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अशोक गौतम

महामारी के दिनों में ... कहानी : 'बापू खुश है'

कल महामारी के दिनों में सूत्र में आपने अशोक गौतम का लिखा गाँव-शहर के बाहर के हाल पर विवरण पढ़ा था. आज उसी लेख के क्रम में प्रस्तुत है कहानी बापू खुश है

 

इसी शहर से सटे अनेकों गावों में से एक गांव में पचहत्तर साल का सरनिया मिस्त्री अपने मानसिक रूप से कमजोर चालीस साल लड़के मनोज के साथ अपने बाप दादा के समय से रह रहा है। इस जगह को गांव बस इस लिहाज से ही कहा जा सकता है कि गांव पंचायत में है। असल में उसके घर के साथ लगते नाले के पास शहर की सीमा खत्म हो जाती है, और उसके गांव की शुरूआत। इसलिए सरनिए मिस्त्री का दो कमरों का घर कहने को ही गांव में है। चार कदम धर नाले वाली पुलिया पार की और पहुंच गए शहर में।

देश तालाबंदी पर निकले पशु शहर घूमने

सरनिया मिस्त्री जवानी के दिनों से ही चिनाई के मिस्त्री का काम करता था। तब घर में दो जीव। एक वह, एक उसकी औरत। मां बाप बहुत पहले मर गए थे। उसकी शादी से भी पहले।

शुरूआती दिनों में सरनिया अपने उस्ताज के साथ लेबर का काम करता रहा था। पर एक रोज जब उसके उस्ताज ने उसके हाथ में अचानक करंडी थमाई तो उस वक्त वह फूला न समाया था। उस वक्त उसे लगा था जैसे दिल्ली के लाल किले का मिस्त्री बन गया हो वह।

जब वह फुलफ्लेज्ड मिस्त्री हुआ तो लोग उससे ध्याड़ी से दुगनी प्रोग्रेस लेने के लिए काम पर ही शराब पिला देते और वह शराब पीकर रात को आठ-आठ बजे तक बल्ब लगाकर चिनाई, पलस्तर करता रहता।

दारू की बुरी आदत उसे मिस्त्री बनने पर ही पड़ी। और बाद में वह पीने का इतना आदी हो गया कि जिस दिन वह काम पर न जाता, उसे तब तक नींद ही न आती जब तक वह आधिया न गटक लेता। वह रोटी खाए बिना रह सकता था, पर दारू पिए बिना नहीं।

सरनिए मिस्त्री की घरवाली बहुत पहले मर गई थी। सूतक बायु हो गई थी उसे, दूसरा बच्चा जनते ही। बाद में वह बच्चा भी न रहा।

सरनिया मिस्त्री का दादा सीखड़ु, बाप चंदु साथ के ठाकुरों की बीसियों बीघा जमीन बटाई पर चलाते थे। जब देश आजाद हुआ तो वे सरकार द्वारा उस जमीन पर मालिक बना दिए गए। ठाकुरों के पास जमीनें बहुत थीं, सो उन्होंने भी उसके बाप दादा को गई जमीन की परवाह नहीं की। कारण, वह जमीनें इतनी उपजाऊ न थीं कि उनके जाने को लेकर ठाकुरों को जमीन जाने का पश्चाताप होता।

पर जैसे मुफ्त में वह जमीन उसके बाप दादा को मिली, वैसे ही मुफ्त में चली भी गई। उसके बाप दादा ने अपने जिंदा रहते पौनी जमीन कौड़ियों के भाव इधर-उधर कर डाली।

जब तक सरनिया मिस्त्री सोचने समझने लायक हुआ तब तक उसके पास जमीन के नाम पर दो तीन बीघा जमीन के साथ केवल वह जगह ही बची थी, जिस पर कच्चे दो कमरे थे। बाद में बाप के मरने के बाद सरनिया मिस्त्री ने उन कमरों को जैसे तैसे पक्का बना लिया। मिस्त्री तो वह खुद था ही।

