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  • डॉ. रमाकांत शर्मा

सब कुछ साफ़ है - व्यंग्य लेख

उस दिन श्रीजी बाजार में सब्जी खरीदते हुए मिल गए। मैंने उन्हें नमस्ते की तो उन्होंने हमेशा की तरह अपनी गुरु गंभीर आवाज में उसका जवाब न देकर हलका सा सिर भर हिला दिया। मेरे चेहरे पर उभरे भाव देखकर उन्होंने अपने मुंह की तरफ इशारा किया। उनका मुख पान से अवरुद्ध था। मैं कुछ कहता उससे पहले ही उन्होंने अपने मुंह में ठुंसा वह लाल द्रव्य वहीं खड़े-खड़े सड़क पर पिच्च से उंडेल दिया। उनके आस-पास की धरती लाल रंग से रंग गई और कुछ लोग छींटों के डर से अपने कपड़े संभालते पीछे हट गए। मैंने मजाक में यह गंभीर सवाल उछाला – “श्रीजी, यह क्या कर दिया? स्वच्छता अभियान का विज्ञापन नहीं देखते क्या?”

वे हो हो कर बहुत जोर से हंसे और बोले – “कैसी बातें करते हैं, मान्यवर? अरे, हम तो सफाई अभियान में सहायता ही पहुंचा रहे हैं। अब तुम्हीं सोचो, अगर गंदगी ही नहीं होगी तो सफाई किसकी करोगे? फेल हो जाएगा न स्वच्छता अभियान?” फिर एक हाथ से सब्जी का थैला संभालते और दूसरे हाथ से मेरा कंधा थपथपाते हुए बोले – “मुझसे कहते हो स्वच्छता अभियान का विज्ञापन नहीं देखते, पर हमें लगता है, तुम टीवी ध्यान से नहीं देखते। अरे भई, नेताओं के लिए हाथ में झाड़ू लेकर फोटो खिंचाने से पहले उनके लिए सड़क पर कूड़ा लाकर डाला जाता है या नहीं? मैं तो कहता हूं किसी नेता को जानते हो तो उसे ले आओ, स्वच्छता अभियान का आधा काम हमने कर दिया है, उनके लिए तो झाड़ू लेकर फोटोग्राफर के साथ यहां आने भर का काम रह गया है”। उनका हाथ मेरे कंधे से हट चुका था और वे पास की पतली गली से निकल लिये थे।

सब्जी मंडी में चारों तरफ कचरा और कीचड़ फैले हुए थे। श्रीजी भी उसमें अपने हिस्से का इजाफा करके चले गए थे। सचमुच नेताओं के आने और सफाई अभियान को गति देने के लिए यह सही जगह थी। पर, मुझे पता था, सफाई अभियान के नाम पर उन्हें तो सिविल लाइन्स की साफ सड़कों पर पड़े सूखे पत्तों को हटाने जैसा बड़ा काम अंजाम देना था।

पता नहीं मुझे क्यों शहर भर में श्रीजी ही श्रीजी दिखाई देने लगे हैं, कुछ लोग अपने घर का कूड़ा-कचरा इस पावन उद्देश्य के साथ सड़क पर डाल रहे हैं कि स्वच्छता अभियान के लिए कचरे की कहीं कमी न रह जाए। शहर का सामान्यत: हर वृद्ध, अधेड़, युवा संभवत: इसी बात को लेकर चिंतित नजर आता है। रोजगार की कमी हो या फिर खाने-पीने की जरूरी चीजों की, स्कूलों की कमी हो या फिर दवाइयों की, पर कूड़े-कचरे की कमी नहीं होनी चाहिए ताकि स्वच्छता अभियान सरकार की अन्य कई महत्वपूर्ण योजनाओं की तरह अनंत काल तक चलता रहे। सरकारी योजनाओं की सफलता इसी बात से तो आंकी जाती है कि वह कितनी दीर्घायु है और उसके लिए कितना बजट बढ़ता रहता है।

