रिश्ता टूट गया
- नीरज नीर
- 1 दिन पहले
- 18 मिनट पठन

वजीर अहमद अपनी छोटी बेटी नेहा की मदद से मुस्लिम मैट्रिमोनियल साइट पर बैठे थे; पास ही बेगम रज़िया। प्रोफाइलें एक से बढ़कर एक — सुंदर, पढ़े-लिखे, अच्छी नौकरी — पर वजीर को कोई न जँचता। वे एक-एक कर देखते, छाँटते जाते। वजह अनकही थी: हर चेहरा उन्हें अनवर हुसैन के सामने फीका लगता। प्रत्यक्ष में उसका नाम नहीं आता, पर अचेतन में वही कुंडली मारे बैठा था; जितना वे उसे मन से निकालना चाहते, उसकी पकड़ उतनी ही कड़ी हो जाती।
अब्बू इसे देखिये, यह लड़का मुस्कान आपी के लिए बिलकुल सही है. एक कॉलेज में प्रोफेसर है और अमलो अमाल का भी पक्का दिख रहा है. इसके कोई भाई भी नहीं है. दीदी खुश रहेगी. नेहा ने एक लड़के के प्रोफाइल को स्क्रीन पर इंगित किया था. उसके बाद इंजीनियर, डॉक्टर, वकील, व्यापारी सभी तरह के प्रोफाइल पर नेहा ठहरती लेकिन अब्बू वजीर अहमद सभी को रिजेक्ट कर देते. रज़िया इन सबमें चुपचाप मूकदर्शक बनी बैठी थी. ऐसा नहीं कि वह बोलना नहीं चाहती थी, लेकिन वह जानती थी कि अभी बोलने से कोई फायदा नहीं है. वह समझ सकती थी कि वजीर अहमद के दिल में कौन सी गाँठ है. जबतक वह गाँठ खुलेगी नहीं तब तक कोई बात नहीं बनेगी.
बेहतर होगा कि हम मुस्कान आपी को भी साथ बिठा लें. आखिर शादी तो उन्हें ही करनी है.
नेहा के इस प्रस्ताव पर दोनों ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. दोनों जानते थे कि अनवर हुसैन ने मुस्कान के दिल को बहुत दुःख पहुँचाया है. ऐसे में वे उसके साथ इस तरह की चर्चा करके उसके दुःख को और बढ़ाना नहीं चाहते थे.
कुछ न होता देख वजीर अहमद उठकर खड़े हो गए और बालकनी से खड़े होकर बाहर देखने लगे. उनके घर की बाउंड्री के भीतर बागवानी के लिए काफी जगह थी. वहां कई तरह के फूल खिले थे. खासकर गुलाब उन्हें बेहद पसंद थे. कई तरह की वैरायटी के गुलाब उन्होंने खुद लाकर लगाये थे. वहीँ एक कोने में लाल रंग की पुरानी साइकिल खड़ी थी, जो गर्द ओ गुबार से भरी थी और जंग खा चुकी थी.
साइकिल पर नजर जाते ही उन्हें एक अजीब ढंग की चिढ हुई. जी में आया कि अभी ही साइकिल को उठाकर चाहरदीवारी से बाहर फेंक दे. यह साइकिल उन्होंने अनवर के लिए खरीदी थी, जब वह चौथी क्लास से पांचवी में पहुंचा था. लाल रंग खासकर उसी की फरमाइश थी. साइकिल कबाड़ होने को आई थी, लेकिन उन्होंने आजतक उसे बेचा नहीं था. अनवर की याद उससे जुडी थी, इसलिए जब भी कबाड़ में उसे बेचने की बात होती, वे हाथ खिंच लेते. लेकिन अब वे उस साइकिल को एक मिनट भी अपने घर में नहीं बर्दाश्त कर सकते. वे तुरंत नीचे आये और आनन-फानन में साइकिल को गेट से बाहर सड़क पर फेंक दिया.
जिसके जी में आये उठाये और यहाँ से ले जाए या पड़ा रहे यहीं. अब वे अपने घर में कबाड़ नहीं रख सकते और न ही कबाड़ के रिश्तेदारों से कोई रिश्ता रखेंगे. साइकिल फेंक देने के बाद उनका जी हल्का लग रहा था. मानो सर पर से कोई बोझ फेंक दिया हो. साइकिल फेंक कर जब वे वापस घर में आये तो रज़िया ने बताया—पचरंगी से बार‑बार फ़ोन आ रहा है. फौज़िया फ़ोन कर रही है.
वजीर अहमद के चेहरे से गायब हुआ तनाव फिर से खिंच आया. पचरंगी का अब वे नाम भी सुनना नहीं चाहते.
नहीं हमें पचरंगी और वहां से जुड़े लोगों से कोई रिश्ता नहीं रखना. आज तक हम पचरंगी को देते ही आये हमें वहां से मिला क्या सिवा धोखे और मक्कारी के. वजीर अहमद की बातों में तल्खी थी.
