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ग्लानि

  • ऋतु त्यागी
  • 13 मिनट पहले
  • 13 मिनट पठन

सामने टीवी की बड़ी सी स्क्रीन पर दृश्य पानी के बुलबुलों की तरह  उभरते फिर स्क्रीन में ही डूब जाते । अणिमा बैठक में सोफे पर लेटी ऊँघ रही है।बहू श्वेता  दोपहर का कामकाज निपटाकर अपने  कमरे  में चली गई और वह बैठक में..  बुजुर्ग लोग  इसी तरह एक दिन  बैठक में आ जाते हैं। शायद सिमटना इसी को कहते हैं. जहाँ आत्मा की यात्रा बाहर से भीतर की ओर  जाती है, वहीं भौतिक यात्रा में भीतर से बाहर की यात्रा..शुरू हो जाती है.  परिवारों में बुज़ुर्गों के लिए ये व्यवस्था अनायास ही बनी होगी, सायास के चिह्नों से वो अवगत नहीं।वो  भी कुछ इसी तरह बैठक का हिस्सा हो गई. पहले मास्टरजी यानी अणिमा के पति जो कि एक स्कूल में गणित के शिक्षक थे, पिछले साल  रिटायर होते ही दुनिया से  चले गए।  पहले इस  बैठक पर उन्हीं  का हिस्सा था।  घरों में पुरुषों के सर्वाधिक अधिकार  सुरक्षित रहते आए हैं और ये उसकी बानगी भर  था।  उनकी मृत्यु के पश्चात उसे भी बैठक का अधिकार मिल गया और घर की मुखिया होने का भी. अणिमा के पास सब कुछ था.बेटी-दामाद,बेटा-बहू और पोते-पोती,नाती-नातिन  का भरा पूरा परिवार. बच्चें आज्ञाकारी सब कुछ  तो था!  पर हाँ, पैसठ वर्ष की उम्र में एक साथ की कमी वह हमेशा महसूस करती थी. गांव भर में वह मास्टर की मास्टरनी  तो बनी रही पर घर में उन दोनों के बीच रसोई और बैठक जितनी दूरी ही रही।उनके रिश्ते के बीच में बच्चे गोल-गोल परिक्रमा करते रहे.

सोफे पर लेटे-लेटे अणिमा,  मास्टर जी की तस्वीर पर पड़ी माला और उनके चेहरे की मुस्कान को माप  रही थी।  मास्टर जी की मृत्यु पर वह खाली हो गई थी।  दुखी तो नहीं हुई थी..  निर्देशों, आज्ञाओं, उलाहनों, से मुक्त।  कुछ दिन निर्देशों, आज्ञाओं,उलहानों,की दीवार के गिरने से वह असुरक्षित महसूस करती रही।  आदतों से बाहर आना आसान नहीं होता पर धीरे-धीरे सुकून मिला और खालीपन की कचोट भी। बहू श्वेता शाम की चाय रख गई थी। अब बैठे- बैठे सब कुछ मिल जाता है।  चाय की चुस्की लेते हुए वह बाहर आंगन में रखे मूढ़े पर बैठ गई।  बच्चे खेल रहे थे; वहीं मूढ़े पर बैठी-बैठी वह उस दुकड़िया की तरफ देख रही थी,जहाँ कभी उसका शयन कक्ष था और जिसमें मास्टर जी कभी-कभी आते और अपना काम खत्म कर चले जाते। वहाँ अब अँधेरा था; अँधेरा तो पहले भी था..  जब इस गाँव में वह ब्याह कर आई थी तब बिजली नहीं थी, ढिबरी,लालटेन का जमाना था।  शहर की लड़की गाँव में पता नहीं कैसे निभा पाएगी ! ताल बैठेगी या नहीं ! मास्टर जी के गालों पर उभरे चेचक के दागों को बाबूजी ने  ये कहकर निरस्त कर दिया कि लड़कों की कमाई देखी जाती है, रूप नहीं, लड़कियों को कुछ भी कहने की मनाही के उस जमाने में उसके पास सिर्फ मन को खुरचने का ही अधिकार था और  चुपचाप गर्दन नीची  करके मां-बाप की आज्ञा मानने का ..;  