समय के साथ-साथ सरनिए मिस्त्री की उम्र ढलने लगी तो उसमें काम करने की पहले वाली स्पीड न रही। धीरे-धीरे लोगों को लगा कि अब वह ध्याड़ी पर महंगा हो रहा है तो उन्होंने उससे मिस्त्री का करवाना बंद कर दिया। अब जब-तब इधर-उधर कोई उसे कभी-कभार काम पर बुलवा आधे-पौने दे देता तो उसी से घर का गुजारा होता।

जब सरनिया मिस्त्री के फाकों की नौबत आती तो वह बीच में बीच दो चार बिस्वा जमीन बेच देता और उससे मिले रुपयों से कुछ महीने मौज कर लेता।

सरनिया मिस्त्री को तीन-चार साल पहले पता नहीं क्या हुआ कि उसकी दाईं टांग जवाब दे गई। फिर अस्थमा ने उसकी देह में डेरा डाल दिया। उसने अपनी जेब के मुताबिक छोटा मोटा इलाज भी करवाया, पर बात न बनी। और वह दिन पर दिन बैठकू होता चला गया। अब ज्यादा ही होता तो सरनिया धूप के दिनों में बाहर आ जाता मनोज का सहारा लिए या फिर जब देखो खांसता हुआ भीतर बिस्तर पर पड़ा रहता। मनोज जो बनाता खा लेता। मनोज को हर रोज शाम को और कोई काम होता या न, पर एक काम जरूर होता, कि वह घर से दो किलोमीटर दूर, शहर के बीचों बीच के शराब के ठेके से उसे शराब का आदिया लेकर हर हाल में आए।

शाम के पांच की बज रहे होंगे।

सड़क पर जिधर भी नजर दौड़ाओ, कोई नहीं। बस, इधर उधर इक्का-दुक्का कुत्ते पसरे हुए।

‘मनोज? ओ मनोज? कहां मर गया?’ चारपाई पर चारपाई से नीचे टांगें लटकाए सुरतिया ने मनोज को आवाजें दीं तो मनोज दूसरे कमरे से आता बोला, ‘हां बापू! क्या करना है अब?’

‘टाइम हो गया।’

‘तो?? पर बापू आज तो बाहर कोई भी नहीं दिख रहा। कल भी जब बाजार गया था तो पुलिसवाले ने ...’

‘पर तुझे आज भी जाना ही पड़ेगा। नहीं तो मैं सुबह को मर जाऊंगा,’ सरनिए ने मनोज को सौ का नोट देते कहा, ‘कुछ भी कर पर ...’

आगे मनोज ने कुछ नहीं कहा। बाप के रोज-रोज की तरह मर जाने के डर से उसने चुपचाप कोने में रखा प्लास्टिक का बैग उठाया, बापू से सौ का नोट ले जेब में डाला, दरवाजे के पल्ले भिड़ाए और बापू को आदिया लाने बाजार की ओर हो लिया।

अभी वह शहर में आधा किलोमीटर ही गया होगा कि सामने कल की तरह फिर पुलिसवाला दिखा तो वह सहमा। पुलिसवाले ने कड़क आवाज में उसे रोकते पूछा, ‘कहां जा रहा है साले? मरना है क्या?’

‘बापू को आदिया लेने जा रहा हूं,’ मनोज ने पुलिस वाले की तरफ कोई खास ध्यान न दे कहा और आगे बढ़ने को हुआ तो पुलिसवाला दहाड़ा, ‘रुक साले! मारूंगा एक पीठ पर तो बाप के बाप की मां याद आ जाएगी। यहां मौत सामने खड़ी है और तू ... क्या करता है तेरा बाप?’

‘ कुछ नहीं करता। बस, शाम को पीता है।’

‘साले बड़े आ गए पीने वाले। मर जाएंगे, पर पीने से नहीं हटेंगे। तेरे बाप को पता नहीं कि तालाबंदी हो गई है? जो सड़क पर तालाबंदी को तोड़ता मिलेगा उसे अंदर कर दिया जाएगा? तेरे बाप से पीने से नहीं रह जाता तो पहले ही ...’ पुलिसवाला दांत निपोरता हुआ लाल पीला हुआ, पर मनोज पर उसे उसका कोई असर न दिखा।

‘इतने पैसे नहीं है बापू के पास ...’ कह वह वैसे ही आगे चलने को हुआ तो पुलिस वाले ने उसकी टांग में डंडा अड़ाते कहा, ‘साले! शहर को मारना है क्या? खुद तो मरेगा ही, साथ में अपने ...’

