top of page
  • चेतना भाटी

कबाड़

"उफ ! कितना सामान इकट्ठा हो गया है ! घर है कि अजायबघर ?" दीपावली की सफाई में जुटीं सुशीला जी थकी हुई सी बुदबुदाईं.

“नए घर में शिफ्ट होते समय सिर्फ जरूरत भर का सामान ले जाएंगे. बाकी सारा कबाड यहीं छोड जाऊँगी मैं तो. अब संभालता नहीं, होता ही नहीं इतना कुछ." कपडे से बैग पौंछ कर टाँड़ पर रखते हुए सुशीला जी सोच रही थीं ।

हाँ अब उन्होने अपना छोटा–सा घर बनवा लिया है. दोनो पति–पत्नी ही तो हैं अब. पूरी उम्र किराए के मकानों में ही गुजरी. सुशीला जी संयुक्त परिवार में ब्याह कर आईं थीं. सास–ससुर , ननद–देवर के साथ घर की बडी बहू थीं. सो जिम्मेदारी भी बडी थी. कलांतर में ननद का ब्याह हुआ. देवर भी पढ़–लिख कर अपनी नौकरी पर चले गए. मगर उनका सामान यहीं शेष था. फिर सास–ससुर की गृहस्थी में अपनी गृहस्थी भी जुडती चली गई. फिर वे भी एक के पीछे एक स्वर्ग सिधारे. अपने बच्चे भी बड़े हुए, पढे–लिखे और योग्य बनते ही अपने–अपने जीवन के सफर पर निकल पड़े. मगर उनका भी यहाँ काफी कुछ पडा हुआ है.

बच्चे भी मॉल से ला–ला कर सामान पटकते रहते है, जरूरत हो या ना हो. मॉल जाना ही पडेगा, सामान लाना ही पडेगा. अब तनख्वाह का जमाना तो रहा नहीं, आजकल पैकेज जो मिलता है. फिर आजकल दिन प्रति दिन ही नई–नई तकनीक और वस्तुएं आ रही है. जो कि दिखावे की प्रवृत्ती को ललचाती है. यानी एक बार मॉल गए तो शॉपिंग तो जम कर होनी ही है, पैकेज के अलावा भी. और घर तक आते–आते तो कभी मन बदल जाता है तो कभी फैशन, आज की इस आई जनरेशन का. और हर ऐप जो इंस्टॉल है तो जंक या अनइंस्टॉल होते हुए भी ट्रैश तो छोडता ही है – सुशीला जी मुस्कुराईं – “बच्चों की भाषा उनकी जुबान पर भी चढ रही है !"

हाँ तो सुशीला जी सदा से ठहरीं सुगृहणी. हर चीज संभाल कर रखना – व्यवस्थित रखना उनकी आदत है. उनके संस्कार ही ऐसे है कि चीजों को इस तरह इस्तेमाल करो कि जैसे कभी इस्तेमाल हुई ही नहीं.

जब वे छोटी बच्ची थीं, स्कूल में पढती थीं तभी से उन्हें अपनी पुस्तकें–पट्ट –बस्ता व्यवस्थित रखने की आदत थी. सत्र के शुरू में जैसी पुस्तक वे लाती थीं स्कूल की वार्षिक परिक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भी उनकी पुस्तकें जस की तस ही रहती थीं. उन्हें अपनी दादी माँ की सीख याद आती कि – “तुम कपडों की कद्र करोगे तो कपडे भी तुम्हारी कद्र करेंगे." और आज हाल यह है कि विवाह के अड़तीस वर्ष बाद भी विवाह की साडियाँ भी वैसी की वैसी ही रखी है, अब तक उनकी नियमित देखभाल–सुगढता के चलते. मगर अब तो पूरी अलमारी ही साडियों से भर गई है. नहीं उन्होने खरीदी नहीं है. वे तो सदा से मितव्ययिता से ही रहती रही आई है कि जितनी आवश्यकता हो बस उतना ही. मगर फिर भी साडियाँ इकट्ठी हो ही जाती है. राखी–भाई दूज पर मिलीं या घर–परिवार में शादी–ब्याह के समय कभी काकी ने दी तो कभी मौसी ने. या फिर मायरे में ही मिल गई और बिदाई में तो मिलती ही है.

