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एक पल ठहरा हुआ

  • महावीर राजी
  • 27 अग॰
  • 3 मिनट पठन

 

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दोपहर का वक्त था। प्लेटफॉर्म पर भीड़ कम थी। यत्रियों की भनभनाहट, इंजिनों की फुफकारों एवमं वेंडरों की हुंकारों  का लयवद्ध संगीत पूरे वातावरण में किसी रसायन की तरह फैला हुआ था।

 बर्दवान लोकल ! डिब्बे के भीतरी हिस्से में खिड़की से लंब बनाती आमने सामने वाली बर्थों पर बैठे थे वे लोग। सबसे पहले नेताजी की नजरें उस ओर उठीं और उठीं ही थीं कि सनाका खा गयीं। एक युवती सीट तलाशती उसी ओर बढ़ी आ रही थी। सांचे में ढला बदन , धूसर गेहुआँ रंग, हाथ मे फ़ाइल ! उसकी चाल में आत्मविश्वास की तासीर तो थी पर शहरी लड़कियों का बिंदासपन नहीं था। एक किस्म का मर्यादित संकोच झलक रहा था चेहरे से।

नेताजी हुलस कर तुरत एक्शन में आ गए और खिड़की के पास जगह बनाते हुए हिनहिनाये -'अरे यहां आओ न बेटी। खिड़की के पास हवा मिलेगी।' युवती एक क्षण को ठिठकी, फिर नेताजी के बगल में खिड़की के पास बैठ गयी। सामने के बर्थ पर विराजमान प्रोफेसर के मन में यह ईर्ष्या का स्फुलिंग सुलग उठा। लंगूर के पहलू में हूर ! थोड़ी देर तक चोर नजरों से लड़की के मासूम सौंदर्य को निहारते रहे।  फिर संयम नकली मसाले से बने कमजोर बांध की तरह ढह गया और वे लड़की से बातों का सूत्र जोड़ने की जुगत करते हुए बोले  -'कॉलेज से आ रही हैं आप ?'

'जी हाँ, नया एडमिशन लिया है..,' युवती हौले से मुस्कुराई तो प्रोफेसर निहाल ही हो गए.. उफ्फ, मुंह मे दांत हैं या मोतियों के दाने !

 'मुझे पहचान रही हैं ? मैं प्रोफेसर शुभंकर सिन्हा.. !'

  'न.. !' युवती के इनकार में सिर हिलाने से प्रोफेसर का मन कचोट से भर गया।

  'नारी सशक्तिकरण और स्वतंत्रता पर केंद्रित जिस आर्टिकल ने शिक्षा जगत में धूम मचा रखी है वह मैंने ही लिखा है। आपने  नहीं पढ़ा.. ?'

  'आराम से बैठिए न। कोई तकलीफ नय न हो रहा ?' नेताजी ने देखा कि लड़की प्रोफेसर की ओर ही उन्मुख है तो उसका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए जेब से कार्ड निकाला और  लड़की को देते हुए उसकी अंगुलियों को थाम लिया -' हमरा कार्डवा रख लीजिए। इस एरिया के भावी विधायक हैं हम। बर्दवान से लेकर  धनबाद तक का हर थाना में  रुतबा चलता है हमरा। कभी कोई कठिनाई आये तो याद कर लीजिएगा।'

 अंगुलियों पर नेताजी की हथेली के दबाब से युवती के चेहरे पर एक पल को असमंजस के भाव कौंधे।  झट से अंगुलियां छुड़ा कर नीचे कर लीं। प्रोफेसर की नजरों से नेताजी की चालाकी छुपी न रह सकी। मन ही मन फूफकारे - लंगूर ! फिर आनन-फानन बैग खोला और आलेख की प्रति लड़की को थमाते हुए उसकी पूरी हथेली को हथेलियों में भर लिया - ' इस आलेख में आप जैसी युवतियों की समस्याओं का ही तो जिक्र किया है मैंने। नारी स्वालंबी बने और घर की चाहरदीवारी से मुक्त होकर खुले में सांस ले, समाज के रचनात्मक कार्यों से जुड़े..! जोखिम तो पग पग पर आएगी। जोखिम से इनकी रक्षा समाज करेगा। समाज..  यानी हम सब ! यानी मैं, नेताजी, ये साहब, ये और ये..'

 प्रोफेसर सिन्हा पास बैठे यात्रियों की ओर बारी बारी से संकेत कर रहे थे कि नजरें घोर आश्चर्य से सराबोर होकर शकीला पर जा टिकी। सांवला रंग, आंखों में काजल की गहरी रेखा, पान चबाते रहने से कत्थई हुए होंठ, चेहरे पर पाउडर की अलसायी परत और कंधे से झूलता पुराना ढोलक ! अरे..  भद्र लोगों की जमात में यह 'नमूना' कहाँ से घुस आयी..! अब तक किसी की नजर गयी नहीं कैसे इस पर !

 'ऐ..  तू इस डिब्बे में कैसे घुस आयी रे..?' प्रोफेसर की नजरों की डोर थाम कर अन्य यात्री भी शकीला की ओर देखने लगे।  इसी बीच युवती ने कसमसाकर हथेली प्रोफेसर के पंजों से छुड़ा ली। प्रोफेसर झेंप मिटाने के लिए शकीला पर फनफ़ना उठे -' जनाना डिब्बे में न जाना चाहिए।'

 'हिंजड़े न तीन में होते हैं , न तेरह में..!' पास बैठे पंडितजी ने टिप्पणी जड़ी तो जोर का ठहाका फूट पड़ा।

 'ऐ भाई जान.. ' शकीला विचलित हुए बिना चिरपरिचित अंदाज में ताली ठोकते हुए हंसी - 'अब हम हिंजड़ा नहीं, किन्नर कहे जाते हैं..  हाँ!'