अणिमा गांव में निभा लेगी।  चूल्हे पर काम भी कर लेती है. यानी अणिमा गाँव में होने वाली  शादी तमाम योग्यताओं को पूरा करती थी. पढ़ने में सभी भाई बहनों में थोड़ा पिछडी  अणिमा, इस तरह  मास्टर अविनाश सिंह की धर्मपत्नी बन गई.  मास्टर जी गाँव  के स्कूल में ही पढ़ाते थे।  उनके पास ट्यूशन पढ़ने वाले बच्चों का तांता लगा रहता।  मास्टर जी थोड़ी देर ही पढ़ाते। बाकी समय उनकी क्लासों में बातों के बुलबुले उड़ते रहते. पैसों की कोई कमी घर में ना  थी।  

दुकड़िया को देखते हुए अणिमा की आँखों में विषाद के चूल्हे का धुआँ फैल गया।  अँधेरे में दुकड़िया में जलती ढिबरी  के पास इंतजार करती अणिमा के लिए, मास्टर जी का आना कभी-कभी ही होता। रात को खा पीकर मास्टर जी गांव में घूमने के लिए निकल जाते।  देर रात आते तो कभी बाहर ही चारपाई पकड़ लेते।  जब मन होता तो चले आते; दुकड़िया में आते ही उसकी देह पर सवार  और फिर थककर उनके  खर्राटों का तीव्र स्वर दीवारों से टकराने लगता.  वह भीगी आँखों से मास्टरजी के खर्राटों के भय से अपनी जान बचाती छिपकली  को देखती रहती. ढिबरी की बुझकर काली पड़ गई बत्ती में वह बड़बड़ करती, पत्नी धर्म निभाती, तकिये पर आंसुओं की नदी छोड़कर सो जाती।  मास्टरजी के दुकड़िया में आने से लाभ रूप में  वह क्रमश: एक बेटी और एक बेटे की माँ बनी पर इस सबके बाद भी मास्टर जी की दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं आया आया. जब आया  तो बीमारी ने उन्हें जकड़ लिया।

बीमारी ही एक ऐसी शय है जो जब तक रहती है हमारी अकड़ के कान उमेठनें में कोई कसर नहीं छोड़ती पर कुछ सिरफिरों की अकड़ को वह कभी नहीं छोड़ती।

मास्टरजी की ट्यूशन क्लास में हालाँकि लड़कों की संख्या ज़्यादा थी पर कुछ लड़कियाँ भी आती. लड़कियाँ अधिकतर कम आय वाले परिवारों से होती, जिनसे मास्टरजी फीस नहीं लेते. ये बात अणिमा को बहुत अच्छी लगी कि चलो लाख बुराई सही मास्टरजी में, कम से कम कोई अच्छाई तो है. ट्यूशन पढ़ने के बाद जब सब बच्चें चले जाते तो वह देखती कि  मास्टरजी  किसी एक लड़की को अलग से पढ़ाने के लिए रोक लेते यह कहते हुए कि  “चल भीतर चल तुझे अलग से समझाना पड़ेगा.’ उसके बाद दुकड़िया का पर्दा खिंच जाता...कुछ समय के बाद लड़की चुपचाप अपनी किताबें और चुन्नी संभलाती हुई,नीची दृष्टि के साथ गेट के बाहर लगभग भागती-सी निकल  जाती.

जिस साल रिया पैदा हुई वह करीब छह महीने मायके रहकर आई साथ में छोटी बहिन तान्या  को भी  दसवीं की परीक्षा देने के लिए अपने साथ गाँव ले आई थी. नवीं कक्षा  में तान्या के गणित में कम नंबर आने से पापा को लगा, अगर मास्टरजी उसे पढ़ा देंगे तो तान्या अच्छे नंबरों से दसवीं कर लेगी। पापा के एक बार कहते ही मास्टरजी छुटकी को गाँव लिवा लाने के लिए उतावले हो गए थे.  मास्टर जी की करतूतों से वो वाकिफ थी, पर पता नहीं,पापा को मना नहीं कर पायी .. बचपन से कराये गए अभ्यास की परिणति का स्वरूप अपनी ही चाहना से खुद की बेदखली था. सामाजिक कृत्यों की आड़ में वैयक्तिकता को धकेलने का पहाड़ा जो उसे कंठस्थ था पर उसमें अब वो अटकने लगी थी. 

