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  • अंचित

गोधुली में आसमान

उसकी देह से सटते ही, उसकी पीठ का ठंडापन मेरे सीने पर मुझे महसूस हुआ, उसकी कोमलता भी. उसकी गर्दन का पसीना मेरे होंठों पर लग गया. वह कसमसाती हुई सी मुस्कुराई. उसकी बाँहों ने खिड़की के लोहे के सींख़चे थामे हुए थे. वह पूरी नग्न नहीं थी.उसने कमर पर एक चादर बाँधी हुई थी. उसकी आँखें सामने मैदान को देख रही थीं. उसके बाल एक जूड़े में सिमटे हुए. बाहर अंधेरा था, उतना जितना पूर्णिमा से तीन चार दिन पहले होता है. कमरे में उतनी रौशनी भी नहीं थी. चाँद अगर आसमान में रहा भी होगा, दिखता नहीं था.उसकी देह ठण्डी हवा से सटकर लजा लजा जाती.

जब उसकी गर्दन दो तीन बार चूम लेने के बाद, मैंने उसके साँवले कंधे से ठोड़ी टिकाई तो उसने हँस कर कहा, “तुम्हें चूमना नहीं आता.तुम्हारे चुम्बन सूखे हुए होते हैं, ऐसे जैसे सीने का आवेश होठों तक पहुँचा ही नहीं."

***


आज चुनाव प्रचार का आख़िरी दिन था. 48 घंटों के बाद चुनाव होना था और इतने दिनों में हालात इस क़दर तनावपूर्ण हो गए थे कि आख़िर बम फूट ही गया. बड़े नेता हाल ही यूनिवर्सिटी आकर गए थे और आख़िरकार रूलिंग पार्टी यह मान कर चल रही थी, कि अभी प्रदेश में जो भी होगा, उनके हक़ में होगा. जनकुटाई जैसे छिटपुट घटनाओं के बाद भी. समीकरण का खेला, छात्रावासों में भी चलने लगा था और यह चुनाव ऐतिहासिक होगा और प्रतिरोध की मिसाल बनेगा ऐसा प्रचारित किया जाने लगा था. आख़िरी दिन आते आते, छात्र खुले बैलों की तरह हो गए, उनके अंदर उत्तेजना और उन्माद का इतना भोजन भरा गया कि पैदा हुई ताक़त ने सामने कुछ देखा ही नहीं- अपने सहपाठी भी नहीं. राजनीतिक मंशाओ ने प्रशासन के कर्तव्यपालन के गुण में अभूतपूर्व विश्वास दिखाया, और प्रशासन जिसको कि सत्ता से ही अपना ख़र्चा चलाना था, चुपचाप खड़ा देखता रहा.

लालिमा भी वहाँ थी, जैसे आसमान पर शाम में लाल बिखर जाता है, उसी गोधुली के रंग की लालिमा.

मैं कॉलेज के ठीक सामने पाँचवीं मंज़िल पर एक छोटा फ़्लैट लेकर रहता, एक ही कमरा, एक बहुत छोटा बाथरूम और एक बहुत छोटी रसोई. जब मैं घर छोड़ कर पीछे देहात से शहर आया तो मेरे अंदर जोश वैसे ही था मानों फ़्रान्स के किसी छोटे गाँव से कोई पेरिस आ गया हो, जैसे एक दिन ज़ोएस को लगा कि उन्हें आर्टिस्ट बनने के लिए डबिलन में रहना होगा. अपना किराए का वह छोटा कमरा मुझे जादुई लगता और कभी कभी मैं सोचता, मानों मैं पेरिस में सार्त्र की तरह हूँ या सैन फ़्रांसिस्को में गिंसबर्ग़ की तरह. मुझे बड़े बड़े दंभ पालने थे. मुझे बड़े बड़े झगड़ों में पड़ना था. मुझे इतनी बहसें करनी थीं सब बड़े लोगों से और यह साबित करना था मैं उनसे ज़्यादा जानता हूँ. मुझे ईर्ष्या में जलना था घंटों, मज़ाक़ उड़ाना था नौसीखियों का और उनके सामने उनको बुरा कहना था. इस बारे में अब क्या सोचता हूँ, प्रिय पाठक, यह बताने का समय अभी नहीं आया. शायद इस कहानी में उसकी जगह है भी नहीं.

मैं घर से रोज़ निकलता, किताबों में डूबता-उतरता , हर बेहतर लिखने वाले पर खीजता हुआ, अपने चश्में पर से गीलापन पोंछते हुए, अपनी कुंठाओं को लिए घर खोजता. यह सोचते हुए कि दुनिया की परवाह नहीं करनी चाहिए-इस सवाल का अधैर्य से पीछा करते कि आख़िरकार मेरी परिणिति कहाँ थी?

सर्जक कैसे बन जाऊँ और जल्दी से जल्दी.

जिस दिन मैं लालिमा से मिला, उससे कुछ दिन पहले से ही मैं कमल को जानता था.

