सात सितारों वाली चुनरी
- दिव्या शर्मा
- 29 अक्टू॰
- 31 मिनट पठन

"ऐ चल धर इन्हें भी छबड़े में।यो भी उठा।…अरे रे निकम्मी यो भी धर।" दीपा की पीठ पर थौल जमाकर सुकेश बोली।
"ठा तो रही हूँ न! बार बार क्यों कह रही है।"
"घणी न बोल।और चुपचाप निकल ले।कोई आ न जाए इधर।" कंड्डो से भरी टोकरी दीपा के सिर पर टिकाकर सुकेश गाँव की ओर देखने लगी।
तेज धूप में गली में सिर्फ भांय भांय करती लू चल रही थी।
"चल निकल जल्दी।तेज ठा कदम।इससे पहले कि कोई आ जाए घर पहुंचना होगा।" सुकेश ने घास का गठ्ठर भी कंड्डो के ऊपर रख दिया।वजन के दाब से दीपा का बैलेंस बिगड़ गया और वह लड़खड़ा गई।
"हरामखोर, चार चार रोटियों ठूस कर भी इतना वजन नहीं उठा सकती!" आँखें निकाल कर सुकेश बोली।
" रहन दे बोबो…ज्यादा न बोल।वरना यहीं पटक दूंगी टोकरा।जब देखो डाँटती रहती है।सीधे मुँह बात नहीं करती।तेरी ही जाकती हूँ न!" दीपा चिढ़ते हुए बोली।
सुकेश ने कोई जवाब नहीं दिया।लकड़ियों के बोझ से गर्दन तो उसकी भी दुख रही थी।वह तेज कदमों से गाँव के भीतर चलने लगी।
"ऐ इतनी धूप में क्या बोझा ठाए घूम रही है सक्को!" चौधरी के चबुतरे से आई बिरमा की आवाज़ ने सुकेश के कदमों को रोक दिया।
"बछड़ी के लिए घास और जलाने के खातिर लकड़ी ले जा रही हूं।और के बोझा ठाऊंगी।" सुकेश ने पल्लू नीचे करते हुए जवाब दिया।
"ये तेरी लौंडिया है!…ये तो ब्याह जोगी हो गई। " बिरमा की आँखें दीपा की उभरी छातियों पर जाकर टिक गई।
"ब्याह जोगी तो न हुई अभी।तेरी नेहा की जोड़ की तो है।" सुकेश ने शब्दों को कठोर करके जवाब दिया।बिरमा के मुँह पर जैसे पानी फिर गया।नेहा और दीपा की पैदाइश एक ही साल की थी।महीने भर की छोट बड़ाई थी ।जाने दीपा बड़ी थी कि नेहा।
"चल. ..चल ठीक है।छोरियां बड़ी भी जल्दी हो जाती हैं।" अपनी खिसियाट मिटाते हुए बिरमा बोला।
सुकेश ने एक नजर दीपा डाली और फिर घूर कर बिरमा की ओर देखा जिसकी आँखें अब भी दीपा की छाती पर थी।पुरानी घिसी कुर्ती के अंदर पहनी पतली शमीज से छातियों के उभार छिप नहीं रहे थे ऊपर से चढ़ती उम्र में देह की कसावट उसे और आकर्षक बना रही थी।
गरीबी में सूखी रोटी खाकर भी जाने कैसे दीपा की रंगत केसर मिले दूध सी थी।लगती ही नहीं थी कि झगडू का बीज है।
झगडू दीपा का बाप। आठ बीघे जमीन पर सुकेश की शादी झगडू से हुई थी लेकिन सास ससुर के मरते ही आठ बीघा जमीन में से छह बीघा झगडू के नशे की भेंट चढ़ गई।बची दो बीघा भी सुकेश के ढेटपन के कारण बच गई वरना उसे भी नशे की गोली के साथ गटक जाता।
"तेज नहीं चल सकती!और कितनी बार कहा कि इन छातियों को सुधरी ढाल ढक लिया कर।नाशगई जीने नहीं देगी अपने बाप की तरह।"
सुकेश ने दीपा को गाली देकर अपनी मन की चिंता को बाहर निकाल दिया।
"ढका तो है।दोनों हाथ से टोकरा थाम रखा है बार बार दुपट्टा कैसे सही करूँ!" दीपा ने चिढ़चिढ़ा कर कहा।
सुकेश जानती थी कि दीपा का कोई दोष नहीं लेकिन बेटी के तन पर चढ़ती यौवन की परत उसे सबकी नजरों में ले आती।सुकेश जिसके रूप से डरी डरी रहती जबकि दीपा आप लड़कपन और घर की हालत के कारण उग्र होती जा रही थी।
"भोले, के जरूरत थी मेरी धी को रूप देने की?जो दिया था घर तो ढंग का देता!" आसमान की ओर देख सुकेश बुदबुदाई।
"क्या बड़बडा रही है बोबो!" दीपा ने कहा।
"अपनी किस्मत को रो रही हूँ और तेरे बाप पर भी।" सुकेश ने झल्लाते हुए कहा।
"तो क्यों पड़ी है बापू धोरे! कर ले दूसरा ब्याह किसी से।" दीपा ने हँसते हुए कहा।
"जा मर जा जाके कहीं।शरम नहीं आती के! बोल रही है सोचा तो कर।" घर के आँगन में घास पटक कर सुकेश सुस्ताने बैठ गई।
"मेरे सिर से बोझा तो उतरवा दे! बैठ गई तू तो!" दीपा चिढ़ते हुए बोली।
"ऐ थम जा…साँस लेने दे…करूँ अभी।" माथे पर आए पसीने को दुपट्टे से साफ कर सुकेश बोली।
दीपा ने गुस्से से माँ की ओर देखा और टोकरी पटक पर कमरे में चली गई।
"अरे बावली…टोकरा तोडेगी क्या? हे भगवान, कहाँ गेर दूँ इसे! टिक्कड खाकर भी यो नखरे रखे है…पाणी तो पिया दे मझे…ऐ कहाँ मर गई दीपा!" सुकेश चिल्लाई।
पर दीपा की तरफ से कोई जवाब न पाकर खुद ही हैंडपंप से पानी खींचकर लोटा भर लाई।
शक्कर घोलकर शर्बत बनाया फिर दीपा के पास जाकर बैठ गई।
दीपा खाट पर औंधी पड़ी थी।
"ले उठ,शरबत पी ले।" सुकेश ने उसकी पसीने से भीगी पीठ पर हाथ फेरकर कहा।
"न पीना मिझे…तू पी ले।" दीपा ने सुकेश का हाथ झटक कर कहा।
"छो न कर लाड़ो…उरे आ…चल तेरे कंघी कर दूँ।" सुकेश प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते फेरते गाने लगती है,
"सात सितारों वाली चुन्नी, लायेगा राजकुमार
ब्याह कर मेरी दीप्पो को,ले जायेगा सागर पार।
नौकर होंगे चाकर होंगे, सासू रोटी पो गी…
मेरी प्यारी गुड़िया महल की रानी होगी।"
"बस बस बोबो…ऐसे सपने न देख।तेरी बेटी रानी बनेगी लेकिन अपनी मेहनत से देख लियो।" दीपा हँसते हुए बोली।
"पूरी बावली गल्लो है तू।" सुकेश ने हल्का सा चपत उसके गाल पर मारा।
दीपा सीधे बैठ जाती है और सुकेश का चेहरा देखने लगती है।
"के दीदे फाड़कर देख रही है।ले शरबत पी ले।रोटी ले आऊं?" सुकेश ने लोटा दीपा की ओर बढ़ा कर कहा।
"बोबो! तेरी बात मिझे समझ नहीं आती।दुश्मन की तरह गाली भी देगी फिर लाड़ भी करेगी।ऐसा क्यों करे तू!" दीपा सुकेश के चेहरे को घूरते हुए बोली।
"जी जले तो गाली दूं…डरूं…दुनिया बहुत बुरी है …गरीब छोरियों को खाने की सोचे…तेरे रुप से डरूँ मैं…और लाड़ क्यों न करूं …पेटजाई है तू मेरी…सड़क से न ठाया तूझे।" सुकेश ने कहा।
"ऐ तू भी बोबो…डरा न कर।देख एक दिन बड़ी नौकरी पर लग जाऊंगी…ले जाऊंगी तुझे तेरे खसम के पास से।" दीपा सुकेश की गोद सिर टिकाकर लेट गई।
"कहाँ ले जाएगी अपनी माँ को जरा मिझे भी तो बता?" शराब के तेज भभके के साथ झगडू की आवाज़ कमरे में गूंज गई।
"बाजार जाने की बात कर रही है।तू कहां था अब तक नाशगए?" सुकेश गुस्से से बोली।
"चबूतरे पर बैठा था…चल रोटी घाल दे…भूख लगी है।" लड़खड़ाते हुए झगडू बरामदे में बैठ गया।
सुकेश बिना कुछ बोले रोटी और अचार झगडू के सामने परोस देती है।झगडू एक बार थाली और एक बार सुकेश की ओर देखता है।सुकेश आँगन में बिखरे उपले उठाने में मग्न थी।
"हरामजादी ढंग का खाना भी नहीं बना सकती।" इतना कह झगडू थाली सुकेश की ओर उछाल कर बरामदे में थूक देता है।थाली के गिरने की आवाज़ से सुकेश चौंक जाती है।
"तेरी बुद्धि खराब हो गई क्या?" सुकेश चिल्लाई।
"बुद्धि तो तेरी खराब है चतरा…दो वखत की रोटी नहीं बनती तुझ से?" झगडू लड़खड़ा कर खड़ा हो गया।
दीपा दरवाजे की ओट में खड़ी तमाशा देखने लगती है।
"यो रोटी उठा और खा…तेरा बाप नहीं बैठा यहाँ चून लाने के लिए…चल ये ही रोटी खाएगा तू।" सुकेश सिर पर दुपट्टा लपेटकर बोली।
"जूता खायेगी तू जूता…न लस्सी न दाल ,बस अचार से रोटी डाल दी…तुझे कुत्ता दिखूं मैं!" झगडू फुंफकार कर चीखा।
"ला कर धर दी तूने दाल…लस्सी तेरी माँ भेज देगी ऊपर से…नाशगए भैंस पाल रखी या गाय बांध ली तूने जो लस्सी पीएगा।हराम का जना अन्न फेंक रहा है!" सुकेश का पारा चढ़ता जा .