 

“मम्मी खाने में क्या बनेगा ?”

श्वेता पूछने आई थी

“जो मन हो बना लो ”

हमेशा की तरह उसने कहा, फिर ना जाने क्या हुआ?

“श्वेता तुम बिना पूछे  अपने मन का बना लिया करो”

“जी”श्वेता के चेहरे पर उजास फैल गया. 

‘एक काम कर, जो भी सब्ज़ी बनेगी  मुझे दे दे, मैं उसे काट दूँगी”

कुछ देर में श्वेता बीन्स दे गई. बीन्स जो मास्टरजी को सख्त नापसंद थी.  

जब तक रहे, उसके घर में बीन्स नहीं बनी. उनके जाने के बाद उसे पता चला कि बीन्स का स्वाद उसकी जीभ को अच्छा लगता है।

रिया ने कहा था उससे-

“मम्मी आपके पास डर बहुत हैं पर इच्छा कोई नहीं.. डर से लिए गए निर्णयों से  डर ही तो जन्मेगा,इच्छा करना कोई पाप  नहीं है  .” सही तो कहा था.... यही सोचते-सोचते वह फिर वहीं दुकड़िया में पहुँच गई.

तान्या को जबदस्ती पढ़ाने के बहाने मास्टरजी उसे अपने पास बुलाना चाहते थे पर चौदह साल की उम्र में भी बारह की दिखने वाली तान्या मास्टरजी की मंशा को समझती थी या मास्टरजी ने अपनी मंशा समझा दी थी. मास्टरजी उसको बुलाते तो तान्या कभी सोने का तो कभी नित्य कर्म का बहाना कर बचने का प्रयास करती. वह उसको ऐसा करते देखती पर कुछ ना कर पाती जैसे पैरों में किसी ने मोटी जंजीर बांध दी हो.  

उस दिन वह जबरदस्ती तान्या को मास्टरजी के पास ले गयी थी.  मास्टरजी की लानतें सुनकर ना जाने कौन सा डर था उसके अंदर? तान्या का पत्थर की तरह जम जाना उसे याद है और उसका  जबरदस्ती खींचकर उसे  ले जाना।  पाप हुआ था उससे बहुत बड़ा पाप, पर एक अज्ञात आशंका की कंपकंपी से वो वहीं बैठ गई थी.  चुपचाप डरी हुई चिड़िया जैसी तान्या  की साँसों की आवाज़ को सुनती रही और स्वेटर की सलाइयाँ चलाती रही. मास्टरजी उससे दूध के लिए कहते रहे पर वो वहीँ रही, हिली नहीं आखिर झुँझलाए हुए..   मास्टरजी पैर पटकते हुए वहाँ से चले गए। उसने कभी तान्या  से उसके डर के बावत कुछ नहीं पूछा और ना तान्या  ने कुछ बताया; बस वह उसके डर के साथ चलती रही.

तान्या  से वो आज भी जब  मिलती है,तो एक ग्लानि उचककर उसके कंधों को जकड़ लेती है, वह उसकी पकड़ से छूटने का बहुत  प्रयास करती है पर कुछ नहीं हो पाता...  

कुछ दिनों पहले फोन पर तान्या ने कहा था उससे...  

“जीजी तुम्हें याद है अपने पति की करतूत”

मोबाइल के दूसरी ओर से आते  तान्या के स्वर में बारूद की गंध थी।

“हाँ” अणिमा की हुंकार में लिथड़ी हुई गलन थी।     

“वो सही था क्या?”

“नहीं”

नहीं..  कहने के लिए उसे ग्लानि के गड्ढे से बाहर आने की ताकत बटोरनी पड़ी थी.

“जानती हो आप वो सब !”