पचरंगी यानी वजीर अहमद का गांव. जहाँ से वे छोटी उम्र में ही कमाने-कजाने के लिए बाहर निकल आये थे. यह एक पिछड़ा और सुदूर गांव था, जिससे वजीर अहमद आज तक रिश्ता निभाते आये थे. लेकिन अब जिसके नाम से भी उन्हें उज्र हो रहा था.
नाम के अनुसार तो पचरंगी गांव में पाँच रंग होने चाहिए थे। लेकिन यह गाँव रंग ओ आब से पूरी तरह महरूम था। पचरंगी ठेठ मुसलमानों का गाँव था, जिसमें सभी सुन्नी थे और सुन्नी में भी एक ही फिरके को मानने वाले थे। इसलिए गाँव में एक ही तरह का समाज, एक ही तरह की संस्कृति और धार्मिक परम्पराएं थी। सो गाँव एकरंगी अधिक था. गाँव के पचरंगी होने के पीछे कहानी थी कि वहाँ कभी एक सूफी आए थे। उन्हें गाँव के सीमाने पर पाँच रंगों वाला एक फूल खिला हुआ दिखा था। सूफी तो आए और चले गए पर गाँव का नाम पचरंगी कह गए, सो पचरंगी हो गया। कहते तो यह भी हैं कि गाँव वालों ने कभी ऐसा फूल कभी नहीं देखा. गाँव की जमीन ऊसर थी, सो वहाँ खुशियों के फूल भी बहुत कम ही खिला करते थे। खेती-बारी से उपज बस पेट भरने के लायक होती थी। ज्यादातर लोग खेती के साथ पशुपालन करते थे। अभाव और संघर्ष एक सामान्य बात थी, जो सभी की ज़िंदगी का हिस्सा थी।
इसी गाँव के अनवर हुसैन जब राज्य प्रशासनिक सेवा में चुन लिए गए थे तो उस वक्त गाँव में खूब खुशी मनाई गई थी. इतनी बड़ी सेवा में चुने जाने वाले वे गाँव के पहले व्यक्ति थे। इसलिए यह खुशी केवल अनवर हुसैन या उसके वालिद शकूर अहमद तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसमें सारा गाँव शामिल हो गया था। सबके लिए अनवर हुसैन उनका अपना ही लड़का था, जिसने न केवल गाँव का बल्कि अपने कौम का और समाज का नाम रौशन किया था। सबसे ज्यादा खुश तो अनवर के चाचा और शकूर अहमद के भाई वजीर अहमद थे। उनके लिए यह जीत का दिन था। तपस्या के परिणाम का दिन, उनकी इच्छाओं को पंख मिलने का दिन। उनके पूरे परिवार, जिसमें उनकी बेगम और दोनों बेटियाँ शामिल थी, की खुशी भी देखते बनती थी। बड़ी बेटी मुस्कान के चेहरे की खुशी बयान कर रही थी कि यह उसकी निजी सफलता है। यह उसकी व्यक्तिगत खुशी का क्षण है। वजीर अहमद अपनी बेटी के मुख को देखकर भीतर से आह्लादित थे। उनकी वर्षों की साध पूरी हो रही थी।
वजीर अहमद की ज्यादा खुशी गैरवाजिब भी नहीं थी। आज अनवर हुसैन जो कुछ हो सके थे, उसमें सबसे बड़ा योगदान उनका ही तो था। वे न होते तो अनवर हुसैन अपने भाइयों की तरह आज भैंस-बकरी चरा रहे होते।
उन्हें याद है, जब पहली दफा उन्होंने अनवर को देखा था तो वह बकरियाँ हाँककर ला रहा था डुर्ररर् …..डुर्ररर् …..
वजीर अहमद ने उसे पास बुलाया था। क्या नाम है तुम्हारा?
माय नेम इज अनवर हुसैन। बहुत आत्मविश्वास से भरकर उसने कहा था। यह आत्मविश्वास चाचा वजीर अहमद को छू गया था.
वजीर अहमद ने अनवर हुसैन की इस सफलता के मौके को अजीम बनाने और अपनी शान-शौकत के प्रदर्शन में कोई कमी नहीं छोड़ी। वैसे तो सारा गाँव क्या पूरा इलाका पहले से ही जानता था कि वजीर अहमद पैसे वाले बड़े आदमी हैं, लेकिन उस दिन तो हर व्यक्ति वाह कर उठा था। जितनी प्रशंसा अनवर हुसैन की हो रही थी उससे कम प्रशंसा उसके चाचा वजीर अहमद की नहीं हुई थी।
सारे गाँव को बड़े ही मनोयोग से सजाया गया था और उम्दा दावत का इंतजाम हुआ था, जिसमें कलकत्ता से आए कारीगरों ने ऐसी बिरयानी बनाई थी, जिसकी चर्चा महीनों जिले-जवार में होती रही। गरम मसालों की खुशबू से पूरा गाँव तर हो गया था। आस-पास के गाँव के लोग पचरंगी गाँव की किस्मत पर रश्क करने के सिवा कर ही क्या सकते थे?