रहा था।सुकेश के चिल्लाने पर झगडू उसके के पास जाकर उसके बाल पकड़ लेता है और लाते मारने लगता है।
"मर जा जाके हरामजादे…लुगाई पर ही हाथ चले तेरे! कमाई में चला लिया कर …हाय…छोड़ मिझे छोड़…" सुकेश दर्द से करहाते बोली।
दीपा अपने नशेड़ी बाप के हाथों माँ को पीटते देखती रहती है।अपनी माँ के शरीर पर पड़ती झगडू की लात दीपा के लिए असहनीय हो रही थी।वह दौड़कर आँगन में जाकर झगडू को धक्का दे देती है।झगडू लड़खड़ा कर नीचे गिर जाता है।गुस्से से दीपा का चेहरा लाल हो उठा।
"ऐ…यो सुसरी…बाप को मारेगी! अपनी माँ की तरह छिनाल है…हाथ ठाएगी! रूक तू…" झगडू गुस्से से बोला।
उठने की कोशिश में एक बार फिर नीचे गिर जाता है यह देख दीपा जोर से हँस पड़ती है।
"किस पर उछल रही है तू…बाप पर हँसेगी…तेरी माँ…की..…" भद्दी सी गाली देकर झगडू खडा हो गया और दीपा की ओर बढ़ा।अब तक चुपचाप अपनी चोटें सहलाती सुकेश जैसे होश में आई।वह दीपा पर चिल्ला कर बोली,
"ऐ बावली…ये क्या किया तूने! बाप पर हाथ ठाया करें क्या?"
"चल ज्यादा नाटक न कर..तूने ही सिखाया है इसे सब…भरा होगा तूने ही दिमाग में इसके…साली रांड…"
"और ले पक्ष इस नशेड़ी का…खा गाली।जो दो हाथ पलटकर मारती तो इसकी हिम्मत न होती तुझ पर हाथ उठाने की।" दीपा हाँफते हुए बोली।
"बित्ते भर की छोरी…गज भर जुबान…तुम दोनों को देख लूंगा मैं।" इतना कहकर झगडू घर से बाहर निकल गया।
"जा जा देख लियो…मैं नहीं डरती।" दीपा जोर से चिल्लाई।
"बाप के साथ यूँ जुबान न चलाते बावली।" सुकेश उसकी पीठ पर मारकर बोली।
"तेरा खसम है बस।बाप वाले कौन से लक्षण हैं इसके अंदर!" दीपा ने चिढ़ते हुए कहा।
"यूँ नहीं बोलते…देख सबेरे का भूखा है रोटी भी नहीं खाकर गया…जा बुला ला उसे।" सुकेश ने प्यार से कहा।
"मुझे नहीं जाना…तूझे दया आ रही है तू जा…और गाली भी खा…" इतना कहकर दीपा भी घर से बाहर की ओर चल दी।
……………..…………………………
गाँव की गलियों में टहलता झगडू चौधरी के चबूतरे पर आकर बैठ गया।बिरमा, नेतराम और बेद के साथ ताश की महफिल में शामिल हो गया।तभी दीपा वहाँ आकर खड़ी हो जाती है और कहती है,
"चल घर चल…बोबो बुला रही है।"
"इब तेरी बोबो बुला रही है! पहले बेटी को पाठ पढा कर बाप से लड़वा रही थी…चल नहीं आता घर।" झगडू गुस्से से बोला।
"चल बापू…रोटी खाकर आ जाइये।" दीपा ने फिर कहा।
"नहीं खाने तेरी माँ के हाथ टिक्कड…चल.घरो जा तू।" झगडू ने चिल्ला कर कहा।
"ऐ जाकती है…इतनी भुंडी ठाल क्यों बोल रहा तू,बावला है!" बिरमा ने एक नजर दीपा पर डालकर झगडू की ओर देखा।
"जाकती नहीं दादी है हमारी दादी…हाथ ठाया इसने मिझ पर।" झगडू सबके सामने दीपा को बोला।
"ऐ…छोरी…बड़ी तेज निकली तू तो!बाप पर हाथ ठाया करें कभी?" पास से गुजरती शांति ताई झगडू की बात सुनते ही बोल पड़ी।
"सब माँ के सिखाए पर ही सीखें औलाद…सुकेश को काबू कर काबू।" शांति ने झगडू को समझाते हुए कहा।
ताई की बात सुनकर दीपा गुस्से से उबल पड़ी।वह शांति को घूरकर देखती है और कहती है,
"जा ताई जुबान न खुलवा, अपने छोरे को कर ले काबू जो लड़कियों के पीछे जीभ लटका कर घूमता रहता है…और बापू तू,मर यहीं, मेरी बला से।तेरी औरत पागल है जो तेरे भूख की चिंता करती है।"
इतना कहकर दीपा वहाँ से चली जाती है।
"जुबान देख ले लौंडिया की! शादी कर दे इसकी वरना तेरा घर ठा देगी यो…लख्खन देख इसके।" शांति चिढ़ते हुए बोली।
"के बताएं बस भाभी…नाश हो गया मेरे घर का तो।" झगडू सिर पर हाथ रखकर बोला।
"सारी कमी तुझमें ही है झगडू।सारा घर लुगाई के हाथ में धर दिया अब भुगत।" जहर उगल कर शांति वहाँ से चल दी।
दाँत भींचकर झगडू खडा हो गया ।
"अरे बैठ जा ,क्यों उठ गया!अभी तो बाजी पूरी न हुई।" नेतराम उसका का हाथ खींचकर बोला।
"बस अब न खेला जायेगा।जाकर देखूँ के कर रही दोनों माँ धी।"
बिरमा की नजर में जाता हुआ झगडू और दिमाग में दीपा दिख रही थी।मन में कुछ सोचकर वह उठ खड़ा हुआ और घर के अंदर चला गया।
जेब से मोबाइल निकालकर किसी से बात करने लगा।
—--------------------------------------------
सुकेश मजबूत मन की महिला थी।गाँव की औरतों की लगाई बुझाई से दूर अपने काम में मग्न रहती।बिरादरी वालों की नजर में उसका स्वाभिमान खटकता रहता।ऐसा नहीं था कि झगडू के नाकारापन के कारण उसे दूसरों के सामने शर्मिंदा नहीं होना पड़ा।उसकी जिन्दगी में कई बार गाँव भरके देवर जेठों से लेकर ससुरो तक की कुदृष्टि उसके जिस्म को भेदती टकराई।सुकेश की गरीबी ने उसे बेबस किया लेकिन गिरने न दिया।सास ससुर के मरते ही झगडू के रिश्तेदारों की नजर उसके घर और जमीन पर जम चुकी थी।एक तो सुकेश ने बेटा न जना।ऊपर से बददिमाग दीपा जो जानती थी खुद को बचाए रखने के लिए बदतमीजी जरूरी है।माँ को मरते खटते देख उसके मन में एक अजीब सी जिद समा चुकी थी।अपनी गरीबी और बाप की लापरवाही के बीच ढेट आदमियों की लपलपाती जीभ उसे सतर्क रखती।
दीपा जानती थी कि गरीब की बेटी के दस खैरख्वाह पैदा हो जाते हैं।सरकारी स्कूल में दसवीं में पढ़ती दीपा गुस्सैल भले थी लेकिन कुशाग्र बुद्धि की थी।उसके सपने अपनी पढ़ाई के साथ आगे बढ़ने के थे।इसलिए घर के झंझटों को झेलते हुए भी दिमाग पर बोझ न रखती।
स्कूल के लड़के उससे दो बात करने के लिए भी तरसते लेकिन दीपा थी कि किसी को भाव न देती।उसका मकसद उसके सामने था जिससे भटकना मतलब दूसरी सुकेश बनना।
खेतों में माँ के साथ हाथ बटाती दीपा साड़ियों पर फॉल लगाकर अपनी माँ के हाथों कुछ पैसे भी रखती और बाकी बचा समय सिर्फ उसकी पढ़ाई का था जिसमें उसका बाप भी शामिल नहीं हो सकता था।सुकेश का एक ही मकसद था और वह था उसकी दीपा की पैसेवाले घर में शादी।घर में फांके होने के बाद भी बेटी के लिए कपड़ें बर्तन जोड़ती सुकेश अपनी बेटी के सुख की कामनाओं करती रहती।दीपा के सामने कठोर बनी सुकेश अंदर से बेहद डरी सहमी रहती।
