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  • संतोष श्रीवास्तव

गूंगी

हॉल की आधुनिक लेकिन राजसी सजावट को वह बिटर-बिटर टाक रही थी. सोफे पर बैठी निर्मला देवी का सब्र जवाब दे गया- “बोलती क्यों नहीं, गूँगीहै क्या?” उसने सर झुका लिया. आँखों की कैफियत बता रही थी कि आँसू उमड़ आये हैं.

“जी बाई सा.....” पास खड़ी फूलो नेजो निर्मला देवी की मुँह लगी नौकरानी थी और ख़ास उनके लिए ही नियुक्त की गयी थी कहा और उस पर नज़र डाल बोली- “बाई सा, गूँगी है बेचारी पर बहरी नहीं है. छै: साल में टाँसिल के ऑपरेशन से आवाज़ चली गयी पर पढ़ी लिखी है..... सातवीं पास है. विधवा माँ किसी तरह गुज़र-बसर कर लेती है गाँव में.”

“गाँव में? तो यहाँ किसके पास रहती है?”

“मामा के पास..... पर वो भीकब तक पाले इसे..... आपकी सेवा में अपनी रोटीकमा लेगी बाई सा. छोरी पर उपकार हो जाएगा.”

“चल, तेरे कहने पे रख लेती हूँ फूलो. छोटीबींदणी के संग घर के काम काज सीख लेगी. पिछवाड़े का कमरा खोल दे इसके लिए..... देख..... क्या नाम है फूलो इसका.....

“नाम तो महुआ है बाई सा. महुआ के झाड़ के नीचे जन्मी है न, इसीलिए. पर घर में सब मुन्नी बुलाते हैं.”

“मुन्नी टुन्नी नहीं..... हम तो महुआ ही कहेंगे. रहना, खाना, कपड़ा सब मिलेगा. पर काम जी लगाकर करना पड़ेगा.”

महुआ हर बात में हाँ में सिर हिला रही थी. फिर फूलो की ओर इशारा कर रुपियों की बाबत पूछा. निर्मला देवी समझ गई, लड़की होशियार है. छोटी बींदणी वसुन्धरा के लिए रख लेते हैं. उन्होंने भी दोनों हाथ की दसों उँगलियाँ खड़ी कर दीं- “एक हजार.”

“अरी..... पैर छू बाई सा के..... तेरे तो भाग खुल गए मुन्नी, अब और क्या चाहिए फूलो ने उसे पैर छूने का इशारा किया. पैरों की ओर बढ़ते हाथों को परखा निर्मला देवी ने, कामकाजी हाथ हैं. उँगलियाँगठीली..... हथेलियाँ ज़रूर खुरदरी होंगी. चेहरा कितना मोहक और मासून है. आँखेंबड़ी सुंदर हैं..... होंठ मादक..... हँसते हुए अच्छी लगती होगी.भगवान भी कभी-कभी कैसा अनर्थ कर डालता है. “एक आह-सीभरते हुए उन्होंने इन्टरकॉम के जरिए वसुंधरा को बुलवाया. वसुंधरा नहाकर निकली ही थी. बालों से पानी की बूँदें टपक रही थीं. सिर पर आँचल ले उन्होंने आते ही निर्मला देवी के पैर छुए. निर्मला देवी समझ गई- “आज छोटी बींदणी का मंगल का व्रत है.” उनके सिर पर हाथ रखते हुए बोलीं- “छोटी बींदणी..... आज से ये गूँगी तुम्हारी सेवा में. इसे घर के काम काज सिखा देना. पहनने को अच्छे कपड़े दे दो. जाओ महुआ..... ये तुम्हारी छोटी मालकिन हैं.”

महुआ ने हाँ में सिर हिलाया और वसुंधरा के साथ गलीचा बिछा गलियारा जिसमें बायीं ओर लाइन से कैक्टस के गमले रखे थे, पार कर उनके कमरे में आ गई. उसे लगा, जैसे वह परियों के देश में आ गयी है. ऐसा सब परियों की कहानियों में पढ़ रखा था, आज साक्षात देख रही है.वसुंधरा ने उसे अलमारी से ढेर सारे कपड़े निकाल कर दिए- जब जो मन करे पहनना.

वह चमकती आँखों से दीवानपर रखे कपड़ों पर हाथ फेरने लगी. तभी फूलो आकर उसके पिछवाड़े के कमरे में लाकर बोली- “मुन्नी, आज से यह कमरा तेरा..... वो गुसलखाना है..... पहलेनहा ले. कपड़े उस अलमारी में रखना. बिस्तर झटकार ले..... है न सुन्दर कमरा?”

महुआ खुश होकर फूलो से लिपट गयी. उसकी आँखों से आँसू ढलकने लगे.

“रोती क्यों है छोरी? इन लोगों की सेवा करेगी तो फायदे में रहेगी. लेकिन एक बात गाँठ बाँध ले. इन्हें भूलकर भी पता न लगे कि हम नीची जाति के हैं, कंजरों की बिरादरी के हैं. समझी? वरना तेरे हाथ का पानी भी नहीं पिएँगी ये सेठानियाँ. सेठ भले कंजर औरत को रखैल बनाने में अपनी शान समझें.”

