औरतों को गंदा करते थे जनेऊ की डोरी को चुटकियाते हुए बोले - "पर ऊ लड़की कवन थी. साली बड़ी जोरदार चमाइन होगी अपने समय में. बड़ा केकिया रही थी. डागडर अंबेकर की जै कर रही थी. अगर समय रहते उसका इलाज नहीं किया गया तो बीमारी बढ़ जाएगी. दो शबद बाँच के साले चमार भी नेता बन कर दिन रात बहनजी बहनजी करते रहते हैं. चमारों, मुसहरो की बहने अभी कल तक घास काटती थीं. क्या सच में उनकर कोई बहन मुख्यमंत्री बन गई है?”

सरजू यादव बोले - "हाँ, बन भी गई है और उनकी सुनती भी है. ठाकुर, बाभन उसके पैर छूते हैं. और हाँ, उस लड़की का नाम सुजाता है.”

पहलवान खुश हो गए - "उसे कुजाता बनाते कितना समय लगेगा. रही बात मुख्यमंत्री की तो, अब तो कउनो चिंता नहीं. उसका विनाश तय है. नेता और राजा में यही तो अंतर है कि राजा के पीछे धर्म होता है, जो उसे बचा लेता है. पर नेता की हाजिरी जनता के बीच होती है. देखना वे गिरेगी धड़ाम से. समझो हमारा शासन फिर आने वाला है. बस तंदूर जलाए रखो. दो-चार ढोर मुसहर. चमार और ढहा दो. ताकि आत्मविश्वास बना रहे.”

लल्लन सिंह फिर बोला - "सियाराम काका अब जमाना लद चुका है. तुम्हारे धरम नीति की बातें इतिहास हो चुकी हैं. सुना नहीं लड़की किसकी जयकारा लगा रही थी? अब यही उनका विधि विधान है. उनका ही क्यों हम सभी उसी से गवर्न किए जाते हैं. आजाद भारत में चारो बरन के लोगन के लिए एक सा कानून! यह कैसा रामराज्य है?”

सियाराम पहलवान, रामआधार पटेल, छब्बी सिंह, दूद्धन सिंह, बब्बन सिंह, छबीले सिंह यादव और फेंकू पटेल जैसे गणमान्य ग्राम नागरिकों के साथ सभी उपनागरिकों का मुंह खुला का खुला रह गया, जैसे पेट में से सांस खींच लिया गया हो. सब एक साथ बोले - "ऑय, हम भी गवर्न हो रहे है? एक ही किताब से चमार, सियार दुसाध, मोर, मुसहर के साथ हम लोग भी सब गवर्न हो रहे हैं?”

छबिले सिंह बेवश होते हुए आँख बंद करके बुदबुदाए -

सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना.

बैठि बरासन कहहिं पुराना॥ सब नर कल्पित करहिं अचारा.

जाइ न बरनि अनीति अपारा॥

चौपाई समाप्त करते-करते उनकी आँखों के कोर नम हो गए. "तुलसीबाबा तो पहले ही कह चुके हैं.”

बड़का टोला में सियापा छा गया. लालटेन जलती रही. लोग बैठे हुए पता नहीं क्या सोच रहे थे. लगता था कि पीसाचों से उनकी परसी थाली छीन ली गई हो. लालटेन की रौशनी के घेरे के बाहर धना अंधेरा था. मानों मौत काला कफ़न ओढ़कर सोई हुई हो.

***

चमार टोला में मुसई राम जो जीवनाथपुर बिस्कुट फैक्टरी में मजूरी करते थे कबीरा गा रहे थे - "ढिमक,ढिमक, ढिम,ढिम … बोलो लहुरा माई की. जै! बोलो हरिहर बाबा की. जै! बोलो बनसत्ती माई की. जै!”

मुसई के साथ जनरव ने भी साथ दिया. मुसई कान में उगली डाल कर हुंकारे -

वो सबकी बिगड़ी बनाने वाले मालिक

सुनले हम फरियादियो की फरियाद

एक है बुलबुल बाकी सब सईयाद.

फिर सुर बदल दिया - "बोलो संत शिरोमणि रैदास की -”

जनरव – "जै!”

"बोलो संत शिरोमणी महात्मा कबीर की -”

जनरव – "जै!”

फिर कान में उंगली डालकर और मुंह ऊपर उठा कर आलाप लिया - "हाहा हो मोरे राम संतो जागत नींद न कीजै ...”

जनरव - "संतो जागत नींद न कीजै ...” "ढिमक, ढिमक, ढिम, ढिम …"

आधी रात तक गाना बजाना चलता रहा. शुकवा पश्चिम दिशा में जाने वाले थे. पहर रात बीत चुकी थी.

मुसई ने कहा - "मित्रों, रोज मिल-बैठ के गाया-बजाया करो. इससे ताकत और भरोसा दोनों मिलती है. सात सुरों से किसी भी जुलम की सामना किया जा सकता है.”

मुसहरों को भी साथ लाया गया. लिट्टी चोखा का कार्यक्रम रखा गया था. सोखई मुसहर धनिया कतरते बड़ा जुड़ाव महसूस कर रहे थे - "चमार भी हमारे - बंधु हैं.”

लुट्टन मुसहर ने हामी भरा - "और नहीं तो क्या. हाँलाकि मुसहरों के चार लोग मार डाले गए थे. फिर भी आज तीन दिन बाद वे जीवन की गति में शामिल हो चुके थे.”

मुसई राम नें भरोसा दिया था - "फैक्टरी में काम करो तो मेहनत के बाद मजूरी मिलेगी गाली नहीं. चार जन साथ रह लेंगे और सोलह पेटों में दोनों टाईम अन्न जा सकेगा.”

मुसहरों के लिए यह सिर्फ सूचना भर नही थी. जीवन जी पाने का आश्वासन भी था. मार-पीट, गाली-गलौज और औरतों का अस्मत तो हर दिन लुट लिया जाता. पर अब तो जान से भी मारे जाने की नौबत आ गई थी जिससे न केवल मुसहरान, बल्कि चमराम, धोबियान, नऊवान और दुसाध टोला के लोग सकते में थे. रात तो रात दिन में भी खटका बना रहता. तीन-चार पुरनियाँ औरतों को धड़कन की बीमारी हो गई थी. दुसाध टोला की शेमरी दादी और मुसहरान की फेरी बो दादी कत्ल के बाद धड़कन की बिमारी में दो दिन बाद चल बसीं. इसलिए आज मुसई के आने से सभी टोला के लोग साथ आए और आगे की रणनीति पर विचार किए. निर्गुण से सभी मानुषों को बल मिला और रमई की बात से भरोसा. और जीने के लिए चाहिए ही क्या.

मुन्नर दादा ठीक ही कहते हैं - "बड़े भरोसे का आदमी है मुसई. मानुख के रूप में देवता. उसके आने से जमीन गुलजार हो जाती है. वह आदमी और अनाज में भेद जानता है. नही तो पढ़ा लिखा और पईसे वाला मानुख, आदमी को भी अनाज समझने लग जाता है.”

मुसई गाँव का दूसरा सबसे पढ़ा-लिखा, अर्थात आठवीं पास था. पहले नंबर पर उसकी बेटी सुजाता थी, जो कहानी में के प्रारंभ में बाबा साहेब की प्रतीमा के सामने उनकी जयकारा लगा रही थी.