इस बात को दो वर्ष बीत चुके थे। लोग अब धीरे-धीरे सफलता की उस इबारत को भूलने लगे थे। लेकिन तभी खुशी का यह दूसरा मौका आया था। इस खुशी की तो बात ही कुछ और थी। अब उसी अनवर हुसैन का निकाह होना तय हुआ था। पचरंगी गाँव में रंगों की बरसा हो रही थी। हर किसी में शकूर अहमद के खानदान से कैसे भी अपना रिश्ता जोड़ लेने की होड़ लगी थी। हर कोई खुद को उस परिवार के दूर या पास का मामूजाद, फूफाजाद बताने में लगा था। गाँव की मस्जिद को भी खूब सजाया गया था। शकूर अहमद के घर से मस्जिद तक जाने वाले रास्ते में तो इतनी लाइट लगाई गई थी कि दिन होने का अहसास हो रहा था। लोग इस रौनके अफ़रोज़ से बेहद मुतासिर थे। चारों तरफ बस सलाम और माशाअल्लाह के सिवा कुछ सुनाई न देता था।
लेकिन ऐसे मुबारक और खुशनुमा माहौल में भी एक जगह घोर उदासी और मायूसी थी, वह जगह थी, शकूर अहमद का दिल। वे बेहद दुखी और बुझे-बुझे थे। उनके इस दुख का कारण था, उनके प्यारे सगे भाई वजीर अहमद की इस खास मौके पर गैरहाजिरी। वही वजीर अहमद, जिसने अनवर हुसैन को पढ़ाया-लिखाया और समाज में आला मुकाम दिलवाया. यह उनके लिए किसी आघात से कम न था। बार-बार सूचना एवं आमंत्रण देने के बावजूद वजीर अहमद की तरफ से न तो कोई जवाब आया था और न वे स्वयं आए।
पूरा गाँव रंग और रोशनी से नहाया हुआ था. लोगों के चेहरे ऐसे दमक रहे थे मानो ईद हुई हो. पर शकूर मियां की स्थिति बड़ी विचित्र थी. इस मुबारक मौके की ख़ुशी तो उन्हें थी ही थी, लेकिन कहीं न कहीं अहसान फरामोशी का एक बोझ उनके काँधे से लटक रहा था. लेकिन स्थितियां कुछ ऐसी हो गई थी जिसपर उनका नियंत्रण न था. उन्हें लग रहा था देर-सबेर वजीर भाई अवश्य आयेंगे.
यूं तो शादी-ब्याह के मौके पर किसी रिश्तेदार का नहीं आना या रूठ जाना कोई बड़ी बात नहीं होती है, लेकिन वजीर अहमद का अनवर के शादी जैसे मौके पर नहीं आना शकूर अहमद के लिए बड़ी बात थी। इस बात को महसूस तो पूरा गाँव कर रहा था लेकिन अब अनवर के अफसर बन जाने के कारण उनका रुतबा इतना बड़ा हो गया था कि कोई कुछ कह नहीं रहा था।
वजीर अहमद के उनपर बहुत अहसान थे। आज वे जिस स्थिति में है, जिस बात के गौरव से उनके पैर आसमान में हैं, वे सब तो भाई वजीर अहमद की ही देन है, नहीं तो उनकी औकात ही क्या थी। वे तो एक मामूली मजदूर-किसान थे। दो एकड़ की छोटी सी जमीन और तीन-चार भैंसें, बकरियाँ यही उनकी कुल जमा पूंजी थी। वहीं वजीर अहमद उद्योगपति थे। गाँव के गर्द ओ गुबार से निकलकर उन्होंने शहर में अपनी बड़ी हैसियत बनाई थी। बड़ी गाड़ियां, कोठी, किसी चीज की कमी नहीं थी। उनकी कई चमड़े की टैनरी थी और उनकी गिनती चमड़े के अच्छे व्यापारियों में होती थी। अनवर को उन्होंने बेटे की तरह ही पाला था।
वजीर अहमद गाँव की तंगहाली और तमाम तरह की मुश्किलात की वजह से वे बचपन में गाँव छोड़ गए थे। पढ़ाई-लिखाई तो उनकी ज्यादा नहीं हुई थी, लेकिन वे मेहनती और हुनरमंद थे। शहर जाकर उन्होंने एक टैनरी में नौकरी कर ली और बाद में खुद का ही चमड़े का काम शुरू कर दिया था। इस काम में उनको खूब बरकत हुई। वे गाँव गाहे-बेगाहे गाँव आया करते थे और गाँव से संबंध बनाकर रखा था। उनकी दो बेटियाँ ही थी, मुस्कान और नेहा। फूल सी दोनों बेटियों के लिए वे ज़िंदगी की सारी खुशियां बटोर लाना चाहते थे। दोनों से वे बहुत मुहब्बत करते थे और बड़े ही नाज़ों से दोनों की परवरिश कर रहे थे। किसी भी बाप की तरह अपनी