गाँव के घरों में अनाज साफ करने से लेकर ब्याह शादियों में खाना बनाने तक का काम करती सुकेश अपनी बेटी के लिए पाई पाई बचा रही थी।जानती थी बाप के नाम पर झगडू उसकी बच्ची की किस्मत में आया है।
दीपा आँगन में अपनी किताबों में सिर घुसाए अपनी पढ़ाई में मगन थी।सुकेश अनाज छानती अपने विचारों में खोई थी कि तभी झगडू बड़बड़ाते घर में दाखिल हुआ।दीपा को पढ़ते देख उसकी त्योरियां चढ़ गई।
"कलैक्टर बनेगी पढ़कर! जा चाय बनाकर ला।" इतना कह वह खाट डालकर लेट गया।दीपा ने एक बार बाप की ओर देखा फिर अपनी किताबें समेटकर छत पर चली गयी।यह देख झगडू का पारा और चढ़ गया।
"धी के लख्खन सही कर ले बता रहा हूँ तिझे! दूसरे घर जाना है इसे।" झगडू सुकेश पर चिल्लाया।
"कोई लख्खन खराब नहीं उसके।मैं बनाती हूँ चाय।" इतना कहकर सुकेश रसोई में चली गयी।कुछ देर बाद एक हाथ में चाय का गिलास और दूसरे में लड्डू लिए सुकेश झगडू के सामने खड़ी हो गई।
"लाड्डू! किसके घर से आए?" झगडू ने लड्डू मुँह में डाला और चाय सुड़कने लगा।
"कांता के घर से।प्रिभा का ब्याह तय हो गया ।दशहरा के अगले दिन ब्याह है ।" इतना कहकर सुकेश फिर से अनाज साफ करने लगी।
"उसकी धी तो दीपा के जोड़ की होगी! आज झगडू का मिजाज कुछ अलग सा था।
"साल भर बड़ी है…" सुकेश ने जवाब दिया।
"हाँ तो साल भर ही तो बड़ी है कोई चार पाँच साल का फरक तो न है दोनों में! दीपा भी ब्याह जोगी हो गई।" चाय का आखिरी घूंट गले में उतारकर झगडू बोला।
"ब्याह जोगी होने से ब्याह न होगा।धन लगेगा धन।"सुकेश ने थोडा तेज कहा।
"सब हो जायेगा देख लियो।पैसेवाला घर ढूंढूंगा।" इतना कहकर झगडू खाट पर ही पसर गया।
सुकेश उसे हैरानी से देखने लगी।जिंदगी में पहली बार झगडू के मुँह से कुछ ढंग की बात सुनी थी।भगवान को आभार व्यक्त कर वह अपने काम में मग्न हो गई।झगडू के खर्राटे से आँगन गूंजने लगा।
—----------------------------------------------
"मेरे सिर पर बन्टा टोकरी…मैं पतली सी कामनी..।" गीत की ताल पर नाचती सुकेश और ढोलक पीटती शांति ताई की जुगलबंदी में गाँव की औरतें गीत गा रही थी।लड़कियों का झुंड अलग बैठा कौन से गीत पर नाचना है पर चर्चा कर रहा था।खुले आँगन में अक्टूबर में ही ठंड अपना असर दिखा रही थी।शाल और चादरें लपटी औरतें किसी मर्द के आते ही मुँह ढांप लेती।महफिल अपनी रौनक के चरम पर थी।गुलाबी सूट में नीला घिसा सा शाल ओढ़े दीपा अपने नाच से सबके दिलों पर जोर मार रही थी।
"हमरो गुलाबी दुपट्टा…हमे तो लग जायेगी नजरिया रे.।।" घूंघरू की आवाज़ ढोलक की थाप और दीपा की कमर की लचक।
छज्जों पर गाँवभर के छोरें भी लटककर देखने की कोशिश में थे।बड़े बुढ़ों से गाली खाते ,भागते फिर आकर चौखटों और दरवाजे की ओट लिए औरतों की मंडली की रौनक देखने लगते।
'ऐ चल अब दो भजन गा दो, फिर चलो अपने अपने घर…टाइम बहुत हो गया।भूरी दादी ने सबको हिदायत देकर कहा तो गीत के बोल भजन में बदल गए।लड़कियाँ भजन छोड़ अपने अपने घर की ओर चल दी।
अपनी गली में मुड़ते ही दीपा को लगा कि उसके पीछे कोई है।वह ठिठक कर रूक गई और पलटकर देखा,
"तू कौन है?" सामने खड़े युवक को देखकर दीपा ने कठोर आवाज़ में कहा।
"प्रकाश…कांता मेरी मासी है।" युवक ने जवाब दिया।
"अच्छा!तो तू प्रिभा की मासी का लड़का है! लेकिन यहां क्या कर रहा है?" दीपा ने भंवे ऊपर करके उसे घूरते हुए कहा।
"रस्ता भटक गया।मौसा के साथ घेर में गया था।मुझे हुक्का लेने घर भेज दिया।अब गली नहीं मिल रही मुझे।तू दिखाई दे गई इतने में।तो सोचा तेरे से पूछ लूँ।" प्रकाश एक साँस में कह गया।
"चल मैं बता देती हूं गली।" इतना कहकर दीपा आगे आगे चलने लगी।प्रकाश उसके पीछे था।
"कौन सी क्लास में पढ़े है तू?" प्रकाश ने पूछा।
"दसवीं है इस बार।"दीपा बोली।
"अच्छा…खूब ध्यान से पढ़ लियो।बोर्ड में लापरवाही न करियो।" प्रकाश उसे समझाते हुए बोला।
"तू मेरा रिश्तेदार है जो सलाह दे रहा है! अपने काम से मतलब रख।और सामने जो गली दिख रही उसी में चला जा।टैंट लगा होगा सामने ही।" इतना कहकर दीपा पलक झपकते ही उससे पचास कदम दूर हो गई।
शादी में भी प्रकाश दीपा के आस पास रहने की कोशिश करता रहता लेकिन दीपा उसे भाव नहीं दे रही थी।वह जानती थी कि इस तरह आए मेहमान कौन सी छाप किस्मत की मारी लड़कियों पर छोड़ जाते थे।अपने माथे पर लगे कलंक को कुंए में कूदकर या फाँसी खाकर ही दूर करती हैं लड़कियाँ।बिल्लू चमार की छोरी के साथ भी तो यही हुआ था।
प्रिभा की बिदाई कुछ दिन तक घर घर में चर्चा का विषय रहा।बड़ी गाड़ियां, ससुराल से आए जेवर के साथ लड़की की विदाई का दुख।गाँवों में यही तो खासियत है।लाख बुराइयों के बाद भी गाँव बेटियों की बिदाई को साझा महसूस करता है।
सुकेश ने भी चार दिन तक खूब काम किया कांता के घर।ब्याह में सबके खाने के ख्याल से लेकर छोटी मोटी रस्मों को समझाती सुकेश कुछ दिन अपनी जिन्दगी की परेशानी भुला चुकी थी।
—----------------------------------------------
"तड़के तड़क नहा ली आज तो बोबो?" अलसाई सी दीपा अपनी माँ को देखकर बोली।
"मंदिर जाऊंगी।" सुकेश ने कहा।
"कौन से देवता को मनावेगी! कोई नहीं सुनेगा।" हँसते हुए दीपा बोली।
"कभी तो ठीक बोल लिया कर।आज करवाचौथ है बावली।" सुकेश ने अपनी हथेलियां दिखाकर कहा।सुकेश के चेहरे पर एक शर्म सी खींच गई।
"अरे क्या फिर से निकम्मे पति के लिए ब्रत रखेगी ! क्या करेगी इसकी लम्बी उम्र करके?"