यह कहानी चिकनी मिट्टी की तरह बहुत चिकनी और उलझी हुई है. वह काली मिट्टी जिसमें अन्न से ज्यादा विषधर साँप जन्मते हैं. जल्दी हाथ ही नही आएगी. लेखक होने के नाते मेरी दिक्कत जो है सो है. दिक्कतें आपकी की कुछ कम नही. देखिए आगे क्या होता है.

दरअसल कहानी इंसानों की न होकर है भी मिट्टी की ही. नवलखा इलाके की जमीन पूरे ब्लॉक में धान, केला और ईंख की पैदावार के लिए मशहूर है. पड़ोसी जिले में इसे धान का मिठका कटोरा (धान का मीठा कटोरा) कहा जाता है, क्योंकि धान के अतिरिक्त यहाँ ईख व केला भी पैदा होते हैं. पूरे इलाके में जमीन वाले खेतीहर किसानों में अहीर (जो अपने को यदुवंशीय मानने लगे हैं), पटेल (जो स्वयं को छत्रपति शिवाजी के वंशज मानते हैं), नूनीया (इनका मानना है कि ये लोग पृथ्वीराज चौहान के औलाद हैं) और दो-चार घर बाभन और ठाकुर शामिल हैं. अल्पसंख्यक होने के बाद भी यही बाभन या ठाकुर सबका नेतृत्व करता है, ये लोग स्वयं को किंग-मेकर कहते हैं. इस प्रकार इन्हीं चार फिसदी लोगों के पास पूरे इलाके की पंचानवे फीसदी जमीन है. इसीलिए ये लोग किसान नही राजा हैं. इलाके के पंचानबे फीसदी आबादी में चमार, दुसाध, मुसहर, मुसलमान, धोबी और नाऊ के छोटे-छोटे मोहल्ले शामिल हैं. इनके पास जमीन नहीं है. इसलिए ये लोग इंसान नहीं गुलाम हैं. धोबी और नाऊ में दोनो धरम के लोग हैं. अर्थात हिंदू और मुसलमान धोबी और नाऊ. हाँलाकि हिंदू मूसलमान से कोई फर्क नही पड़ता. यहां धोबी चाहे हिंदू हो या मुसलमान उसे लोगों का कपड़ा ही साफ करना है. वैसे ही नाऊ भी. उसे लोगों के बाल ही बनाना होता है और उसकी जोरू को लोगों के घर में काम करना पड़ता है. इसी क्रम में वह बड़कान लोगन की मुहग्गी भी हो जाती है. दबे स्वर में उसके बच्चों को लोग सतमेझरा (सात लोगों का संतान) कहते हैं. फलस्वरुप मुसहरान और चमरान में उसे इज्जत की नजर से देखा जाता है. तो यह था गाँव का खाका. इसी खाके में आदम के साँचे यहाँ की मिट्टी से ढलकर अंत में इसी मिट्टी में मिल जाते हैं.

दरअसल यह कहानी तीन कहानियों से मिलकर बनी है पर तीनों अलग न होकर एक ही कहानी का हिस्सा हैं. पहली का जिक्र इस प्रकार है -

केले के गाँछ, साँप और मुसहर उर्फ चमार सियार, ढोर ढरकार तो मरते ही रहते हैं

नवलखा इलाके के ग्राम हुज्जतपुर में रामअधार सिंह पटेल खेतिहर किसान थे. तीन सौ एकड़ जमीन के मालिक होने से एक तरह से गाँव-जवार के अघोषित राजा थे. हर साल पचास एकड़ केला लगाते थे. जिसके लिए आसपास के गावों से मजूर बुलाए जाते. पर केले के गांछ में से केले निकालना रिस्की काम था. तरावट के कारण पेड़ के तनों के आसपास विषधर सॉप पाए जाते थे. पिछले साल अहिरूपुर के पाँच मजूरों की मौत खेत में काम करते हुए विषधरों के डसने के कारण हो गई. जिसमें तीन मुसहर, एक धोबी और एक चमार था.

लोग बताते हैं कि चार सालों में तीस मौत इसी तरह विषधरों के डसने से हो गई.

बौड़म सोखा कहते हैं - 'जेतना लोग पैदा नही हो रहे वोसे जादा मर जा रहे हैं. मतारी-बाप पाल-पोस के बड़ा कइलन कि बचवा बुढारी के सहारा होई. त ईहां दू बूंद बिख से विषधर जीवन लीला छीन के गाँव को शमशान बना रहे हैं. आदमी कपड़ा जुटाए कि कफ्फन?'

गाँव-जवार के मजूरों में बड़कान किसानों और विषधरों का बड़ा भय था.

बौड़म सोखा कहते हैं - 'ई केला नाही विषधर के खेती हव. पता नाही विषधरों की बिख केला के फलों में कैसे नहीं जाता?'

पास ही बैठे शोभई काका ने परतोख देते हुए समाधान दिया - 'चंदन विष ब्यापत नहीं, लपटत रहत भुजंग.'

पर रामहरख ने दूसरी बात कही - "कक्का विष त फल में लग जाला. बाकी एकर असर दूसरे किसम से होला. जाके शहर में देखा. शहरात के मानुख पूरा-पूरा विषधर होलन सब. खाली सकल छोड़ के अंदर से पूरा-पूरा भरल विषधर. सवन जिंदा मानुख के हड्डी तक डकार जालन."

द्वितीय विश्व युद्ध की तरह गाँव-जवार छोटकान लोगों का एक भी घर ऐसा नहीं बचा था जो विषधरों या बड़कान किसान लोगन से हताहत न हुआ हो.

मिसाल के तौर पर हेमलता एक ऐसी ही औरत थी जो उन्नीस वर्ष में विधवा हो गई. तीन साल पहले उसका मरद रमेश दुसाध केले के गाछ में काम करने गया तो जिंदा नहीं निकला. जब बाहर निकाला गया तो मुंह से गाज निकल रहा था. पाँच मिनट में प्राण भी निकल गया. गाँव-जवार के कहने सुनने से उसे उम्र में चार साल छोटे देवर के साथ बैठा (विवाह) दिया गया. बेचारा देवर अर्थात महेश जानता भी नहीं था कि कल की भाभी आज मेहर कैसे हो गई. इधर हेमलता की दिक्कत दूसरी थी. जिसे बेटा की तरह देखा उसकी जोरू कैसे बन जाए. लिहाजा दोनों साथ-साथ थे पर पति-पत्नि कम भाई–बहन ज्यादा लगते. महेश के लिए हेमलता आज भी भाभी थी.

उसी हेमलता ने जब महेश को अपनी बहिन अर्थात अपनी ननद के यहाँ भेजी जो अभी तक नहीं लौटा था. रात बढ़ने के साथ भय भी बढ़ता जा रहा था. हलकान हेमलता बिना खाए पीए सो गई. आखिर जो भी था तो उसका अपना ही. अब उसके सिवा था भी कौन इस दुनिया जहान में.