बेटियों की अच्छी जिंदगी की ख्वाहिश उनके दिल में भी थी। उनके कोई बेटा नहीं था, जिसकी कमी दोनों मियां-बीवी महसूस किया करते थे। लेकिन उनकी इस कमी को पूरा कर दिया था छोटे भाई शकूर अहमद के बड़े लड़के अनवर ने। अनवर बहुत ही खूबसूरत और पढ़ने लिखने में होशियार लड़का था। लेकिन गाँव की मिट्टी में उसकी सारी होशियारी मिट्टी हुई जाती थी। वजीर अहमद ने अनवर को खूब प्यार दिया। उसे शहर ले जाकर अपने साथ ही रखा। बड़े-से बड़े स्कूल में उसका दाखिला कराया, ट्यूशन दिलवाई और जो कुछ अपनी बेटियों को देते, वही सब कुछ उसे भी उपलब्ध कराया। बाहर के लोग तो अनवर को उनका अपना बेटा ही समझते थे और उसी का नतीजा था कि आज अनवर प्रशासनिक अधिकारी बन सका था। अनवर के दो अन्य भाई जो गाँव में ही रहे, वे वहीं किसानी-पशुपालन कर रहे थे। दोनों के जीवन में झोपड़ी और महल का फर्क था। इस बात को शकूर अहमद भली-भांति समझते थे.
चारों तरफ की चमक-दमक के बीच शकूर अहमद बिल्कुल तन्हा, फीके और बेचैन होकर घूम रहे थे। कोई सलाम भी करता तो आहिस्ता से बुझे मन से उसे जवाब देते। जबकि सारा गाँव उत्सवी मूड में था, वे ग़मगीन थे। क्या वजीर अहमद नहीं आएंगे? ऐसा नहीं कि वे क्यों नहीं आ रहे, इसका उत्तर उन्हें नहीं पता था, लेकिन उनके गुस्से का शकूर अहमद के पास कोई हल भी तो नहीं था। वे भी वही चाहते थे, जो वजीर भाई चाहते थे, लेकिन चाहना हमेशा कहता है कि चाह...ना। जो बड़ी बात उन्होंने नहीं चाही थी, वह पूरी हो गई थी। उन्होंने कब भला चाहा था कि अनवर अफसर बने। लेकिन बने। पर इस छोटी सी चाह, जिसमें उनके अज़ीज भाई की चाह भी शामिल थी, पूरी नहीं हो पाई थी। वजीर अहमद ने किसी गैर वाजिब बात पर गुस्सा भी नहीं किया था। वे इस बात को अच्छी तरह समझ रहे थे।
वे आखिरकार अपनी बेगम के पास गए। उनकी बेगम फ़ौजिया सफेद रंग का बेल-बूटे वाला सलवार और जंफर पहने हुए घर में आए हुए रिश्तेदारों के साथ बैठी थी। महिलायें हाथों में मेहंदी रचा रही थी। आस पड़ोस की औरतें भी वहाँ जमा थी। हंसी-खुशी का माहौल था। औरतें आपस में चुहल कर रही थी। सबके बनाव-शृंगार देखते ही बनते थे। उनको देखकर सर पर पड़े दुपट्टे को ठीक करते हुए फ़ौजिया उठकर उनके पास आ गई।
“बेगम! ऐसा लगता है कि वजीर भाई नहीं आएंगे”.
“ये तो बहुत रुसवाई की बात होगी कि अपने भतीजे के निकाह के मौके पर सगे चाचा नहीं आयें और वजीर भाई तो चाचा से बढ़कर बाप की तरह ही है।” उनकी बीवी फ़ौजिया ने माथे पर शिकन लाते हुए कहा।
लेकिन हम कर भी क्या सकते हैं? अब अपने बच्चे के साथ जबरदस्ती तो नहीं कर सकते। उसने खुद अपनी मर्जी से शादी करने का फैसला लिया है। लड़की और उसके माँ-बाप खुद चलकर दिल्ली से इस छोटे से गाँव तक आ चुके हैं। जरा उनके त्याग और हिम्मत के बारे में सोचिए। इमाम साहब तो कह रहे थे कि यह बहुत खुश-किस्मती की बात है। लड़की को अल्लाह ने हिदायत बख्शी है। यह हम सबके लिए बहुत सवाब का मौका है कि किसी को हम अल्लाह के प्यारे रसूल के बताए रास्ते पर चलते हुए देखेंगे और वह भी हमारे अपने बेटे की वजह से। अल्लाह ने तो अनवर की किस्मत पर दोनों हाथों से खुशियां लुटाई है। वह इस फ़ानी दुनिया में और उसके बाद भी हमेशा खुश रहने वाला है। ऐसे मौके पर तो दूर के लोग भी शामिल होना चाहते हैं। लेकिन वजीर भाई और उनका परिवार जो मेरा सगा है, ऐसे मुबारक मौके से खुद को महरूम रखना चाहते हैं। वजीर भाई को कैसे समझाए?”