दीपा चिढ़ते हुए बोली।
"ऐ …जुबान बंद कर अपनी।रोटी पो कर खा लियो और बापू के लिए भी बना लेना।" इतना कहकर सुकेश मंदिर के लिए चल पड़ी।
दीपा उसे दूर तक देखती रही फिर रसोई में जाकर चूल्हा जलाने लगी।लकड़ी की चटक चटक की आवाज और धुंआ दीपा की खीज को बढ़ा रहे थे।कनस्तर से आटा निकाल अपनी खीज मुठ्ठियों के साथ आटे पर उतारकर रोटियां बनाने लगती है।
"दीपा…ऐ बेटी…दो कप चाय बना ला जरा।" झगडू की आवाज़ में कुछ ज्यादा मधुरता सुन दीपा चौंक गई।रसोई की ओट से नजर उठाई तो देखा बिरमा झगडू के साथ खाट पर बैठा बीड़ी पी रहा था।बिना जवाब दिए दीपा ने चाय का पतीला चूल्हे पर रखकर अपने बाप को घूरने लगी।झगडू आज कुछ बदला हुआ लग रहा था।
रोज की तरह नशे में भी नहीं था और न ही गालियां दे रहा था।उसका बदलाव दीपा के मन में सवाल जगाने लगा।
दो कप एक थाली में रखकर दीपा आँगन में.आती है।उसकी आहट सुन बिरमा सिर ऊपर उठाकर मुस्कुराता है।
"राम राम चाचा।" इतना कहकर दीपा ने थाली झगडू के नजदीक रख दी और रसोई में समा गई।
"कौन सी क्लास में पढ़े यो?" बिरमा ने झगडू से पूछा।
"दसवीं में है…पढ़ने में जी लगे इसका।" झगडू की आवाज़ में प्रसन्नता थी।
"ऐ घर के कामकाज में भी छोरियों का मन रमना चाहिए।जावेंगी तो दूसरे घर ही।" बिरमा, झगडू की खुशी पर पानी फेंक कर बोला।
"सब कर ले मेरी बेटी…घर के काम,सीना, बुनना, काढ़ना…सब आवे इसे।" झगडू ने बिरमा के पानी पर पोछा मार दिया।
दीपा अपने बाप के मुँह से अपनी तारीफ सुनकर हैरान थी।उसकी आँखों में नमी सी आ गई।बचपन से जुबान पर गालियां ही देखी थी झगडू के।मन ही मन भगवान को मनाती दीपा झगडू के लिए रोटियाँ ध्यान से बनाने लगी।
"कप ठा ले बेटी…आऊं…अभी।तेरे चाचा को बाहर तक छोड़ आऊं।" झगडू ने आवाज़ देकर कहा।
"रोटी तो खा जाते बापू…पो दी मैंने।" दीपा झट से बाहर आकर बोली।
"आ रहा बावली….तू खा ले।तेरी माँ भी आ जागी तब तक।" झगडू ने आँगन के किवाड़ों को बाहर से बंद कर दिया।
चाय का गिलास और रोटियां लेकर दीपा खाने लगती है।रोटी के टुकड़े के साथ उसके दिमाग में चलते विचार गले में उतर रहे थे।
अभी वह आधी रोटी ही खा पाई कि बाहर से दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी।
"बाहर से ही बंद है।कुंडी खोल ले जो भी है।" दीपा बोली।
तभी दरवाजा धीरे से खुला दीपा ने मुड़कर देखा तो प्रकाश खड़ा नजर आया।
"तू अब तक हमारे गाँव में ही है! गया नहीं?" दीपा आश्चर्य से बोली।
"अरी न, प्रिभा को लिवाने जायेंगें आज।पहला करवा है न उसका।इसलिए मासी ने बुलवाया।" प्रकाश बोला।
"अच्छी बात है लेकिन यहाँ क्यों आया?" दीपा ने फिर सवाल दागा।
"मासी ने तेरी माँ को घर बुलाया है।दोपहर तक प्रिभा के सुसराल वाले आ जायेंगे।"
"माँ ब्रती है…आज नी आयेगी।" इतना कहकर दीपा दोबारा खाट पर बैठकर रोटी खाने लगती है।
"तूने नहीं रखा ब्रत!" प्रकाश ने दीपा को छेड़ते हुए कहा।
"मैं क्यों रखूंगी! मेरा क्या ब्याह हुआ है।चल जा तू,तेरी मासी इंतजार कर रही होगी।बोल दियो कांता चाची को कि माँ ब्रती है मेरी।आज काम नहीं करेगी।" दीपा बोली।
"कहाँ नहीं जाएगी तेरी माँ…अरे प्रिकाश…कब आया बेटा? अर खड़ा क्यों है! दीपा बैठाया नहीं तूने इसे?" सुकेश मंदिर से आ गई थी।दीपा की उसके कान तक अधूरी ही गई।
"मैं क्यों बिठाती! मैं क्या जानूं कौन है ये..हुउ.." मुँह बनाकर दीपा ने प्रकाश की ओर देखा और अपनी थाली उठाकर घर के अंदर चली गई।
"यो तो बावली है।तू बता कैसे आया?" सुकेश ने प्यार से पूछा।
"मासी ने बुलाया है आपको।प्रिभा का पहला करवा है तो हलवाई बिठाएं हैं लेकिन मासी बोली कि आप ही संभालोगी चाय नाश्ता।" प्रकाश ने आने का कारण स्पष्ट किया।
"ठीक है…बोल दियो अपनी मासी से कि एक घंटे में आती हूँ मैं…।" सुकेश की सहमति लेकर प्रकाश चला गया।
"क्यों बोबो! आज के दिन तो आराम कर लेती…भूखी प्यासी काम करती डोलेगी।मैं चली जाती है तेरे बदले।" दीपा ने माँ की आवाज़ में माँ की चिंता थी जिसे सुनकर सुकेश मुसकरा दी।
"न…तू घर में रह…उसके समधी आयेंगे और मेहमान भी होंगे।लौंडी लारियाँ अनजाने के सामने ठीक नहीं।" इतना कहकर सुकेश दुर्गा माँ की तस्वीर के आगे हाथ जोड़कर खड़ी हो गई।
"आज तेरी पूजा सुन ली लगता है भगवान ने।तेरा खसम आज बहुत प्यार से बेटी बेटी बोल रहा था मुझे।" दीपा ने चुहल की।
"सुधर जा…सकूल में थोड़ी तहजीब सीख लेती!' सुकेश दीपा को डांटते हुए बोली।
दीपा माँ को जीभ चिढ़ाकर भाग गई।
तभी झगडू सिर पर घास का गठ्ठर उठाकर आया।बिछड़ी के पास रखकर उसकी पीठ सहलाने लगा।
सुकेश के चेहरे पर भी हैरानी के भाव उभर आए।
"तू किस तरह घास ले आया आज!" अपनी ठोडी पर हथेली रखकर सुकेश बोली।
"अब ले आया तो ले आया…के आफत आ गई!चल रोटी घाल दे…भूख लग रही है।" अअपने गमछे को झटकर झगडू खाट पर पसर गया।सुकेश रसोई से रोटी चाय और अचार लेकर झगडू के पास खड़ी हो जाती है।झगडू उसके हाथ से खाना लेकर खाने लगता है।सुकेश उसके शांत रूप को देखकर अचंभित थी।
"मेंहदी क्यों लगा रखी आज?" झगडू उसके हथेलियों को देखकर बोला।
"करवा है आज…ब्रती हूँ…" सुकेश शर्माते हुए बोली।
"क्यों भूखी मरे …जा रोटी खा ले।" झगडू ने कहा और चाय सुटकने लगा।
"कैसे खा लेगी रोटी! यूँ भी हुआ करे क्या?" तभी शांति अंदर आते हुए बोली।
"आओ जिज्जी, ये तो यूँही बोले…तुम बैठो।" सुकेश शांति के सामने पटरी रखकर बोली।
"कहानी सुनने आ जाइये, सब हमारे घर में ही आवेंगी सब।" शांति ने कहा।
"ठीक है जिज्जी पर पहले कांता के घर हो आऊं।बायना खाने प्रिभा के ससुराल वाले आ रहे हैं।" सुकेश ने कहा ।
शांति चली गई।झगडू लाई हुई घास को गंडासे से काटने लगता है।सुकेश कांता के घर चली जाती है।घर के काम निपटाकर दीपा अपनी किताबों की दुनिया में खो जाती है।
दोपहर बीतने को थी लेकिन सुकेश अब तक घर वापस नहीं आई थी।दीपा जानती थी कि माँ भूखी प्यासी काम में मग्न होगी।वह कांता के घर की ओर दौड़ पड़ती है।
मेहमानों के लिए टेंट लगे थे।गाड़ियों की लाइन गली को घेरे थी।भीड़ में सकुचाते हुए दीपा घर के भीतर चली जाती है कि तभी किसी से टकरा जाती है।सामने एक छह फुट का हट्टा कट्टा आदमी खड़ा था जिसे देख दीपा को झुरझुरी दौड़ जाती है वह झट से वहाँ से भाग लेती है लेकिन वह आदमी अपनी आँखें उसकी पीठ पर चिपका चुका था।माँ के पास पहुंच कर दीपा उसे घर चलने के लिए कहती है लेकिन सुकेश उसे थोडी देर रूकने की कह रसोई में लग जाती है।दीपा को समझ नहीं आ रहा था कि जब हलवाई है तो रसोई में रोटी बनाने के चोंचले क्यों हो रहे थे! उसकी भूखी माँ कुछ पैसों के लिए एक पैर पर खड़ी रोटियों का ढेर लगाए जा रही थी।
दीपा ने महसूस किया कि दो आँखें उसकी पीठ.पर हैं वह अनमनी सी माँ के आस पास ही रहना चाहती है लेकिन बार बार उसे भी किसी न किसी काम के लिए दौडाया जाने लगा।वह आदमी बहाने से दीपा से रगड़ लगा लेता।दीपा अंदर से जल जाती लेकिन बर्दाश्त कर रही थी।
तभी उसे प्रकाश छत पर नजर आया।वह भाग कर उसके पास पहुंच जाती है।उसे देख प्रकाश के चेहरे पर मुस्कान खिल उठी।
"के बात…मेरी याद आ रही थी क्या? "प्रकाश ने उसे चिढ़ाते हुए कहा।
"तेरी याद आयेगी किसी बंदरिया को…मैं तो…वो।" इतना कहकर वह चुप हो गई।
"क्या हुआ बोल तो!" उसके चेहरे पर आई परेशानी प्रकाश ने भाँप ली।
"एक आदमी है सफेद कुर्ते पजामे में…यहीं पर।" दीपा बोली।
"यहाँ तो बतेरे हैं सफेद कुर्ते पजामे में…हुआ क्या?" प्रकाश ने कहा।
"अरे वो जो कंजी आँखों वाला है…वो हराम का जना मुझे बार बार परेशान कर रहा है…वो देख…वो खड़ा जीजा के पास।" दीपा ने नीचे इशारा करके कहा।
"ये…ये तो जीजा का तहेरा भाई तेजसिंह है।नेता है और भट्टा भी है ईंटों का।पैसे बहुत हैं इस पर।लेकिन ब्याह नहीं किया अब तक।" प्रकाश आँखें घुमाते बोला।
"पैसा है तो मिझे क्या…हरामी मुझे तीन बार छूकर चला गया…इसकी तो बेटी बराबर हूँ मैं।" दीपा चिढ़ते हुए बोली।
"धीमे…धीमे बोल… लड़ाका…मेहमान है चले जायेंगें।प्रिभा की खातिर शांत हो जा।तू जा ही मत वहाँ।" प्रकाश ने कहा।
"मैं क्यों होती लड़ाका!तू होगा…घर जा रही हूँ।" इतना कह वह सीढ़ियों से उतरकर सुकेश के पास पहुंच गई।
तभी कांता एक प्लेट में खाना ले आई और दीपा को खाने के लिए बिठा दिया।
औरतों के साथ बैठकर वह भी खाने में मगन हो गई लेकिन दो आँखें अब भी उसे घूर रही थीं।
………………………………………..