उस रात वह एक सपना देखी - चाँद-सूरज अपनी पाली बदल चुके हैं. अब रात को सूरज उगता है और दिन में चाँद. ताल-पोखरों में आग बहती है. खेत-क्यारी भी आग से सींचे जा रहे हैं. गाय-भैंस दूध नहीं खून देती हैं. लोगबाग लोटा भरभर कर पानी की जगह आग पी रहे हैं. बड़कान टोला में विषधर घुम रहे हैं. वही शासन कर रहे हैं सब छोटकान पर. जमीन-जायदाद के मालिक मुख्तार भी वही हैं. खेत से लेकर बड़कान टोला तक विषधर ही विषधर – काले, चितकबरे और गेहूआं रंग के. विषधर बड़े आराम से सोफा पर बैठ कर हुक्का गुड़गुड़ा रहे हैं और बिख थुक रहे हैं. बड़े-बड़े भिमकाय विषधर भेड़-बकरी, गाय-भैंस और मानुख को पकौड़े की तरह निगल रहे हैं. कुछ विषधर मानुख तन को लपेटकर हड्डियॉ चटका देते हैं. मानुख पल भर में मांस का लोथ होकर धरती पर ढह जाता है. एक विषधर उसके शरीर में भी लिपटा जा रहा है और वह केले के गाँछ की तरह काँप रही है. दूसरा विषधर महेश को डसने आ रहा है. उसकी नींद खुल गई. सामने टहाका (स्वच्छ) चांदनी फैली हुई थी मानों गेंहुवन विषधर की खाल. आकाश के तारे ऐसे टिमटिमा रहे थे मानों आकाश से विषधर धरती को निहार रहे हों. वह पसीने-पसीने हो गई – विधाता तेरा यह कैसा विधान है जिसमें सुख का चिथड़ा नींद में भी नसीब नहीं. इसके बाद वह नहीं सो पाई.

इस बार केले के गाँछ में जाने के लिए मजूरों का टोटा पड़ गया. दूसरे गाँव के मजूर नहीं आए. लिहाजा रामअधार सिंह पटेल मुसहरान टोला में आकर चार मुसहरों के साथ महेश को भी 'ससुरों घर में का करोगे. खेत में काम करोगे तो मेहर भी इज्जत करेगी' कह कर लिवा ले गए. हेमलता उस बखत दुर्गा भैंस के लिए घास काटने गई थी. घर आने पर जब पता चला कि महेश को रामअधार गाछ में ले गया तो माथा पकड़ कर वहीं बैठ गई. न भैंस ने घास छुआ न उसन रोटी दोनों शांत बैठी रहीं. दिन सूरज डूबने को हो आया था. लाल किरणें आकाश में फैल रही थीं मानों सूरज का गला काट दिया गया हो और बेहिसाब लहू आकाश में फैल रहा हो.

'काकी काकी,' कहते खंझाठी के बेटा ने हेमलता झकझोर दिया.

'ऊंह, का है रे. काहे ठोक बजा रहे हो काकी को?' फीकी मुसकान लाते वह बोली. आखिर बच्चे से क्या दुख बाँटना.

पर लड़का तेजी में था - 'काकी, महेश काका को विषधर धर लिया.'

महेश भी चार मुसहरों के साथ हलाँक हो गया. मात्र उन्नीस वर्ष में वह दुनिया कूच कर गया. हेमलता का अंधकारमय जीवन और भी ज्यादा अंधकारमय हो गया. वह दौड़ती हुई गाछ वाले खेत पर पहुंची. पाँच जनों को केले के बगल वाले खेत में लिटाया गया था. पाँचो पुरुषों की महिलाएं उनके शरीर को झकझोर कर विलाप कर रही थीं - मानों अपने किस्मत का हिसाब बता रही हों. शाम को गाँव के छोटकान मुर्दहिया घाट पर सबका दाह संस्कार कर दिया गया.

अभी दो दिन भी नहीं बीते कि रामअधार सहित कई दूसरे बड़कान किसान मुसहरान में मजूरों के लिए सूरज उगने के पहले ही आ गए. ताकि मजूर कहीं भाग न सकें. पर इस बार मुसहरान टोला के मजूर काम पर जाने से इंकार कर दिए.

सरजू मूसहर हाथ जोड़ दिया - 'गुस्ताखी माफ़ हो माई बाप, जान है तो जहान. हमें अपनी नहीं पर इन छोटे-छोटे बच्चों की चिंता है, जो हम जहर-कुंड में जाने से रोक रहा है.'

बड़कानों को यह इंकार बर्दाश्त नहीं हुआ. रामअधार सिंह बोले - 'देखो जीवन मरन सब विधि के हाथ होता है. अगर काम पर नही गए तो भूख मार डालेगी. मौत तो आनी ही है, तो क्यों न कुछ करके मरो.'

मूसहरों ने हाथ जोड़ दिया - 'नहीं माई बाप.'

बात पूरी हुई भी नहीं कि बड़कान के लठौतों ने लाठी चार्ज कर दिया चार मूसहर मजूर मौके पर ही मार डाले गए. मुसहरान में इस साल अब तक एक्कीस लोग अकाल मारे गए थे. पर इसी के साथ वह वाला कांड हो गया जिसे लोग हुज्जतपुर कांड कहते हैं.

दरअसल हुआ यह कि इस घटना के बाद बाबा साहेब के मूर्ती के सामने एक सभा की गई और उसी उसी दिन शाम को चमरान में एक बैठक हुई, जिसमें मुसई राम भी आए थे. दोनों घटनाओं को ऊपर ही दे दिया गया है.

अब आगे की घटना इस प्रकार है - इस घटना के तीन दिन पहले मुन्नर दादा दालान (छोटकानों की आम सभा हेतु बना मामुली बैठका) में पूरे गाँव वालों, जिसमें सुजाता (मुसई राम की बेटी - जो कहानी के प्रारंभ में बाबा साहेब की प्रतिमा के सामने भाषण दे रही थी) भी थी, यह कहानी सुना रहे थे, जो एक टेंगरे (एक प्रकार की मछली) के संघर्ष और विजय की कहानी है.

दादा कहानी शुरू कर दिए – "पंचो, बहुत पुरानी बात है. एक गाँव में एक बुढ़ा किसान अपनी बुढ़ी पत्नी के साथ रह रहा था. इनका कोई बाल-बच्चा नही था. थोड़ी-सी जमीन थी, जिस पर दोनों खेती करते. किसी तरह रोटी-पानी का इंतजाम हो जाता. इसी तरह सूरज-चाँद उगते-डूबते रहे. जीवन बीतता रहा. ऐसे ही एक दिन बुढ़ा किसान पोखर से मछली पकड़ कर ले आया. इसमें एक टेंगरा भी था. बुड्ढा घर आकर बुड्ढी से बोला - ले बुड्ढी मछली भात पका दे. मैं खेत जोतने जा रहा हूँ. हीरा-मोती (बैलों के नाम) के लिए रोटी पका देना. बुढ़िया मछलियों को रखकर थोड़ा बाहर निकल गई. तभी टेंगरा छटक कर कोठिले (अनाज रखने वाले मिट्टी के बड़े बर्तन) के नीचे चला गया.

कुछ समय बाद बुढ़ी बाहर का काम निपटा कर आंगन में बैठ कर मछलियों को साफ करने लगी. ताकी वे पकाई जा सकें. साथ में कहती जा रही थी - 'विधाता आज कोई औलाद होता तो माँ-बाप को सहारा होता. मैं खाना बनाती तो कम से कम बाप को खाना पहुंचा आता. पर हाय रे किस्मत पथराए कोंख से ईंट-पाथर की भी औलाद नही हुआ.'