“हाँ” उसके गले में फिर ग्लानि चिपक गयी.   

“फिर विरोध क्यों नहीं किया?”

“हिम्मत नहीं थी.” उसका स्वर टूटा.. फिर भटकने लगा..  

“अब तो मान लो, आपने गलत किया था मेरे साथ!”

“हाँ,

“गंदा आदमी था वो आपका मास्टर’

तान्या की आवाज़ में सुलगन थी; रोष की प्रतिच्छयाया.. जिसकी तपिश को उसने इतनी दूर बैठकर भी महसूस किया था।  

वह उस दिन बहुत समय के बाद दुकड़िया में गई थी. उसके स्याह अँधेरे में अपनी आँखों से नमक और पानी गिराती रही.  हिलककर रोयी थी देर तलक...दुकड़िया की सीली दीवार से सटकर...  

 

स्कूल की कम उम्र की वो लड़कियाँ आज भी उसके साथ चलती हैं.. उठते-जागते..  जिन्हें  मास्टरजी इसी दुकड़िया में पर्दे  के पीछे... पर्दे के पीछे एक रहस्य था जिसे मास्टरजी ने अपने पुरुषत्व के जाले में लपेट रखा था. बिब्बी मास्टरजी की माँ शायद ये रहस्य जानती थी. दुकड़िया का पर्दा खिंचते ही बिब्बी के चेहरे की नसें तनाव से हिलने लगती और उनके हाथ में छोटे से हुक्के की गड़गड़ाहट बढ़ जाती. बिब्बी के चेहरे की नसों में तिडकते  तनाव से आतंकित हो वो लगभग कांपने लगती. ये रहस्य जिस दिन उस पर खुला उस दिन उसके पैरों के नीचे की धरती की धुरी बदल गई थी.  शाम के अँधेरे का  झुटपुटा, वो ढिबरी लेकर दुकड़िया में पता नहीं क्या ढूँढने गई थी? अँधेरे में ही दाहिनी ओर रखे सोफे पर उसका पैर टकराया और एक चीख के साथ वो लड़खड़ायी।। उसने ढिबरी की रोशनी में देखा  मास्टरजी के होंठ लड़की के गालों को रगड़ रहे थे. वो ढिबरी की रोशनी में यही देख पायी और लड़की उनसे छूटने के लिए कसमसा रही थी. अणिमा की छाती पर पत्थर गिरा था...  ढिबरी उसके हाथ से छूट कर नीचे गिर गई भक्क.. से रोशनी बुझी..  धुआँ उठा और मास्टरजी, उस धुएं में छूमंतर.. लड़की चुन्नी मुँह पर ढँककर तेजी से  भागी।

उस दिन की स्मृति ने उसे पूरी तरह कुचल दिया  था.  मास्टरजी उसे  कॉकरोच जैसे लगने लगे थे. कॉकरोच की आकृति की याद आते ही  बैठे-बैठे ही वह सिहर उठी। क्यों आते हैं वो दिन? जो हमारे जीवन को मार कर चले जाते हैं.. वह सोच रही है बस सोच ही तो रही है बोलने का साहस.. हाँ,साहस जो उसके पास नहीं था.  

दुकड़िया में पड़े डबल बेड की हालत अब घुन के कारण ऐसी हो गई थी कि जैसे ही उस पर कोई बैठता उसमें से सप्त लहरी उठने लगती.  उस दिन मास्टर जी शराब पीकर रात के बारह बजे घर लौटे.  उसकी नाक में जोर का भभका चढ़ा. उसने मास्टर जी के आते ही सोने का नाटक किया था.  मास्टर जी मस्त हाथी की तरह उसकी बगल में आकर लेट गए थे. दुर्गंध से उसने करवट भरी थी पर मास्टर जी का हाथ उसकी धोती को जबरन ऊपर कर रहा था.  वह कसमसाई मास्टर जी अब तक उसकी धोती को ऊपर कर चुके थे। उसका दुर्गंध के मारे बुरा हाल था. मास्टरजी के कठोर हाथों ने जैसे उसे जकड़ लिया; वह छूटने के लिए कुलबुलायी... पर लोहे जैसे हाथों की जकड़ बढ़ती जा रही थी.   