"देख झगडू,ब्याह तो मुझे करना है और तेरी छोरी मुझे पसंद आ गई।तो तू यह रिश्ता ले ले।"तेजसिंह ने झगडू के सामने शराब का गिलास सरका कर कहा।
"पर दीपा तो सत्रहवें साल में ही लगी है।ब्याह कैसे होगा?"झगडू ने एक नजर शराब के गिलास पर डालकर कहा।
"हुउ बावला हो गया तू! छोरी की किस्मत खुद चलकर आ रही है और तू न नुकर कर रहा है!" बिरमा ने उसे डपटते हुए कहा।
"मुझे भी जल्दी नहीं।मई में चुनाव हैं उसके बाद ही शादी करूंगा।खर्चे की चिंता न करना वह सब मेरी जिम्मेदारी है ऊपर से तुम मा्ँ बापू के लिए पचास हजार डाल दूंगा खाते में।आखिर रिश्तेदारी हो जायेगी हमारी।" तेजसिंह ने दाँव चला।
झगडू सोच में पड़ गया।मुलायम सोफे पर धंसा झगडू, तेजसिंह के घर के वैभव में खो गया।आँखों में सपने तैरने लगे।
उसे अपने घर के सामने गाडियों की कतार नजर आने लगी।हाथ में मंहगी शराब और गले में लटकती सोने की चैन पहने झगडू आँगन में खाट पर बैठे सुकेश पर हुकुम चला रहा है। गाँव के चौधरी उसके सामने बैठे हुए शराब पी रहे हैं।
अपने सपनो पर गुदगुदाता झगडू अचानक से हँसने लगा।यह देख बिरमा के चेहरे पर हैरानी उतर आई।झगडू अपने में खोया हँस हँसता रहता है।तेजसिंह उसकी हरकत पर गुस्से से भर गया।
"ऐ चल उठा इसे और निकाल बाहर कर।" इतना कहकर तेजसिंह उठ खड़ा हुआ।
उसकी आवाज़ से सुन झगडू सपने से जाग जाता है और हाथ जोड़कर कहता है,
"माफी बाबू जी।दीपा के ब्याह के ख्याल में खो गया था…माफ करो दो मिझे।" तेजसिंह का लहजा थोड़ा नरम पड़ गया।लेकिन तब तक उसके लठैत कमरे के भीतर चले आए।
"जाओ तुम बाहर…।" तेजसिंह ने कड़क कर कहा।लठैत वापस चले गए।
"ठीक है लेकिन मुझे सुकेश से बात करनी पडेगी…न मानी तो!" झगडू ने फिर शंका रखी।
"तू देख अब इस बात को तो।पचास हजार एक साथ तेरे खाते में और दवा दारू की भी कमी नहीं रहने देंगे बाबू जी…फिर दीपा बड़ी गाड़ियों में घुमा करेगी, यो तो देख!" बिरमा उत्साहित होकर बोला।
"चल ठीक है लेकिन बाबू जी…रकम थोड़ी बड़ा देते तो एक दुकान सी डाल देता मैं गाँव में।" झगडू ने पैंतरा बदला।
"चल ठीक है ईब तो तू मेरा ससुरा बन जागा…तेरे खातिर अस्सी हजार कर देता हूँ…चल अब पी ले…शरमा मत।" तेजसिंह ने झगडू के हाथ में गिलास पकड़ा दिया।झगडू एक साँस में पूरा गिलास गटक गया।
तेजसिंह की गाड़ी झगडू के गाँव के बाहर ही रूक गई।बिरमा और झगडू गाड़ी से उतर कर
अपने गाँव की ओर चल दिए।
"तेरी छोरी के भाग खुल गए झगडू।पैसेवाले घर में ब्याह हो रहा है।देखा न कितनी बढिया गाड़ी में छुड़वाया तुझे।" बिरमा बीड़ी सुलगा कर बोला।
"पहले दोनों माँ धी को भी तो समझाना होगा।देखा तो तूने कैसी लड़ाका हैं दोनों।" बीड़ी का लम्बा कश लेकर झगडू ने कहा।
"कर ले कुछ जुगत।" बिरमा उसके कंधे पर हाथ रखकर थपथपाया।
सामने बाजार नजर आने लगा।झगडू जैसे कुछ सोच कर एक दूकान की ओर बढ़ गया।
बिरमा उसके पीछे था।
"एक सूट खरीद लेता हूँ सुकेश के लिए।तू पैसे उधार दे दे मिझे।" झगडू ने कहा।
"हाँ बोल कितने दूँ?" बिरमा जानता था कि इस ब्याह में वह बिचौलिया बनकर अच्छा मुनाफा कमा सकता है इसलिए नशेड़ी झगडू को तुरंत उधार देने के लिए तैयार हो गया।
"हजार रुपए दे बस।एक दीपा के लिए भी ले लूंगा।" झगडू कुछ सोचते हुए बोला।
"चल तू खरीद।चिंता न कर।" बिरमा ने तसल्ली दी।
थोड़ी देर बाद झगडू के हाथ कपड़ो की थैली और मिठाई से भर गए।आँखों में चमक लिए वह बिरमा के साथ कदम मिलाता अपने गाँव में पहुंच गया।
……………………………………….
"सक्को…ले धर इन्हें।" आँगन में घुसते ही झगडू ने सुकेश को आवाज दी और खुद खाट पर बैठ गया।
झगडू की बदली आवाज़ सुनकर सुकेश आँगन में आई तो झगडू ने थैलियों की ओर इशारा करके कहा,
"देख सौदा ठीक है कि नहीं?"
"क्या लाया इसमे?" सुकेश हैरान थी।
"खुद देख ले…और दीपा को बोल पानी पिया दे मिझे।" झगडू आराम से लेट गया।
"सकूल गई है।आने वाली होगी।
सुकेश थैली खोलकर देखने लगती है।दो दो सूट कपड़े देख सुकेश के चेहरे पर आश्चर्य भरे भाव आ गए।
"किसके कपड़े हैं ये? सिलाई के लिए पकड़ा दिए क्या किसी ने! नापा नहीं दिया क्या!" सुकेश बोली।
"रहेगी बावली तू…तेरे और दीपा के लिए लाया।मिठाई भी है।दीपावली पर पहन लेना दोनों।" झगडू के स्वर में मिश्री घुली थी।
तब तक दीपा भी स्कूल आ चुकी थी।अपनी माँ और बाप की बातें सुनकर वह तुरंत अपना सूट उठा लेती है।
"क्या बात बोबो! तेरा खसम तो सुधर गया। " दीपा हँसते हुए बोली।
"जा मर जा …बाप से तमीज से बात नहीं कर सकती!" सुकेश ने उसकी पीठ पर मार कर कहा।
"न रहने दे…मार मत इसे।" झगडू बोला।
"बहुत प्यार आ रहा है बेटी पर!" सुकेश व्यंग्य से बोली।
"अपनी औलाद का कौन लाड़ नहीं करता।चल अब चल चाय पिया दे।पानी भी ले आ।गला सूख गया है मेरा।" झगडू बोला।
"मैं लाती हूँ बापू।" इतना कहकर दीपा रसोई में चली गई और झटपट चाय चढ़ाकर झगडू को पानी दे आई।अपने पिता के बदले रुप को देखकर उसे हैरानी तो थी लेकिन खुशी ज्यादा थी।
तीन गिलासों में चाय डालकर वह सुकेश और झगडू के पास आकर बैठ गई।घर के माहौल में बदलाव था जिसे देखकर सुकेश की आँखों में पानी उतर आया।
………………………………………….