बुड्ढ़ी की बात टेंगरा सुन रहा था. उसकी पीड़ा से वह दुखी होकर बोला - 'माई खाना बना दे. हम बाऊ को खाना पहुंचा देंगे.' बुड्ढी सकपका गई. समझ नही पाई कि आवाज कहाँ से आ रही है. हाथ जोड़कर खड़ी हो गई – 'आप जे भी हों बाहर आवें. इस अभागन से ठिठोली न करें.' टेंगरा बाहर आ गया. 'लो माई मैं आ गया.' बीत्ते भर के टेंगरे को देखकर बुड्ढी बुझ गई. 'जुग-जुग जिया लाल, पर तूं हमार का सहायता करबा. मानुष जोनी (मनुष्य योनि) के बड़ा-बड़ा काम करे के होला. तोहरा से ना हो सकी.'

रीढ़ पर उगे कांटो को लहराते हुए टेंगरा बोला - 'माई फिकिर मत कर, खाना बनाव. हम तोर बेटा हई. शरीर पर मत जो. बाऊ के खाना हमही ले जाइब.' बुड्ढी कठवत (लकड़ी का थाली जैसा बर्तन) में पानी डाल कर टेंगरे का रख दिया.

टेंगरा तैरते हुए कहा -' माई भरोसा रख. काम करने के लिए शरीर का नही, मन का औकात काम आता है.'

बुड्ढी ने खाना बनाया. टेंगरे से बोली - 'बचवा तूं खाला. बाद में बाऊ (पिता) के खाना ले जइहा.'

टेंगरा पानी में छटकते हुए (अटखेलियॉ करते हुए) बोला - ' नाही माई हम बाद में खाइब, पहले बाऊ के खिया आवे दा.'

बुड्ढी के लाख कहने का बाद भी उसने खाना नहीं खाया. हार कर बुड्ढी ने एक कटोरे में मछली का झोल और दूसरे में रोटी-प्याज बाँधकर टेंगरे के सर पर रखा दिया. वह ठुमकते-ठुमकते खेत की ओर चल दिया.

खेत पर अलग-अलग खेतों को जोत रहे थे. एक खेत को बुड्ढा जोत रहा था - 'ना होर, ना होर, अरे हीरा बॉ रे (किसानों द्वारा खेत जोतते समय बैलों को दिए गए संकेत).'

टेंगरे खेत के डाँड़ (खेत की हदबंदी) पर पहुंच गया - 'बाऊ आवा खाना खा ला.'

बुड्ढे किसान को आवाज तो सुनाई पड़ा पर कोई दिखाई नहीं दिया. वह फिर जोतने में मशगुल हो गया.

फिर आवाज आई - 'बाऊ आवा खाना खा ला. कितना अबेर (देर) हो गइल बा.'

अबकी किसान रूक गया. देखा तो सामने मेड़ पर खाना रखा हुआ है.

वह मन में बुदबुदाया -'खाना त बा, बाकि आवाज कहां से आवत बा. रूका हीरा-मोती हम देख के आवत हईं कि का माजरा बा.'

हीरा-मोती ठमकते-ठमकते (रूकते-रूकते) ठहर गए.

किसान डाँड़ पर आ गया - 'के हवा, सामने आवा. दर्शन दा.'

टेंगरा छटक कर सामने आ गया - 'पा लागी बाऊ (ग्रामीण समाज में नमस्ते करने के रीति).'

किसान ने आशीर्वाद दिया - 'जीया बचवा, के हवा तूं?'

'तोहार बेटवा', छटकते हुए टेंगरा किसान के पास आ गया. 'बाकि बाऊ तूं खाना खा, बात बाद में कर लिहा.'

किसान एक रोटी हीरा-मोती को खिलाकर, एक रोटी और पियाज टेंगरा को भी दिया. सारे लोग खाना खाने लगे.

खाना खा लेने के बाद, जब बुढ़े किसान ने कहा - 'बेटवा, बासन (बर्तन) घरे ले जा माई माज धो देही.' तो टेंगरा बोला - 'बाह बाऊ बाह, बेटवा जाए घरे आऊर बाप करे हरवाई. नाही तो जा घरे, आराम करा, खेत हम जोतब.'

हारकर बुढ़े को घर लौट आना पड़ा. टेंगरा हल के मुठिया पर बैठ गया. समझदार बैल खेत जोतने लगे. तीन टपरे (छोटी जोत की जमीन) जोत लिए गए. सारे किसान घर चले गए पर टेंगरा खेत जोतता रहा. तभी उधर से राजा का बारात आता दिखा. बरातियों ने देखा कि एक जोड़ी बैल बिना हलवाहे के खेत जोतते जा रहे हैं.

राजा के मंत्री ने राजा को सलाह दिया - 'महाराज ऐसे बैल तो राजधानी में होने चाहिए, किसी गरीब किसान के यहाँ नहीं.'

राजा के आदेश पर बैल लेने के लिए नौकर खेत में गए तो टेंगरा विरोध करने लगा पर उसे उठाकर खेत के बाहर फेंक दिया गया. बैलों को बरातियों में मिला लिया गया. होश में आने पर टेंगरा रोते कलपते घर आया. माँ-बाप को पूरी बात बताई.

बुढ़े-बुढ़ी और पड़ोसियों ने समझाया- 'राजा के राज में प्रजा की क्या हैसियत वह समरथ है कुछ भी कर सकता है. अब तो संतोष ही सहारा है.'

टेंगरा क्रोधित हो गया - 'नहीं. मैं अपने बैले ले के रहूंगा. मुझे राजा-प्रजा वाली बात समझ में नही आती.'

माँ-बाप रोने लगे. पड़ोसी टेंगरे के पागलपन पर हंसते हुए चले गए. पर टेंगरा धुन का पक्का था. वह राजा पर चढ़ाई करने की तैयारी में जुट गया. माँ की सलाह से एक नीम के पत्तों की सींकों को चुनकर एक गाड़ी बनाया. इसी दौरान उसकी दोस्ती दो चूहों से हो गई. गाड़ी बन जाने पर चूहों को उसमें नाँध (गाड़ी खींचने की प्रक्रिया) दिया. माँ-बाप, अड़ोस-पड़ोस को रोकने पर भी नहीं माना. राजमहल की ओर चल दिया.

चलते-चलते रास्ते में एक मजूर मिला. 'मजूर ने पूछा कहाँ जा रहे हो टेंगरा भाई?'

टेंगरा ने पूरी बात बता दिया.

मजूर ने कहा - 'मुझे भी ले लो. मुझे भी राजा से बदला लेना है. उसके सैनिको ने मेरा खेत काट लिया. मैं किसान से मजूर हो गया.' मजूर साथ हो लिया.

थोड़ा दूर चलने पर एक कुत्ता मिला. उसने भी पूछा - 'टेंगरा भाई कहाँ जा रहे हो?' टेंगरे ने सारी बता बता दी. कुत्ता बोला - 'मुझे भी साथ ले लो. मुझे भी राजा से बदला लेना है. उसने मेरे मालिक का खेत हड़प लिया है. मालिक मर गए मैं यतीम हो गया.' कुत्ता साथ हो लिया.

आगे चलते चलते एक भालून मिली. उसने पूछा - 'टेंगरा भाई कहाँ जा रहे हो?'