  'किन्नर कहने से जात बदल जाएगी .. ले हलुआ ?' नेताजी खैनी मसलते हुए खिखियाये।

  'जात न सही, रुतबा तो बदला है।'  शकीला का चेहरा एक ठसक से चमक उठा।

  'असल में..  जब से कुछ जगह  तुम लोगों की मौसियां  विधायक व मेयर बनी हैं, दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ कर नाचने लगा है। क्यों प्रोफेसर साहब ..?'  नेताजी का मन भीतर ही भीतर तीब्र कचोट से विचलित हो गया। राजनीति के अखाड़े में लंगोट बांध कर कूदे पच्चीस साल हो गए। क्या क्या सपने देखे थे.. सांसद का 'गुलीवर' कद.! लाल बत्ती वाली कार..!  एसपीजी का अभेद्य कवच .! पर हाय..  तीन तीन बार के प्रयास के बावजूद विधायकी तो दूर की बात, नगर निगम का चुनाव भी नहीं जीत पाए ! और ये नचनियां लोग..!  विधायक बनने लगीं, इस्स !

 'पता नहीं क्या हो गया इस देश की जनता को ?' प्रोफेसर के लहजे में भी क्षोभ घुल गया था - 'ब्राह्णण, क्षत्रिय और वैश्य की समरसता का क्या गौरवपूर्ण इतिहास रहा है हमारा ! पहले राणा प्रताप, शिवाजी, कौटिल्य, भामाशाह आदि ! उसके बाद गांधी, नेहरू, शास्त्री, बाजपेयी वगैरह ! देश सुरक्षित था इनके हाथों में। जनता की सनक तो देखिए.. अब हिंजड़ों के हाथ मे सत्ता देने लगी है।'

 शकीला के वक्ष से नायलॉन की पारदर्शी साड़ी का आँचल ढलक गया था। वक्ष को उभार देने के लिए भीतर रुई के फाहे ठुंसे थे। ठेठ हिंजड़यी अंदाज में कमर लचकाती ताली ठोकती खिलखिलाई -''ऐ बाबू साहेब, आप सब रामायन ठीक से नहीं पढ़े। वहां एगो परसंग है कि जब रामचन्नर जी बनवास जाने लगे तो अजोधिया के सारे लोग पीछे पीछे वन की सीमा तक आये। तब रामजी ने उन लोगों से अनुरोध किया की सब नर नारी अब अजोधिया लौट जाएं। किन्नरों से उन्होंने कुछ नहीं कहा। बनमास से लौट कर आये तो देखा कि सारे किन्नर बन की सीमा पर जस के तस खड़े हैं। किन्नरों की भक्ति से खुश होकर उन्होंने वरदान दे दिया कि जाओ..  कलजुग में तुम लोगों का राज होगा।'

एक क्षण के लिए सभी को सांप सूंघ गया। ये कैसी लंतरानी है ! लंतरानी है या सचमुच सत्य ! हमारे देश मे रामकथा भी तो अलग अलग भाषा में अलग अलग तरह की है भैया ! हो सकता है , किसी में ऐसा प्रसंग हो ! तभी शकीला हो हो करके हंस पड़ी - 'अब छोड़िए ई सब बात। ठुमरी का एगो फड़कता हुआ तोड़ा सुना रही फ्री में, सुनिए..  मोरे पिया गए रंगून, ऊहां से किया है टेलीफून..'

शकीला ने घरघराती मर्दाना आवाज में आलाप लेना शुरू किया ही था कि ट्रैन की सीटी बज उठी और पहिये  गंतव्य की ओर लुढ़कना शुरू कर दिए। तभी एक झटके से तीन युवक डिब्बे में चढ़ आये। एक दूसरे को धकियाते, हल्ला मचाते तीनों उसी हिस्से में आ गए जहाँ वे लोग बैठे हुए थे। लड़की पर नजर जाते ही उनके पांव थमक गए और बाछें खिल गयीं। पिंटू चहक कर लड़की से मुखातिब होकर बोला - 'आप स्टूडेंट हैं न ? किस कॉलेज में हैं ?'

 लड़की एक क्षण को ठिठकी, फिर हड़बड़ा कर बोल बैठी - 'जी हां.. बी सी कॉलेज में ! फर्स्ट ईयर साइंस की स्टूडेंट !'

 'बस यारों, अपुन यहीं बैठेंगें.. अपनी फ्रेंड के पास ।'

'पर बैठे कहाँ यार ?'  मिश्रा ने उड़ती नजरों से सामने बैठे लोगों का सिंहावलोकन किया - 'ई बुढ़वन लोग  देश का कबाड़ा कर के रहेंगे। हर महत्वपूर्ण जगह पर, चाहे सत्ता हो या साहित्य.. ट्रैन हो या प्लेन..  ई लोग काबिज होकर बैठ जातें हैं।'

'भाई साहब..', अतुल प्रोफेसर सिन्हा से संबोधित था। उसका चेहरा सम्पन्नता के रौब से दीपदीपा रहा था। होंठों के नीचे बिंदु के शक्ल में दाढ़ी थी। अतुल के संबोधन पर प्रोफेसर भड़क ही तो उठे - 'भाई साहब..? आप स्टूडेंट हैं न ? मुझे नहीं पहचान रहे ? मैं प्रोफेसर शुभंकर सिन्हा ! नारी सशक्तिकरण पर उस आर्टिकल  का लेखक जिसकी चर्चा आज हर छात्र व बुद्धिजीवी की जुबान पर है..!'