***

कर्फ़्यू की अफ़वाहें विश्वविद्यालय के मुख्य गेट पर एक दो दिन पहले ही चाय की दुकान पर मुझे सुनाई दे गयी थीं. बड़े शहर की प्रमुख यूनिवर्सिटी का छात्रसंघ का चुनाव , मुख्य राजनीतिक दलों के लिए ईगो की लड़ाई बन चुका था-उनके चूल्हों के लिए नया ईंधन भी यहीं से निकलना था, उनका कैडर जो उनके पाप ढो सके, उसकी उत्पादन यूनिट विश्वविद्यालय. विचारधाराओं की लड़ाई तभी तक मायने रखती है जब तक आप ज़मीन से दूर होते हैं और व्यवहारिकताओं से परे. मंडल-कमंडल के बाद, हर रंग का झंडा, हर स्तर पर राजनीति कम मैनेजिंग ज़्यादा करता है. चुनाव प्रचार शुरू होने के दो दिन पहले लेनिन भैया ने मुझसे फ़ोन पर कहा कि लाल एकता हो गयी है. मुझे ख़ुशी हुई कि जो लालिमा चाहती थी, जो आजतक पता नहीं क्यों असम्भव ही था, जो स्वत: हो जाना चाहिए था ताकि संघर्ष मज़बूत हो, वह अभी तक क्यों नहीं हुआ था. बहरहाल,मेरी ख़ुशी ज़्यादा नहीं टिकनी थी. तीन प्रमुख दलों में से दो ने आपस में गटबंधन कर सीटों का बँटवारा कर लिया था और अपने कैंडिडेट खड़े कर,इसी को वाम एकता कह रहे थे. मैंने अपना सर पीटा और उनसे बहस की कि यह सही नहीं है.

उन्होंने मुझसे कहा, “ क्या क्या मैनिज करना होता है, तुम कहाँ समझोगे? चुनाव शायरों के बस की बात नहीं है.” उनकी व्यवहारिकता ने मुझे क्लीन बोल्ड कर दिया. मुझे लगा लेनिन भैया जानते थे कि लाल किताब जो कहती हो, जो साहित्य उन्होंने पढ़ा हो, उनमें जो भी लिखा हो, क्रांतियाँ जैसे भी हुई हों, सन उन्नीस सौ सत्रह का आसमान कितना भी लाल रहा हो, सन सैंतालिस में नेहरु ने भले ही चर्चिल को टक्कर दे दी हो, यूनिवर्सिटी का चुनाव जीतने के लिए सही सेटिंग बहुत मायने रखती थी. मार्क्सवाद का भारतीय संस्करण, अपने वर्तमान स्वरूप में उनको कोई बहुत कारगर नहीं दिखाई दे रहा था और दुश्मन इतना बली दिख रहा था कि वे परिणाम सोच सोच कर घबरा जाते थे. इसीलिए उनको लगा, यह “वाम एकता” वाला शिगूफ़ा, ज़बरदस्त काम करेगा. लालिमा इसके लिए तैयार नहीं हुई. वह यह सुनकर बिखर सी गयी. उसने अध्यक्ष का पद छोड़ कर, चुनाव में कार्यकर्ता बने रहना तय किया था. कुछ वरिष्ठ होने के कारण यह निर्णय उसी को करना था कि अध्यक्ष पद का उम्मीदवार कौन होगा.वह चाहती थी,कि वह संगठन के लिए और काम करे और इसीलिए पार्टी के ज़ोर देने के बाद भी, उसने सोचा कि उससे बेहतर, कॉलेज में उससे जूनियर और अगले दो सालों तक कॉलेज में ही बनी रहनी वाली एक छात्रा को ही उम्मीदवार बना दिया जाए. “वाम एकता” का प्रचार उसको खोखला लगा होगा पर पार्टी के आगे उसकी कुछ ना चली होगी, मुझे ऐसा लगा.

लेनिन भैया को लोग कई नामों से बुलाते थे, कोई मायकोवस्की कह देता, कोई तोलस्टोय कोई कुछ. किसी किसी दल के, “जाति-लहर” पर तैरते हुड़दँगी कार्यकर्ता , उनको “स्टालिन” भी कह दिया करते. जो सबसे तार्किक क़िस्सा मैंने उनके नाम को लेकर सुना वह यह था कि उनके पिता अपने क्षेत्र में लाल झंड़ा बुलंद करते थे और बेटे के होने पर उसका नाम लेनिन रख दिया था-एक फ़ायदा यह हुआ कि कोई जाति-नाम अगर रहा भी होगा तो वह हट गया और वह ब्राह्मणों में ब्राह्मण, भूमिहारों में भूमिहार,कुर्मियों में क़ुर्मी, चमारों में चमार सब हो जाते. जो नुक़सान हुआ वह यह कि उनको ताउम्र “लेनिन” नाम होने का बोझ उठाना पड़ा और तमाम जोड़-तोड़ के बाद भी पार्टी ने उनको विश्वविद्यालय में ही बनाए रखा. जब मैं उनसे मिला, मैं कॉलेज के दूसरे साल में था, लालिमा तीसरे साल में और वही लेनिन भैया जो सबसे अच्छे से बात करते थे,उन्होंने ही मुझे लालिमा से मिलवाया.