महुआ का मुँह कड़वा हो आया- रखैलकीभला क्या औकात? जैसे खूँटे से बँधीगाय..... चारा पानी डालते रहो और..... महुआ जानती है ऐसी सोच रखना व्यर्थ है..... वह गूँगी जो है. ईश्वर ने उसे सन्नाटे बख्शे हैं और उसे उसी में जीना है. नहा धोकर, तैयार होकर वह वसुंधरा के कमरे में उनके सामने हाज़िर हो गयी. वसुंधरा ने उसे सिर से पैर तक निहारा..... “अच्छी लग रही हो. फूलो चली गई क्या? चलो, मैं ही तुम्हें रसोई में महाराज से मिलवाए देती हूँ. वो तुम्हें सब काम सिखा देंगे.”

महुआ ने देखा..... खूब बड़े आधुनिक रसोई घर में महाराज के साथ दो औरतें भी जुटी हैं खाना पकाने में. एक सब्ज़ी काट रही थी, दूसरी आटा गूँथ रही थी. महाराज मिक्सी चलाकर मसाला पीस रहे थे.

“इसे यहाँ क्या करना है बता दिया न माँ सा ने?”

“जी..... अभी इंटरकॉम आया था छोटी मालकिन.”

तभी वसुंधरा का मोबाइल बजा. उनके जाते ही वह महाराज के पास जाकर खड़ी हो गई. उसने मिक्सी चलाने की इच्छा इशारे से प्रगट की.

“नहीं अभी तुम बस देखो..... शाम को खाने में मदद करना. वो जो सब्जी काट रही है वह सुधा है और जो आटा गूँथ रही है वह नीलू है.”

दोनों उसकी ओर देखकर मुस्कुराई. इतनी बड़ी कोठी में न जाने कितने लोग हैं..... कितना ढेर सारा आटा गूँथ रही है नीलू. महाराज ने उसे एक बड़ा सा बूँदी का लड्डू प्लेट में रखकर दिया. “ले..... उधर कोने में जाकर खा लौर पानी पी ले. खाना दो बजे मिलेगा. एक बजे बड़े सेठ फैक्ट्री से आयेंगे. उनके और बड़ी सेठानी के खा लेने के बाद सब खाते हैं.”

रसोई घर में महुआ बिना काम के जल्दी ही ऊब गई और महाराज को इशारे से बताकर अपने कमरे में आ गई. कमरे के सामने बड़ा सा लॉन था, उसमें झूले पड़े थे. बच्चों के खेलने की पूरी सामग्री थी वहाँ. आगे की तरफ़ खूब बड़ा बगीचा और विशाल गेट. कमरे में मन नहीं लगा, लगता भी कैसे इतनी समृद्धि वह पहली बार देख रही थी. कितने पड़ावों से गुज़र चुकी है उसकी ज़िंदगी जबकि उम्र के पच्चीस बरस ही गुज़रे हैं अभी. माई बापू के साथ गाँव में मिट्टी और फूस से बने कच्चे झोपड़े में रहती थी. फिर मामा की कांदिवली में चॉल..... वहीँ खाना पका लो, कोने की मोरी में नहा धो लो. चॉल की सीलिंग पर एक छोटा सा मालिया था. झुक-कर चलना पड़ता था. वहीँ वह दोनों ममेरे भाईयों के साथ सोती थी. दोनों उम्र में उससे छोटे और बेहद शरारती. उसे याद नहीं कि एक भी रात ऐसी गुज़री हो जब मामा शराब पीकर न आया हो और मामी को न पीटा हो. न जाने क्यों सहती है मामी उसकी मार? पिटने के बाद भी वह मामा के संग एक ही बिस्तर पर सोती है.

यह कैसी मजबूरी है. माई कहती थी अगर तेरे भाई होते तो तेरा बापू मेरी इज्जत करता. रोज़ मार कूट थोड़ी करता तब. पूतों वाली औरत के सत्तर नखरे. पर दो बेटों को जन्म देकर भी वह मामा की मार पीट, गाली गलौंच सुनती है. धीरे-धीरे महुआ के मन में मामा के प्रति विद्रोह अंकुरित होने लगा. काम में हाथ बँटाने के बावजूद मामी उसे कोसती- “क़ुतुबमीनार सी लंबी होती जा रही है धींगड़ी, कुछकाम धंधा कर..... कब तक छाती पर मूँग दलेगी.”

उसे बुरा नहीं लगा. ठीक ही तो कह रही है मामी, जब वह मामा से नफ़रत करती है तो क्यों खाए उसकी रोटी? उसने सामने की बिल्डिंग के बच्चों को स्कूल लाने ले जाने की नौकरी पकड़ ली. एक साथ दस-दस बस्ते टाँगने पड़ते..... हाथ में पानी की बोतलें, टिफ़िन..... थक जाती पर विश्वास था इसी में से कोई राह ज़रूर निकलेगी.