घिन से उसे उबकाई आ रही थी. उसने किसी तरह खुद को समेटा और पूरी ताकत लगाकर मास्टर जी को एक ओर धकेल दिया. अब मास्टर जी का रहपट उसके बाएं गाल पर था.  उसकी आँखों में एकाएक ज्वारभाटा भभका और क्रोध की चिंगारी से उसका शरीर जलने लगा.  अब तक वह पूरी  ताकत बटोर चुकी थी.  नशे में धुत मास्टर जी के बालों को पकड़कर उसने ज़ोर का धक्का दिया। और तेज़ी से भागते हुए बाहर निकल गयी.  आँखों से आँसू का  मोती झरा... हुक्का गुड़गुड़ाती बिब्बी उसे देख रही थी.  वह अँधेरे में बुझे चूल्हे के पास बैठ कर हिलक उठी. बिब्बी का हाथ उसकी पीठ को सहला रहा था.  एक नर्म-गर्म हाथ को पाकर बरसों का दबा ज्वालामुखी बाहर आ गया था.   

                                             

उस दिन के बाद से अणिमा  और मास्टरजी की दैहिक दूरी पट नहीं पायी मास्टर जी की तमाम कोशिशों के बाद भी वह चट्टान बन गई थी.  पिघली ही नहीं...  गृहस्थी चलती रही बच्चें बड़े हो गए। बड़े होते बच्चों के साथ मास्टरजी शांत हो गए.  अधिकतर बाहर ही रहते पर अणिमा की गृहस्थी में कोई दखल नहीं देते.  पैसे कमाना और लाकर उसे दे देना बाकी दायित्वों से उनका कोई वास्ता नहीं था। अणिमा धीमे-धीमे बच्चों में घुल गई और बच्चें उसमें.

रीतते वक़्त में शुगर के पेशेंट मास्टरजी बीमारियों से ऐसे घिरे की शराब उनके लिए जहर बन गयी.  वही शराब जो कभी उनसे छूटती ना थी उसे अब छूना भी मना था।  बच्चों ने मास्टरजी की वैसी ही सेवा की जैसी कि उसकी करते हैं.  इस मामले में वो सौभाग्यशाली रही रिया  को छोड़कर बेटे के लिए मास्टरजी पूजनीय ही बने रहे.  

अब बैठक में टँगी मास्टरजी की तस्वीर को वो सोते जागते सरसरी निगाह से देख लेती  है. उसे लगता है मास्टरजी जैसे उसे देखते रहते हैं; कैसी विडंबना है कि  मास्टरजी की तस्वीर सगर्व मुस्कुरा रही होती थी और उसे देख  उसके सीने में अवसाद की मछली तैरती रहती. मास्टरजी की मुस्कान एक चुनौती फेंकती है, उसकी तरफ, सच बोलने की चुनौती, वो उनकी मुस्कान को देखकर अपनी आँखें इधर-उधर कर  लेती है.  अणिमा के सपनों में आजकल वो सभी लड़कियाँ आकर खड़ी हो जाती हैं; जिनकी छाती नितंब होंठों को मास्टरजी छूकर परम आनंद में लीन हो जाते थे। आजकल वह बार-बार अतीत में डुबकी मारने लगती है ..  डूबती तो घबराकर फिर उसी दुकड़िया में झाँकने लगती जैसे कोई कराह उसे पुकार रही हो. उम्र का असर तो नहीं...  वह सोचती. 

मूढ़े पर बैठे-बैठे जब अँधेरा घिर आता तब वह फिर से बैठक में पहुँच जाती.यही उसकी दिनचर्या थी. मास्टरजी दीवार पर माला टाँगे हमेशा की तरह मुस्कुरा रहे होते . हिमांक  रोजाना मास्टर जी की तस्वीर पर पड़ी माला को बदल देता है और एक दीया भी जलाता है. यह उसका रोजाना का उपक्रम है.  इस  पितृ भक्ति को वह ना जाने कब से चुपचाप देख रही है? जब भी देखती है तो फिर से उसे एक कॉकरोच अपने ऊपर चढ़ता हुआ महसूस होता. कभी-कभी लगता अनाधिकारी को अधिकार दिलाने में उसका ही दोष है। कायर है वो, मास्टरजी का सच बताने से हमेशा ही डरती रही..

