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"कुत्ता"

कहानी लेखक - प्रियंका गुप्ता

"जब प्रजा बोलती है"

कविता लेखक - धर्मपाल महेंद्र जैन

कुत्ता ... प्रियंका गुप्ता

आज सुबह सवेरे पुत्तन की लुगाई और रामऔतार की महतारी में फिर ज़ोरों की लड़ाई हो गई। देखा जाए तो लड़ाई की वजह ऐसी कोई ख़ास थी भी नहीं...या अगर पुत्तन की लुगाई के नज़रिये से देखा जाए तो बहुत अहम् मसला था।

सुबह जब पुत्तन की लुगाई अपने नित्यकर्म से फ़ारिग होकर बड़ी सी झाडू लेकर अपना चबूतरा बुहारने निकली तभी उसकी नज़र ठीक उसके घर के दरवाज़े पर पड़ी कुत्ते की टट्टी पर पड़ गई। बस फिर क्या था, उसका पारा तो चढ़ना ही था। ये क्या बात हुई, कुत्ता पालें रामऔतार और उसका गू-मूत साफ़ करे वो...? गुस्से से लाल-भभूका हुई पुत्तन की लुगाई ने आव देखा, न ताव...सीधे जाकर रामऔतार का दरवाज़ा भड़भड़ा दिया। अब सुबह-सवेरे कोई घर का दरवाज़ा इतनी जोर से पीटेगा, तो जाहिर सी बात है कि घर का मरद-मानुष ही आकर देखेगा कि कौन माई का लाल है जो इत्ती सुबह आकर अपनी मर्दानगी दिखा रहा...। सो दरवाज़ा तो रामऔतार ने ही खोला, पर पुत्तन की लुगाई भयानक गुस्से में भी इतना याद रखती है कि उसको मर्दों के मुँह नहीं लगना...। हाँ. अपना मरद होता तो बात और थी।

यही वजह थी कि रामऔतार को देखते ही पुत्तन की लुगाई ने अपने सिर का आँचल ठीक किया और फिर दहाड़ी, “कहाँ है तुम्हरी महतारी...? ज़रा बुलाओ तो बाहेर...। आकर देखें तो, क्या किया है उनका लाडला...।”

पुत्तन की लुगाई वैसे तो पूरे मोहल्ले में हवा से लड़ने के लिए बदनाम थी, पर अपने ऊपर अचानक हुए इस हमले से तेज़-तर्रार रामऔतार भी दो पल सकते में आ गया...। अब क्या कर दिया उसने...?

लेकिन रामऔतार को अपनी महतारी को आवाज़ देने की ज़रुरत ही नहीं पड़ी। अपने दरवाज़े पर ऐसी चिल्ल-पों सुनकर वो खुद ही आँचल को कमर में खोंसते हुए बाहर आ गई, “ये सुबह-सुबह काहे इत्ती भसड़ मचाये हो...का होये गया...?”

प्रत्युत्तर में पुत्तन की लुगाई ने अपना पूरा हाथ नचा डाला...वो भी ठीक उनके मुँह के सामने, “अरे समझा लो अपने मरगिल्ले कुत्ते को...आइन्दा हमारे दरवाज़े आकर हगा न, तो जो पूँछ हिला कर कूँ-कूँ करता नाली के कूड़े में मुँह मारता फिरता है, उसी पूँछ से पकड़ कर अईसा घुमा कर पटकेंगे न...कि सीधा वो ऊपर वाले राम को पियारा हो जाएगा...।” अपनी बात के अंतिम सिरे के स्पष्टीकरण में पुत्तन की लुगाई ने अपनी नज़रों के साथ-साथ अपनी एक उँगली भी ऊपर आसमान की और उठा दी थी।

“अरे, तुम हमारे कल्लू की पूँछ तो छोड़ो, उसका एक बाल भी हाथ लगा के दिखाए दियो...तुम्हरे पूरे खानदान का नामोनिशान मिटाए देंगे...।” रामऔतार की महतारी ने रौद्र रूप में अपनी ही औलाद को पीछे धकेलकर ताल ठोंक ली थी। महतारी द्वारा इस तरह अचानक धकिया दी जाने से रामऔतार को भी सम्हालने का कोई ख़ास मौक़ा नहीं मिला और वो जाकर दरवाज़े की ओट में खड़ी अपनी नई-नवेली दुलहिन से जा टकराये। दोनों का सिर एकदम खटाक की आवाज़ से टकराया था, दुलहिन तो ‘हाय दैय्या’ करके वहीं अपना सिर पकड़े उकडूँ बैठ गई थी। इतनी नाज़ों-जतन से लाई गई बीवी की ये दुर्दशा देखकर रामऔतार अपना दर्द भूल गए और वो सहसा रामऔतार से रावण-औतार में प्रत्यावर्तित हो गए, “ऐ पुत्तन की अम्मा...अपनी ज़बान पे लगाम देयो...और अपने हाथ-पैर को अपनी मरद की लुंगी से बाँध लेयो...। वरना हमने भी कोई हाथों में चूड़ियाँ नहीं पहन रखी है...। अगर हमरी पुस्पा के ज्यादा चोट लग जाती कहीं...तो फिर खून की नदियाँ बहती यहाँ...।”