कई महीने गुज़र गये. लेकिन अब मामी उस पर ज़्यादा चिल्लाती नहीं थी. पहली तारीख को पूरे हज़ार रुपए जो लाकर देती थी महुआ. एक दिन मामी बच्चों समेत मायके चली गई..... उसे मामा के लिए खाना पकाने को छोड़ गई. वह मोरी पर नहा रही थी तभी मामा आ गया. उसे उघाड़े बदन देख लगा उसे नोचने-खसोटने. अपने नाजुक हाथों से उसने मामा के बलिष्ठ हाथों की पकड़ छुड़ानी चाही. उसके कसमसाने से मामा भड़का- “कंजरी..... इतना नखरा?” महुआ का मन किया उसके मुँह पर थूक दे..... “मैं कंजरी तो तू भी तो कंजर है न! मजबूर करते हैं तेरे जैसे औरतखोर मर्द कंजर औरत को शरीर का सौदा करने के लिए. उन्हें सेठों की दहलीज पर तुझ जैसे मर्द ही भेजते हैं ताकि पूरी उमर ऐश कर सकें उनकी कमाई पर और तू..... तू तो अपनी बेटी जैसी तक को नहीं छोड़ रहा”..... पर काश उसके ज़बान होती. जबान नहीं पर ताकत तो है. उसने मामा के पेट पर घुटने की चोट की. वह संतुलन सम्हाल नहीं पाया. महुआ ने कोने से टिकी लाठी उठा मामा पर कई वार किये. घायल हिरनी सी वह अंधाधुंध मारती रही और मुँह से गों-गों की करुण आवाज़ निकालती रही. मामा पिटता रहा. शायद वह महुआ के उस रूप से बेख़बर था. वह तो गनीमत है पिटने पर भी मामा सही सलामत है वरना ठेकेदार तो उसकी मार से अभी भी लंगड़ा कर चलता है.

ज़्यादा पुरानी बात कहाँ है? दो ही साल हुए हैं. ठेके पर उठे जंगल में वह माई, बापू और अपनी चारों बहनों के साथ बाँस काटने की मज़दूरी करने गई थी. मामा यहाँ दर्जी हो गया है तो क्या..... काम तो उनकी कंजर बिरादरी का यही है. बाँस काटना, छीलना और चीरना. फिर टोकरी, सूप और चटाई आदि बनाना. माई बापू यही करते थे. हफ्तों जंगल में रहना पड़ता. रोज़-रोज़ जंगल से गाँव कोसों चल कर आना भारी पड़ता है. ठेकेदार राशन पानी दे देता है. वहीँ ईंटों का चूल्हा बनाकर पक जाती है रोटी. उस साल बाँस खूब उगा था. हवा में झूमते थे दीवानावार पेड़, झुरमुट में से बाँसुरी की धुन सी निकलती. छोटे नरम बाँस के कल्लों को माई आलू जैसा काटकर मसाले में भूनती थी. महुआ उसे चावल में सानकर बड़े मज़े से खाती थी. सभी मजदूर लड़कियों औरतों के संग वह भी कटे बाँसों का गट्ठरा बनाकर ढोती थी. ठेकेदार हाँक लगाता- “तेरे गट्ठर में बाँस कम बँधे हैं..... गिनूँ तो कितने हैं?”

वह सिर झुका देती. बड़ी देर बाद समझ में आया कि यह उसका बहाना था. वह तो झुकने से उभरी, ब्लाउज़ से झाँकती माँसलगोलाई को देखता था. तब से वह ब्लाउज पर आँचल अच्छे से ओढ़कर लेने लगी. ठेकेदार झल्ला पड़ा-

“अरे, काहे इतना ढँक-मूँद कर रहती है महुआ? हम से परहेज कैसा?” ठेकेदार के तंबाखू रंगे दाँतों को देख पूरे शरीर में फुरेरी दौड़ गई थी. ईश्वर गूँगी न बनाता तो करारा सा जवाब देती इसका फिर भी ठेकेदार की तरफ़ नफरत भरी नज़र डाल वह गट्ठर सिर पर साध वहाँ से हट गई.

अँधेरा होते ही कंजरों और बँसोंड़ों के तंबुओं में मिट्टी के तेल की ढिबरियाँ जल गई थीं. माई चूल्हे पर खाना पकाकर थाली में परोस कर बोली- “ले खा ले मुन्नी..... फिर एक गट्ठर बाँस चील डाल.....” तंबुओं में कहीं नये-नये ब्याहे जोड़ों में खुसर पुसर चल रही थी तो कहीं दारु-बीड़ी के दौर, कहीं बाँसुरी के सुर तो कहीं लोकगीतों की तान..... ठेकेदार को घेरे उसके चमचों का झुंड न जाने किस बात पर भद्दे ठहाके लगा रहा था. वह बाँस छीलने बैठी ही थी कि माई पर देवी आ गई. वह बाल खोलकर, जीभ निकालकर झूमने लगी.

“अरे, माता पधारी हैं.”