कुल मिला कर गर्ज यह की न चाहते हुए भी सामान बढता ही चला जाता है. अब गृहस्थी में क्या नहीं लगता ? तो वे भी संभाल कर रखती रहीं है कि जरुरत पड़ने पर मिल जाए. समय पर बाजार भागते न फिरना पडे़। परेशानी तो हो ही, रुपए खर्च हों सो अलग. तो थोडी मेहनत ही कर ली जाए.

और यह किफायत उनके स्वभाव मे ही समाहित हो गई है. अभी पिछले महीने ही सुशीला जी के चश्मे की डंडी टूट गई. उन्होने झट से टूटी हुई जगह में “सफेद गौंद" लगाया और डंडी जोड़ दी , फिर उस पर मजबूती के लिए उसी गौंद में भीगा धागा लपेट दिया. और ऊपर से सैलो टेप भी चिपका दिया. लीजिए चश्मा फिर से पहना जाने लगा. बस उसे घडी नहीं कर सकते. बस पहनो और उतार कर रख दो वैसे ही बिना मोडे. तो क्या - चश्मा काम तो आ रहा है न! हालांकि पिछली बार जब बेटा प्रवीण आया था तो नया चश्मा बनवा गया था. मगर सुशीला जी पुराने चश्मे का ही उपयोग करती है. इस तरह की जुगाड उन्हें रचनात्मकता–सृजनात्मकता का सुख-संतोष तो देती ही है और पुरानी चीजें आदत में रहती है, जबकि नई वस्तुओं की आदत डालनी पडती है जिसमे समय और ऊर्जा लगती है.

और फिर उनके संस्कार भी ऐसे ही है. तब बच्चों को धैर्य–परिश्रम–अनुशासन–मितव्ययिता के पाठ घुट्टी में ही पिला दिए जाते थे. और क्यों न पिलाए जाते पाठ, ऐसे नेता , ऐसे आदर्श भी तो होते थे तब , चलते – फिरते सामने. तो वे घर–बाह –स्कूल में यह सुनते–पढते बडी हुईं कि किस तरह गाँधी जी पेंसिल के छोटे से छोटे टुकडे का भी उपयोग करते थे. कि वे पत्र लिखते समय देखते थे कि आधे कागज पर ही पत्र लिखा गया है तो शेष आधा कागज काट कर रख लिया करते थे , अगली बार के उपयोग के लिए. कि कैसे एक बार उनका , नहाते समय हाथ–पैर रगडने का पत्थर एक जगह छूट गया था तो उन्होने उसे मंगवाया तब ही नहाए ...वगैरह.

परंतु किसी भी चीज की एक सीमा होती है और फिर अति भी तो बुरी होती है , हमें समय के साथ चलना चाहिए. यही सब सोचते-विचारते सुशीला जी ने मन बना लिया था कि अब तो सामान में वस्तुओं कि कटनी–छंटनी करनी ही पडेगी. कितनी वस्तुएं तो महरी शक्कू बाई ने ही छांट लीं थी कि वह ले जाएगी – “और बीबी जी पुराना फर्नीचर और दूसरा कबाड वगैरह बेचना हो तो बता देना. मेरे पति के दोस्त है वे यही धंधा करते है. वे ले जाएंगे," शक्कू बाई बोली थी.