तब तक मैं उतना अराजनीतिक नहीं रहा था जितना मैं स्कूल में हुआ करता था, उतने दिन साहित्य पढ़ लेने और कॉलेज में रह लेने के बाद यह सम्भव भी कहाँ था. एक आर्टिस्ट के तौर पर, एक कवि के तौर पर, मुझे जो अपनी जगह तय करनी थी - मुझे पता था कि केंद्र के बाएँ ही मेरा होना तय होगा.यही स्टैंड मुझे सही लगता था, हालाँकि कई बार मैं खीज भी उठता. मैं सपना देखता कि तानाशाही वाले फ़ासिस्ट देश में जब फूटपाथों पर जनता बंदी बनी चल रही है, सड़क से सैनिकों की गाड़ियाँ पार हो रही हों, मैं लाल झँडा लपेटे सड़क पर कूद पड़ूँ -भले ही गोलियों से छलनी कर दिया जाऊँ. एक सन्नाटा जो फैला हो उसमें पहला कम्पन मुझसे पैदा हो. फ़्रांसीसी क्रांति की तरह एक भीड़ बढ़े और खुदाओं से सब छीन ले- रूसो, वोल्टेयर मेरे सपनों में आते और केंद्र में लालिमा.

जिस दिन वाम एकता वाली बहस हुई, मैंने अपना फ़ोन बंद कर दिया. लालिमा जब मुझे बार बार फ़ोन कर थक गयी, मेरे कमरे में पहुँच गयी. मैं खीजा हुआ, उत्तेजना में टहल रहा था, यूँ लगता मानो मेरा सपना मुझसे छीन लिया गया है. लालिमा की आँखों का काजल पसीने से बह कर उसके एक गाल पर फैल गया था, उसकी कुर्ती पसीने से भींगी हुई थी और उसके पैर फट-फट से गए थे, धूल से सने हुए.

वह दिन का वह समय था, जब सब कुछ बोझिल लग रहा था और लाल सूरज डूब रहा था.

***

कमल तब मेरे साथ रही, जब दूसरा कोई नहीं था. और उसने कभी मुझसे कुछ पूछना ज़रूरी भी नहीं समझा. कॉलेज आने के बाद, मैंने मौत का डर जाना था. स्कूल में लड़ाईयाँ देखीं थीं, लेकिन दूर से, इतनी दूर से कि वे आकर्षित करतीं. यह तब था, जब उनके पीछे निहित भय को मैं नहीं जानता था. अभिषेक एक बार कामिनी के लिए दूसरी मंज़िल से कूद गया था और जाकर लड़कों से भिड़ गया था.स्कूल के दिनों में वह मेरा प्रिय नायक था-आख़िरकार लिखने वालों को कोई ऐसा चाहिए होता है. मैं उससे बहुत प्रेम करता था. उसका शरीर मुझे बहुत आकर्षित करता. उसकी सुदृढ़ देह, उसका निर्भीक होना-प्रेम कर लेना किसी से भी. वह पसीने से डूबा हुआ क्लास में घुसता और लड़कियाँ मुस्कुरा उठतीं. मैंने उसको अकेले तेरह लड़कों से लड़ते देखा था,जीतते देखा था और ‘मार’ को लेकर एक रोमांटिक फंतासी मेरे दिमाग़ में बनी हुई थी.

कॉलेज में यह भ्रम टूटा. एक बार कुछ लड़कों को मैंने एक लड़की को परेशान करने के लिए मना किया और बदले में उन्होंने मेरे हाथ-पैर लगभग तोड़ दिए. कैसे पीटना है, इसके पीछे पूरा विज्ञान काम करता है. कहाँ मारना है, शरीर में कहाँ चोट पहुँचनी चाहिए, अपराध के हिसाब से किसी लेवल की मार लगे, यह सब तय होता है और फिर भय का खेल-मैंने डर को अपने जीवन में पहली बार इतने क़रीब से सीखा और मार खाने के बाद शायद उससे बाहर भी निकल गया. तब मैं लालिमा को नहीं जानता था,मुझे कैम्पस में कोई पोलिटिकल इम्यूनिटी नहीं मिली हुई थी, मैं किसी छात्रावास में नहीं रहता था और मंडल-कमंडल दोनों समाजों से समान रूप से दूर था. ज़ाहिर है, इससे बच पाने का कोई रास्ता नहीं था.

घटना के एक दिन बाद, जब कमल को पता चला, वह मुझे देखने एक मित्र के साथ चली आयी. इसके पहले कमल से एक दो बार ही बात हुई थी. उसकी ओर मैं उतना ही आकर्षित था, जितना मैं किसी भी लड़की के प्रति हो जाता था-मेरे तमाम प्रेम तब तक एकतरफ़ा रहे थे. कमल ने खाना बनाया और फिर चूँकि मेरा दूसरा मित्र कमरे की एक मात्र कुर्सी पर बैठा था, वह मेरे पास ही पलंग पर बैठ गयी. मेरे घुटने एक दो बार उसकी पीठ से सटे और सकुचाहट में मैं बार बार पीछे हटता रहा. उसके जाने के दो दिन बाद मुझे यह समझ आया कि उसकी गंध मेरी बाँह पर चिपक सी गयी थी. कमल मुझे रोज़ फ़ोन करती, देर रात तक बात करती और हम साधारण बातें करते. ऐसी बातें जो शायद लालिमा से मैं कभी भी करता तो शर्मा जाता या उसने मुझे झटक दिया होता.

जिसने पहली बार मैंने ग्रामचि का नाम लालिमा से सुना, उसी दिन रात में, मैंने कमल से पूछा कि क्या वह ग्रामचि को जानती है?