तंबुओं में हड़कंप मच गया. माई को घेरे औरतें अपने-अपने सवाल लिए तैयार थीं. माई सबके जवाब दे रही थी. दीपक जलने लगे अगरबत्तियाँ महकने लगीं. गुड़, नारियल और पान सुपारी चढ़ाए जाने लगे. दो घंटे बाद माई लस्थ-पस्थ हो कथड़ी पर पसर गई. देवी माँ जा चुकी थीं. तंबू में से भक्तों की भीड़ भी चली गई थी. बापू ने माई को गुड़ डला दूध ओंटाकर पिलाया. अब सब कुछ शांत था. पेट की आग और चूल्हे की आग एक साथ ठंडी पड़ चुकी थी. महुआ अपनी कथड़ी अमलतास के पेड़ के नीचे से घसीटकर बाँसों के ढेर की आड़ में ले गई. अमलतास की टहनियों से लाल-लाल चीटे झरते हैं. काटते हैं तो फफोला पड़ जाता है. ठंडी हवा ने महुआ को थपकियाँ देकर सुला दिया. आधी रात को अचानक उसकी नींद खुल गई. अँधेरे में भी वह पहचान गई ठेकेदार को जो उसके गालों पर अपनी हथेलियाँ फिरा रहा था. उसकी चीख गों-गों की आवाज़ बन उभरी और उसने ठेकेदार पर ज़ोरों से अपनी लात मारकर परे किया और दौड़ती हुई माई के पास आई. हाँफ-हाँफ कर अस्फुट स्वरों सहित उसने हाथ के इशारे से जो कुछ बताया, सुनकर माई ने उसे अपने सीने से लगा लिया. ठेकेदार को सबक सिखाने के लिए उठे उसके विचार उसके अंतस् में दुबक कर रह गये. उसका साहस जवाब दे गया. अगर ठेकेदार ने काम से निकाल दिया तो रोटी के लाले पड़ जाएँगे. उसने महुआ के आँसू पोछे- “तू औरत बन जन्मी है मुन्नी, सबर करना सीख.”

महुआ ने माई के चेहरे पर जो मजबूरी देखी वह उसके दिल में कील सी गड़ गई. इसी माई पर अभी कुछ ही घंटे पहले देवी आई थी और अब यही माई!!!

टोले नाते के लोग गूँगी समझ हमेशा उस पर दया करते रहे पर वह इस दया से किर्च-किर्च.

मामी दो दिनों तक नहीं आई. वह बाजूवाली चॉल में फूलो के घर रही. मामा के घर आई ही नहीं. फूलो जानती थी कि छोटी बींदणी की कोई नौकरानी नहीं है और बाई सा को जल्दी ही कोई अच्छी लड़की उनकी सेवा में लगानी है. महुआ ने इशारों में मामा की हरकत उसे बता दी थी. माई की उम्र की फूलो ने उसे गले से लगाकर समझाया- “ये बात अपनी मामी को मत बताना, दुःख होगा उसे. चल, मैं तेरा काम कोठी पर लगवाती हूँ.”

“तू यहाँ खड़ी है. जा, छोटी मालकिन को खाना दे आ फिर हम सब इकट्ठे खायेंगे.”

नीलू उसके दरवाजे पर खड़ी थी. नीलू का पति छोटे मालिक का ख़ास खिदमतगार है. नीलू बड़े मालिक की विधवा उर्मिला देवी की नौकरानी है. साल भर पहले बड़े मालिक का अचानक हार्ट फेल हो गया था. तब से उर्मिला देवी ने खुद को कमरे में कैद सा कर लिया है. उनका छै: वर्षीयबेटा और चार वर्षीय बेटी हमेशा बड़ी सेठानी के कमरे में शरारतें करते रहते हैं. वैसे कैद तो इस घर में हर सदस्य लगता है महुआ को. छोटी मालकिन भी..... जब वह ट्रे में उनका थाल परोस कर लाई और टेबिल पर रख पानी की ठंडी बोतलें लेने जाने लगी तो देखा छोटी मालकिन सोफे पर बैठी शून्य में ताके जा रही थीं. चेहरा उदास, भावप्रवण आँखों में तैरती पीड़ा महुआ ने बखूबी पहचान ली. उसने उनके पास जाकर खाना खा लेने का इशारा किया. वसुंधरा ने उदास आँखें उसके चेहरे पर टिका दीं- “खा लूँगी, तुम जाकर खा लो..... फिर मेरे लिए कॉफी बना लाना.”

खाते हुए नीलू ने बताया कि “छोटी मालकिन दोपहर का खाना अकेले ही खाती हैं. छोटे मालिक ठाणे की फैक्ट्री का काम सम्हालते हैं. उतनी दूर से आना मुश्किल है. रात ग्यारह बजे लौटते हैं. फिर खाना खाकर छोटी मालकिन को सैर कराते हैं..... वो क्या कहते हैं.....”

“लाँग ड्राइव,” सुधा ने घमंड से कहा.

“ये मेरी भाभी..... अंग्रेज़ी भी जानती है. इसीलिए तो यश बाबा, प्रीति बेबी और सुयश बाबा की आया है. तीनों को ये ही होमवर्क कराती हैं.”

दोपहर ढलते ही फूलो के संग माई को अपने कमरे की ओर आते देख वह खोई हुई बछिया सी उनसे लिपट रो पड़ी. माई उसे तसल्ली देती रहीं- “मुन्नी, भले घर में लग ली है तू..... जीवन सुधर गया तेरा. अब इसी को अपना घर मान” यानी कि माई ने हमेशा के लिए उसे बेच दिया इनके हाथों. गुलाम बना डाला. ईश्वर ने उसकी आवाज़ छीन ली. तो माई ने उसकी आज़ादी बाकी एक गुलाम की क्या हैसियत? कोठी की परंपराओं को निभाते हुए हर हाल में उसे कब्र सा शांत रहना है.