टेंगरा ने सारी बात बता दी. भालुन हाथ जोड़ते बोली - 'टेंगरा भाई मुझे साथ ले लो. राजा ने महल बनाने के लिए जंगल काट दिया और मेरे बच्चों और मेरे भालू को पकड़ सर्कस में भर्ती कर दिया. मुझे तबाह कर दिया उसने.'

भालू भी साथ हो ली.

चलते-चलते एक लोहार मिला उसने पूछा- ' टेंगरा भाई कहॉ जा रहे हो.'

टेंगरा ने सारी बात बता दी. लोहार बोला - 'टेंगरा भाई मुझे साथ ले लो. राजा ने मेरा गाँव को लुटवा लिया. मेरी पत्नी और बच्चे मर भूखे मर गए.'

राजमहल के पास पहुंचने में बस एक दिन बाकी था कि एक वैद्य मिला. उसने भी टेंगरा से पूछा - 'टेंगरा भाई कहाँ जा रहे हो?'

टेंगरे ने सारी बात बता दी. वैद्य रोते हुए बोला - 'मुझे भी साथ ले लो. राजा ने मुझसे अपने असाध्य बीमारी का इलाज कराया और पैसा नहीं दिया. पैसा मांगने पर बेइज्जत करके भगा दिया.'

वैद्य भी साथ हो लिया. राजा के नगरी के पास पहुंचते-पहुंचते अंधेरा हो गया. सब जन वहीं ठहर गए. लिट्टी चोखा लगा. सभी ने खाया. आधी रात को नगर में जाने का फैसला लिया गया. रात के बारह बजे चूहा नगर के दरवाजे पर गया. दरवाजा बंद था. पर दरवाजों की दरार से अंदर गया. द्वारपाल सो रहे थे. वह अंदर चला गया. पूरा नगर सो रहा था. चूहा पशुशाला गया. वहाँ लूटे गए सारे पशु रखे गए थे.

वह वापस आ गया और बोला - 'रास्ता साफ है.'

सब लोग नगरद्वार पर पहुंच गए. भालू पेड़ पर चढ़कर बोली - 'अभी सब सो रहे हैं. दरवाजा काट दो.' लोहार ने दरवाजा काट दिया.

टेंगरा बोला - 'कुत्ता भाई आप यहीं ठहरा. भालू मौसी कुछ देखिहै, तो तोहके बता दिहैं. तू भोके लगहियै त हम सभे सतर्क जाबे.'

कुत्ताजी दरवाजे के सामने आड़ लेकर खड़े हो गए.

बाकी सब लोग अंदर चले गए. वैद्य, महल में जाकर सभी सोये हुए लोगों को एक दवा सूंघा दिए. सब बेहोश हो गए.

लोहार ने दरवाजा काट दिया. सब लोग अंदर चले गए. चूहा सभी लोगों को पशुशाला ले गया. टेंगरे ने हीरा-मोती को और हीरा-मोती ने टेंगरे को पहचान लिया. मजूर ने सभी पशुओं का पगहा (खूंटे से बाधी जाने वाली डोरी) खोल दिया. सारे पशु, जिनमें गाय, भैंस, बकरी और बैल थे महल से बाहर लाए गए. भालू मौसी पेड़ से उतर गईं. छिपा हुए कुत्ताजी सामने आ गए. रात में ही सारे लोग गाँव आ गए. हीरा-मोती सहित सबके पशु मिल गए. सब हंसी-खुशी रहने लगे.”

कहानी खतम करते हुए मुन्नर दादा बोले - 'कहानी गईल बन में, सोचा अपने मन में. जईसे उनकर दिन फिरल वैसे सबकर दिन फिरै. मगर ई बात सच है कि गरीबनन के बिजय किस्सा-कहानी में होला. असल में नाही.'

पुलिस नें चारों मुसहरों की मौत को सामान्य झड़प में हुई मौत दर्ज किया. सामान्य सरकारी औपचारिकता के बाद चारों को छोटकान घाट पर जला दिया गया.

मुसई राम कुछ लोगों को बिस्कुट वाली फैक्टरी में ले गए. उन लोगों को वहीं काम मिल गया. मगर बाकी लोग बदले की आग में जल रहे थे. मुन्नर दादा की कहानी के बाद लोगों नें बड़कान लोगों से सारे रब्त-जब्त (मालिक-मजूर संबंध) तोड़ लेने के फैसला किया. गौरतलब है कि इस मौके पर तिरलोकी गुरु (तिरलोकी पंडित) भी आए हुए थे. उन्होंने छोटकान लोगों का समर्थन किया और कहा - 'आखिर, कब तक आप सभै, इन सबकर जुलुम सहते रहेंगे. परदेश में तोहरे पारटी के सरकार हव. आप लोग आवाज उठावें. हम भी आपकी पारटी का सदस्य हैं. आप जब तक शरीर में जान है. आप सभी के सेवा में अर्पित रहूंगा.'

सारा छोटकान बड़कानों के खिलाफ हो गया. सातों पूरवा (गावों) में दो फाट हो गया. अगले महीने चुनाव था. बड़कानो में से ग्यारह लोग खडे हुए और छोटकनों में से काई भी नहीं खड़ा हुआ. छोटकानों का झराझर (पूरा) ओट तिरलोकी गुरु को मिला क्योंकि वे परदेश की दलित पार्टी कार्यकर्ता थे. वे भारी बहुमत से जीत गए. इस घटना के बाद बड़कान पूरवा के लोग छोटकानों के जान के प्यासे हो गए. छोटकानों की परेशानी बढ़ गई थी. तिरलोकी पंडित शहर में जमीन लिए थे वहीं घर बनवाने के लिए दो माह के लिए बाहर थे. इधर गाँव में यह कांड हो गया -

सुजाता कभी कुजाता नही होती - हालांकि सुजाता गाँव की आबोहवा से परेशान थी, लेकिन उसे पढ़-लिख कर माँ-बाप का सहारा बनना था. भिमराव अंबेडकर को आदर्श मानने वाली सुजाता एक जहीन लड़की थी और पूरे छोटकान की सबसे सुंदर लड़की भी. एक तरह से छोटकान की आनबान और शान थी वह. इस साल वह दसवीं का इम्तहान देने वाली थी. गणित, अंग्रेजी, सामाजिक अध्ययन, जीव अध्ययन और हिंदी विषयों के साथ वह कॉलेज के सांइस वर्ग की सबसे होशियार छात्रा थी. तमाम प्रकार के भेदभाव के बावजूद हर हाल में उसे अपना मुकाम हासिल करना था, सपना पूरा करना था. उसके पापा मुसई राम कहते थे - 'बेटा हर सपने की किमत होती और तुम्हारे सपने की किमत है, कठिन मेहनत और लगन से पढ़ाई.'

मेहनत मजूरी करने वाले माँ-बाप की बेटी सुजाता बड़े लगन से हिंदी की चौपाईयाँ रट रही थी - 'परहित सरिस धरम नहिं भाई, पर पीड़ा धर्म नहिं अधमाई.'

पूरे क्लास में सबसे अधिक कविताएं और चौपाइयाँ उसे ही याद थीं. अंत्याक्षरी में हर साल वही जीतती. इसी वास्ते बड़कान की कुछ लड़कियाँ उससे बोलचाल का नाता रखतीं.