“तुम यह मुझसे क्यों पूछ रहे हो,वह भी इस समय?” कमल ने मुझसे बस इतना ही कहा. उसको अगर बुरा भी लगता मेरे कुछ कहने का, तो वह मुझसे ज़ाहिर नहीं करती और मैंने उसको हमेशा ही अपने से कमतर माना था सो इसका लिहाज़ भी कभी नहीं किया. हमने दो एक बार दोस्ती की लाइन भी क्रॉस की, भले ही सिर्फ़ फ़ोन पर बात करते हुए पर मैंने इस बात पर कोई ख़ास सोचा नहीं.

कमल का बदन जैसे लालिमा के बदन से अलग महकता और मैं अक्सर सोचता कि दोनों एक जैसे क्यों नहीं. हालाँकि औपचारिक कहीं कुछ नहीं था पर कविताएँ लिखते हुए मैं लालिमा चक्रवर्ती से कमलदीप कौर तक ही सफ़र करता था - एक छोटे अंधेरे से कमरे में रहने वाला क्रांतिकारी मानता ख़ुद को,जो चाहता था कि वह विधानसभा में जाए और गिरती ख़राब होती, दोयम दर्जे के शिक्षकों से भर्ती जा रही शिक्षा प्रणाली के ख़िलाफ़ वहाँ स्मोक बम के साथ पर्चे पटके. मैंने प्रेम के बारे में कम सोचा था. सच कहा जाए तो मैंने किसी चीज़ के बारे में नहीं सोचा. अगर एक दिन मुझे -सार्त्र और सिमोन सच लगते, अगले दिन ही मुझे एलीयट और विवियन याद आते.

कमल का मुझपर अधिकार हो गया था और लालिमा ने कभी इस अधिकार की कोशिश नहीं की थी.

***

बुखार में तपते हुए यह तीसरा दिन था. मैं बेसुध सा अपने कमरे में पड़ा हुआ था. मैं कहीं नहीं जा रहा था. मैंने तीन दिनों से ठीक से कुछ नहीं खाया था. देश में ऊपर से तो सब ठीक लगता पर अंदर से हालात ठीक नहीं थे. तीन दिन पहले ही एक लड़के को ट्रेन में पीट पीट कर मार दिया गया था. मेरे दिमाग़ पर इसका बहुत बुरा असर पड़ा था. मैं अकेला था, मैंने अपना फ़ोन बंद कर दिया. ख़बर देखते हुए मेरे घुटने कमज़ोर हो गए थे. दो मिनट तक आँखों के आगे अंधेरा छाया रहा था और मैं पसीने से भींग गया था. मैं कोई बहुत धार्मिक व्यक्ति नहीं था, ना कभी ईश्वर के बारे में बहुत सोचा था. साहित्य पढ़ने लगने के बाद, मेरे लिए ईश्वर और ज़्यादा दुरूह और काल्पनिक हो चुका था. हत्याओं के बारे में मैंने पहले भी कई बार सुना था. लेकिन इस हत्या से जो भय जनित हुआ, उसने मेरे अंदर शायद कायरता के बीज बो दिए. क्रांति की वास्तविकता, यथार्थ के धरातल पर मेरे सामने पहली बार उतरी और तय था कि मुझे नर्वस ब्रेक्डाउन होना ही था.

मेरे पास एक पतली चादर थी जिसे ओढ़ मैं दिन भर कमरे में बुखार लिए पड़ा रहता. बाहर निकलने में मुझे डर लग रहा था. मैं खिड़की से नीचे कॉलेज आते जाते लड़कों को देखता, सड़क पर चलते लोगों को देखता और सोचता कि - इनमें से कोई भी कभी भी मेरी हत्या कर दे सकता है. हो सकता है एक दिन ब्रेड ख़रीदते हुए मेरी लड़ाई इनसे हो जाए और ये मुझे मार डालें. हो सकता है कोई रिक्शा वाला किसी दिन भाड़े के विवाद में मुझे चाकु मार दे-कोई मोटरसाईकिल सवार जानबूझ कर ऐसा कर दे.

जब मैं हत्याओं से डर नहीं रहा होता, मैं अपने भीतर के हत्यारे से डर रहा होता. हिंसा से मेरा कोई पहला सामना नहीं था-हॉकी की मार से लगे दाग़ों में कुछ अभी भी देह पर थे पर मैंने तब जो भी विरोध किया हो, आत्मसुरक्षा में किया था. एक कवि को ऐसे ही एक बार एक व्यक्ति को सड़क पर पेशाब करने से रोकने पर पीटा गया था. मैं ख़ुद को उसी जमात का मानता था सो मेरे ईगो ने उस झगड़े को अपने अंदर अप्रोप्रीयट कर लिया था. पर मैं हत्यारा हो सकता हूँ-यह विचार बहुत ही ख़तरनाक था. बुखार में बड़बड़ाते हुए, मैं सपना देखा करता कि सीबीआई किसी षड्यंत्र में फँसा कर मुझे जेल ले जा रही है-रास्ता बहुत लम्बा है, मेरे मित्र जगह जगह मुझे मिल जाते हैं और मुझे ऐसे देखते हैं जैसे अपनी अंतिम यात्रा पर मैं जा रहा हूँ. लालिमा भी दिखती, चेहरे पर अफ़सोस लिए.