“अब बस भी कर मुन्नी. तेरी माई हर महीने तनख्वाह लेने आएगी तो मिलेगी न तुझसे. तेरे काम से खुश बड़ी सेठानी ने माई की पन्द्रह सौ की जिद्द को मान लिया है. हर महीने दो तीन घंटे तुझे माई के साथ बिताने को मिलेगा न.” बस..... दो तीन घंटे ही..... इससे ज़्यादा की आज्ञा नहीं..... सहसा महुआ के कानों में कोंचती आवाज़ें धँसने लगीं..... तू गुलाम है महुआ..... तू गुलाम है.

धीरे-धीरे महुआ ने अपनी हैसियत पहचान इस कोठी में खुद को खपा लिया.

अब उसके इशारे सबकी समझ में आने लगे थे. मौन की इस भाषा ने महुआ के विद्रोही स्वभाव को भीतर से मुखर कर दिया था. उसका दिमाग बहुत तेज़ था और आँखें तह तक की पड़ताल कर लेती थी. अगर वह गूँगी है तो इसमें उसका क्या दोष? कितनी उसकी जान पहचान, नाते रिश्ते की लड़कियाँ हैं. सब तो गूँगी नहीं..... फिर क्यों नहीं उनके ब्याह होते? फिर क्यों वे ठेकेदार जैसों की हवस का शिकार होती हैं.

अगले दिन बाँस का गट्ठर ढोते हुए उसने पेड़ के नीचे आराम से बैठे ठेकेदार के पैरों पर जान बूझकर गट्ठर पटक दिया. वह बिलबिला कर चीखा- “अरे, मार डाला रे गूँगी, कंजरी ने.” पलभर में मजदूर जमा हो गये. ठेकेदार का पंजा लहू लुहान हो गया था. एक मजदूर दौड़कर पानी ले आया, दूसरे ने कंधे के गमछे की पट्टी बाँधी. ठेकेदार कराह रहा था और रह रह कर उसे कोस रहा था. तीन चार मजदूर उसे कंबल में चारों कोनों से गठरी जैसा उठाकर गाँव के अस्पताल ले गये. पता चला टखने की हड्डी टूट गई है. प्लास्टर बँध गया जो तीस दिन बाद खुलेगा. महुआ मन ही मन खुश थी लेकिन बापू ने उसी गट्ठर से बाँस निकाल महुआ पर बरसाने शुरू कर दिए- “करमजली..... देखकर नहीं चलती आँखें तो दी हैं न भगवान ने?”

लोगों ने रोका- “क्या मार डालेगा छोरी को? जान के तो गिराया नहीं, ठोकर लग गई होगी.”

पर महुआ को बापू की मार फूल सी लगी. उसने ठेकेदार से बदला ले लिया था. वह किसी कीमत पर खुद को किसी की हवस का शिकार नहीं होने देगी. उसके जबान नहीं है पर हाथ पाँव तो हैं न. अगर वह औरत होकर घर परिवार बाल बच्चों वाली नहीं हो सकती तो अपने शरीर का सुख भी किसी को उठाने नहीं देगी.

माई बापू महुआ को देख देख बिसूरते. क्या होगा इसका? रूप रंग में उजली चंदा सी पर मुँह में बोल नहीं तो कौन भाँवरें फिरेगा इसके साथ. ऊपर से तेवर विद्रोहिणी के..... उस जल्लाद डॉक्टर ने न जाने कैसे गले की कौन सी नस काट डाली कि गूँगी कर दी छोरी. आज तक बोलती बंद है. भूत, चुड़ैल का साया मानओझा से झड़वा भी चुके, अंग्रेजी, जड़ी बूटी सब इलाज करा डाले पर कोई असर नहीं. इसी चिंता में बापू बीमार पड़ गये. शादी तो उनकी चार बेटियों की भी नहीं हुई थी पर वे गूँगी तो नहीं थी. ठेकेदार वाली घटना से बापू सकते में थे. हफ्तों से बुखार उतरने का नाम नहीं ले रहा था. शरीर पीला पड़ गया था. सोकर उठते तो तकिया चादर सब पीले हो जाते. गाँव का डॉक्टर बता रहा था कि पीलिया हुआ है. बेटियों ने, माई ने खूब सेवा की पर बापू पतझड़ के पीले जर्द पत्ते की तरह एक दिन झर ही गये. उनका मरना परिवार को हिला गया. बिलखती माई को ढाँढस बँधाया मामा ने..... “महुआ को मैं मुंबई लिवा ले जाता हूँ. वहाँ अपनी मामी के संग काम करेगी तो कमाई दुगनी हो जाएगी. तुझे भी भेजेगी पैसा. अब तू अपनी चार बेटियों की सोच.” माई के आगे इसके सिवा कोई चारा भी तो न था. जबकि वह जानती थी कि मामा का चाल चलन अच्छा नहीं है. वहाँ दर्जीगिरी करता है और शराब पे पैसा उड़ाता है पर मजबूरी थी.