'प्रोफेसर हैं..? त चलिए एगो पहेली बूझिये त..'  पिंटू बोली बदल बदल कर बोलने में माहिर था। खालिस बिहारी लहजे में हुंकार भरा  - 'एगो है जो रोटी बेलता है। दूसरा एगो है जो रोटी खाता है। तीसरा एगो अऊर है जो न खाता है, न बेलता है बल्कि रोटी से कबड्डी खेलता है। ई तीसरका को कोय नहीं जानता। संसद भी नहीं। आप जानते हैं ?'

प्रोफेसर चुप ! अन्य यात्रीगण भी चुप ! लड़की सोच रही थी कि यही सवाल यदि क्लासरूम में किया गया होता तो वह निश्चित ही हाथ उठा देती। मिश्रा दोनों बर्थ के बीच से होते हुए भीतर चला आया और खिड़की की तरफ इशारा करके प्रोफेसर से बोला -'यहाँ बैठने दीजिए तो.. !' प्रोफेसर इन लोगों के व्यंग्य से खिन्न तो थे ही, आवेश में फट पड़े - 'कपार पर बैठोगे ? जगह दिख रही है ? पढ़ लिख कर 'सर' से बात करने का शिष्टाचार भी नहीं आया ?' पर मिश्रा ने लेक्चर खत्म होने का इंतजार नहीं किया। प्रोफेसर को ठेल ठाल कर जगह बनाते हुए  ऐन लड़की के सामने बैठ ही गया।

पिंटू बोली में खंडाला स्टाइल का छौंक डालते हुए नेताजी की ओर मुड़ा - 'ऐ क्या बोलता तू ?  ,थोड़ा सरकने का कि नई ? बोले तो अपुन का  भाई यहाँ बैठने को मांगता।' पिंटू की आवाज में घुली कड़क से नेताजी सकपका गए। पर लड़की की नजर में हीरो साबित होने के लिए तनिक साहस संजो कर फनफनाये - 'तुम लोग स्टूडेंट हो या मवाली ? इस एरिया के भावी विधायक हैं हम। विधायक से इसी तरह बतियाया जाता है ससुर ?'

'विधायक हों या सांसद.. स्टूडेंट फस्ट.!' अतुल ने आगे बढ़ कर नेताजी की बगल में हाथ डाला और जबरन खड़ा करके धप्प से खाली सीट पर बैठ गया। नेताजी  'अरे..अरे..' करते रह गए। प्रकट में यात्रीगण सामान्य दिख रहे थे, पर भीतर भीतर सभी आतंकित हो उठे थे। शकीला स्वयं ही अपनी सीट से उठ गई और पिंटू से बोली - 'आप यहाँ बैठो बाबू.. मैं उधर बैठ जाती। प्यार से बोलना था न कि हम कॉलेज वाले एक साथ बैठेंगे।'

फिर जैसे सब कुछ सामान्य हो गया। तीनों दोस्त लड़की के इर्द गिर्द बैठने में सफल हो ही गए। गाड़ी अपनी रफ्तार से दौड़ रही थी। थोड़ी देर डिब्बे में मौन छाया रहा। फिर अतुल लड़की के चहरे पर नजरें गड़ाते हुए अत्यंत विनम्रता से पूछा - 'आपका नाम जान सकते हैं ? कहाँ रहती हैं आप ?'

 'जी.. मैं शीला मुर्मू ! काशीपुर डंगाल में रहती हूँ।'

 'क्या..!!  काशीपुर डंगाल तो काफी दूर है..!'

  'जी हां.. पर कोई विकल्प भी नहीं था। हमारे कस्बे में डिग्री कॉलेज नहीं है न।'

 'बहुत खूब..  मोगाम्बो खुश हुआ !' पिंटू ने नयी बोली का नमूना पेश किया।

  'तब तो जाहिर है..  कोई पसंदीदा सपना भी जरूर होगा जेहन में ...?'  अतुल ने उसकी आँखों मे झांकते हुए पूछा  - 'ऐसा सपना जो अक्सर नींद में भी हॉन्ट करता रहता हो..।'

 'बेशक.. है न..,' शीला ने मजाक में पूछे सवाल का सीधा और सही उत्तर दे दिया - 'अगर भाग्य ने साथ दिया तो डॉक्टर बनू..!'

 'वंडरफुल.. !' तीनों ने एक दूसरे की ओर देखा। इस देखने मे व्यंग्य का पुट घुला था - ये मुंह और मसूर की दाल ! फिर तीनों हो हो करके हंस पड़े।

 

 काशीपुर डंगाल का अंदुरुनी ग्रामांचल ! आदिवासियों व पिछड़ी जातियों की इस बस्ती में मुट्ठी भर लोगों के पास ही अपनी चास ( खेती ) थी। अधिकांश लोग मजदूर थे। पार्श्ववर्ती इलाके में हार्डकोक व ईंट भट्ठों का संजाल फैला हुआ था। कुछ आगे बढ़ जाएं तो इसीएल और बीसीसीएल की खदाने बिखरी मिलेंगीं। इन्ही संस्थानों में मजदूरी से लगे थे लोग। इसी बस्ती में रहते थे नारायण मुर्मू ! दो संतानें थीं। छोटा नकुल पढ़ने में फिसड्डी था। आठवीं के बाद पढ़ाई छोड़ बैठा और मुर्गियों-बकरियों को चराने के साथ मजदूरी करने लगा। नारायण गोविंदपुर के एक भट्ठे में दिहाड़ी मजदूर थे। माँ पास के रेलवे साइडिंग के किनारे किनारे छितरायी राख की ढेरियों से कोयला बिना करती। 