‘देखो पुलिसवाले। मेरा बापू शराब पीए बिना नहीं रह सकता। जो मैं उसको आदिया लेकर नहीं गया तो वह मुझे बहुत मारेगा। इतना मारेगा कि ... चार दिन पहले जब चाय में चीनी कम डल गई थी तो ... ये देखो ... जब घर में चीनी थी ही नहीं तो मैं कहां से डालता?’ कह उसने पुलिसवाले को अपना कई दिनों से न धुला कुरता उठा अपनी पीठ बताई तो पुलिस वाला सहमा। ‘मैं अब और मार खाना नहीं चाहता। मुझे आदिया लेने जाने दो बस!’ उसने पुलिसवाले के आगे हाथ जोड़े तो पुलिसवाले ने उसकी पीठ पर डंडा दे धरा, साला मानता ही नहीं। इधर मौत हमें पीने को खड़ी है और इसके बाप को ...’ ज्यों ही मनोज की पीठ पर डंडा पड़ा कि वह हड़बड़ाता नीचे गिरा। उसने जैसे कैसे उठने की हिम्मत करते पुलिसवाले के आगे दोनों हाथ जोड़ते कहा, ‘साहब! मुझे मत मारो! वर्ना बापू को जाकर सब बता दूंगा कि तुमने मुझे आदिया नहीं लेने दिया। फिर देखना, मेरा बापू तुमको भी कैसे मारेगा। वह बहुत बुरी तरह से मारता है, चारपाई पर लेटे-लेटे भी। मुझे बापू को आदिया लेना है। वरना ...,’ थोड़ी दूरी पर जो दूसरा पचास की आसपास उम्र का पुलिसवाला खड़ा था, यह देख वह भी अब तक उनके नजदीक आ चुका था। उसने मनोज को सिर से पांव तक जांचते परखते पूछा, ‘ कहां से आया है?’

‘ओ- ओ- ओ- ऊपर से ... दर्द हो रही है यहां,’ कहते मनोज ने सिर का खून पोंछते अपने गांव की ओर इशारे में बताया।

‘आते हुए तुझे डर नहीं लगा?’

‘नहीं। अभी तो सूरज भी नहीं छिपा। पर शहर खाली क्यों है? कहां चले गए सब लोग?’

‘क्यों? तुझे नहीं पता?’

‘नहीं तो,’ उसके कहने के ढंग से ही वह पचास के आसपास का पुलिसवाला समझ गया कि यह दिमाग से पूरा नहीं तो उसने अपने साथ वाले से कहा, ‘लगता है, दिमाग से कमजोर है। यार तूने तो ... देख तो इसकी टांग सिर से खून निकल रहा है।’

‘तो?’ पहले जवान पुलिसवाले ने डंडा सड़क में ठोंकते कहा, ‘साला ऐसे चला जा रहा था जैसे इसके बाप डीसी हो। मैं मर गया चौबीसों घंटे यहां ... और ये...’

‘हमने जो थकान मिटाने के लिए रखी है, उसमें से इसे ...’

‘कितनी?’

‘एक पूरी दे दे।’

‘तुम्हारी मर्जी ... और पैसे ले लूं या ...?’कह उस पुलिसवाले ने दूसरे पुलिसवाले को घूरा।

‘ले ले,’ सुन पहला पुलिसवाला उसे अपने साथ ले गया। थोड़ी दूर कोने में गंदी बोरियों के नीचे ढक कर रखी शराब की बोतलों में से एक बोतल उसे थमाते कहा, ‘ये ले। घुसा दे अपने बाप के पेट में। कितने पैसे हैं तेरे पास?’