तान्या के कहने के बाद भी वह डरती रही पर अब ये पाप उसका पीछा नहीं छोड़ रहा था.  गलत को चुपचाप होते देखना भी पाप ही है.  

‘कह दूँगी तो बच्चें क्या सोचेंगे ?’ बस यही सोचती रही।

टीवी के न्यूज़ चैनल पर एक खबर ने उसे बीते दिनों में फिर से पटक दिया-

हाईकोर्ट के एक जज की टिप्पणी को लेकर बवाल मचा था । जज ने कहा था कि पीड़िता के प्राइवेट पार्ट्स छूना रेप या रेप की कोशिश नहीं माना जा सकता है। सोशल मीडिया पर इस बात से भूचाल आ गया था। वह जज साहब की मानसिकता पर सोचते-सोचते मास्टरजी की मानसिकता पर पहुँच गई.  क्या खुशी मिलती है किसी को,एक स्त्री के  स्वाभिमान को  कुचलकर...  अहं की तुष्टि भर और इसके अलावा क्या सुख हो सकता है औरतों का मान मर्दन करके! कौन सी जंग की तैयारी करते हैं ये लोग !

बहू के बेटा हुआ है. मंगल गीत गाए जा रहे हैं. बेटे ने तय किया है कि वह अपने बेटे का नाम अपने पिता के नाम पर रखेगा. पण्डित जी राशि के अनुसार  नाम के पहले अक्षर को बताकर पूरा  नाम, बच्चे के कान में उच्चारित करने के लिए बोल रहे हैं बेटे ने सगर्व माँ की ओर देखकर कहा “अविनाश सिंह”

अणिमा ने जैसे अनसुना किया उसे.. और थोड़ा ऊँचे स्वर में कहा-

“अर्घ्य”

श्वेता मुँह नीचा किए मुस्कुरा रही थी.

पण्डित जी ने दोनों पक्षों की ओर देखा फिर हिमांक  को चुप देखकर जैसे तसल्ली की हो..

‘अर्घ्य” अणिमा ने बच्चे के कान में पुकारा. बच्चा कुनमुनाया उसने बच्चे को गोद में उठाकर उसका माथा चूम लिया.

ये सब कुछ इतनी तेजी से घटा कि हिमांक आश्चर्य के गहने कुहरे में खो गया जब निकला तो रोष और विषाद की छाया लेकर.   

रात में अणिमा फिर बैठक में थी और सामने टीवी पर दृश्य पानी के बुलबुलों की तरह उठ रहे थे.  

मम्मी आज आपने ऐसा क्यों किया? आप तो जानती हो मैं पापा को कितना मिस करता हूँ.  उनका नाम शायद मेरे लिए तसल्ली था,उनके ना हो पाने की तसल्ली..  पर आप !..

अणिमा की गोद में बेटा का सिर था.  उसकी उँगलियाँ बेटे के बालों में घूम रही थी-“चल तुझे आज एक कहानी सुनाती हूँ.”

“मम्मी प्लीज़”

“अरे  सुन तो सही शायद तुझे तेरे सवाल का जवाब मिल जाए !”