शीला मेधावी निकली। मैट्रिक में उसके सर्वाधिक अंक आये। फिर इंटर में भी जब अच्छे अंक मिले तो जैसे उसकी महत्वाकाँक्षा को पर लग गए। आगे की पढ़ाई के लिए शहर जाना होगा। यह जानते ही पिता ने पढ़ाई जारी रखने से मना कर दिया। अकेली लड़की ट्रैन में सफर किस तरह कर सकेगी ! आदिवासी लड़की का शहरी लड़कों के संग तालमेल बैठना भी कठिन होगा ! शीला ने विद्रोह कर दिया -' कुछ नहीं होगा बाबा। ट्रैन में मैं अकेली तो नहीं होऊँगी। ढेर सारे लोग होंगे। वैसे भी बच्ची थोड़े ही हूँ। लड़कियों को आप इतना दब्बू और कोमल क्यों समझते हैं ?'  कई दिनों तक घर में द्वंद्व की स्थिति बनी रही। शीला की जिद के आगे नारायण को झुकना पड़ा और शीला ने अंततः धनबाद शहर के कॉलेज में प्रवेश ले लिया।

तीनों ने देखा कि शीला स्मृतियों की धुंध में खोई हुई है। तीनों की नजरें परस्पर गुंथ गयीं। आंखों ही आंखों में संकेत हुए और आनन फानन एक मादक योजना की रूपरेखा जेहन में आकृति लेने लगी।

 'ओये.. हेलो .. !'  मिश्रा ने चहक कर शीला की आंखों के चुटकी बजायी -- 'आज पहला दिन था न..  रैगिंग तो हुई होगी ?' रैगिंग शब्द सुनते ही शीला का दिल एकबारगी धड़क उठा। जेहन में आज हुई रैगिंग का एक एक कोलाज डॉल्फिन की तरह उछाल भरने लगा ...

सुबह धड़कते दिल से ही कॉलेज में प्रवेश किया था। ग्रामांचल की शर्मीली लड़की शहरी कॉलेज के मुक्त व मॉडर्न वातावरण में दहशत से भर गयी थी। तभी न जाने किस ओर से चार लड़के जिन्न की तरह प्रकट हो गए।

'हाय.. फर्स्ट ईयर की न्यू कमर हो न ?'

'जी...जी हाँ !' शीला हकला उठी थी।

'तुम्हे ही तो खोज रहे थे यार ! हम तुम्हारे सीनियर्स..!' चारों उसे तीसरे माले के एक रूम में ले आये। यहां लोगों की आवाजाही कम थी और माहौल में सूनापन चील की तरह मंडरा रहा था।

'घबड़ाने का नई। बोले तो थोड़ा रैगिंग करना मांगता अपुन । ओ के ?' शांतनु ने मुन्नाभाई के अंदाज में कहा। उसके बाद  शुरू हुआ उल जलूल प्रश्नों का लंबा सिलसिला ! अधिकांश प्रश्न द्विअर्थी भावों से संश्लिष्ट ! शीला शर्म से पानी पानी हुई जा रही थी जबकि लड़कों के चेहरों पर पानी था ही नहीं। शीला पूरी चौकन्नी और संयत होकर जबाब देती गयी। रैगिंग का भदेसपन अभी सहनसीमा के भीतर ही था।

'वेल.. आज की रैगिंग की समापन कड़ी..' शांतनु का लहजा वक्र था  -'हम चारों में अपुन का यह यार आमिर खान जैसा दिखता !  है न ? आगे बढ़ो और आमिर खान को छोटा सा किस दे दो..  !'

'प्लीज मुझे जाने दें। रैगिंग के नाम पर ऐसी अश्लीलता ठीक नहीं।' उसने बड़ी विनम्रता से कहा और इस बात का ध्यान रखा कि चेहरे पर भय के चिन्ह न उभर पाएं।

"ये अश्लील रैगिंग है, अश्लील ! अरे.. हम तो बेहद शराफत की रैगिंग कर रहे यार ! बंद कमरे की रैगिंग अभी तुमने देखी ही कहाँ ?'

'प्लीज माफ कर दें। मुझ से यह सब नहीं हो सकेगा।'

'बहुत हुआ.. आय से गो अहेड ( कहता हूँ आगे बढ़ो। !' अचानक  शांतनु तल्ख लहजे में चींख पड़ा। शीला हतप्रभ रह गयी। दिमाग विकल्पों को खंगालने में लग गया। क्या करना चाहिए ..! अभी उसे तीन साल गुजारने हैं यहां। इन लोगों से बैर मोल लेना ठीक नहीं होगा। यह भी सच है कि पहले दिन ही कमजोर पड़ गयी तो हमेशा तंग करते रहेंगे। इन लोगों के मन मे आदिवासियों को लेकर जो दुराग्रह भरा है उसे दूर करना होगा। अभी तक के एपिसोड से इतना स्पष्ट था कि लाख उद्दंड हों ये लोग, शारीरिक आक्रामकता की सीमा तक नहीं जाएंगे। 

फिर एक सुनियोजित योजना के तहत मुख पर स्निग्ध मुस्कुराहट लाते हुए बोली -  'ठीक है, आप सब सीनियर्स हैं। बात तो माननी ही पड़ेगी ..!'