स्वच्छता अभियान अगर जल्दी पूर्ण हो जाता है और पूरे देश में विदेशों जैसी साफ-सुथरी सड़कें और सफाई नजर आने लगती है तो देश को इसके गंभीर परिणाम झेलने पड़ सकते हैं। कचरा बीन कर रोजाना स्वयं अपने और अपने परिवार को जिंदा रखने वाले लोग कहां जाएंगे? फिर, कचरे से जूठन निकाल कर अपना पेट भरने वालों का क्या होगा? सूअर और आवारा कुत्ते कहां लोट लगाएंगे? कचरे के बड़े ढेर नहीं होंगे तो अनचाहे भ्रूणों, पैदा होते ही मार डाली गई बच्चियों और नवजात शिशुओं को कहां फेंका जाएगा? कचरे से भरे मुंह फाड़े पड़े बड़े-बड़े डिब्बे नहीं होंगे तो लोग चोरी का माल और हथियार कहां छुपाएंगे? इन सामाजिक समस्याओं पर लंबे-चौड़े भाषण देने वालों और कथनी-करनी में अंतर करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं और छोटे-बड़े नेताओं का क्या होगा? मैं सोचता हूं, स्वच्छता अभियान की घोषणा से पहले प्रधानमंत्री जी को इसके इतने सारे साइड इफेक्टों के बारे में सोच लेना चाहिए था। उनसे पहले के इतने सारे प्रधानमंत्री मूर्ख थोड़े ही थे कि उन्होंने स्वच्छता को एक “अभियान” की तरह नहीं चलाया। अब यही देख लो, इस अभियान की घोषणा के साथ ही इसकी हंसी उड़ाने और उसे असफल साबित करने के लिए, अब तक स्वयं कुछ ना कर पाने वाले नेताओं ने यूं ही तो अपना सबकुछ दांव पर नहीं लगा दिया है। देश की बहुत सी अच्छी योजनाओं की तरह वे इसे भी असफल सिद्ध करने और बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं और अपना विरोधी धर्म पूरी ईमानदारी से निभा रहे हैं।

मुझे लगता है, स्वच्छता अभियान से हमारे पर्यटन उद्योग को भी भारी क्षति पहुंचने वाली है। भला कोई विदेशी पर्यटक साफ-सुथरी जगह, सड़कें और गली-बाजार देखने हमारे देश क्यों आएगा, यह तो वह अपने देश में रोजाना देखता ही है। यदि उसे उगते सूरज की लालिमा में नहाए प्राकृतिक दृश्यों का आनंद उठाना है तो भी वह यहां क्यों आएगा? उसके स्वयं के देश में क्या इसकी कोई कमी है? वह यहां आता है सुबह सड़कों और नालियों के किनारे बैठ कर नेचुरल कॉल का जवाब देते सफाई के मसीहाओं को देखने के लिए, कूड़े-कचरे से सुशोभित गलियों-कूचों, ऐतिहासिक स्थलों और पिकनिक स्थलों का नाक पर रूमाल रख कर आनंद उठाने के लिए। मैं शर्त लगा सकता हूं कि सड़क पर चलते हुए गोबर, बिष्ठा या थूक में पैर भर जाने का आनंद उन्हें हमारे महान देश के अलावा और कहीं भी नहीं मिल सकता। फिर, अपने हाथ में कचरा लिये कचरा-पेटी ढूंढ़ने या नंबर एक और दो के निस्तारण के लिए शौचालय ढूंढ़ने मीलों दूर का चक्कर लगाने और इस बहाने अपना स्वास्थ्य सुधारने का मौका भी उन्हें और कहां मिलेगा? जरा सोचो, जगह-जगह कचरा-पेटियां उपलब्ध होने से उनका महत्व ही क्या रह जाएगा? किसी भी चीज का महत्व तभी तो होता है जब उसकी कमी हो। फिर, हम तो सदियों से कचरा-पेटियों के बाहर कचरा फेंकने और शौचालयों के बाहर या उनके अगल-बगल में नित्यक्रिया निपटाने में ही परमसुख का अनुभव करते आ रहे हैं और बस यही चाहते हैं कि इस अपरंपार सुख से हमारी अगली पीढ़ियां भी वंचित न रहें। हमारे लिए कचरा-पेटियों और शौचालयों की सुलभ उपलब्धता के क्या मायने? शायद इसी मर्म को समझते हुए हमारी कल्याणकारी सरकारें और नगरपालिकाएं इस “बेफिजूल” कार्य को करने में अपना दिमाग, समय और पैसा लगाना बेकार समझती आई हैं।

पता नहीं, हमें समझाने वाले कब समझेंगे कि सार्वजनिक स्थलों पर कचरा फैलाना हमारी संविधान प्रदत्त आजादी का प्रतीक है। यह देश हमारा है, सड़कें, गलियां, नालियां और हर सार्वजनिक जगह/वाहन हमारी संपत्ति है। हम संविधान में दिए अपने मौलिक अधिकार का उपयोग करते हैं तो किसी के बाप का क्या जाता है। हम अपनी संपत्ति का कैसे भी इस्तेमाल करें। इस पर रोक लगाना हमारी इस आजादी का हनन है, इसे अच्छी तरह समझ लिया जाना चाहिए, है कि नहीं?। समझ में नहीं आ रहा कि अश्लील लिखने, बोलने और दिखाने पर रोक लगाने वाली किसी भी बात को अभिव्यक्ति की आजादी पर चोट करने की संज्ञा देकर लड़ने-मरने वालों की जमात सड़क पर कूड़ा-कचरा फेंकने की हमारी आजादी पर रोक लगाने वाले इस अभियान को लेकर कोई प्रेस-विज्ञप्ति जारी क्यों नहीं कर रही? कोई जनहित याचिका दायर क्यों नहीं कर रही और कोई नया नारा उछालते, लाल, पीले, काले झंडे लहराते हुए सड़कों पर क्यों नहीं उतर रही? सचमुच घोर आश्चर्य का विषय है, है कि नहीं?