एक बार रज़िया से बात करके देखो। रज़िया वजीर अहमद की बीवी थी।
आपको क्या लगता है, मैंने कोशिश नहीं की है? मैंने कई दफे फोन लगाया लेकिन वे न तो फोन उठाते हैं और न उधर से फोन करते हैं। अब क्या ही कर सकते हैं?
वजीर अहमद ने अनवर को उसके बचपन में जब देखा था तो उसी समय उन्होंने तय कर लिया था कि अपने बेटे की कमी को वे इसी से पूरा करेंगे। वे अपनी बेटी मुस्कान की शादी अनवर से करेंगे। यह बात शुरू में तो उन्होंने जाहिर नहीं की लेकिन बाद में उनकी यह चाहत सबको मालूम हो गई थी। उन्होंने अनवर को पढ़ाने-लिखने और उसकी अच्छी परवरिश में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। अनवर ने उन्हें निराश भी नहीं किया था। वह पढ़ने-लिखने में सदा अव्वल रहा और अपनी अच्छी तरबीयत और चाल-चलन की वजह से सब उसे पसंद करते। पसंद उसे मुस्कान भी करती थी। अनवर में नापसंद करने लायक कुछ था भी नहीं। जब उसे मालूम चला था कि अब्बू उसका निकाह अनवर से कराना चाहते हैं तो उसने उसे एक तरह से अपना शौहर मान ही लिया था। हालांकि शुरू में उसे यह अटपटा जरूर लगा था कि एक ही छत के नीचे रहने वाले भाई को शौहर कैसे माने। लेकिन जब उसकी अम्मी ने समझाया कि यह निकाह जायज है और सबसे अच्छा निकाह यही होगा, तो उसने भी इसे स्वीकार कर लिया था।
अनवर के प्रशासनिक अधिकारी बन जाने के बाद वजीर अहमद मुस्कान का रिश्ता लेकर शकूर अहमद के पास गए। शकूर अहमद को भी इस रिश्ते से कोई गुरेज नहीं था, बल्कि वह तो इस बात से खुश ही हुए कि मुस्कान जैसे सुशिक्षित, शहरी लड़की, जिसे वे बचपन से जान रहे हैं, उनकी बहू बनेगी। इससे बेहतर रिश्ते की तो वे उम्मीद भी नहीं करते थे। वजीर अहमद की अमीरी और उनकी लड़कियों की अच्छी परवरिश से वे पहले से ही बहुत प्रभावित थे। दूसरे कि वे उनके अपने सगे भाई थे। उन्हें इस बात की भी खुशी थी कि वजीर अहमद ने आजतक जो कुछ अनवर के लिए किया उसका इससे बेहतर भुगतान और क्या ही हो सकता था?
लेकिन मामला तब गड़बड़ हो गया, जब अनवर ने इस शादी से साफ इनकार कर दिया। अनवर दिल्ली में रहते हुए पढ़ाई के दौरान एक लड़की से मुहब्बत कर बैठा था और उसी से शादी करना चाहता था। लड़की खुद किसी कॉलेज में प्रोफेसर थी। लड़की भी अनवर से शादी करने के लिए उतारू थी और किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार थी। अनवर चूंकि स्वयं अधिकारी था, इसलिए उसे अब किसी से डरने या दबने का भय नहीं था। प्यार के आगे वैसे भी आदमी बेबस होता है। अनवर प्यार में था। लड़की भी प्यार में थी। लेकिन इस प्यार के गहरे समंदर में दो परिवारों का रिश्ता डूबने-उतराने लगा था।
यह बात जब वजीर अहमद को पता चली तो उनके पैरों के नीचे की जमीन निकल गई। उन्हें यकीन ही नहीं हुआ कि अनवर ऐसे भी कह सकता है। उन्हें लगा कि अनवर अफसर बन जाने के बाद उनसे धोखा कर रहा है। वे ठगे से रह गए और वे बुरी तरह चिढ़ गए। उन्होंने अपने भाई से बात की और उन्हें समझाने की चेष्टा की।
शकुर भाई यही सिला दिया आपलोगों ने मेरे अहसानों का...
भाईजान मैंने कोशिश की थी अनवर को समझाने की। लेकिन आप तो जानते ही हैं, बच्चे कहाँ किसी की सुनते हैं। उसपर अगर बच्चा बड़ा हो और अपने पैरों पर खड़ा हो।
हाँ! अब तो आपका बेटा बड़ा अफसर बन गया है। अब आप भी बड़े हो गए। मेरी कद्र आपको अब क्यों रहेगी?