उसकी कुशाग्रता को देखकर मुसई राम बड़ी मेहनत से काम करते. उन्होंने ने ठान लिया था कि वह जितना पढ़ेगी, पढ़ायेंगे. वे कहते भी - 'वह बेटी नहीं हमारा भरोषा है. अब सारे सपने वही पूरा करेगी.' पर सुजाता के सपने में पूरे समाज की मुक्ति समाई हुई थी. बड़कान के लड़के-लड़कियाँ शहर के कॉलेज मे पढ़ने जाते थे. उनकी कोचिंग भी लगी हुई थी. फिर भी वह उन पर भारी पड़ जाती थी. इससे जहाँ उसे विश्वास मिलता वहीं बड़कान लोग कुरमुरा के रह जाते और लगभग लांछन लगाते हुए कहते - 'ससुरी मुसईया बो किसी बाभन का बीज डलवा ली है कोख में. उसी बीज की पैदाईश है वह छोकरी. ढोर–चमार में ऐसी बुद्धी थोड़े ही होती है.' जहाँ छोटकान टोला के लिए वह करिश्मा थी तो वहीं बड़कान टोला के लिए अभिषाप. पर इस सबसे परे वह अपने धून में मगन रहती.

उस दिन वह स्कूल से आकर बकरी के लिए अपने खेत में घास लाने गई थी. वह जब भी स्कूल से घर आती लंबी कान वाली बकरी म्यै-म्यै बोलने लगती और तबतक चुप नहीं होती जब तक एक झौवा (छोटी टोकरी) घास आगे डाल न दिया जाता. आधे-पौन घंटे में काम भर घास हो गया. वह घास सर पर लेकर निकल ही रही थी कि चार लोगों ने उसे घेर लिया. कुछ भी बोलने के पहले वे मुंह को हाथ से बंद कर दिए और उठाकर रामसखी के ट्यूबेल पर ले गए. ट्यूबेल वाली कोठरी का दरवाजा अंदर से बंद कर दिया गया साथ ही हाथ-पैर बाँध कर मुंह में कपड़ा ठूंस दिया गया. घास वाला झौवा घास सहित फेंक दिया गया. सुजाता ने देखा कि चारों बड़कान टोला के लोग थे, जो रिस्ते में उसके चाचा और भाई लगते थे. ये वही लोग थे, जिन्होंने छोटकान की कई औरतों को गंदा किया था. वह चाहती थी कि अभी पापा आ जाएं और उसे बचा लें. पर न कोई आया ना वह बच पाई.

वह लगभग बेहोश हो चुकी थी पर कुछ आवाज कान में पड़ते रहे - 'जो करना था वह तो कर लिए. आनन्द आ गया. मुसई साले ने क्या लौंडिया पाला है. आज इसको करके पूरे छोटकान को ... कर दिया.'

'सालों जो करना था कर लिए. अब लौंडिया को पार लगाओ. नहीं तो यह हम सबको पार लगा देगी. बहुत तेज है साली.' यह रामसखी की आवाज थी. उसके ऊपर कुछ पानी जैसा डाला गया.

'अरे यह पानी नही मिट्टी का तेल है.' उसने मन में सोचा. आवाज तो नही आ सकती थी, बस हाथ जोड़ दी. पर किसी ने गौर नहीं किया. रामसखी पेशाब करने गए थे. और माचिस लगाने का काम उन्हें करना था. तीनों लोग भी बाहर चले गए और वहीं से रामसखी को आवाज देने लगे. इतने में सुजाता संभलते हुए उठी और दरवाजे से निकलते हुए पूरी तेजी से भागने लगी, तभी एक नजर पड़ी - 'अरे वो, देखो साली चमाइन भागी रही है.'

रामसखी पिशाब करने नहीं, दिशा फिरने चले गए थे. वे ऐसा काम करके दिशा जरूर फिरते थे. वे लोटा लिए दौड़ पड़े - 'अरे सालों पकड़ो उसे. नहीं एक भी नही बचेंगे.'

पर तब तक सुजाता काफी दूर आ गई थी. मजे की बात यह थी कि फेरू मुसहर ने देख भी लिया उसे. रामसखी फिर गरजे - 'सालों चार लोगों से रौदाई हुई लौंडिया नही पकड़ पा रहे हो. थू है तुम पर. कुछ नहीं कर सकते तो माचिस की तिली फेंको साली मिनटो में ख़ाक हो जाएगी.'

एक ने माचिस की तिली जलाकर उछाल दिया गया . सुजाता आग में लिपट चुकी थी. पर फेरू मुसहर ने अपनी लुंगी उस पर डाल दी . साथ ही मुसहरान की कुछ और लोग आ गए. लोगों ने कथरी (गरीबों की रजाई या कंबल) उस पर डाल दिया. आधी सुजाता जल चुकी थी. उसने इशारे से बताया - 'थाने ले चलो.'

जली हुई सुजाता थाने लाई गई. थानेदार जितना लेट कर सकता था किया पर बयान लेना पड़ा. उसने सभी आरोपियों का नाम लेकर बयान दिया. बयान देने के बाद ब्लाक के अस्पताल में वह तीन घंटा और जिंदा रही. उसकी माई उसके पास थी साथ ही पूरा छोटकान आज पहली बार एक साथ खड़ा था. मरने के पहले उसने हाथ जोड़ कर कहा - 'माई माफ करिह्या. तोहरे कउनो काम ना आ सकली.'

फिर लोगों से बोली - 'मैं आप सभी की बेटी थी. जितना कर सकती थी कि बाकी आप सभी पर छोड़ कर जा रही हूं.'

सामने वही चौक था जहाँ चार दिन पहले बाबा साहेब के मूर्ति के सामने उसने भाषण दिया था. बाबा साहेब की संविधान लिए मूर्ती को देखते-देखते उसकी आखें बंद होते-होते बंद हो गईं.

डॉक्टर राजेश ने कहा - 'बड़ी होनहार लड़की थी. यह एक शरीर का नही पूरे एक समाज का अंत है.' तभी फेंकू मुसहर बोल पड़ा - 'नाही डॉक्टर साहेब सुजाता अशरीरी होकर हम सभी के शरीर में आ चुकी है. वह पूरे छोटकान के बेटी रहील.' बात पूरी भी नही कर पाया कि ढह कर रोने लगा. एक साथ पूरा छोटकान रो रहा था और यहीं से उसकी शक्ति का भी उदय हुआ.

उसके स्कूल के सभी अध्यापक आ चुके थे. उनकी भी आखें नम थीं. रामनाथ अवस्थी बोले - 'ऐसी होनहार बेटी का मरना देश का मरना है.'

हुलाश सिंह से रहा नहीं गया वे फफकने लगे - 'मैं तो इसे आगे पढाने की योजना भी बना चुका था. दरअसल यही वह थी जो हमारी मिट्टी का सपना पूरा करती. साले कामियों ने इसे कुजाता समझ कर इसकी अस्मत से खेले. पर कुजाता ये नहीं वे थे. यह सुजाता थी और सुजाता ही रहेगी. सालों एक लड़की को नहीं, यहाँ की मिट्टी को कलंकित किया है.'

ऐसा कोई नही था जिसकी आत्मा न रही हो. वह थी ही ऐसी.