'दैट्स लाइक अ गुड गर्ल..!' सुभाष चहक उठा।

'लेकिन मेरी एक शर्त है..!' शीला की आंखें आत्मविश्वास से चमक रहीं थीं  -'इस कड़ी के बाद आप लोग सारी कटुता भूला देंगे। अपने गांव से बहुत दूर आपके शहर में मेहमान बन कर आई हूँ। मित्र बना लेंगे मुझे। मित्र नहीं.. छोटी बहन जिसे आपके संरक्षण की पग पग पर जरूरत पड़ेगी। प्रॉमिस..  ?'

उत्तर सुनने के लिए शीला रुकी नहीं। सधे कदमों से आगे बढ़ी , आमिर खान की दाहिनी हथेली को हथेलियों में थाम कर होंठों से लगाया और बुदबुदा उठी  -'आई लव यू भैया..!' चारों एक बारगी सन्न रह गए। सारा टेन्शन निमिष में कपूर की तरह उड़ गया। चारों सहज होकर शीला की पीठ पर धौल जमाते हुए खिलखिलाए - 'नॉटी गर्ल .! आदिवासी लड़कियां भी इतनी चालाक और मक्कार होती हैं पहली बार जाना।'

 

'कहाँ खो गयीं आप ?' शीला को चुप देख कर अतुल फुफकारा - ' न भी बताएंगी तो भी अनुमान लगाना कठिन नहीं कि बेहद घटिया हरकत की गई होगी आपके साथ। बी सी कॉलेज के छात्रों को अच्छी तरह जानते हैं.. द वर्स्ट स्टूडेंट्स ऑफ द टाउन !'

शीला मौन रही। क्या कहती भला ! पिंटू लहजे में बंगाली टोन का छौंक डालते हुए बोला  -  'एक दम ठीक बोल रहा दादा। ऐसा अभद्रो ब्यवहार से ही हमरा स्टूडेंट कम्युनिटी बदनाम होता.।'

 'इस बदनामी को साफ करने का एक उपाय है फ्रेंड्स..!'  इसी बीच मादक योजना की रूपरेखा मुकम्मल आकर ले चुकी थी  -' क्यों न हम शीला को नए एडमिशन की छोटी सी कॉम्पलिमेंटरी पार्टी दे दें ?'

'यानी ट्रीट ! वाव, क्या लाजबाब आईडिया है..!'  मिश्रा ने चहक कर समर्थन में हाथ उठा दिया  -'कॉम्पलिमेंट का कॉम्पलिमेंट और बदनामी का परिमार्जन भी !' योजना बनी ही इतनी मादक थी कि भीतर की उत्तेजना लहजे के संग बाहर आना चाह रही थी  -'शुभस्य शीघ्रं ! अगले स्टेशन पर हम उतरेंगे। स्टेशन के पास ही बढ़िया होटल है -होटल राजदूत ! वहीं शीला की ट्रीट होगी,  ओ के ?' अंतिम वाक्य अतुल ने शीला की ओर मुंह करके कहा।   शीला अतुल के अजूबे और अप्रासंगिक प्रस्ताव पर चकित रह गयी। इन लड़कों से उसका किसी भी तरह का परिचय नहीं। ये किसी और ही कॉलेज के छात्र हैं। एक अनजान छात्रा के प्रति इतना सम्मान ! जेहन में मुक्तिबोध की पंक्ति कुलबुला उठी - 'तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है पार्टनर !'  प्रकट में सिर हिलाते हुए अस्वीकार कर दिया -'नो नो, थैंक्स ! पार्टी की क्या जरूरत है ! बता दूं कि जैसा आप सोच रहे हैं, वैसा कुछ भी अभद्र नहीं हुआ।'

'ओह यार ! चलो मान लिया कि कुछ नहीं हुआ। यह पार्टी  कंप्लीमेंट्री तोहफा होगी हमारी ओर से।  परिचय और पहचान इसी तरह तो बनते हैं। आफ्टर ऑल..  छात्र किसी भी कॉलेज के हों, हैं तो एक ही बिरादरी के !'

  'मैं इस बात से इनकार नहीं कर रही..,' शीला ने दृढ़ता से कहा - 'मुझे क्षमा करें। घर जल्दी लौटना है। माँ बाबा चिंता करेंगे।'

 'बच्ची नहीं हो जो हर वक़्त अम्मा का पल्लू पकड़ी घूमती रहो।'  मिश्रा ने हस्तक्षेप करते हुए कहा - 'बारह बजे हैं अभी। तीन पच्चीस की लोकल पकड़वा देंगे।'

'सॉरी.. मैं पार्टी स्वीकार नहीं कर सकती।' यह तो वही मसल हुई कि मान न मान, तू मेरी मेहमान ! उसने चेहरा  खिड़की की ओर फेर लिया और इन लोगों से असंपृक्त होकर बाहर तेजी से छूटते जा रहे दृश्यों पर नजरें टिका दीं।

'इधर देखो शीला..,'  मिश्रा की तर्जनी शीला की ठोढ़ी पर जा पहुंची। लहजा भी बदल गया - 'बड़े भाई ने जो कह दिया सो फाइनल ! पार्टी होगी..  और हम अगले स्टेशन पर उतर रहे हैं, डन ?' उसकी बातों में छुपी धमकी की तासीर से शीला भीतर तक सिहर गई, पर चेहरे पर मजबूती के भाव बनाये रख कर फुफकारी - 'जबरदस्ती है.. ?'