नहीं नहीं! भाईजान ऐसी बात नहीं है। अल्लाह जानता है कि आपके लिए मेरे मन में कितनी इज्जत है। आपने जो अनवर के लिए किया है, वह तो सगा बाप होकर भी मैं न कर पाया।
देखिए शकूर भाई आप लोग जो कर रहे हैं, उससे समाज में बहुत तनाजा फैलेगा। अभी जो मुल्क के हालत हैं, उसमें इस लड़की से शादी करना बहुत ही मुसीबत खड़ा कर सकता है। दंगे-फसाद हो सकते हैं। आपलोग कोर्ट कचहरी के चक्कर में पड़ जाएंगे। हो सकता है अनवर की नौकरी भी चली जाए।
मैं सब समझता हूँ वजीर भाई लेकिन क्या कर सकता हूँ। लड़का जिद पर अड़ा है। लड़की भी शादी के लिए तैयार है।
हालांकि सच तो यह था कि लड़का तो जिद पर अड़ा था ही, समाज के सभी लोग भी इस शादी के समर्थन में थे। इमाम साहब जब से कह कर गए थे कि इस निकाह से इंशाल्लाह आपलोगों के लिए जन्नत का रास्ता खुलेगा, तबसे शकूर अहमद के मन में भी कहीं न कहीं यह बात चल रही थी कि यह शादी हो ही जाए। हालांकि प्रकट तौर पर वे इसे जाहिर नहीं होने देते थे। लेकिन सच तो यही था कि वे वजीर अहमद के अहसानों को जन्नत के चमकीले सपने के सामने बहुत मामूली और फीका देख रहे थे।
अनवर ने तो साफ-साफ कह दिया था कि मैं लड़की के साथ कोई जबरदस्ती नहीं कर रहा हूँ। लड़की जब खुद ही इसके लिए तैयार है तो कोई क्या कर सकता है? लड़का-लड़की राजी तो क्या करेगा काज़ी?
काजी ने तो कुछ नहीं किया लेकिन वजीर अहमद ने किया। उन्होंने शहर में एक विशेष दल के लोगों को गुपचुप इसकी सूचना दे दी। शायद किसी के हाथों कुछ पैसे भी भिजवाए। उस दल के लोगों ने शहर में मार्च निकाला, प्रदर्शन किया, पुतला जलाया। अखबार में खबरें भी शाया हुई। नतीजा यह हुआ कि एक बार पुलिस वाले पूछताछ करने शकूर अहमद के घर पर आए। लेकिन अंततः कुछ हुआ नहीं। मामला थम गया, पर दरार वैसी ही रही—नंगी आँखों से न दिखने वाली, पर हर बात में चुभती हुई। उसी दिन के बाद शकूर ने दरी समेट दी, और वज़ीर ने दिल; दोनों घरों में रौनक रही, पर रिश्ते चुपचाप बूढ़े हो गए। मामला शीघ्र ही शांत हो गया था।
कोर्ट में रेजिस्टर्ड मैरेज के लिए आवेदन दे दिया गया था। साथ ही जिले के कलेक्टर को भी इसकी सूचना दे दी गयी थी। लड़की के माता-पिता भी लड़की की जिद के आगे झुक गए थे। उनसे जब अखबार वालों ने और पुलिस आदि ने पूछताछ की तो उन्होंने इस निकाह से अपनी सहमति जता दी। इस बात से मामला पूरी तरह वजीर अहमद की योजना के खिलाफ चला गया।
वजीर अहमद को बड़ी कोफ्त हुई।
“कायर कौम”! उन्होंने अपनी भड़ास निकाली।
वजीर अहमद के गुस्से की कोई सीमा नहीं थी। वे इसे अपनी हार की तरह देख रहे थे। लेकिन वे कर ही क्या सकते थे? उन्हें लग रहा था कि जिस फसल को उन्होंने सींच कर तैयार किया था उसे जब काटने का समय आया तो कोई और काट ले गया। मुस्कान भी उदास हो गई थी। वजीर अहमद जब मुस्कान की उदासी देखते तो उनका गुस्सा और भी बढ़ जाता।
एक बार उनके जी में आया कि अनवर को किसी तरह से बुलाकर उसके खाने में जहर दे दिया जाए। लेकिन उनकी बीवी ने उन्हें सख्त हिदायत दी कि खबरदार! जो ऐसा किया। हमारे पास क्या कमी है? करोड़ों की जायदाद है, पढ़ी -लिखी और सुंदर लड़कियां हैं, एक से एक अच्छे लड़के मिल जाएंगे। अनवर क्या कोई अकेला अफसर बना है। उससे भी बड़े अफसर भरे पड़े हैं। यहाँ तो पैसा फेंक तमाशा देख। आप दहेज में मुँहमाँगा रकम देकर देखिए। कैसे-कैसे लड़कों की लाइन लग जाती है। मेरे भाई तो कल ही एक लड़के के बारे में बता रहे थे।