‘सौ!’ मनोज पूरी बोतल देख इतना खुश कि ... उस वक्त वह अपने टांग सिर की चोट भी भूल गया। रोज तो सौ में आदिया ही आता था, पर आज तो ... पुलिसवाले ने उससे सौ लिए और शराब की वह बोतल उसे देते उसने कहा, ‘अब चपुचाप चला जा। बाप से कहना कि अब जब तक तालाबंदी नहीं उठती, तब तक ठेके बंद रहेंगे, इसलिए थोड़ी-थोड़ी पीना, भगवान का चरणामृत समझ।’

‘बापू ने जो कल फिर भेजा तो तुम कल फिर मुझे बोतल दोगे न? मैं रोज इसी वक्त बाजार आता हूं बापू को आदिया लाने,’ मनोज ने प्लास्टिक के बैग में शराब की बोतल डाल खुश होते पूछा तो पुलिसवाला उसे डांटते बोला, ‘चल साले! जाता है कि दूं दो चार चूतड़ पर? फिर घर जाकर बताते रहना अपने शराब पीते बाप को कूटे चूतड़। अब जो तालाबंदी तक बाजार में दिखा तो तेरी तो तेरी, तेरे साथ तेरे बाप की भी चमड़ी उधेड़ कर रख दूंगा। पुलिसवाले के मुंह उसका बाप बन लगता है साला?’ कह पुलिसवाले ने उसके पांव के पास डंडा मारा तो मनोज एक हाथ से सिर से खून निकली जगह को दबाता, दूसरे हाथ में प्लास्टिक के बैग में शराब की पूरी बोतल लटकाए दौड़ा-दौड़ा घर आ गया।

आधे घंटे बाद जब वह घर पहुंचा तो उसने दरवाजा खटखटाया, ‘बापू! ओ बापू! देख मैं तेरे लिए आज आदिया नहीं, पूरी लेकर आया हूं ...’

पर भीतर कोई हलचल न हुई। उसने दरवाजा खोला तो देखा कि चारपाई पर से बापू लुढ़क कर जमीन पर गिरा है। उसने शराब वाला प्लास्टिक का बैग बापू की चारपाई पर रख उसे सीधा करते कहा, ‘बापू! ओ बापू! देख मैं तेरे लिए आज आदिया नहीं, पूरी बोतल ले आया। वह भी सौ में। पर अब बजार बंद है। देख तो, पुलिसवाले ने मुझे कितना मारा बापू!’

सरिनया मि़स्त्री ने कराहते हुए जैसे कैसे आधा पौना सीधा होते उसके सिर से बहते खून को कुछ देर एकटक देखा, और फिर उसे अंदर के कमरे से गिलास, पानी का जग पकड़ाने को इशारा करते मरी आवाज में पूछा, ‘कौन सी लाया क्या?‘

सरनिया मिस्त्री को विश्वास होते हुए भी पता नहीं अब के क्यों विश्वास नहीं हो रहा था?

‘बिल्कुल नई वाली बापू! ये देख!‘ मनोज ने प्लास्टिक के बैग से शराब की बोतल निकाल नचाते हुए देते बापू से कहा तो सरनिया मिस्त्री ने एक झटके में उससे बोतल छीन उसे अपने नजदीक आ झुकने का इशारा किया। ज्यों ही मनोज डरते-डरते बापू के आगे झुका तो उसने उसकी पीठ थपथपाते जुड़ती टूटती आवाज में कहा ,‘जुग-जुग जिए तू! जा, मेरी उम्र भी तुझे लगे।‘

बापू से आशीर्वाद लेने के बाद जी भर मुस्कुराते मनोज ने ज्यों ही दूसरे कमरे से दादा के जमाने का पीतल का पानी से भरा जग, गिलास लेकर आया तो उसने देखा कि बापू ने तो बोतल ही मुंह से लगा रखी है। बड़ी देर तक तब मनोज चुपचाप बापू के सामने एक हाथ में पानी से भरा जग तो दूसरे हाथ में खाली गिलास लिए मौन खड़ा गौर से बापू को पहली बार ऐसे पीते देखता रहा, हंसता रहा। उस वक्त उसे खुशी थी तो बस इस बात की कि उसका बापू आज भी बिन पिए नहीं सोएगा। अब उसके सिर टांग की चोट से बहता खून थक्के बन बहने से रुक चुका था। सरनिया मिस्त्री ज्यों-ज्यों दारू की घूंट पर घूंट लेता, मनोज को लगता उसको लगी चोट का दर्द त्यों-त्यों कम हो रहा हो जैसे।