झगडू अब शराब पीने के बाद घर में हंगामा नहीं करता।उसका व्यवहार संतुलित हो गया था।काम तो अब भी खास नहीं कर रहा था लेकिन दीपा और सुकेश के साथ बहुत प्यार से पेश आने लगा।सुकेश को पति का प्यार मिल रहा था और दीपा को बाप का दुलार।
मौसम बदल रहा था और त्योहार भी।चुनाव का
के प्रचार पर भी रंग चढ़ा था।तेजसिंह प्रचार के लिए अपनी सारी ताकत झोंक चुका था।बिरमा और झगडू भी उसके आदमियों के साथ गाड़ियों में घूमते नजर आने लगे।झगडू को कुछ ज्यादा सम्मान मिलता।इस सम्मान से वह फूला न समाता।भविष्य में एक विधायक का ससुरा बनने का ख्वाब उसके चेहरे की रंगत बढ़ा रहा था।
इधर दीपा अपनी परीक्षा में तल्लीन हो गई।
चुनाव का प्रचार और बोर्ड की परीक्षा।एक साथ दो शोर के बीच बच्चे अपने भविष्य को अजमा रहे थे।घर बाहर के काम निपटाती दीपा रातों जागकर पढ़ती।सुकेश उसके साथ जगी रहती।
परीक्षा तेजसिंह की भी थी क्योंकि उसके रूतबे और शक्ति में इजाफे के लिए यह चुनाव जीतना जरूर था।पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा था।परीक्षा देने वाली लड़कियों के लिए फ्री बस सेवा भी तेजसिंह ने शुरू करा दी थी।
उसकी नजर दीपा पर इस चुनाव प्रचार के दौरान भी थी।बस वोटिंग और परिणाम के बाद दीपा को अपने घर लाने की पूरी तैयारी तेजसिंह कर चुका था।
बोर्ड परीक्षा खत्म होने के साथ वोटिंग शुरू हो गई।
परिणाम का इंतजार दोनों तरफ था।तेजसिंह का इंतजार खत्म हो गया।वह भारी वोटों से जीत गया था और इस जीत को सेलिब्रेट वह गाँव- गाँव जाकर लोगों से मिलकर कर रहा था।
झगडू के घर भी अपने लाव लश्कर के साथ वह पहुंच गया।उसे सामने देख झगडू हड़बड़ा गया।
"आओ आओ नेता जी।बहुत खुशी हुई आपकी जीत पर।" झगडू उसका स्वागत करते हुए बोला।
"चलो भीतर ले आओ सामान।" तेजसिंह अपने कारिंदों से बोला।
लड्डू और फल के टोकरों से झगडू का आधा आँगन भर गया।यह देख सुकेश की आँखें चौड़ी हो गई।तेजसिंह को देखकर दीपा का खून खौल गया,लेकिन चुप रही।
"यह सब इतना सारा हमारे घर में!" सुकेश बोली।
"सारे गाँव में यह लड्डू और फल बांटने की जिम्मेदारी बाऊजी को दे रहा हूँ।इसलिए ही यहाँ रखवाए।क्यों बाऊजी यह कर लोगे न!" तेजसिंह ने बड़े सम्मान से झगडू को कहा।
"हां जी जी …कर लूंगा मैं…तुम चिंता न करो।" सम्मान पाकर झगडू फुला न समाया।
सुकेश भी गर्व से भर उठी।
"अरी दीपा…जा बेटी चाय बना ला नेता जी के लिए।" झगडू ने आवाज़ लगाई।
उसकी आवाज़ सुनकर दीपा और चिढ़ गई लेकिन तमाशा नहीं करना चाहती थी इसलिए चुपचाप चाय बनाकर ले आई।
तेजसिंह उसे देखते ही खिल उठा।लेकिन दीपा वहाँ से तुरंत हट गई।जाते हुए तेजसिंह झगडू और सुकेश के पैर छूता है।यह देख गाँव वालों की आँखों में ईर्ष्या उतर आती है।सुकेश आज बहुत खुश थी।शादी के बाद पहली बार उसे गाँव में इतना सम्मान मिला था।झगडू, बिरमा के साथ मिलकर गाँव में फल मिठाई बांटने की व्यवस्था करने लगता है।अपने पति की इज्ज़त देख सुकेश खुशी से झूम उठी।
"तेरा बापू भले दारू पीता है लेकिन आज इज्ज़त देख ली उसकी।" सुकेश दीपा से बोली।
"हाँ…देख तो ले इज्ज़त दे कौन रहा है।हरामी एक नंबर का तेजसिंह।" दीपा दाँत पीसते हुए बोली।
"चल पागल…इतना बड़ा नेता है और इतनी सादगी! तुझे बदमाश कहाँ से दिख गया वो…कुछ भी बोलती है…सेब खावेगी?" सुकेश ने टोकरे से सेब निकाल कर दीपा की ओर बढ़ाया।
"इस आदमी की लाई कोई चीज न खाऊं मैं।तू ही ठूस ले।मैं तो इसके समान पर मूतू भी नहीं।" दीपा ने झुंझला कर कहा।
"कौन सा बैर है तिझे तेजसिंह से?सुकेश माथा पीटकर बोली।लेकिन दीपा बिना कोई जवाब दिए छत पर चली गयी।उसका दिमाग अपने परीक्षा परिणाम में ही लगा था जो चार दिन बाद आने वाला था।तेजसिंह जैसे आदमी की चर्चा में अपना समय खराब नहीं करना चाहती थी दीपा।
…………………………………………
"तेजसिंह भला आदमी है…इतना पैसेवाला होकर घमंड नहीं जरा भी।" सुकेश झगडू की थाली में रोटी रखकर बोली।
"सही कह रही तू।ऐसा दामाद हमें मिल जाता तो किस्मत खुल जाती है।शान से बड़ी गाड़ी में बैठकर तिझे मिलने आती दीपा।" झगडू दाँव फेंक कर बोला।
"भाग इतना चोखा नहीं हैं हमारा।ज्यादा सपने न देख।" सुकेश उसे झिड़कते हुए बोली।
"अर जो बन गया तो!" झगडू भंवे चढ़ा कर बोला।
"तो शिवजी को मनाऊंगी।पर तेजसिंह तो दीपा से उम्र में ज्यादा है।" सुकेश ने शंका रखी।
"मर्दों की उम्र देखी जा क्या? पैसा देखा जाता है और गुण भी।तूने खुद देखा चुनाव जीत गया लेकिन दिमाग जमीन पर ही है।" झगडू सुकेश को समझाते हुए बोला।
"कहे तो ठीक है तू…जाकती ठीक से अपने घर चली जा।अर सुखी रहे बस इतना ही माँ बापू सोंचे।" सुकेश ठंडी साँस भरकर बोली।
"तेजसिंह ने रिश्ता भेजा है अपनी ओर से।तू बता हाँ कर दूँ?" झगडू बोला।
"पहले दीपा से तो पूछ ले।जो वह नाट गई तो?" सुकेश के मन में दीपा का उग्र रूप आ गया।
"उसके भले की ही करेंगे हम।उसे न बता कुछ।बुधवार को आयेगा तेजसिंह अपने परिवार के साथ।ये पैसे रख और कुछ सौदा लाना है तो अभी बता दे।दीपा को लेकर बाजार चली जा कुछ उसे भी चाहिए तो दिला दियो।" यह कहकर झगडू उठ गया और घर से बाहर निकल गया।सुकेश दीपा को बताना चाहती थी लेकिन डर था कि कहीं मना न कर दे।
बेटी को पैसेवाला घर मिल रहा है इसी बात से वह खुश हो रही थी।तंगी में सारा जीवन गुजराने वाली सुकेश को दीपा और तेजसिंह की उम्र का फर्क भी नहीं दिख रहा था।वह तो बस अपनी बेटी को गहनों से लदा देखना चाहती थी।
चुपचाप सारी तैयारी करती सुकेश दीपा से थोड़ी खींची रही।
… ……………………………………….
सुबह सुबह घर में चहलपहल देख दीपा कुछ चौंकी।हलवाई अपनी भट्टी लगा चुका था।सुकेश और शांति सब्जियां काट रही थी।झगडू कभी अंदर तो कभी बाहर नजर आता।
दीपा सुकेश के पास जाकर बैठ गई और बोली,
"बोबो क्या हो रहा ये…दावत किसलिए?"