 'बिल्कुल..! सीनियर्स की इज्जत का जो सवाल है..!' अतुल हंस पड़ा - 'प्यार की भाषा न समझी तो जबर्दस्ती ही सही।' अतुल के निर्णायक एलान पर पिंटू और मिश्रा भी हो हो करके हँस पड़े। तीनों की सम्मिलित हंसी से एक कामुक किस्म की लार टपकने लगी थी। शीला ने डिब्बे में बैठे यात्रियों का अवलोकन किया। नेताजी समेत सभी लोग अब तक इनकी नोक झोंक का लुत्फ उठा रहे थे। किसी ने सोचा भी नही था कि मामले का ऊंट इस तरह करवट ले बैठेगा। अचानक अतुल उठा और शीला से मुखातिब होकर बोला - 'आइए मैडम, गेट के पास चलते हैं..!'

'नहीं नहीं.. मैं नहीं जा सकती !' शीला की आंखों में भय उतर आया। ये लोग तो उद्दंडता पर उतर आए।

'अब नखरे मत दिखाओ यार..' मिश्रा और पिंटू भी खड़े हो गए। मिश्रा ने शीला की कलाई थाम ली तो शीला ने झटके से छुड़ाते हुए सहायता के लिए प्रोफेसर को पुकारा - 'देखिए न सर, किस तरह छेड़ रहे हैं ये लोग।' प्रोफेसर सिन्हा को लगा,  लड़की की नजरों में हीरो बनने का यही तो मौका है ! प्रतिरोध में चिल्लाते हुए सीट से खड़े हो गए - ''आप लोग स्टूडेंट हैं या टेररिस्ट ? इस तरह जबर्दस्ती नहीं कर सकते।'

' शट अप सर..!'  मिश्रा ने चींखते हुए प्रोफेसर को धक्का दिया तो वे धप्प दे सीट पर लुढ़क गए। इस छोटी सी झड़प से माहौल तनावपूर्ण हो गया। तभी जीआरपी के दो जवान गश्त लगाते हुए उधर से गुजरे। शीला को जैसे नई जान मिल गयी हो, वह किंकिया उठी - 'जीआरपी अंकल..!' शिवानंद के आगे बढ़ते कदम ठिठक गए। मुड़ कर देखा तो चौंक पड़े - 'अरे अतुल बाबू, आप ? ऐ नत्थूराम, ई अतुल बाबू हैं..आईजी  दास साहब के सुपुत्र !''

'अंकल जी आप..इस ट्रेन में ..?'

'पब्लिक कंप्लेन गया है जे लोकल सब मे किडनैपिंग-छिनतई  खूब हो रहा। बस ऊपर से आर्डर आ गया इनमें गश्त लगाने का। अभी तक एक्को केस नय पकड़ाया एकरा माय के ! सरजी को हमरा प्रणाम बोल देंगे।'

शीला की जुबान से बोल नहीं फूटे। सारी स्थिति आईने की तरह साफ हो गयी थी। अतुल आईजी का लड़का है। पावर और पैसा पास हो तो मिश्रा और पिंटू जैसे वफादार चमचे वैसे ही दौड़े आएंगे जैसे गुड़ को देख कर चीटियाँ। जीआरपी के जाते ही पिंटू ने फिर से शीला की कलाई थाम ली और खींच कर उठाने का प्रयास करने लगा। शीला ने बड़ी मुश्किल से क्रोध को जज्ब किया.. अभी रियेक्ट करने से संभव है ये लोग हिंसक हो जायँ। शीला ने कातर दृष्टि से यात्रियों की ओर ताका। सभी को जैसे सांप सूंघ गया हो !  तभी न जाने किस जेब से निकल कर छोटा सा रिवॉल्वर अतुल के हाथ मे चमक उठा - 'किसी ने भी चू चपड़ करने की चेष्टा की तो...तो ..! मनीष मिश्रा केस के बारे में तो सुना ही होगा..!'

मनीष मिश्रा. ! वही मनीष जिसके तार पीएमओ से जुड़े हुए थे। ट्रैन में एक लड़की से छेड़खानी का मुखर विरोध करने पर बदमाशों ने चलती ट्रेन से बाहर फेंक दिया था उसे। सभी यात्रियों के रोंगटे खड़े हो गए। धड़कने बढ़ गईं। थोड़ी देर पहले तक जिस लड़की का सान्निध्य मादक नशे की तरह लग रहा था, अब वह आफत की परकाला लगने लगी। सबसे पहले नेताजी उठे और डिब्बे के दूसरे हिस्से की ओर बढ़ते हिनहिनाये - 'अब थाना पुलिस में तो एतना पहचान है कि का कहें ससुर ! पर मजबूर हैं.. ये आप स्टूडेंट लोग का मामला है जिसमें पुलिस भी हस्तक्षेप नहीं कर सकती।'

नेताजी के जाते ही प्रोफेसर साहब भी ब्रीफ़केस संभालते खड़े हो गए - 'देखिये शीला जी, इस मुद्दे पर खूब सोचा। जब इतने प्यार से लोग पार्टी दे रहे हैं तो स्वीकार लेना ठीक ही होगा। और एक बात.. घर लौट कर हमारा आर्टिकल पढियेगा जरूर। तभी पता चलेगा कि नारी उत्थान और नारी सशक्तिकरण के पक्ष में कितनी तार्किकता से लिखा है मैंने।'

अंततः शकीला के अलावा सभी यात्रीगण डिब्बे के दूसरे हिस्सों में चले गए। हिंजड़ा होते हुए भी शकीला खूब समझ रही थी कि लड़की मुसीबत में पड़ गयी है। लड़के बुरी नीयत से अगुआ करने पर उतारू हैं। कैसी तो सहमी हुई कबूतरी सी दिख रही है बेचारी !