मैंने इन दिनों में किसी से ज़्यादा बात नहीं की थी. नीचे के फ़्लैट में रहने वाले लड़के ने पैरासिटामोल की एक पत्ती मुझे लाकर पकड़ा दी थी , सुबह शाम आकर एक बार मुझे देख लिया करता. दूसरे शहर में रहते हुए, इतना भी बहुत होता है. क्लास के लड़कों से मेरी बहुत ज़्यादा नहीं बनती थी. मेरे ही क्षेत्र से आए लड़के, मुझे ज़रूरत से ज़्यादा तेज़ समझने लगे थे और कहते कि मैं शहर आकर अपने को शहरी समझने लगा था और बड़ी बड़ी बातें करने लगा था. जो लोकल लड़के थे उनको मेरे अंदर आत्मविश्वास की कमी लगती. मैं पार्टी से सीधा जुड़ा भी नहीं था सो वहाँ के लोग भी जब तक मैं उनका कौमरेड नहीं था-बहुत ध्यान ना देने के एक अदृश्य नियम से मानों बँधे हुए थे. क्रांति बलिदान माँगती थी और इसमें व्यक्तिगत कुछ नहीं होता. फिर भी कुछ फ़ोन आए थे, कईयों ने ठीक होने की ताक़ीद की थी, लालिमा पार्टी के साथ, ट्रेन में हुई हत्या के विरोध में छात्र आंदोलन का नेतृत्व कर रही थी और दिन में दो बार फ़ोन कर लिया करती. मेरे द्वन्द दूसरे थे, मैं जो भरोसा खोज रहा था वह मुझे मिला नहीं और सबके प्रति मेरे अंदर एक और ग़ुस्सा उबलने लगा था.

ऐसे में तीसरे दिन जब मैं ठीक नहीं हुआ तो कमल चली आयी, पिछली बार की औपचारिकता जैसे नहीं, मित्रता के पूर्ण अधिकार के साथ, अकेली. उसने उस दिन बाल गीले किए थे, एक झीना सा सूट पहना था और कमरे में आते ही प्लेट निकाल अपने साथ लाए पराँठे मुझे परोसने लगी. उसने बाथरूम में नल चलाया, कमरे में झाड़ू लगाई और जब तक मैंने प्लेट का खाना ख़त्म किया, उसने मेरे कपड़े निकाल कर वहीं पलंग के पास रख दिए. फिर वह छोटे किचन में खड़े होकर आलू काटने लगी. इतनी देर में उसने हत्याओं पर कोई बात नहीं की. उसने आँदोलनों पर मुझसे कुछ नहीं पूछा. किसी फ़िल्म पर चर्चा की, कमरे में गन्दगी पर एक लेक्चर लगाया और क्लास में लेटेस्ट चल रही गॉसिप सुनाने लगी, जिससे मुझे कोफ़्त भी हुई.

बाथरूम में कमल की गंध मिल गयी थी. देह पर गीला तौलिया चलाते हुए मैं उस गंध को सूँघता रहा. मेरे कपड़े भी उसके शैम्पू जैसे महक रहे थे. मैं वापस आकर निढाल सा पलंग पर लेट गया. मुझे घर की याद भी आ रही थी. तभी कमल भी रसोई से कमरे में आयी. उसने कमरे का दरवाज़ा बंद किया. खिड़की बंद की और मेरे बग़ल में आकर लेट गयी. अपने हाथ उसने मेरी कमर में डाल दिए और मेरी गर्दन चूमते हुए मेरे कान में फुसफुसाई - “सब ठीक हो जाएगा. मैं सब ठीक कर दूँगी.”

मेरी आँखे बंद होने लगीं और मुझे केवल उसके होंठ दिखाई देने लगे. कमल मुझे कभी बहुत सुन्दर नहीं लगी थी और कभी कभी मैं उक्ता भी जाता था. फ़ोन सेक्स जो एक दो बार हमने पहले किया था,उसमें मज़ाक़ ज़्यादा रहा था हालाँकि हम दोनों ही उत्तेजित हो जाया करते थे. उस दिन कुछ अलग हुआ. उसकी देह पर गहरी धारियाँ थीं, वह इतनी गोरी थी कि उसके शरीर पर जो गहरे रंग थे, सब मुझे नारंगी लगे. फिर यह दिनचर्या हो गयी. कॉलेज में हम अलग अलग से रहते. किसी से कुछ कहा भी नहीं. पर दिन में एक बार, वह मेरे कमरे में आ ही जाती. कभी ताक़ीद कर, कभी मेरे बुलाने पर. उसके बाद वह कभी मेरी रसोई में नहीं घुसी, पर कभी कभी अपने घर से कुछ बना कर लाती रही. एक सुविधाजनक व्यवस्था हमारे भीतर विकसित हो गयी थी.

जिस दिन चुनाव प्रचार शुरू हुआ, उसी दिन लालिमा ने मुझे एक मेडिकल स्टोर से कंडोम ख़रीदते देखा. उसने मुझसे कुछ नहीं पूछा, बस अजीब नज़रों से मुझे देखती रही.