"पता चल जायेगा तिझे भी।जा तू नहा ले।कुछ खा ले पहले।" सुकेश उसे टालते हुए बोली।
"बता तो…हलवाई क्यों बैठा रखा यहाँ! और इतना राशन।लॉटरी लग गई क्या बापू की?" दीपा ने फिर पूछा।
"अरी,बड़ी बवाल धी है तेरी तो सक्को! एक बार में सुनती नहीं।क्यों उतावली हो रही बता तो रही तेरी माँ कि पता चल जायेगा।जा नहा कर आ।" शांति तड़क कर बोली।
"क्यों ताई ब्याह तो नहीं कर रही दुबारा! ताऊ को छोड़ रही है क्या? "दीपा ने शांति को चिढ़ाते हुए कहा और गुसलखाने में घुस गई।
सिर पर पानी डालते हुए दीपा अपने घर में दावत के कारण को खोजने लगती है।
"कहीं ऐसा तो नहीं रिजल्ट के लिए दावत कर रहे हो माँ बापू…पर पहले पता तो चले कि मैं पास हुई कि नहीं!" दीपा खुद ही बड़बड़ाई।
"चल पता चल जायेगा।आ तो रहा रिजल्ट।" दो लोटे पानी अपने सिर पर उड़ेल कर खुद को तसल्ली दे वह खुद ही खुद को समझा लेती है।
नहा कर वह आराम से आँगन में सब काम होते देखती रही।
धीरे धीरे कर और औरतें घर में आकर आँगन में बैठ गई।सब हँसती चुहल करती सुकेश के काम में हाथ बटाने लगी।धूप चढ़ने लगी थी।दो तुफान पंखे भी आँगन में लाए गए।पंखे की तेज हवा के सामने दीपा कभी आती कभी हट जाती।
तभी कुछ गाड़ियां गली में लाइन से आकर लग गई।झगडू जल्दी से बोला।चल सब बरामदे में जाओ।मेहमान आ गए।
वह दरवाजे की ओर लपकता है।सुकेश सिर पर दुपट्टा सही कर एक ओर खड़ी हो जाती है।दीपा कमरे में जाकर दरवाजे पर ही खड़ी हो जाती है।
उसकी नजर आँगन के दरवाजे पर थी जिससे कोई मेहमान आने वाले थे।काली लैदर की चप्पल और सफेद कुर्ते पजामे में सबसे पहले तेजसिंह अंदर आया।फिर उसके पीछे दो औरतें और कुछ आदमी।
बिरमा झगडू और नेतराम हाथ जोड़कर मेहमानों को खाट पर बैठने के लिए कहते हैं।यह देखकर दीपा का दिल किसी आशंका से बैठ जाता है।
वह दौड़कर सुकेश के पास जाती है और उसका हाथ पकड़कर कमरे में खींच लेती है।
"यह फिर आ गया बोबो! हमारे घर बार बार क्यों आता है? तिझे पता भी है प्रिभा के करवा की दावत में के कर रहा था मेरे साथ ये!" दीपा गुस्से से बोली।
"के कर रहा था?" सुकेश का दिल डर से धड़क गया।
"छू रहा था बेर बेर बहाने से।बहुत हरामी है यह बुड्ढा लोग कहीं का।" दीपा ने कहा।
"चल पागल।भीड़ में छू गया होगा तिझे।बेकार की बात सोच रही है।" उसका हाथ झटककर सुकेश मेहमानों के पास चली जाती है और हाथ जोड़कर नमस्ते करती है।एक औरत कुछ कपड़े सुकेश को पकड़ा देती है।सुकेश उन कपड़ों को लेकर दीपा के पास वापस आ जाती है।
"ये पहर ले दीपा और बाहर आ जा।" सुकेश ने दीपा के पास कपड़े रखकर कहा।
"क्यों पहन लूँ! साड़ी क्यों पहनूं मैं?" दीपा हैरान थी।
"रोका है तेरा आज।चल पहन ले।" सुकेश ने प्यार से कहा।
"मेरा रोका! बोबो तुने पूछा भी नहीं मिझे और न बताया।किसके साथ ब्याह तय किया मेरा?" दीपा गुस्से से चिल्लाई।
"धीमे बोल…मेहमान बैठे हैं बाहर।तेजसिंह से तय हुआ तेरा ब्याह।चल अब चुपचाप तैयार हो जा।सब इंतजार कर रहे बाहर।"
तेजसिंह का नाम सुनकर दीपा सन्नाटे में आ गई।उसका दिमाग सुन्न हो गया।
"तेजसिंह! वह बुड्ढा लोग…उससे मेरा ब्याह।तू माँ है मेरी कि दुश्मन है!यो राजकुमार ढूंढा मेरी खातिर!" दीपा सुकेश की बात पर हैरान थी।
"पागल न बन।पैसा देख उसके पास।रानी बनकर रहेगी और उम्र का क्या है जोड़ पैसेवाले के साथ ही बने तो अच्छा है।" सुकेश ने उसे समझाते हुए कहा।
इतना सुनते ही दीपा भुनभुनाते हुए आँगन में आकर तेजसिंह के सामने खड़ी हो गई।उसे ऐसे देख एक बार तेजसिंह सकपका गया लेकिन शांत रहा।
"राम राम तेजसिंह चाचा…राम राम अम्मा।" दीपा ने व्यंग्य से तेजसिंह की ओर देखकर नमस्ते की।
"ऐ पागल…तेरा ब्याह है इससे।इसे चाचा क्यों बोल रही?" तेजसिंह का माँ गुस्से से बोली।
"ब्याह!मेरा ब्याह और इसके साथ…उम्र पता है मेरी की नहीं? सत्रह साल की हूँ मैं और तू नाबालिग के साथ ब्याह करेगा!" दीपा ने जवाब दिया।
"चुप चुप हो बेशर्म…चुपचाप कपड़े बदल कर आ।" सुकेश उसे खींचते हुए बोली।
"क्यों चुप हो जाऊं? तू कर ले इसके साथ ब्याह।तेरी और इसकी उम्र भी बराबर है।हाँ बोबो तू कर ले पैसेवाले से ब्याह।वैसे भी तेरा खसम तो निकम्मा है।" दीपा सुकेश पर चिल्ला कर बोली।
चटाक चटाक…तेज आवाज़ से दीपा की आवाज़ बंद हो गई।वह अपने गाल पर हथेली रखकर फफक कर रोने लगी।
"तेरे दुश्मन नहीं हैं हम।तेरे सुख के लिए ही सब कर रहे हैं।इस गरीबी में कौन बिठाएगा तुझे अपने घर!" सुकेश उसे गले लगाकर बोली।
अपमान से तेजसिंह का चेहरा लाल हो गया।गाँव के लोग धीरे धीरे बाहर खिसकने लगे।दीपा की उदंडता को कोसते तमाशा देखने घर के बाहर ही डंटे रहे।
"बस बहुत हो गया झगडू…तेरी छोरी तैयार नहीं थी तो हमें क्यों बुलाया! जानता नहीं कौन हूँ मैं।" तेजसिंह गुस्से से फट पड़ा।
"माफ कर दो बाबू जी…जाकती है समझने में टेम लगेगा पर ब्याह होगा जरूर।" झगडू उसके पैरों पर गिरकर बोला।तेजसिंह झगडू को ठोकर मार कर खड़ा हो जाता है और दीपा की ओर देखकर बोलता है,
"इसके लख्खन देखकर मैं खुद इससे शादी नहीं करूंगा।क्या पता किसके साथ लगी हो तभी तो ड्रामे कर रही है।"तेजसिंह थूकते हुए बोला।
"अबे ओ…अपने लख्खन देख तू।तेरी बेटी की उम्र की हूँ फिर भी शादी के लिए चला आया।" दीपा फिर चिल्लाई।
घर में खामोशी छा गई कि तभी ढोल की तेज आवाज़ से खामोशी टूट गई।
कुछ लोग…उनके घर के सामने इकट्ठा हो गए गाँव वाले हैरानी से उन लोगों को देखने लगे।
तभी एक आदमी माइक लेकर घर के अंदर आ गया।सामने तेजसिंह को देखकर लपका।
पोल खुलने के डर से तेजसिंह के चेहरे पर पसीना आ गया है।उसके सामने मीडिया खड़ी थी।
"आप भी यहाँ पर मौजूद हैं इसका मतलब आप भी दीपा को शुभकामनाएं देने आएं हैं?" आदमी ने तेजसिंह के सामने माइक करके पूछा।अचानक से इस अजीब सवाल पर तेजसिंह कुछ कह नहीं पाया।
माइक जमीन पर सिसकती दीपा की ओर मुड़ गया।
"पूरे राज्य में हाईस्कूल में टॉप करके कैसा लग रहा है दीपा आपको?" आदमी ने दीपा से सवाल पूछा तो दीपा च़ौक कर खड़ी हो गई।
"मैंने पूरे राज्य में टॉप किया!" हैरानी और रोमांच से उसकी टांगें कापने लगी।
"सच ही है छोरी।रिपोर्टर झूठ क्यों बोलेगा!तन्ने पूरे जिले का नाम रौशन कर दिया।" तेजसिंह पैंतरा बदलकर बोला।
कैमरे और माइक तेजसिंह की ओर मुड़ गए।
दीपा के कानों में बस एक ही बात चल रही थी कि उसने राज्य में टॉप किया।झगडू और सुकेश जैसे बहरे हो गए थे।लोगों का रेला उनके घर में था।बाहर ढोल बज रहा था।
"हमें तो पहले ही दीपा की मेहनत को देखकर अंदाजा हो गया था कि यह सबका नाम रौशन करेगी।इसलिए पहले ही यहाँ आकर बधाई दी।"
"भाई तेजसिंह की जय!" एक नारा जोर से उछला।
"जय!" सम्मिलित आवाज़ का शोर भी उछल पड़ा।
तेजसिंह की बात कैमरे में रिकॉर्ड हो रही थी।उसके चेहरे पर अब अपमान की शर्मिंदगी नहीं दिख रही थी बल्कि मौके की नजाकत की समझ नजर आ रही थी।
झगडू हैरान था।उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहें।अस्सी हजार हाथ से जाने का गम मनाए या बेटी के अव्वल आने की खुशी।