आज से करीब दो-ढाई सौ साल पहले एक छोटे से पहाड़ी गाँव की गुफा में एक राक्षस रहता था. वह दिनभर बहरूपियों की तरह गाँव में घूमता और अपने शिकार की तलाश करता. उसका शिकार गाँव की कमसिन लड़कियाँ थी.  रात को वो किसी एक लड़की को उठाकर ले जाता और सुबह फिर गाँव में छोड़ जाता.उसकी राक्षसी ये सब चुपचाप देखती... बस देखती पर राक्षस के भय से अपना मुँह सिलकर ही रखती.  एक बार मुँह खोलने का प्रयास वह कर चुकी थी.  उसके शरीर पर नील के निशानों में वह दर्द आज भी भरा था. कहते हैं कि वो बलात्कार नहीं करता था, ऐसा गाँव वाले कहते, बस उन्हें  मसलकर छोड़ देता.बलात्कार क्यों नहीं करता? इसकी भी कईं कहानियाँ थी पर सच्चाई सिर्फ राक्षसी ही जानती थी। राक्षस में किसी स्त्री को संतुष्ट करने की सामर्थ्य नहीं थी. इसलिए उसने अपना शिकार कम उम्र की लड़कियों को बनाया उनके अछूते अंगों को मसलकर वह सुख महसूस कर लेता था. धीरे-धीरे उम्र के साथ राक्षस को बीमारियों ने घेर लिया फिर वह अशक्त और लाचार होता गया.  एक दिन वह मर गया. गाँव वाले कभी भी उसका रहस्य समझ नहीं पाए. पर राक्षसी सब समझती थी लेकिन कायर थी पर एक दिन उसने निर्णय किया कि वो चुप नहीं रहेगी और राक्षस का रहस्य सबको बता देगी बस वो इसी सोच के प्रयास में आज तक लगी  है.

कहानी पूरी होते-होते अणिमा ने देखा कि हिमांक  उसके पास से उठकर अपने कमरे की ओर बढ़ गया है.  उसके दाहिने हाथ की हथेली उसकी आँखों के कोरों पर थी जैसे बाढ़ के आने से पहले बाँध बनाने का प्रयास कर रही हों;उसे देख  अणिमा के भीतर ममता का एक धवल बादल उड़ा जो जाते हुए हिमांक की पीठ पर फैल गया; क्षणांश को उस धवल बादल की एक श्यामल रेख से मास्टरजी ने  झाँका, जिसे अणिमा ने  स्थिर प्रज्ञ नेत्रों  से  देखा और विलुप्त हो जाने दिया फिर अपने सिर को सोफे के सिरहाने रखे कुशन पर टिका दिया.

अभी तक वह निरर्थक वार्तालाप के आखिरी हिस्से की तरह जी रही थी जिसमें पुरावृतियों की उबाऊ हुंकार  शेष रह जाती है.  

 

अर्घ्य अब दो महीने का हो गया है खूब किलकारी भरने लगा है. आजकल उसकी विश्रामस्थली बैठक में  मास्टरजी की तस्वीर पर पड़ी माला सूख चुकी है.  उसके सामने आले में रखा दीया सूख चुकी बत्ती के साथ  काला पड़ चुका है.. मास्टरजी की मुस्कुराहट भी पीली पड़ चुकी है . दुकड़िया को देख  ग्लानि की रेख को उसने उस दिन मिटा दिया जब हिमांक से उसने  दुकड़िया को रिनोवेट करने के लिए बोला. श्वेता की गाँव की लड़कियों को पढ़ाने की इच्छा को आकार देते हुए, वो अपनी भी दुकड़िया में दबकर रह गई इच्छा को पूरा कर लेगी. एक छोटी- सी कक्षा की स्थापना ,जहाँ गाँव की बच्चियाँ पढ़ सकेंगी.ग्लानि की आग में लाख की तरह  गलकर उसने इस स्वप्न का आकार गढ़ा है बच्चियों के लिए... वही बच्चियाँ जो उसकी नींद को अपने आँसुओं से आज भी गीला कर देती है.  

 

लेखक परिचय - डॉ ऋतु त्यागी

 जन्म-1 फरवरी

सम्प्रति-पी.जी.टी हिंदी केंद्रीय विद्यालय एनटीपीसी बदरपुर  

रचनाएँ-विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ तथा कहानियाँ प्रकाशित.

पुस्तकें- कुछ लापता ख़्वाबों की वापसी, समय की धुन पर,मुझे पतंग हो जाना है तथा तितलियों के शहर में (काव्य संग्रह),एक स्कर्ट की चाह(कहानी संग्रह)

पता-45,ग्रेटर गंगा, गंगानगर, मेरठ

मो.9411904088

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