***

क्रांति पर चर्चा करते हुए, मैंने कभी भी स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के बारे में उससे बात नहीं की. 21 की उम्र में इसकी बहुत ज़रूरत भी महसूस नहीं हुई. हालाँकि फ़ेमिनिज़म को लेकर हमने लम्बी बहसें की थीं और मेरे यह कह देने से कि मैं फ़ेमिनिस्ट नहीं हूँ, मुझे लगता कि लालिमा की नज़रों में मैं थोड़ा गिर गया था. फिर भी स्त्री-देह को लेकर तमाम आकर्षणों के बाद भी, लड़कियों से बात करते हुए मुझे शर्म आती. जैसे, उनके बग़ल में बैठा होता तो मुझे अपने गंदे पैरों और हवाई चप्पलों की लाज दबा देती. कई बार मेरे अंदर की फूहड़ता मुझे निहायत बेसिक साबित करती, कई बार मुझे, पसीने से सने होने पर उनसे बात करने का आत्मविश्वास नहीं रह जाता. नहाते हुए कई बार मैं अपने घुटनों की कुरूपता पर अफ़सोस करता. पर अगर कमल को वे कुरूप लगे भी हों तो उसने कभी कहा नहीं. उसको अगर कुछ चाहिए होता, मैं भी, तो वह बिना पूछे मुझसे ले लेती. मुझे चुनाव प्रचार आने तक कमल के शरीर की आदत हो गयी थी और फिर भी लालिमा की गंध परेशान करती थी. मैं एक आंतरिक संघर्ष से जूझ रहा था जो ना सिर्फ़ नैतिकता और ईमानदारी के तराज़ू पर मुझे तौलता बल्कि उस खींचातानी में तमाम और संघर्ष भी शामिल थे- प्रेम जिनमें प्रमुख नहीं था.

कॉलेज में भी हमलोग कई संघर्षों से जूझ रहे थे. चुनाव की घोषणा होते ही कई पार्टियाँ कुकरमुत्ते की तरह उग आयी थीं और कॉलेज के लड़के-लड़कियाँ पशो-पेश में थे. कुछ संगठन केवल वोट काटने के लिए पैदा हुए थे -कुछ किसी भी क़ीमत पर जीतना चाहते और इसके लिए ज़रूरी सब प्रकार की कुटिलताएँ और अन्य संसाधन उनके पास थे. "लेफ़्ट एकता” से सम्बंधित दोनों पार्टियों को जहाँ से मैं देखता- तमाम कुटिलताओं के होने के बावजूद संसाधन और कॉलेज के आम-जन से उनके जुड़ाव में मुझे भारी कमी दिख जाती. जैसे कोई पूर्ण सत्य नहीं होता, वैसे ही आप राजनीतिक रूप से पूरी तरह से सही नहीं हो सकते. फिर भी जो सबसे कम ग़लत हो-वैचारिक रूप से उसके साथ होना चाहिए. और फिर विचारधाराओं की लड़ाई के समय, इतिहास के सही खाने में क़दम रखना आवश्यक है, यह सोचते हुए मेरी हमदर्दी उनके ही साथ थी-हालाँकि मेरे अंदर “कैपिटल” को लेकर और उसके भारतीय संस्करण को लेकर काफ़ी विरोधाभास अंदर पलते थे. फिर वहाँ लालिमा भी थी- बिना अंतर्द्वंदों के- वैचारिक रूप से स्पष्ट और उन्नत-जुलूसों के आगे चलती, कक्षाओं में लोगों से बात करती और स्ट्रैटेजी बनाती.

एक देर शाम तेज़ भूख लगी होने पर वह मेरे कमरे में आ गयी. मैंने दोपहर को चावल बनाए थे.

उसने मुझसे पूछा कि क्या मैं उसे कुछ खिला सकता हूँ. सादे चावल को मैंने मिर्च के अचार के साथ परोसा. वह प्लेट लेकर कमरे में आयी और बैठने की जगह खोजने लगी. उसने बिस्तर को ध्यान से देखा-चादर पर सिलवटें थीं क्योंकि मैं वहीं लेटा हुआ एक नोवेल पढ़ रहा था.कमल ने अपना एक तकिया वहीं छोड़ा हुआ था, यह शायद वह समझ गयी. कमल की एक नाईटी वहीं रस्सी पर टँगी थी. सुविधा के लिए और साथ ही अधिकार जताने को छोड़ी हुई शायद. लालिमा फ़र्श पर बैठ गयी, एक ओर दीवार की टेक लेकर. मैं पलंग की टेक लेकर बैठा. जब से उसने मुझे मेडिकल शॉप पर देखा था, यह पहली बार था जब हम इस तरह इतनी शांति में अकेले मिल रहे थे. शाम रात में बदलने के कगार पर थी. धूल अदृश्य हो चुकी थी और हल्की अकुलाहट मौसम में आ चुकी थी. पहले तीन चार निवाले जब वह खा चुकी, तो मेरे अंदर से मानों, जैसे कठघरे में बैठे फ़रियादी ने अपनी गिल्ट छिपाने के लिए सवाल पूछा, “तब कौमरेड, क्या लगता है? क्या होगा? अब तो तीन ही दिन बचे हैं.”

“कौन पूछ रहा है, वह दोस्त जो मुझसे सब कहता है, या वह दोस्त जो कई बातें छिपाने लगा है?” लालिमा काश घुमाफिरा कर बात करना जानती.

“सच तो यह है कि मैं अभी तक तुमसे बचता रहा हूँ.” मैं जानता था कि इस सवाल से मैं भी भागता रहा. मुझे लगता रहा था कि जब तक काम चले, चलाना चाहिए.