वह घुटने मोड़कर एक कोने में बैठ गया।
सुकेश मुँह पर पल्लू डाले आने जाने वाले लोगों को चाय पानी परोसने लगी।
हलवाई अब भी दावत का खाना बना रहा था लेकिन दीपा के ब्याह का नहीं बल्कि उसके हाईस्कूल के परिणाम के लिए।आँगन में पंगत बिछी थी।
शाम धुंधलाने लगी लेकिन लोगों का हुजूम कम नहीं हो रहा था।तेजसिंह जा चुका था।
कैमरे में झगडू सुकेश और दीपा नजर आ रहे थे।सुकेश के चेहरे पर घूंघट खींचा था और झगडू हाथ जोड़े बैठा था जबकि दीपा आत्मविश्वास से दमकती सितारा लग रही थी।
"मैंने कहा था न बोबो कि एक दिन तेरी बेटी तिझे एक दिन कुछ करके दिखाएगी!" दीपा सुकेश की गोद में सिर रखकर लेट गई।
"पता था मिझे।" सुकेश उसके बालों में हाथ घुमाने लगी।
"तो फिर उस बुड्ढे लोग तेजसिंह से मेरा ब्याह क्यों करा रही थी?" दीपा की आवाज़ में नाराजगी और शिकायत दोनों थी।
"तेरे सुख की खातिर…पूरी जिन्दगी फटे कपड़ों और सूखी रोटी में काट दी।तेरे लिए सारे आराम चाहती थी बावली।" अपनी आँखों में उतर आए आँसुओं को साफ करती सुकेश का चेहरा गर्व से चमक रहा था।
"ढूंढ लियो पैसेवाला ही…पर पहले मिझे पढ़ना है।देख लियो कलेक्टर बनूंगी।तिझे सड़ी गाड़ी में घुमाऊंगी।" दीपा चहक उठी।
"खूब मेहनत करूंगी तेरी पढ़ाई के लिए।" सुकेश ने दीपा का माथा चूम लिया।
"न माँ…तेरी बेटी को वजीफा मिलेगा।अब मेरे सपनों को कोई नहीं तोड़ सकेगा।सात सितारे जगमगाएंगे लेकिन मेरी सात डिग्रियों में।" आत्मविश्वासी दीपा की आँखों में सितारे झिलमिलाने लगे।
सुकेश को अपनी हथेलियों में लाल चुन्नी नजर आने लगी।सात सितारों वाली चुन्नी।
टीवी पर चलती खबरों में दीपा का नाम मोटे अक्षरों में नजर आ रहा था जिसे देखकर प्रिभा की आँखों में पानी उतर आया।बारहवीं की परीक्षा का प्रवेश पत्र हाथ में लिए वह तकिए में मुँह देकर रोने लगी।
झगडू बिरमा के साथ चबूतरे पर बैठकर गला तर करने लगा।समझना मुश्किल था कि वह अस्सी हजार जाने का दुख मना रहा है या बेटी की सफलता का जश्न।
Artwork by Ayleen D
लेखक परिचय- दिव्या शर्मा

जन्म स्थान-देहरादून ,उत्तराखंड।
जन्मतिथि- 1जुलाई
शिक्षा - स्नातक कला वर्ग में, , डिप्लोमा पर्यटन गाइड, एनटीटी।
प्रकाशित पुस्तकें- ■ कहानी संग्रह 'मैं भागी नहीं थी माँ" ,■लघुकथा संग्रह 'कैलेण्डर में लटकी तारीखें'का प्रकाशन ■'सम -सामयिक लघुकथाएँ'साझा संकलन में सह-सम्पादन।लघु-कविता संग्रह पुरुस्त्रेंण ।
■ 'जंगल की हर रात काली नहीं होती ' ईबुक किंडल पर प्रकाशित।
तीन साल से व्यवासायिक तौर पर कंटेंट व स्क्रिप्ट राइटिंग कर रही हूँ।
पुरस्कार व सम्मान-:
1- हरिद्वार लिटरेचर फेस्टिवल -2020 में साहित्य सहयोग के लिए सम्मान।
2-साहित्य संचय फाउंडेशन व अयोध्या शोध संस्थान(संस्कृति विभाग उत्तर प्रदेश)द्वारा नवंबर2019 में सम्मान।
3-मदनलाल अग्रवाल स्मृति ,किस्सा कोताह बाल कहानी पुरस्कार -2020
4-हरियाणा प्रादेशिक लघुकथा मंच से लघुकथा सेवी सम्मान।
5-सृजन बिम्ब प्रकाशन द्वारा अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर सम्मान।
6- क्षितिज नवलेखन सम्मान-2020 ।
7- गोवर्धन लाल चौमाल स्मृति कहानी प्रतियोगिता में कहानी संग्रह 'मैं भागी नहीं थी माँ' शीर्ष दस पुस्तकों में सम्मिलित।
8- एथ्री फाउंडेशन द्वारा कहानी संग्रह ‘ मैं भागी नहीं थी माँ ‘ को श्रेष्ठ कहानी विधा की पुस्तक में सम्मान।
9- साहित्य समर्था त्रैमासिक पत्रिका द्वारा अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में श्रेष्ठ कहानी पुरस्कार।
10- कथा रंग कहानी प्रतियोगिता में श्रीमती जैदेवी जायसवाल स्मृति शिवानी कथा सम्मान -2023
11- डॉ . सुरेंद्र वर्मा स्मृति में लघु कविता सृजन सम्मान
12- गुरू द्रोण सम्मान
13- प्रिंट मीडिया वर्किंग जर्नलिस्ट एसोसिएशन की ओर अटल रत्न सम्मान।
मोबाइल नंबर-7303113924
ईमेल आईडी-
■साहित्यक परिचय :
नुक्कड़ नाट्य मंडल द्वारा विभिन्न लघुकथाओं की पूरी सीरीज का मंचन । नाट्य विद्यालय के छात्रों द्वारा प्रयागराज व विभिन्न क्षेत्रों में मंचन जिसे दैनिक जागरण, अमर उजाला व हिन्दूस्तान टाइम आदि राष्ट्रीय समाचार पत्रों ने प्रमुखता से छापा।
कैंसर पर जागरूक करती लघुकथा "मर्कट_कर्कट" का रूपांतरण नशाखोर के रूप प्रयागराज के प्रतिष्ठित रंगशालाओं में मंचन।
साक्षात्कार-:
■दैनिक जागरण में साक्षात्कार प्रकाशित।
■दैनिक भास्कर में साक्षात्कार प्रकाशित।
■जुगरनॉट पर साक्षात्कार प्रकाशित।
अन्य पुरस्कार-:
■ कथादेश द्वारा आयोजित 'अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता'-13 में कथा पुरस्कृत।
जुगरनॉट पर कहानी प्रतियोगिता में प्रथम स्थान।
स्टोरी मिरर द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता में लघुकथा "खनक" को प्रथम स्थान।
प्रकाशन-
■समावर्तन पत्रिका के लघुकथा स्तंभ 'घरौंदा' में मेरी लघुकथाएं दिसंबर दो हजार उन्नीस के अंक में प्रकाशित हुई।
■समावर्तन पत्रिका (उज्जैन)के महिला विशेषांक में प्रकाशन।
■ हरियाणा साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका हरिगंधा के मार्च अंक में कविता व लघुकथा का प्रकाशन।
■ अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका हिन्दी चेतना में कथा प्रकाशित।
■150 से अधिक लघुकथाएं कई प्रतिष्ठित पत्र,
पत्रिकाओं जैसे पड़ाव और पड़ताल, किस्सा कोताह, आह जिंदगी ,गृहशोभा,हरिगंधा,लघुकथा कलश, आधुनिक साहित्य, शुभ तारिका, सरस सलिल ,साहित्य कलश,सत्य की मशाल आदि में प्रकाशित।
■ गृहशोभा, सरिता, वर्तमान,अहा जिंदगी, मधुरिमा आदि पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन।
■प्रभात खबर, दैनिक सांध्य टाइम, दैनिक हरियाणा प्रदीप, सुरभि आदि पत्रों में लघुकथाओं व कविताओं का प्रकाशन।
■UGC से अप्रुव्ड पत्रिका आधुनिक साहित्य के.जनवरी -मार्च 2021 के अंक में लघुकथाएं प्रकाशित।
■बाल कथा, "बंटू और पेड़" पाठ्यक्रम में सम्मिलित।
■बाल कविता 'रिश्तों का संसार" पाठ्यक्रम में सम्मिलित।
■नंदन के जुलाई 2020 अंक में बाल कथा "भागा राक्षस" प्रकाशित।
■बालभारती पत्रिका के फरवरी 2021 के अंक में बाल कथा प्रकाशित।
■किस्सा कोताह पत्रिका में बालकहानी का प्रकाशन।
■नेपाली व बंगाली व पंजाबी भाषा में लघुकथाओं का अनुवाद।
■बोल हरियाणा, बोलता साहित्य,बीके इंटरटेनमेंट आदि यू ट्यूब चैनल्स पर लघुकथाएँ प्रसारित।
अयोध्या शोध संस्थान (संस्कृति विभाग,उत्तर प्रदेश)के सहयोग से साहित्य संचय फाउंडेशन के तत्वावधान में आयोजित एक दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में आलेख वाचन के अवसर के साथ ही रामचरित मानस में राम के विविध रूप पुस्तक में शोध परक आलेख प्रकाशित।





बेहद सुंदर कहानी। आज हर लड़की को दीपा बनने की जरूरत है ताकि अपना भविष्य खुद तय कर सके, कोई बीमा, झगडू या तेजसिंह नहीं। लेखिका को हार्दिक बधाई