वजीर अहमद मान तो गए लेकिन उन्होंने भी जिद नहीं छोड़ी। वजीर अहमद जानते थे कि लड़के तो एक से एक मिल जाएंगे। लेकिन अनवर हुसैन नहीं मिलेगा। वे यह भी समझते थे कि अनवर के प्रति मुस्कान के दिल में प्रेम है। वह उसे अपना शौहर देखना चाहती है। जबसे अनवर के किसी गैर से निकाह की खबर मिली थी, वह कहती तो कुछ नहीं थी पर उदास रहती थी। उसका उदास चेहरा वजीर अहमद के दिल में आग लगा देता। उनके मन में अनवर के प्रति नफरत भरने लगी थी।
सँपोला, मेरे घर में रहा, मेरी ही रोटी खाकर बड़ा हुआ। मैं इसे दूध पिलाता रहा और इसने मुझे ही डंस लिया।
उन्होंने अपनी आखिर कोशिश के रूप में इलाके के उलेमा इकराम से, गाँव के बड़े बुजुर्गों से बात की थी। सबको समझाने की कोशिश की कि अनवर जो कर रहा है, वह न उसके हित में है और न समाज के हित में। लेकिन बात नहीं बनी।
सभी लोगों की यही राय थी कि अगर अनवर मियां किसी गैरमजहबी लड़की से शादी करते हैं और उसे दीन में दाखिल करवाते हैं तो यह अल्लाह की निगाह में बहुत नेक काम है। इसे रोकना ठीक नहीं है।
लेकिन हुज़ूर यह भी देखिए कि अगर कौम के सभी सफल लड़के काफ़िरों की लड़कियों से निकाह करेंगे तो हमारी लड़कियों के हिस्से कौन से लड़के आएंगे। हमारी लड़कियां क्या कम पढ़ लिखी है, क्या वे किसी से कम सुंदर हैं? क्या हमारी लड़कियों के हक में अच्छे मुस्लिम लड़के नहीं आएंगे? आप किसी भी फिल्म स्टार को देखें, क्रिकेटर को देखें, म्यूजिशियन को देखें, फनकार को देखें, कलाकार को देखें सब काफ़िरों की लड़कियों को हमसाया बनाते हैं। हमारी लड़कियों के हिस्से में क्या मुर्गी बेचने वाले आएंगे?
वजीर अहमद के तर्क से कुछ लोग तो सहमत होते हुए दिखे, लेकिन अकसरियत ने उनकी बातों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। जो सहमत भी दिखते उनमें ज्यादा वैसी बेटियों के बाप होते, जिनकी बेटियाँ जवान होती और जो उनकी शादी के लिए फिक्रमंद होते। ज्यादातर लोग यह भी समझते कि चूंकि अनवर वजीर अहमद की बेटी से शादी नहीं कर रहा है, इसलिए वे चिढ़े हुए हैं।
इलाके के मुफ्ती मुकर्रम ने तो कह दिया कि वजीर अहमद वक्त का इंतजार करें। हमें तो चार शादियों की इजाजत है। क्या पता जल्दी ही अनवर मियां का दिल इस लड़की से भर जाए और वे दूसरी शादी के लिए मन बना लें।
वजीर अहमद खून का घूंट पीकर रह गए। वे पैसे वाले भले थे लेकिन समाज में मुफ्ती को पलट कर जवाब देने की उनकी हैसियत नहीं थी।
गाँव में वलीमा के दावत का इंतजाम पूरा हो चुका था। इस बार कलकता से कारीगर तो नहीं आए थे, लेकिन खाने-पीने का अच्छा इंतजाम था और सबसे बड़ी बात थी कि गाँव के हर आदमी में एक उल्लास था। हर आदमी को दूर जन्नत की धुंधली सी खिड़की दिखाई दे रही थी। गाँव के प्रधान के घर लड़की और उसके माँ-बाप के रुकने का इंतजाम था।
तय समय पर सारी रस्में पूरी हुई। दिल्ली से आई लड़की ने क़लमा पढ़ा। उसके माता-पिता इसके गवाह बने। दूर-दराज के गाँव के लोग भी इस घटना के गवाह बनने के लिए आए थे। पूरा माहौल सुब्हान अल्लाह से गूंज उठा। लड़के और लड़की ने निकाह कुबूल किया। दावत में बिन बुलाए मेहमान इतनी तादाद में आए कि खाना खत्म हो गया।
शकूर अहमद की खुशी का ठिकाना नहीं था। उन्हें लग रहा था वे जीते जी जन्नत के दरवाजे पर खड़े हैं।