“कौन जीतेगा? सिर्फ़ तीन दिन बचे हैं. तुम्हारे अंदर की ईमानदारी क्या कहती है?” मैंने पूछा. लालिमा हँसी. “तुम भी सब पैंतरे देख रहे हो. तुम भी देख रहे हो कि दुश्मन कैसी चालें चल रहा है. हम कहाँ कहाँ कमतर हैं, कहाँ बिखर जाते हैं, यह बताने की ज़रूरत नहीं है.”

“फिर भी…फिर भी तुम लड़ रही हो, हो सकता है…हो क्या सकता है, लड़ाईयाँ होंगी अभी तो, और कहीं किसी को कुछ हो ना जाए.” मैंने कहा, “ सब सम्भव है. हमलोग अभी तक गम्भीर नहीं हैं लालिमा. इतने लड़के हैं, इतनी लड़कियाँ -ये कुछ सोचते भी हैं?”

“तुमको बहस नहीं करनी चाहिए. तुम आर्ग्युमेंट ठीक से नहीं कर सकते.”लालिमा ने कहा, “ मैं व्यवहारिक कॉम्युनिस्ट हूँ. मैं लेबल करती हूँ ख़ुद को. जानते हुए. युद्ध में तुम बीच में खड़े नहीं हो सकते. तुमको पक्ष चुनना होगा. और फिर कई बार बोलने से ज़रूरी चुप रहना भी है सब समझते हुए.”

“लेकिन…”

“मैं कवि नहीं हूँ, मैं ख़ुद से बाहर देख सकती हूँ.”

लालिमा एकटक मुझे देख रही थी. उत्तेजना से उसके होंठ हिल रहे थे. उसकी उँगलियों पर चावल लगा था, उसको होठों के किनारों पर मिर्च के अचार का कुछ मसाला. मैं उसकी ओर झुका और मैंने उसके होठों को चूम लिया. उसकी आँखें बंद नहीं हुईं.

***

कमल नफ़रत भरी आँखों से मुझे देखती रही.

आज चुनाव प्रचार का आख़िरी दिन था. लालिमा को चूमे हुए मुझे दो दिन हो गए थे. विश्वविद्यालय की हवा बदल रही थी. लेफ़्ट की भीड़ में लोगों की संख्या घट गयी थी. छात्रों के धड़े जातियों में बँट गए थे. यह ज़िंदा, महसूस करने वाले इन्सान नहीं, वोट बैंक हो रहे थे जिनके ऊपर धर्म और जातियों के स्टिकर लगे हुए थे. न्यूज़ चैनल कैम्पस को घेरे हुए थे, दीवारें पोस्टरों से भरी हुईं थी. जुलूस एक ओर से चलता और शोर की एक बड़ी लहर उसपर सवार दूसरी ओर निकल पड़ती. कौन ज़्यादा चीख़ेगा. कौन ज़्यादा भीड़ लाएगा. किसके अंदर जाति को लेकर अभिमान ज़्यादा है- यह वही लड़के थे जिन्हें कुछ सालों बाद, अपनी बीवियों को मोटरसाइकिल पर बैठाए निकलना था, डरते हुए दूसरी भीड़ से. ये वही लोग थे - जिन्हें कोल्हू का बैल बन जाना था. यह वही लोग थे , जो विश्वविद्यालय आए थे ताकि इंसान बन सकें और अपने भीतर के रहे सहे इंसान को खो चुके थे.

“तुम मुझसे क्या चाहती हो कमल?” मैंने कमल से पूछा.

“तुम कवि हो. तुम अपने तक ही देख पाते हो.” कमल ने मुझसे कहा. “अब हमें नहीं मिलना चाहिए.”

“और जो प्रेम हमने किया?”

कमल हँस पड़ी. “मैं व्यवहारिक हूँ. तुम्हारी तरह नहीं. जो हुआ, जो हमने बिताया, वह बीत गया. मुझे किताबों में यक़ीन नहीं है.”

“ओह कमल…ओह कमल…मुझे माफ़ कर दो.” मेरी आँखों में आँसू भर गए. मैं जितना कुछ कहना चाहता, मैं कह नहीं पाया. और फिर उसको क्या दे सकता था, यह सोचते हुए ख़ामोश हो गया.

"तुम सेंटिमेंटल आदमी हो." कमल ने कहा और चली गयी. मेरी आँखों से कुछ और आँसू ढलके.

मैं भी उसी भीड़ में शामिल हो गया जहाँ शोर चल रहा था.कौन किसका समर्थक है यह पता नहीं चलता था. तभी दो विरोधी दलों के जुलूस एक दूसरे के सामने आ गए और साधारण बहसबाजी के बाद एक दूसरे से भिड़ गए. डंडे चल रहे थे. पुलिस ईश्वर की तरह थी वहाँ. मौजूद पर किसी तरह की भी क्रिया से ऊपर- निस्वार्थ -निष्पक्ष. जिसके हाथ जो आ रहा था वही चला रहा था. मुझे लगा कि ऐसी ही भीड़ ने उस लड़के को ट्रेन में मारा था. मुझे लगा ऐसी ही भीड़ ने एक लड़के को कभी ना मिलने के लिए ग़ायब कर दिया था. मुझे लगा कि मैं कमल पर ऐसी ही भीड़ बन कर टूटा था. मुझे शायद एक दो डंडे देह पर लगे हों, पर मेरे कान में जो सन्नाटा बज रहा था उसका इन चोटों से कुछ लेना देना नहीं था. मेरे अंदर भी मुझे लगा, जैसे एक भीड़ रहने लगी थी. मैं वहीं बीच सड़क पर बैठ गया.मेरे घुटने बिलकुल कमज़ोर हो गए थे. मुझे ऐसा लग रहा था मानों किसी ने मुझे चलती ट्रेन से बाहर फेंक दिया हो.