कानून और ऊसर जमीन में कोऊ अंतर नाहीं ऊर्फ मुसई राम का संघर्ष

सुजाता का जाना किसी सदमे जैसा था. मुसई राम टूट से गए थे. पर बेटी अपने गुनाहगारों का नाम बता चुकी थी. उसकी अंतिम इच्छा थी कि कातिलों को सजा मिले. अब मुसई के जीवन का एक ही मकसद था - उन चार कातिलों को सजा दिलाना. लगातार कोर्ट-कचेहरी के चक्कर में फैक्टरी में नियमित नहीं जा पाते थे, जिससे घर की आमदनी कम हो गई थी. किसी तरह से कोर्ट का खर्चा और रोटी-पानी चल रहा था. थानेदार ने रिपोर्ट में कई झोल कर दिए थे. पर पोस्टमार्टम में बलात्कार की पुष्टि हो गई थी. फिर भी थाने से लेकर कचेहरी और वकिल तक बड़कान की जाति के ही लोग थे, जो उनकी जाति नहीं भी थे वहाँ रूपए से काम चलाया जाता. मुसई राम अकेले बड़कान भर और सरकार से लड़ रहे थे. सबको पता था कि उनकी बेटी की अस्मत लूट कर मार डाला गया फिर भी सरकार को सबूत की जरूरत थी. बड़कान के लोग पैसा-कौड़ी के बल पर पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी बदलवाना चाह रहे थे.

छोटकान में भी बदले का भाव पनप रहा था. उस दिन फेंकू मुसहर और रकीब धोबी दोनों ने एक साथ कहा था - 'अब चुप रहने का बखत नही है. सारे छोटकान अगर मिलकर मूत भर दें तो सारा बड़कान बह जाएगा.'

'नहीं भाईयों - हिंसा समाधान नहीं है. संविधान में यकीन करो. हिंसा करने पर एक झटके में नक्सलवादी ठहरा दिए जाओगे. पी.ए.सी. लगा दी जाएगी. जिसके कहर से कोई नहीं बच पाएगा. इसलिए बच्चों को पढ़ाओ-लिखाओ. वही अपना हक ले सकेंगे. हमारा क्या. हम आज हैं कल नहीं रहेंगे. सोचो जब मैं आठवीं पास इतना जान-समझ रहा हूं तो जब हमारे घर में बी.ए., एम.ए. करने वाले बच्चे होंगे तो वे कितना समझदार होंगे. इसलिए जोश से नहीं होश से काम लो. हजारों साल की गुलामी जाते-जाते जाएगी.'

दुक्खन दुसाध से रहा नहीं गया - 'मुसई भईया मजाक करने के लिए हमही लोग मिले थे का? अरे नंगा का पहने का निचोड़े. खाने को जहर तो मिलता नहीं. पढ़ाएंगे किस बूते पर?'

'पखूरे के जोर पर. याद रखो हम मेहनतकश लोग हैं. हमें अपनी बांह पर ही भरोसा रखना होगा.' बोल लेने के बाद मुसई थोड़ा ठहरकर फिर बोले - 'पढ़ाई आदमी में ही नहीं समाज में भी औकात पैदा होती है. हमारी सबसे बड़ी बेड़ी है नासमझी. पढ़ाई नासमझी को मेट देती है. छोटकान को ताकत देनी है तो पढ़ाई ही एक रास्ता है. और हाँ, पढाई ऐसा पेड़ नही कि तुमही बोओ और तुमही खाओ. इसका असर चार–छः पीढियों के बाद होता है. इसलिए निस्वार्थभाव से बच्चों को पढ़ना होगा.'

दुक्खन फिर बोला - 'गरीबी में यह कैसे होगा?'

'शहर जाओ वहीं मेहनत मजूरी करो और बच्चों को पढ़ाओ. गाँव का मोह छोड़ो. ज्यादा से ज्यादा यही होगा कि अपनों से दूर रहोगे पर इतनी जलालत नहीं है वहां. याद रखो हमारे पास खोने को कुछ नहीं है पर अगर मेरी बात आप लोग समझ लो तो पाने को पूरा देश है.'

उस दिन कोर्ट की तारीख थी . मुसई किसी तरह वकिल के फीस की व्यवस्था करके कचेहरी के लिए साईकिल से निकल रहे थे. चुंगी पर रामसखी, शोभनाथ पटेल, रामअधार सिंह यादव और हरिराम सिंह पटेल चाय पी रहे थे. मुसई राम को देखकर वे लोग बोल पड़े - 'धरो साले चमार को. साले को यहीं बाल दो. साला हमारे नमक को भुला दिया. भुल गया साला कि कैसे इसकी माँ और मेहर गाछ के खेत में लुग्गा उठाके टांग खोल देती थीं. साले के घर की एक भी औरत हमारे जांघो से गुजरे बिना नहीं बची और ई ससुर चले हैं बेटी का बदला लेने. काट दो साले का गोड़ हॉथ. साला बहुत भागवत बाचता है. छोटकान को क्रांति-व्रांति का पाठ पढ़ा रहा है इन दिनों.'

मुसई राम को साईकिल सहित ढकेल दिया गया था. चार फर्लांग पर थाना था. संतरी थाने के गेट के सामने सब कुछ देखता रहा. लोगों ने बीच–बचाव करके किया. मुसई की कमीज फट चुकी थी. हाथ-पैर में खरोंच आ चुके थे. फिर भी वे साईकिल उठाकर कोर्ट के लिए चल दिए. कोर्ट पहुंचने पर वकिल ने फीस लेते हुए कहा - 'मुसई भाई तारीख टाल दी गई है. अगली तारीख तीन माह बाद मिली है.'

मुसई राम को गाँव पहुंचने के पहले ही चुंगी वाली बात गाँव पहुंच चुकी थी. शाम को सारा छोटकान मुन्नर काका के दालान में इकट्ठा हुआ.

सारे छोटकान के मन में बस एक ही सवाल था - 'आखिर यह सब कब चलता रहेगा. इसका कोई अंत है भी या नही?'

अब छोटकान आरपार की लड़ाई लड़ना चाह रहा था. उन्हें बस मुसई राम के हाँ की जरूरत थी. पर मुसई राम थे कि कह रहे थे - 'भाईयों जुल्म को जुल्म से नही जीता जाता. आग को बुझाने के लिए आग नहीं पानी की जरूरत होती है. देखो यह हजारों साल से होता आया जुल्म एक झटके में नहीं मिटने वाला. एक को मारोगे, दूसरा पैदा हो जाएगा. इसके लिए पढ़ाई से बढ़कर दूसरा रास्ता नहीं है. साथ ही जितना हो सके उतना कमाओ. घर में पैसा और अनाज लाओ. इससे पेट और दिमाग दोनों मजबूत होते हैं. हम कई तरह से कमजोर हैं. इसलिए पहले इससे निजात पाना होगा. मैं कहता हूं लड़ो पर फतह करने के लिए, मरने के लिए नहीं.'

छोटकान लोगों को मुसई की बात थोड़ी बहुत ही समझ में नहीं आई. पर वे उनकी बात पर अमल करना चाह रहे थे.