मुंबई आकर महुआ मामी के काम में हाथ बँटाने लगी. घर के कामों से निपट कर साड़ियों में फॉल, बीडिंग, ब्लाउज़ कुरते में हुक, बटन टाँकना, तुरपाई करना आदि कामों में जुटी रहती. जैसे-तैसे मन लगाया था उसने वहाँ. पर मामा की नीचता ने उसका दिल तोड़ दिया.

वसुंधरा का पाँच वर्षीय बेटा सुयश प्रीति और यश के साथ ही बना रहता था. महुआ ने उसे एकाध बार ही वसुंधरा के कमरे में देखा होगा.

वह वसुंधरा के कपड़ों में आयरन कर रही थी. वे अपने लंबे घने रेशमी बालों को सुलझाती हुई उसके नज़दीक आई- “अच्छा है महुआ..... तुम बोल नहीं सकतीं. हम बोलते हैं तो बुरे कहलाते हैं.”

उसने सवाल भरी आँखों से अपनी छोटी मालकिन की ओर देखा. रक्तिम आँखें जो रात भर जागरण का सबूत थीं उसकी हिम्मत छीन रही थीं.

“महुआ..... तुमने शो केस में सजी गुड़िया देखी है?”

यानी कि छोटी मालकिन खुश नहीं हैं यहाँ. वे किसी से बात भी तो नहीं करतीं, कहीं आती जाती भी तो नहीं. इस कोठी में न जाने कितने घर हैं..... अलग-अलग ज़िंदग़ी जीते..... अजनबी एहसासों से घिरे. आयरन से निपट वह उनके नज़दीक फर्श पर बैठ गई और उनके तलुओं को सहलाने लगी. सोने की पाजेब उसे छोटी मालकिन के पैरों की पाजेब कम बेड़ियाँ अधिक लग रही थी. माई कहती थीं कि कंजर औरतों को पाजेब पहनाकर मालदार सेठ अपनी बना लेता है यानी किसी के हो जाने का ठप्पा. मर्द ऐसी कोई निशानी क्यों नहीं पहनता क्योंकि वह किसी एक का होकर नहीं जीता. सवाल जवाब के घेरे से बाहर निकल महुआ ने देखा छोटी मालकिन की आँखें धीरे-धीरे मूँदने लगी थीं.

“महुआ, वह औरत क्या करे जो सुहागिन होकर भी कँवारी जैसी ज़िंदग़ी जिए..... पति के होते हुए भी अकेलेपन का अवसाद झेले.”

महुआ ने अब उनके बालों में उँगलियाँ फेरनी शुरू कर दीं. काफी देर तक वह उन्हें दुलारती थपकारती रही जैसे वह उनकी माँ हो. फिर उनकी चोटी गूँथ वह कमरे से बाहर चली गई. शाम के गुलाबी रंग बिखर रहे थे. दोनों वक़्त मिलने के सन्नाटे में सामने के आम के पेड़ पर अपना घोंसला बनाते कठ फोड़वा की ठ्क-ठ्क सीधे हृदय में ही चुभी जा रही थी.

रात महुआ की आँखों में नींद नहीं थी. कभी माई, कभी मामी, कभी उर्मिला देवी, कभी छोटी मालकिन उसे बेचैन कर रही थी. क्या यही है औरत का जीवन? उसे अपने मामा के घर के आसपास की चॉल से रात के सन्नाटे में तैरती आती औरतों की सिसकियों, रुदन का अर्थ अब बखूबी समझ में आता था. अच्छा होता अगर नौसिखिए डॉक्टर से उसकी स्वर नली नहीं बल्कि श्वास नली ही कट जाती..... ऐसे जीने से तो न जीना बेहतर? मर्दों की दुनिया में औरत बस माँस की पुतली ही जन्मी है. मर्दों के मनोरंजन के लिए, संतुष्टि के लिए, सेवा के लिए और उनका वंश बढ़ाने के लिए. शुरू-शुरू में कोठी में उसने खुद को सुरक्षित पाया था. ऐशो आराम की ज़िंदग़ी भले ही वह नौकरानी की हैसियत से ही क्यों न हो, जी रही थी. पर अब लगता है इस कोठी की हर औरत सीली लकड़ी सी धुआँ दे रही है. यही हाल सेठों की रखैल बनी उसकी बिन ब्याही बहनों का था. तमाम सुख सुविधाओं के बीच वे भी अपने अधिकारों के लिए तड़पती रहती. अपनी पाँचों बेटियों के ब्याह की आस लिए माई की बुढ़ाती आँखें बाँसों के झुरमुट पर टिक जातीं जो कभी फूलता नहीं और अगर फूलता है तो अकाल भी संग संग आ जाता है. दुर्भाग्य वहाँ भी पीछा नहीं छोड़ता.

सुबह छोटी मालकिन का नाश्ता टेबिल पर रखते ही उसने उनसे लाँग ड्राइव में क्या होता है पूछा. पहले तो वसुंधरा को उसके इशारे समझ में ही नहीं आये. वह दौड़कर सुयश बाबा के कमरे से खिलौना कार उठा लाई..... चला कर दिखाने लगी तब जाकर उनकी समझ में आया तो खूब देर तक हँसती रहीं. महुआ ने उन्हें पहली बार खिलखिलाकर हँसते देखा था जैसे गोबर लिपे आँगन में धान की खीलें बिखर गई हों. वह मुग्ध हो देखती रह गई.