इतने क्रोध में थरथराते हुए रामऔतार ये भी भूल गए कि अम्मा वाली पोस्ट इधर उनकी तरफ ही थी और उनके सामने तो वो सामने वाले घर के पुत्तन की मेहरारू थी। भूल तो वो ये भी गए कि उनकी पुस्पा के माथे पर ये गूमड़ भी खुद उनकी अम्मा द्वारा उनको धकेले जाने के कारण हुआ है...। रामऔतार की महतारी को तो ये रियलाइज़ हो गया था, पर फिलहाल उनके सामने मुख्य मुद्दा था, पुत्तन की लुगाई के ईंट के जवाब में अपनी ओर से पत्थर फेंकना, न कि सतवादी बनना...। सो उन्होंने ने भी रामऔतार की फेंकी लीड ही पकड़ ली, “हाय राम...देखो तो इस पुत्तन की लुगाई को...ई बेचारी फूल सी बच्ची को कैसी चोट लगाईं है...। हाय-हाय...बुरा हो तुम्हारा...नरक में जाओ तुम लोग...कीड़ें पड़ें तुम्हारे शरीर में...।”

पुस्पा के बगल में खुद भी उकडूँ बैठ कर रामऔतार की महतारी ने भी अपना मुँह पल्लू से ढँक लिया और हिलने लगी। अपनी पालनहार को ऐसे देख कर कल्लू भी कूँ-कूँ करता उनके चारो ओर डोलने लगा था। रामऔतार की महतारी अब थोडा आवाज़ के साथ हिलने लगी थी । पुत्तन की लुगाई खूब समझती थी ये सब नौटंकी, सो बिना डरे उसी तरह हाथ नचा दी, “आये-हाय...देखो को डोकरी को...कित्ता नाटक करे है...। अरे जब यही रामऔतार अपनी इस पुस्पा को आधी रात में भगा लाया था तो हमरे मरद ने ही पंडी जी का इंतज़ाम करके रातो-रात इनके फेरे डलवाये थे...चार गवाह इकट्ठे किए थे...। भूल गए नासपीटों...। उस समय कईसे जे तुम्हरा रामऔतार पुत्तन भैय्या-पुत्तन भैय्या कहते हुए दुम हिलाता हमारे इनके आगे-पीछे घूमा करता था । पता होता तो सड़ने देते तुम्हरी औलाद को जेल में...तब देखते तुम माई-बिटवा का पुस्पा-प्रेम...।”

“तो कौन सा अहसान कर दिया पुत्तन ने...। मामला सुलटाने के नाम पर हमरा कितना पईसा अपनी टेंट में दाब लिए, क्या हमको पता नहीं है...? साले खानदानी चोर...थू...।”

रामऔतार ने मानो अपने अन्दर की पूरी घृणा मुँह में भर कर वहीं बगल में पिच्च से थूक दी हो...पर तभी इस शोर-शराबे के बीच में कूदने के लिए इतनी देर से ढूँढने के बाद मिली लुंगी बाँधते पुत्तन ने बाहर आकर उसकी गर्दन पकड़ ली, “चोर किसको बोलता है कमीने...? कुत्ते, पाप की कमाई से दोमंजिला मकान कर लिया अपने खँडहर को, तो बहुत ऐंठता फिरता है...? खुद को कहीं का राजा समझता है...दो कौड़ी का टुच्चा इंसान...। साले ठरकी...सारी ज़िंदगी लड़कियों का पीछा कर-करके जाने कितनी बार पिटा है, तुझे क्या लगता है, हमको पता नहीं कुछ...। ये लड़की भी भग के आधी रात को तेरे घर न आ गई होती तो तू इसको भी धोखा देता...सूअर की औलाद...।”

बात कुछ और भी निकलती पुत्तन की जुबान से, पर तभी रामऔतार के हाथ के एक झन्नाटेदार झापड़ से वो लड़खड़ा कर बगल की नाली में जा गिरा...। हडबडा कर पुत्तन की लुगाई तो ‘मार डाला...हाय मार डाला’ चिल्लाने लगी थी । नाली की दीवार से सिर टकराने के कारण पुत्तन हल्का बेसुध से थे । तमाशा देखने जुटे मोहल्ले के लोगों ने दौड़ कर रामऔतार को कस कर पकड़ लिया था, वरना वो शायद गिरे-पड़े पुत्तन पर अपनी लातों से भी प्रहार कर देता, “साला...बाप को गाली देता है...कुत्ता कहीं का...।”

लम्बे-चौड़े रामऔतार को गुस्से के कारण सम्हालना पड़ोसियों को भारी पड़ रहा था। रामऔतार की महतारी भी अपनी औलाद को समझाने में लगी थी...अपनी चोट भूल कर पुस्पा पति का यह रूप देख कर डर के मारे थर-थर काँपती हुई रो रही थी...और मोहल्ले की औरतें पुत्तन की लुगाई का रोना-पीटना सम्हाल रही थीं...।

इन सब हड़बड़-तड़बड़ के बीच किसी को भी पुत्तन को नाली से उठाना याद ही नहीं रहा...। सबके पैरों के किनारे पड़े बेसुध से पुत्तन के मुँह को बस एक कल्लू ही था, जो चाट कर होश में लाने की कोशिश कर रहा था...।

जब प्रजा बोलती है … धर्मपाल महेंद्र जैन

जब राजा बोलता है

तब कोई नहीं बोलता।

राग दरबारी उसे सुनते हैं, समझते हैं।

उसकी आवाज़ दरबारे-ख़ास में गूंजती है

पर बाहर आते-आते दम तोड़ देती है।

प्रजा फुसफुसाहट के सिवाय

कुछ सुन नहीं पाती।

वह फुसफुसाहट के सिवाय

कुछ कह नहीं पाती।

 

जब प्रजा बोलती है, सब बोलते हैं।

बहरों के सिवाय सब सुनते हैं।

एक दिन ये आवाज़

इतनी बुलंद हो जाती है कि

जो नक्कारखानों में नहीं सुनाई देती थी

वह सड़कों पर दिखने लगती है।

जो सुन नहीं पाते थे, वे देखने लगते हैं।

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