अपने बखत की आवाज ऊर्फ इज्जतपुर कांड

तीन दिन बाद मुसई चार मुसहरों और तीन मुसलमानों के साथ दो तीन माह के लिए फैक्टरी चले गए. ग्राम प्रधान अब भी शहर में ही घर बनवा रहे थे. इसी बीच ढाई महीने बाद रामसखी और बबई सिंह यादव के बेटों ने मुसहरान और चमरान की दो औरतों के साथ बलात्कार किया. इस बार उन्हें संभालने वाले मुसई राम वहाँ नहीं थे. मुन्नर दादा के दालान पर उस रात फिर छोटकान लोगों का जुटान (बैठक) हुआ. इस बार फेकू मुसहर ने मोर्चो संभाला - 'मितरों, हम आज तक नहीं समझ सके कि हम आखिर क्या हैं - कुक्कुर, गदहा या बैल. मानुख तन पा कर भी मानुख का सम्मान नसीब न भया. रोज-रोज हमारे बहु-बेटियों को बेइज्जती हो जाती है. अरे हमारी बहु-बेटियाँ इतनी ही प्यारी हैं तो उनसे बियाह करके ले जाओ. रोटी-बेटी का नाता रखो. हम कोई मुर्गी की बोटी नहीं कि मांस खाय के हड्डी उगल दिए. मितरों हम सबके घर की बेटियाँ, जोरी बहुएं बड़कानों के द्वारा जूठ की जा चुकी हैं. पर हम सदियों से चुप बईठे हैं. आखिर कब तक सहते रहेंगे यह सब?'

पूरे छोटकान ने एक साथ कहा - 'अब बस. अब बदले की बारी है.' सारी रणनीति उसी रात तय की गई. अनाज के आधार औजार हंसिया को संहार औजार के रूप इस्तेमाल करने का निर्णय लिया गया. पहली बार छोटकान मजबूत हुआ था.

अब बस मौके का इंतजार था. पंद्रह दिन बाद एक रात को दो बजे बड़कान लोग यूसुफ नाई के पतोह फातिमा को खटिया सहित उठा ले गए. भोर में बेचारी मादरजात (नंगी) घर आई. सुबह उसके वस्त्र और अंत: वस्त्र छोटई सिंह पटेल के ट्यूबेल पर फटे पड़े मिले. उस रात सात लोगों ने उसके साथ मुंह काला किया था, जिसमें साठ साल से लेकर सोलह साल तक के लोग शामिल थे . अछैवर सिंह यादव और बिट्टू सिंह यादव का तो आपस में दादा और पोते का रिश्ता था. इस घटना से पूरा छोटकान उद्वेलित हो गया था. पर इस पूरे प्रकरण में चार–पांच दिन बाद फेकू मूसहर को छोड़कर बाकी मुसहर तैयार नहीं हो रहे थे, तो उस दिन मदन दुषाध ने मुन्नर दादा के दालान में यह जातक कथा सुनाई, जिससे पूरा छोटकान एक हो गया - 'एक बार महात्मा बुद्ध प्रवास पर भिक्खुयों के साथ जा रहे थे. थोड़ा दूर चलने पर पहाड़ी एरिया शुरू हो गया. रास्ते में एक गड्ढा पड़ा, जिसके अंदर देखने पर एक आदमी का कंकाल दिखाई पड़ा. बुद्ध और उनके शिष्य आगे बढ़ गए. थोड़े अंतराल पर फिर वैसा ही दिखाई पड़ा. इस तरह पहाड़ी एरिया समाप्त होते - होते तेरह गड्ढे और उसमें पड़े मानव कंकाल दिखाई पड़े. जब आनन्द ने बुद्ध से इसका कारण जानना चाहा तो बुद्ध ने बताया कि वे कंकाल जो दिखाई पड़े थे, वे तेरह मेहनती और खुद्दार लोगों के हैं. उन सब ने बारी-बारी से पानी की तलाश में कुंआ खोदने का प्रयास किया. लेकिन सबों ने यह प्रयास अलग-अलग किया. फलस्वरूप कोई भी सफल नहीं हुआ. थोड़े समय बाद प्यास के कारण उनकी अकाल मृत्यु हो गई. इतना कहकर बुद्ध शांत हो गए और थोड़े समय बाद बोले - 'काश वे सब मिलकर काम किया होते कितना सुंदर कुंआ होता उस पहाड़ी के पास. कितनो की प्यास सदियों तक बुझती रहती.'

इसके बाद पूरा छोटकान फिर से एक हो गया. और यही वह मौका था जब इस घटना को अंजाम दिया गया. दिन में पूरे छोटकान ने हंसिया पर धार (तेज करना) दिया. इतना धार कि एक ही बार में सिर धड़ से अगल हो जाए. शाम के चार बजे तक सारी रणनीति तय कर ली गई. अब रात के दूसरे पहर इंतजार था .

रात के एक बजे सारा छोटकान मुन्नर दादा के दलान में इकट्ठा हुआ. थोड़ी बातचीत के बाद दस मिनट में ही बड़कान की ओर कूच कर दिया गया. चारो तरफ अंधकार पसरा था. सारा बड़कान गहरी नीद में डूबा हुआ था कि तभी उन पर हमला कर दिया. एक–एक बड़कान लोगों पर चार–चार छोटकान पिल पड़े. एक–एक शरीर के आठ–आठ टुकड़े कर दिए गए. उस दिन जितने लोग बड़कान में थे सबको बाल (काट) दिया गया. दो चार बड़कान लोग जो ट्यूबेल पर सोते थे वही बच पाए. उसी में एक नंदलाल सिंह पटेल को रात को दो-ढाई बजे जनना शरीर की आवश्कता महसूस हुई. इतनी रात को तो छोटकान में जाया नहीं जा सकता था. इसलिए बीवी के पास जाने का निश्चय किया. गाँव आने पर घर के सारे लोग टुकड़ो में कटे-फटे मिले. वह जोर-जोर आवाज देने लगा. पर कोई नहीं आया. थोड़े समय बाद आसपास के घरों में देखा तो पाया कि सारा बड़कान छत-विछत लाशों में तब्दिल हो चुका था. फिर भागे-भागे ट्यूबेलों पर पहुंचा. गाँव में आकर लोगों ने फिर वही मंजर देखा. सभी सड़क पर आ गए और सुबह होने का इंतजार करने लगे.

दो दिन बाद तारीख थी मुसई राम भोर में ही घर आ रहे थे. सड़क पर खड़े लोगों को देखकर वे रूक गए. बड़कान युवक उन्हें देखकर आगबबूला हो गए. साईकिल को धक्का दे दिया गया. मूसई राम जमीन पर गिर गए. युवक आधे घंटे तक लात की बौछार करते रहे. मुसई कब का मर चुके थे. रात अभी भी बाकी थी. गर्म हवा बह रही थी. केले के गाछ झूम रहे थे. साँपों के कई जोड़े गाछ के खेत में घुस गए.

 

उत्तरप्रदेश के ज़िला मिर्ज़ापुर के ग्राम कौड़िया-खुर्द के श्री जनार्दन गोंड दलित एवं स्त्री साहित्य, आदिवासी साहित्य और सिनेमा-संस्कृति का अध्ययन करते हैं. हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अनुसंधानी रह चुके हैं. ऐम.फ़िल और PGEMFP की डिग्री हासिल कर चुके हैं. आजकल भारतीय प्रौद्यौगिकी संस्थान, मुम्बई में कनिष्ठ तकनीकी अधीक्षक हैं. इनके लेख और कहानियाँ आदिवासी सत्ता, इंडिया न्यूज़, दलित अस्मिता, पूर्वग्रह, इस्पातिका एवं मीडिया विमर्श जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं.

लेखक से सम्पर्क के लिये ई-मेल - jnrdngnd@gmail.com

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