“लाँग ड्राइव यानी कार से लंबी सैर..... जब काम का बोझ न हो, सड़क सुनसान हो, रात का रूमानी माहौल हो और बाजू में मनचाहा साथी हो. तुम्हारे छोटे मालिक जाते हैं..... हम नहीं. हमारा काम है इंतज़ार करना, सो करते हैं.”

महुआ को उनकी आँखों का दर्द समझ में आ गया था. छोटे मालिक से उपेक्षित हैं वे. दिन भर फैक्ट्री, रात को लाँग ड्राइव, हाँ छोटी मालकिन शो केस में सजी गुड़िया ही तो हैं. दुनिया की नज़रों में इस कोठी के ठाठ बाट में जीती छोटी मालकिन..... लेकिन अपने कमरे में बंद मात्र एक कैदी जो प्रतीक्षा करता है कि कब सजा की अवधि ख़त्म हो और कब वह आज़ाद हो.

हमदर्दी उसे उर्मिला देवी से भी है. जवानी में ही वैधव्य के कठोर अनुशासन का पालन करती वे भी किसी से मिलती जुलती नहीं, बोलती बतियाती नहीं. पर सुबह शाम मंदिर तो हो ही आती हैं कम से कम, छोटी मालकिन की तरह उदास तो नहीं लगतीं.

सब्जियाँ काटते उसके हाथ रुक गये थे जब फूलो ने आकर कहा था- “दोपहर को खाने के बाद ढंग से तैयार हो जाना मुन्नी. तुझे बड़ी सेठानी के साथ ओशीवारा जाना है.”

उसने इशारा किया- “क्यों?”

“बड़ों की बात बड़े ही जाने. हमसे जो कहा गया, हमने कह दिया. तू गूँगी है इसलिए सबके काम आती है.”

महुआ के कुछ-कुछ समझ में आया. यानी उसे साथ रखने में किसी को कोई खतरा नहीं है.

“देख मुन्नी..... तूनेबड़ी सेठानी को खुश तो कर लिया है. इतना बहुत है तेरे लिए. किस्मत वाली है तू..... तेरी बड़ी बहन एक ईसाई लड़के के संग भागकर खुद भी ईसाई हो गई. हम कंजरों को क्या ये शोभा देता है?”

फूलो चली तो गई पर जाते-जाते उसे जो दंश दे गई उसका दर्द नस नस में समा गया है. वह माई के लिए मन ही मन रो पड़ी. मिशनरी वाले उसके गाँव आये थे और नीची जाति के लोगों, दलितों को फुसलाकर ईसाई होने की सलाह दे रहे थे. तब माई ने कहा था- “मेरे तन पर देवी पधारती है. हम देवी के भक्त ईसाई कैसे हो सकते हैं?” क्या माई के लिए एक पल भी न सोचा बड़ी ने? क्या प्यार सारे रिश्ते भुला देता है? उसका मन भारी हो आया.

महुआ ने खाने के नाम पर जुठार लिया और तैयार हो कर बड़ी सेठानी के आदेश पर कार में ड्राइवर के बगल में जा बैठी. बड़ी सेठानी पीछे की सीट पर. कार ओशीवारा की दस मंज़िली इमारत के सामने रुकी. सभी मंज़िलों पर ऑफ़िस..... तीसरी मंज़िल के ऑफ़िस के अंदर बड़ी सेठानी ने बड़े रुआब से प्रवेश किया और महुआ से विज़िटिंग कार्ड काउंटर पर देने को कहा लेकिन बुलावे की प्रतीक्षा किये बिना वे केबिन में चली गईं. सामने मूविंग चेयर पर बैठी महिला अचकचा कर खड़ी हो गई.

“जी आप?”

“बंद करो ये खेल खेलना. क्यों वसुंधरा का घर उजाड़ने पर तुली हो?”

महुआ बड़ी सेठानी की कठोर आवाज़ सुन काँप गई.

“प्लीज़, आप बैठिए. हम इत्मीनान से बात कर सकते हैं. और ये लड़की?”

“मुद्दे की बात करो.” बड़ी सेठानी ने उसके शब्दों की उपेक्षा करते हुए कहा- “क्या चाहती हो तुम? रुपिया..... ये लो ब्लैंक चैक..... लिख लो रकम मेरे बेटे को छोड़ने की.”

“यह बात आप उन्हीं से क्यों नहीं कहतीं?”

“उन्हीं से क्यों सारी दुनिया से कहुँगी. बदनामी मर्द की नहीं होती..... जानती हो तुम.”

सहसा उस महिला ने बड़ी सेठानी के पैर पकड़ लिए- “नहीं, ऐसा मत कीजिए. मैं उनके बिना नहीं रह सकती. मैं मर जाऊँगी. मुझ पर रहम करिए.

बड़ी सेठानी ने अपने पैर छुड़ाए और खड़ी हो गई- “सम्हल जाओ, दुबारा न आना पड़े मुझे.”

वे तीर सी बाहर निकलीं. महुआ को दौड़कर उनके साथ होना पड़ा. रास्ते में वे महुआ से बोलीं- “अपनी छोटी मालकिन की परछाई बन जा..... तू..... बहुत दुःखी हैं वे, उनका ख़ास खयाल रख.”