'अरे, तेरे यार सब तो भाग लिए.. ' पिंटू चुटकी बजाते हुए शकीला पर हरियाणवी लहजे में व्यंग्य किया - 'इब तैं कौन से खेत की शलजम स जो यहां टिकी हुई स !'

'हाय दैय्या..!' लड़की को अकेली छोड़ कर जाना शकीला को गंवारा नहीं हुआ। इन मुस्टंडों को हाथापाई करके वश में नहीं किया जा सकता पर कम से कम बातचीत में उलझा कर गेट की ओर बढ़ने से तो रोक सकती है। हिजड़यी अंदाज में हथेली ठोकती कनखी मारी - 'आय हाय ! इसको छोड़ दे न। पार्टी मेरे को दे दे, मैं चलती..! खूब मजा देगी।'

'अपना थोबड़ा कभी देख्या स शीशे में..हाहाहा !'' पिंटू फनफ़नाया - 'और तन्ने बीच मे बोलने के लिए किसने कहा ?'

 'बृह्माजी ने मेरे को बीच का बना दिया, मैं क्या कर सकती ?  इस चिड़िया को छोड़ दे, नहीं तो ठीक नहीं होगा हाँ..!' शकीला खिलखिलाई -' किन्नरों को मामूली ना समझियो।  हमारे दो किन्नरों ने मिल कर महाभारत का किस्सा ही पलट दिया था मुन्ना..!'

'ले हलुआ.. ई ससुरी तो एक ही छलांग में पौराणिक महाभारत में जा पहुंची यारों..!' तीनों को शकीला की बातों में मजा आने लगा था।

 'मैं झूठ नहीं बोलती मुन्ना.. सुन ना !'' शकीला ने आंखें मटकाते हुए तुक गढ़ा - 'एक थे शिखंडी महाराज जिसने भीषम जैसे जोद्धा को धराशायी कर दिया। दूसरे थे बिरहन्नला ( बृहन्नला ) जिसने अर्जुन जैसे परतापी की रक्छा की। याद रखियो, हर बिरहन्नला के भीतर एक अर्जुन छुपा रहता..!' नोकझोक चल ही रही थी कि बूट पालिश करने वाला एक लड़का तीर की तरह वहां आ पहुंचा। स्याह बदन, सींकिया काया, दसेक साल की उम्र ! बायीं कलाई में पालिश वाला बक्स झुलाए और दाहिने हाथ के ठोस ब्रश से बक्से पर ठक ठक करता गुहार लगा बैठा - 'पालिश साब..।'  झोंक में आ तो गया, लेकिन भीतर के नजारे पर नजर जाते ही ठिठक गया। ट्रैन की यायावरी ने उस नन्हें लड़के को इतना चंट तो बना दिया था कि पूरा माजरा भांपते एक क्षण भी नहीं लगा उसे।

'तू कहाँ से आ टपका रे ? चल फूट यहाँ से.!' अतुल ने रिवाल्वर उसकी ओर तान दिया। लड़का तनिक भी नहीं घबड़ाया। खी खी करता दांत चियारते बोला - 'समझा साब, कोई सूटिंग चल रहेला इदर। आप शाहरुख खान के माफिक दिखता..बिंदास !'

 'बड़े भाई, ये झूठ नहीं कह रहा। तुम दिखते ही हो हीरो जैसे..!' पिंटू ने मस्का लगाया तो तीनों जोरों से हँस पड़े। शकीला की रसीली बातों और पालिश वाले लड़के के आ जाने से कुछ देर के लिए तीनों का ध्यान शीला की ओर से हट गया था। शीला के भीतर एक बवंडर जन्म लेने लगा..कैसा हादसा होने जा रहा है यह ! सुबह रैगिंग करने वाले छात्रों को चतुराई से काबू में कर लिया था। पर इन लोगों से कैसे बचे ? जाहिर है, पार्टी के नाम पर होटल लेजाकर बारी बारी से..! ऊफ ! आगे की कल्पना करना भी मुश्किल था। शीला को याद आया.. जब से उसने सपने की बात बताई, उन लोगों के तेवर बदलने लगे थे। एक आदिवासी लड़की की आंखों में ऐसे 'संभ्रांत' सपने के अंकुरण की कतई उम्मीद नहीं होगी उन्हे। जो हो, इस वक्त आपा खो देने से काम नहीं चलेगा। वह कायर या डरपोक नहीं है। स्कूल में कबड्डी दल की मुखिया थी और सभी उसकी चपलता और फुर्ती की प्रशंसा करते थे। गुलेल से निशाना साधने में भी पटु है। हाई जम्प और दौड़ में हमेशा प्रथम आती रही है।  इतनी जल्दी आत्मविश्वास कैसे खो सकती है..!

सतर्क नजरों से मुआयना करती है स्थिति का। सिर्फ शकीला और पालिश वाला लड़का ही हैँ डिब्बे में। भावावेश में शकीला की ओर देखती है वह। अरे..  शकीला के भीतर से कोई धूसर आकृति फूट रही है ! शनैः शनैः साफ होती है आकृति। अरे.. अर्जुन !  हां.. गांडीव संभालते अर्जुन ही तो हैं बृहन्नला के भेष में - 'नारी सशक्तिकरण की सारी बातें ढकोसला हैं ! पुरुषवादी समाज नारियों को कभी भी सशक्त नही होने देगा। एक ही राह है - पहल ! एक बार पहल करके देखो तो, किस तरह हवा तुम्हारे पक्ष में बंधने लगती है !' शीला अजीब से रोमांच से सिहर उठती है। नजरें वहां से हट कर पालिश वाले लड़के पर टिक जाती है। झपाका होता है !  बचपन में लौट आया शम्बूक ! चेहरे पर निश्छल हंसी - ' एक बार मजबूती से पहल करो तो, पूरा रुख बदल जायेग।'