वजीर अहमद, अपनी दोनों बेटियों और बेगम रज़िया के साथ मुस्लिम मैट्रिमोनिअल की साइट खोले बैठे थे। एक लड़का—डॉक्टर—सबको पसंद आ गया था। माउस पर उँगली कुछ पल ठिठकी रही; जैसे किसी पुराने पन्ने पर आख़िरी मोहर लगानी हो। क्लिक की हल्की-सी आवाज़ आई, और सन्नाटा देर तक बजता रहा—शायद वही पल था जब रिश्ता टूट गया।
लेखक परिचय - नीरज नीर

1. नाम : नीरज नीर
(कविता एवं कहानियाँ मेरे लिए जीवन-रस का गहरा आस्वाद है।)
2. जन्म तिथि : 14.02.1973
3. Mob: 8789263238
4. Email – neerajcex@gmail.com
5. पता:
“आशीर्वाद”
बुद्ध विहार, पो ऑ – अशोक नगर
राँची – 834002, झारखण्ड
6 . रचना संसार :
कविता संकलन : (I) जंगल में पागल हाथी और ढोल
(ii) पीठ पर रोशनी
(iii) जीवन के चाक पर (शीघ्र प्रकाश्य)
कथा संकलन : (i) ढुकनी एवं अन्य कहानियाँ
(ii) थके पाँव से बारह कोस
7. हंस, कथादेश, वागर्थ, परिकथा, पाखी, निकट, समकालीन भारतीय साहित्य, आजकल, दोआबा, कथाक्रम, इंद्रप्रस्थ भारती, नवनीत, गगनाञ्चल, नई धारा, बहुमत, आधुनिक साहित्य, नवनीत, साहित्य अमृत, वाक्, सरस्वती, माटी, लहक, प्राची, वीणा, पुरवाई, जनपथ, सोच विचार, नंदन, ककसाड़, विभोम स्वर, परिंदे, समहुत, अक्षरपर्व, भाषा, पुस्तक वार्ता, सरस्वती सुमन, युद्धरत आम आदमी, अहा! ज़िंदगी, अट्टाहास, रेवान्त, रचना उत्सव, व्यंग्य यात्रा, गाँव के लोग, पुनर्नवा, समकालीन स्पंदन, शिवना साहित्यकी, भाषा, समकालीन जनमत, उत्तर प्रदेश, लोकमत, प्रणाम पर्यटन, प्रभातखबर, जनसत्ता, दैनिक भास्कर ....... आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें, कहानियाँ, समीक्षाएं एवं यात्रा वृतांत प्रकाशित. कुछ बाल कवितायें एवं बाल कहानियाँ भी प्रकाशित।
8. राँची विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातक
9. सम्मान :
(i) प्रथम महेंद्र स्वर्ण साहित्य सम्मान’ 2018
(ii) सृजनलोक कविता सम्मान’ 2018
(iii) ब्रजेन्द्र मोहन स्मृति साहित्य सम्मान’ 2019
(iv) प्रतिलिपि लघु कथा सम्मान।
(v) अखिल भारतीय कुमुद टिक्कु श्रेष्ठ कहानी पुरस्कार ।
(vi) जयशंकर प्रसाद स्मृति सम्मान’ 2021
(vii) सूरज प्रकाश मारवाह साहित्य रत्न अवॉर्ड 2021
(viii) गोवर्धन लाल चौमाल स्मृति कहानी पुरस्कार, 2023
(ix) सिद्धनाथ कुमार स्मृति सम्मान, 2024
10. पंजाबी, ओड़िया, संथाली, तमिल, नेपाली, मराठी भाषाओं में कविताओं का अनुवाद । पंजाबी और अंग्रेजी में कहानियों का अनुवाद।
11. आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से नियमित कहानियों एवं कविताओं का प्रसारण।
12. जल, जंगल और जमीन के प्रति गहरी संवेदना रखने वाले रचनाकार के रूप में पहचान।
13. ढुकनी कहानी का कई दफा नाट्यमंचन।
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नीरज नीर
Mob: 8789263238
Email – neerajcex@gmail.com
पता : “आशीर्वाद”
बुद्ध विहार, पो ऑ – अशोक नगर
राँची – 834002, झारखण्ड
रचना संसार :
कविता संकलन : (I) जंगल में पागल हाथी और ढोल
(ii) पीठ पर रोशनी
(iii) जीवन के चाक पर
कथा संकलन : (i) ढुकनी एवं अन्य कहानियाँ
(ii) थके पाँव से बारह कोस
सम्मान :
(i) प्रथम महेंद्र स्वर्ण साहित्य सम्मान’ 2018
(ii) सृजनलोक कविता सम्मान’ 2018
(iii) ब्रजेन्द्र मोहन स्मृति साहित्य सम्मान’ 2019
(iv) जयशंकर प्रसाद स्मृति सम्मान’ 2021
(v) सूरज प्रकाश मारवाह साहित्य रत्न अवॉर्ड 2021
(vi) सिद्धनाथ कुमार स्मृति सम्मान, 2024
पंजाबी, ओड़िया, संथाली, तमिल, नेपाली, मराठी भाषाओं में कविताओं का अनुवाद ।





कहानी अच्छी लगी। हर तरह से खरी।