नतीजा..... सोते जागते, उठते बैठते महुआ के कान छोटी मालकिन के कमरे के आसपास ही लगे रहते. कई बार वह उनके कमरे से आते रुदन को हवाओं में महसूस कर चुकी है. कई बार छोटे मालिक की तेज़ आवाज़ें भी..... जो अक़्सर लड़खड़ाती सी, नशे में भरी होतीं-

“अब मेरे बाहरी कामों में भी दखल देने लगी हो तुम? तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई माँ सा से कहने की, उन्हें ओशीवारा भेजने की. वो तो गनीमत है मैं उसे अलग फ़्लैट में रखे हूँ, वरना कोठी में भी ले आऊँ तो कौन रोक सकता है मुझे.”

वसुंधरा खामोश रहती..... चुपचाप छोटे मालिक का जुल्म सहतीं. वे जानती थीं कुछ हासिल नहीं होगा उनका विरोध करने से. जब माँ सा कोशिश करके हार गईं तो वे तो निहायत कुंठित, डरपोक और भावुक हैं. बछड़ा खूँटे के बल पर उछलता कूदता है. उनका तो खूँटा ही कमज़ोर है. पिता की मृत्यु के बाद माँ सहित पूरा परिवार बड़े भैय्या के भरोसे है. ससुराल जितना अमीर भी नहीं. फिर विद्रोह करें भी तो किसके बल पर इसीलिए खुद को भूलकर जी रही हैं. वो तो माँ सा अगर अचानक उस रात उनके कमरे में नहीं आतीं तो लाँग ड्राइव पर उनके नहीं जाने की सच्चाई पर परदा ही पड़ा रहता.

फिर धीरे-धीरे सब कुछ रूटीन में आने लगा. तूफान थम गया और टूटी टहनी सी वसुंधरा खुद को पराजित, उपेक्षित महसूस करने लगीं.

“सुबह उनके शरीर पर उबटन लगाती महुआ ने उनकी हथेली पर उँगली से लिखा कि वह तो गूँगी है इसलिए मामा की, मामी की और सारे ज़माने की लानत मलामत सहती रही पर वे तो बोल सकती हैं, फिर क्यों छोटे मालिक की ज्यादतियाँ सहती हैं..... क्यों नहीं उनसे कुछ कहतीं?”

वसुंधरा सन्न रह गई. उन्हें हथेली की वह अदृश्य इबारत तीर सी भेदती चली गई. वे एकटक गूँगी महुआ को देखती रहीं जबकि गूँगी वे खुद को पा रही थीं.

 

संतोष श्रीवास्तव

जन्म....23 नवँबर जबलपुर

शिक्षा...एम.ए(हिन्दी,इतिहास) बी.एड.पत्रकारिता मेँ बी.ए

प्रकाशित पुस्तके....बहके बसँत तुम,बहते ग्लेशियर,प्रेम सम्बन्धोँ की कहानियाँ आसमानी आँखों का मौसम (कथा सँग्रह) मालवगढ की मालविका.दबे पाँव प्यार,टेम्स की सरगम,हवा मे बँद मुट्ठियाँ,(उपन्यास) मुझे जन्म दो माँ(स्त्री विमर्श) फागुन का मन(ललित निबँध सँग्रह) नही अब और नही तथा बाबुल हम तोरे अँगना की चिडिया (सँपादित सँग्रह) नीले पानियोँ की शायराना हरारत(यात्रा सँस्मरण)

विभिन्न भाषाओ मेँ रचनाएँ अनूदित,पुस्तको पर एम फिल तथा शाह्जहाँपुर की छात्रा द्वारा पी.एच.डी,रचनाओ पर फिल्माँकन,कई पत्र पत्रिकाओ मेँ स्तम्भ लेखन व सामाजिक,मीडिया,महिला एवँ साहित्यिक सँस्थाओ से सँबध्द, प्रतिवर्ष हेमंत फाउँडेशन की ओर से हेमंत स्मृति कविता सम्मान एवं विजय वर्मा कथा सम्मान का आयोजन,महिला सँस्था विश्व मैत्री मँच की संस्थापक,अध्यक्ष

पुरस्कार.... अठारह राष्ट्रीय एवं दो अँतरराष्ट्रीय साहित्य एवँ पत्रकारिता पुरस्कार जिनमे महाराष्ट्र के गवर्नर के हाथो राजभवन मेँ लाइफ टाइम अचीव्हमेंट अवार्ड तथा म.प्र. राष्ट्र भाषा प्रचार समिति द्वारा मध्य प्रदेश के गवर्नर के हाथों नारी लेखन पुरस्कार विशेष उल्लेखनीय है। एस.आर.एम.विश्वविद्यालय्में बी.ए.के कोर्स में कहानी “एक मुट्ठी आकाश” सम्मिलित। मुझे जन्म दो माँ पुस्तक पर राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा पीएचडी की मानद उपाधि। महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी का राज्यस्तरीय हिन्दी सेवा सम्मान।भारत सरकार अंतरराष्टीय पत्रकार मित्रता सँघ की ओर से 20 देशो की प्रतिनिधी के रूप मेँ यात्रा। संप्रति लेखन,पत्रकारिता

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