और तभी मुझे लालिमा दिखाई दी- गोधुली सी लालिमा. वह अकेली, कुर्ती की बाँहें चढ़ाती, भीड़ को चीरती मेरी ओर बढ़ी आ रही थी. मुझे लगा कि मैं बचाए जाने के क़ाबिल नहीं हूँ.

जब वह मेरी बाहें अपने कँधे पर डाल रही थी और कमर से सहारा देती हुई मुझे खड़ा कर रही थी मैंने कहा, "तुम ग़लत का साथ दे रही हो.मैं अपराधी हूँ." हालाँकि मैं भीतर से चाहता था कि मैं उस भीड़ से बचा लिया जाऊँ.

जब तक मैं और लालिमा मेरी बिल्डिंग की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे, पुलिस के सायरन गूँज रहे थे, चुनाव प्रचार का समय समाप्त हो चुका था. कर्फ़्यू जैसा कि सत्ता दल चाहता था, लग चुका था. लड़के छात्रावास की तरफ़ लौट रहे थे. चुनाव के दिन, परिणामों के बाद के हुड़दंग की तैयारी करने का समय आ गया था. मेरी बिल्डिंग की सीढ़ियों पर इतनी ही शाम हुई थी कि वे पूरी दिखती भी नहीं थीं और अभी बल्ब जलाने का समय भी नहीं आया था. मैंने लालिमा का हाथ कस कर पकड़ा हुआ था. जैसे जैसे मैं सीढ़ियाँ चढ़ता, शोर कुछ कम होता जाता.

"हम जितना बचा सकते हैं, उतना बचाना चाहिए." लगभग आधे घंटे बाद ज़मीन पर चित्त लेटी हुई लालिमा ने मुझसे कहा. मैं पलंग पर पड़ा था. अभी भी भीतर सब चलायमान था, हालाँकि प्रतिक्षण सब धीमा होता हुआ. मैं लालिमा से कहना चाहता था कि अब मैं उसको जीवन में फिर कभी इस कमरे से, ख़ुद से अलग नहीं होने दूँगा. अगला विचार मुझे तोड़ देता. यह कमरा मेरा नहीं था, लालिमा मेरी नहीं थी. मेरी आँखों से कुछ आँसू ढुलक गए. मैंने क्या हासिल किया...मेरे घुटनें अभी भी कुरूप थे, उनपर लगी मैल को साफ़ होने में अभी वक़्त लगना था.

फिर भी लालिमा वहाँ थी.

लालिमा अचानक उठी और उसने खिड़की खोल दी. भारी सन्नाटे में कभी कभी पुलिसिया सायरन गूँज जाता. आसमान पर गहरे रंग के बादल थे और उनके ऊपरी कोनों पर लाल पुता हुआ था, सूरज मानों पिघल कर चुआ हो और बादलों को लग गया हो. लालिमा ने मेरे गीले गाल चूम लिए.

 

अंचित पांडे का परिचय

अगर बहुत कम उम्र से ही आपके हाथों में किताबें पकड़ा दी जाएँ, आपको आपबीती लिखने के लिए कहा जाए और आपकी तालीम में संवेदना को प्रमुखता दी जाए तो ज़िन्दगी की रेस में हो सकता है आपको अंधे घोड़े ही दौड़ते दिखाई दें, आप अलूफ होते जाएँ, और अनिश्चितता और भागदौड़ आपका जीना हराम कर दे. इस हताशा से जूझने की हिम्मत और हौसला, सिर्फ भाषा दे सकती है. तो लाज़मी था कि भाषा मुझे भी अपनी ओर आकर्षित करती. मैंने अंग्रेजी साहित्य में औपचारिक पढाई की पर हिंदी, भोजपुरी और दूसरा विश्व साहित्य भी पढता रहा, जो रास्ते खुद पार नहीं कर पाए, वहां मेरी नाव इन्होने ही खेई.जीवन ऐसे ही तो चलता है. आप हारते जाते हैं और तब भी साहित्य आपको जिलाए रखता है. लिखना इसी पढ़े हुए के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना भर है, जिन्होंने मुझे संबल दिया उनको स्मरण करना और उस लम्बी परंपरा से खुद को जोड़ना भी. मैंने जब से शिम्बोर्स्का का नोबल पुरस्कार वाला भाषण पढ़ा तब से अपने को जोर से कवि कहता हूँ और कभी कभी कहानियाँ भी लिख लेता हूँ. मुझे सार्त्र और कामू प्रभावित करते हैं, मुझे शेक्सपियर और अज्ञेय से प्रेम है और किस्सागोई मैं काल्विनो और मार्केज़ से सीखना चाहता हूँ. जिन पत्र-पत्रिकाओं में छपा, वहां छपते हुए बस ये इच्छा रही कि जैसे मुझे उबारते हुए साहित्य ने मुझे इतने दोस्त दिए, मैं भी कुछ हाथ थाम सकूँ, अपने अकेलेपन को जीते हुए हम इतनी ही उम्मीद कर सकते हैं.

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