वैसे देखा जाए तो सफाई के मामले में हम किसी से कम नहीं हैं। कौन है जो सफाई के मामले में हमसे मुकाबला कर सके। हमारे देश में नेताओं के कपड़े सफेद-शफ्फाक हैं, उनके वादे, उनके आचरण साफ हैं, भ्रष्टाचार से सरकारी खजाने साफ हैं, महंगाई और करों से नागरिकों की जेबें साफ हैं, लोगों की थालियों से दालें और सब्जियां साफ हैं, गरीब लोगों की पढ़ाई, चिकित्सा, न्याय और इज्जत साफ है, घर में ताला लगा कर निकलो तो पूरा घर साफ है। बाहर गंदगी हो तो क्या, हमारे घर तो साफ हैं। ईमानदार, ईमानदारी, बड़ों का सम्मान और महिलाओं की इज्जत सभी कुछ तो साफ है। सफाई के ख्याल से ही हम अपना काला धन अपने देश में नहीं रखते। आए दिन कहीं न कहीं लगते कर्फ्यू की वजह से नागरिकों का सूपड़ा साफ है। हमारे देश में धार्मिक स्थल साफ हैं, धर्म के ठेकेदारों के वस्त्र साफ हैं, यहां तक कि धार्मिकता, नैतिकता और भाईचारा भी साफ है। विधर्मियों को साफ करने का अभियान तो यहां सदियों से चलता आ ही रहा है।

स्वच्छता अभियान वालों बताओ और क्या चाहिए हमसे? क्यों चलाया जा रहा है यह स्वच्छता अभियान, यहां तो पहले ही सबकुछ साफ है, है न?

 

मेरा जन्म 10 मई 1950 को भरतपुर, राजस्थान में हुआ था. लेकिन, पिताजी की सर्विस के कारण बचपन अलवर में गुजरा. घर में पढ़ने पढ़ाने का महौल था. मेरी दादी को पढ़ने का इतना शौक था कि वे दिन में दो-दो किताबें/पत्रिकाएं खत्म कर देती थीं. इस शौक के कारण उन्हें इतनी कहानियां याद थीं कि वे हर बार हमें नई कहानियां सुनातीं. उन्हीं से मुझे पढ़ने का चस्का लगा. बहुत छोटी उम्र में ही मैंने प्रेमचंद, शरत चंद्र आदि का साहित्य पढ़ डाला था. पिताजी भी सरकारी नौकरी की व्यस्तता में से समय निकाल कर कहानी, कविता, गज़ल, आदि लिखते रहते थे.

ग्यारह वर्ष की उम्र में मैंने पहली कहानी घर का अखबार लिखी जो उस समय की बच्चों की सबसे लोकप्रिय पत्रिका पराग में छपी. इसने मुझे मेरे अंदर के लेखक से परिचय कराया. बहुत समय तक मैं बच्चों के लिए लिखता और छपता रहा. लेकिन, कुछ घटनाओं और बातों ने अंदर तक इस प्रकार छुआ कि मैं बड़ों के लिए लिखी जाने वाली कहानियों जैसा कुछ लिखने लगा. पत्र-पत्रिकाओं में वे छपीं और कुछ पुरस्कार भी मिले तो लिखने का उत्साह बना रहा. महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी का भी पुरस्कार मिला. कहानियां लिखने का यह सिलसिला जारी है. अब तक दो कहानी संग्रह – नया लिहाफा और अचानक कुछ नहीं होता प्रकाशित हो चुके हैं. तीसरा संग्रह भीतर दबा सच प्रकाशनाधीन है. कहानियां लिखने के अलावा व्यंग्य लेख और कविताएं भी लिखता रहता हूं.

हर कोई अपने-अपने तरीके से अपने मन की बात करता है, अपने अनुभवों, अपने सुख-दु:ख को बांटता है. कहानी इसके लिए सशक्त माध्यम है. रोजमर्रा की कोई भी बात जो दिल को छू जाती है, कहानी बन जाती है. मेरा यह मानना है कि जब तक कोई कहानी आपके दिल को नहीं छूती और मानवीय संवेदनाएं नहीं जगा पाती, उसका आकार लेना निरर्थक हो जाता है. जब कोई मेरी कहानी पढ़कर मुझे सिर्फ यह बताने के लिए फोन करता है या अपना कीमती समय निकाल कर ढ़ूंढ़ता हुआ मिलने चला आता है कि कहानी ने उसे भीतर तक छुआ है तो मुझे आत्मिक संतुष्टि मिलती है. यही बात मुझे और लिखने के लिए प्रेरणा देती है और आगे भी देती रहेगी.

नौकरी के नौ वर्ष जयपुर में और 31 वर्ष मुंबई में निकले. भारतीय रिज़र्व बैंक, केंद्रीय कार्यालय, मुंबई से महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति के बाद अब मैं पूरी तरह से लेखन के प्रति समर्पित हूं.

ई-मेल – rks.mun@gmail.com

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