झंझावात थम जाता है । शीला शांत हो जाती है। मन ही मन एक निर्णय लेती है। तीनों युवक शकीला के किसी मादक चुटकी पर हंस रहे थे। फिर...  जैसे समय ठहर गया हो। स्पंदनहीन सा ! शीला ने दाहिनी हथेली को मुट्ठी की शक्ल में बांधा और पूरी ताकत लगा कर पास खड़े मिश्रा के दोनों जांघों के संधि स्थल पर दे मारा। ठीक उसी वक्त शकीला के भीतर छुपे अर्जुन ने ढोलक के चमड़े वाले हिस्से से पिंटू के माथे पर इतनी जोर से प्रहार किया कि ढोलक गर्दन तक जा धंसा ! उसी समय  शम्बूक ने हाथ के सख्त ब्रश को  अतुल की कलाई पर इस गति से फेंका कि रिवाल्वर छिटक कर न जाने कहाँ बिला गया।


लेखक परिचय – महावीर राजी



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नाम :  महावीर राजेश ( पूर्व : महावीर राजी )

शिक्षा : कोलकाता से एडवांस्ड एकाउंट्स में ऑनर्स ( प्रथम श्रेणी ), एल.एल.बी. ,

प्रकाशन : मुख्य धारा की सभी राष्ट्रीय पत्रिकाओं ( हंस, कथादेश, वागर्थ, नया ज्ञानोदय , परिकथा, पाखी आदि )  में  कहानियाँ, लघुकथाएं व कविताएं प्रकाशित, कुछ  कहानियों का अंग्रेजी में अनुवाद,

सम्मान :   वर्तमान साहित्य कृष्ण प्रताप स्मृति कहानी प्रतियोगिता में चतुर्थ पुरस्कार,

'सहित्य समर्था' आयोजित डॉ कुमुद टिक्कू अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार,

कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार,

कथादर्पण 'कमल चंद वर्मा स्मृति लघुकथा प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार,

कई सांझा कथा संग्रहों में कहानियां संकलित,

आकाशवाणी कोलकाता से कहानियों का प्रसारण,

कथा संग्रह - 'आपरेशन ब्लैकहोल' ( वाणी प्रकाशन ) ,  'बीज और अन्य कहानियां' ( एपीएन पब्लिकेशन ), 'ठाकुर का नया कुआं ( न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन), 'मेरी कहानियां' ( इंडिया नेटबुक्स ), 'शम्बूक, प्लेटफॉर्म और पिल्ला' (शीघ्र प्रकाश्य) घासीराम अग्रवाल स्मृति साहित्य सम्मान, वाक् कथा सम्मान कोलकाता ,     

सम्प्रति:  स्वतंत्र लेखन

मोब. 098321 94614'

संपर्क:

Prince,

Kedia Market, G T Road,

Near Mohan Family Store,

Asansol  713 301

West Bengal


4 टिप्पणियां

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दिव्या शर्मा
10 नव॰
5 स्टार में से 5 रेटिंग दी गई।

बहुत सशक्त कहानी है।आज की विद्रूपता के दर्शन कराती।

लाइक

अतिथि
17 सित॰
5 स्टार में से 5 रेटिंग दी गई।

महावीर राजी की कहानी आज की विद्रूपत को लेकर बहुत संवेदनशील कथानक पेश करत है। गरीब लड़की जब घर से बाहर शहर जाती है और अकेले यात्रा करती है तो समाज के सभ्य लोगों की गिद्ध दृष्टि और वीआईपी के बिगड़े लाड़ले भी उसकी अस्मत लूटने की चेष्टा करने से बाज नहीं आते।

कहानी में काव्यात्मक न्याय भी पेश किया गया है। लेकिन हकीकत से परे जाकर कहानी का अंत है। लेकिन सीमान्त वर्ग के लोग नैतिक बल से कितने संपन्न होते हैं, लेखक ने इसका जायजा लेते हुए एक आदर्श खड़ा करते हुए सड़े हुए लोगों पर खासकर नेता और प्रोफेसर वर्ग के खोखलेपन को लेकर बहुत संवेदनशील कथानक पेश किया है।

कथाकार को साधुवाद।

लाइक

विनिता शुक्ला
10 सित॰
5 स्टार में से 5 रेटिंग दी गई।

दबंगों के दुस्साहस पर, शीला का साथ, रेलगाड़ी के सहयात्री, नेताजी और प्रोफेसर तक न दे पाए जबकि एक किन्नर शकीला ने समाज में कोई हैसियत न होने के बावजूद, उनका जमकर मुकाबला किया और लड़की को उनके बुरे इरादों का शिकार बनने से बचा लिया। रेल के सारे पुरुषों का पौरुष, एक नपुंसक के समक्ष फीका पड़ गया। कड़वी सच्चाई को उजागर करने वाली, प्रभावशाली कहानी

लाइक

अतिथि
31 अग॰
5 स्टार में से 3 रेटिंग दी गई।

कहानी ज़रूर है ...पर इंसान को अपने भीतर के सशक्त प्राकृतिक इंसान के साथ जीने साँस लेने की ताक़त भी देती है ...इस तरह का ज़ज़्बा ही "कहानी" को एक "कथा" न बनाकर एक खुरदरी हक़ीकत बना देता है ....बढ़िया रचना ...👍- किशोर वासवानी, पुणे

संपादित
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