तय था कि दीपावली के बाद ही शिफ्ट होंगे. अब इतने वर्षों से इस घर में दीपावली मनाते आ रहे है तो इस एक वर्ष और सही. दीपावली पर यहाँ अंधेरा करके थोडे ही जाएंगे. नए घर में देवउठनी ग्यारस यानी छोटी दिवाली मना लेंगे. अर्थात दोनो घरों में रौशनी हो जाएगी. अब भले ही जाना था यहाँ से लेकिन जितने भी दिन रहें, रहेंगे तो सफाई से ही न और फिर दीपावली का त्योहार भी है तो सफाई का. तो यहाँ भी करनी ही होगी न. यही सब सोच कर सुशीला जी यहाँ सफाई में जुटीं थी. वहाँ नया घर भी साफ–सुथरा हो कर तैयार था. खैर !

साफ–सफाई , त्योहार की रसोई , खरीदारी–दीए–खील–बताशे आदी-इत्यदि करते दीपावली भी आ ही पहुंची थी. धनतेरस–रूपचौदस– दीपावली–गौवर्धन–भाई दूज वगैरह के साथ पूरा सप्ताह ही निकल गया. फिर एक–दो दिन थकान मिटाने में लगे ताकि फिर से शरीर नए घर में शिफ्ट करने के लिए तैयार हो सके.

“ दशमी को शिफ्ट कर लेंगे. देवौठनी ग्यारस से – तुलसी विवह से एक दिन पहले. ताकि छोटी दीपावली पर घर व्यवस्थित रहे. कोई हडबडी न हो." सुशीला जी ने पति देव बृजनारायण जी से चर्चा कर सब तय कर लिया था. बृजनारायण जी ने भी उन्हें आश्वास्त किया कि – “लोडिंग ट्रक आ जाएगा समय पर."

सुबह से ही दरवाजे पर ट्रक लग गया था. मजदूर सामान उठा–उठा कर ट्रक में रख रहे थे. तभी महरी शक्कू बाई आ गई – “अरे बीबीजी आप लोग तो जा रहे है ? वह भी सारा सामान ले कर ! आपने तो कहा था न कि कबाड निकालना है सारा."

“ हाँ कहा तो था शक्कू बाई. लेकिन अब क्या करें नोटबंदी हो गई है न. छुट्टे की किल्लत है, अभी तो गुल्लक का सहारा है. बडे नोट बदलने के लिए बैंक की लाइन में लगो घंटों, फिर भी नंबर आए न आए पता नहीं. नंबर आए भी तो बैंक में रूपया ही ना आया हो तो क्या करें ? और बैंक की लाइन में लगेगा भी कौन ? मेरे घुटने में दर्द और “ये" दमे के मरीज ! गुल्लक के भरोसे भी कब तक चलेंगे ? तो यही सब सोच कर सारा सामान रख लिया है , अब कुछ नहीं देन –बेचना. क्योंकि आडे वक्त मे यही काम आएगा न. जब रुपयों की जरूरत हो बेच दो या आपस में अदला–बदली करके काम तो चला सकते है न . नोटों का क्या है कभी भी बंद हो जाएं. चीजें रखीं रहेंगी तो काम में आएंगी न." --- सुशीला जी शक्कू बाई को एक साडी और एक हजार रुपए का नोट देते हुए बोलीं – “ ले रख यही । अभी तो नोट बदल जाएगा."

 

चेतना भाटी - संक्षिप्त परिचय

दो दशकों से अधिक समय से सतत साहित्य साधनारत चेतना भाटी की साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे - व्यंग , लघुकथा , कहानी , उपन्यास , में अब तक आठ कृतियाँ प्रकाशित । तीन प्रकाशकाधीन । बी . एस - सी . एम . ए. एल - एल . बी . तक शिक्षित , म . प्र . लेखक संघ भोपाल द्वारा काशी बाई मेहता सम्मान प्राप्त ।

chetanabhati11@gmail.com

52 दृश्य

हाल ही के पोस्ट्स

सभी देखें

भूख

मौन

आशीर्वाद

आपके पत्र-विवेचना-संदेश
 

bottom of page