 

जन्मः- गांव म्याणा, तहसील अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश , 24 जून 1961।

बचपन ही क्या, बहुत कुछ जीवन गांव में ही बीता। आज जब शहर में आ गया हूं, गांव की मिट्टी की खुशबू तलाशता रहता हूं। शहर की मिट्टी की खशबू तो गाय के गोबर सी भी नहीं।

गांव में एक झोले में किताबें लिए पशुओं को चराते चारते पता ही नहीं चला कि लिखने के लिए कब कहां से शब्द जुड़ने शुरू हो गए। और जब एकबार शब्द जुड़ने हुए तो आजतक शब्द जुड़ने का सिलसिला जारी है।

जब भी गांव में रोजाना के घर के काम कर किताबें उठा अकेले में कहीं यों ही पढ़ने निकलता तो मन करता कि कुछ लिख भी लिया जाए। इसी कुछ लिखने की आदत ने धीरे धीरे मुझे लिखने का नशा सा लगा दिया। वैसे भी जवानी में कोई न कोई नशा करने की आदत तो पड़ ही जाती है।

जब पहली कहानी लिखी थी तो सच कहूं पैरा बदलना भी पहाड़ लगा था। कहानी क्या थी, बस अपने गांव का परिवेश था। यह कहानी परदेसी 19 जून, 1985 को हिमाचल से निकलने वाले साप्ताहिक गिरिराज कहानी छपी तो बेहद खुशी हुई। फिर आकाशवाणी शिमला की गीतों भरी कहानियों न अपनी ओर आकर्षित किया। अगली कहानी लिखी फिर वही तन्हाइयां, जो 24 नवंबर 1985 को ही वीरप्रताप में प्रकाशित हो गई। उसके बाद तो कहानी लिखने का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि आज तक जारी है। कहानी लिखने का सिलसिला जो यहां से शुरू हुआ तो यह मुक्ता, सरिता, वागर्थ, कथाबिंब, वैचारिकी संकलन, नूतन सवेरा, दैनिक ट्रिब्यून से होता हुआ व्यंग्य लेखन की ओर मुड़ा।

.....अब तो शब्द इतना तंग करते हैं कि जो मैं इनके साथ न खेलूं तो रूठ कर बच्चों की तरह किनारे बैठ जाते हैं। और तब तक नहीं मानते जब इनके साथ खेल न लूं। इनके साथ खेलते हुए मत पूछो मुझे कितनी प्रसन्नता मिलती है। इनके साथ खेल खेल में मैं भी अपने को भूलाए रहता हूं। अच्छों के साथ रहना अच्छा लगता है। हम झूठ बोल लें तो बोल लें, पर शब्द झूठ नहीं बोलते। इसलिए इनका साथ अपने साथ से भी खूबसूरत लगता है। इनकी वजह से ही खेल खेल में सात व्यंग्य संग्रह- गधे न जब मुंह खोला, लट्ठमेव जयते, मेवामय यह देश हमारा, ये जो पायजामे में हूं मैं, झूठ के होलसेलर, खड़ी खाट फिर भी ठाठ, साढ़े तीन आखर अप्रोच के यों ही प्रकाशित हो गए।

आज शब्दों के साथ खेलते हुए, मौज मस्ती करते हुए होश तो नहीं, पर इस बात का आत्मसंतोष जरूर है कि मेरे खालिस अपनों की तरह जब तक मेरे साथ शब्द रहेंगे, मैं रहूंगा।

अषोक गौतम, गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड, नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन 173212 हिप्र मो 9418070089

E mail- ashokgautam001@gmail.com

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