एक पहाड़न की प्रेमकथा
- अंकिता रासुरी
- 2 दिन पहले
- 5 मिनट पठन
अपडेट करने की तारीख: 16 घंटे पहले
अरे यह तो वही गांव है जिसका जिक्र भाभी ने उस रात किया था। तब तो वहां सड़क ही नहीं गयी थी और आज उसी गांव की सड़क लैंड स्लाइड में धंस गयी है। कुछ लोग बचा लिए गए हैं, कुछ विकास की भेंट चढ़ गए हैं और कुछ लोगों का तो पता भी नहीं चल रहा। पूरा सोशल मीडिया और टीवी इन्हीं खबरों से अटा पड़ा है।
तब तो ना हाथों में मोबाइल थे, ना सोशल मीडिया। पहाड़ी गांवों में लोग खाना अक्सर रात पड़ने से पहले ही बना लेते थे। बिजली भी कम ही रहती, लैंप और लालटेन की बराबर जरूरत पड़ती थी। कई बार चिमनी और लालटेन का शीशा साफ करने से हाथों में खरोंच भी आ जाती। पिताजी अक्सर छोटे भाई को चिमनी पकड़ा देते साफ करने को। छोटे-छोटे हाथ चिमनी के अंदर आराम से घुस जाते।साफ साफ करने के बाद क्या मस्त लगती थी उसकी रौशनी, उससे भी अच्छी लगती थी अंधेरी रात उस दिपदिपाती रौशनी में।
उस साल बहुत जाड़ा पड़ रहा था। हमेशा की तरह उस रात भी मैंने मां के साथ मिलकर खाना बनाकर सबको खिला दिया था। भले ही रात पड़ गई थी पर बाकी तो पूरी थी इसलिए मैं मां से मिन्नतें करके कमला भाभी के घर बैठकी करने चली गई। वहां खाना लकड़ी के चूल्हे पर ही बनता। हमारे घर में जब से गैस आया था, मैं लकड़ी के चूल्हे के साथ-साथ गैस पर भी खाना बनाने लगी थी। हालांकि लकड़ी के चूल्हे पर मुझ से रोटियां ठीक से नहीं बन पाती थी। एक तो हमारा लकड़ी का चूल्हा था भी बहुत पुराना। कमला भाभी का चूल्हा मुझे बहुत अच्छा लगता,एकदम साफ-सुथरा और चमकदार। लाल मिट्टी और गोबर से हमेशा लीपा रहता, देखकर मन करता इसी पर लोट-पोट होकर सो जाओ।
भाभी उस वक्त रसोई में ही थी। मैं सीधे रसोई में घुस गई। दरवाजे छोटा था तो थोड़ा झुककर अंदर जाना पड़ता। मेरे अचानक चले जाने से भाभी डरते हुए कुछ चौंक सी गईं। अरे तू क्या आई ऐसे, जैसे कोई भूत हो। मैं हंसने लगी और भाभी को कहा कि जिंदा भूत ही समझ लो मुझे, इसमें डरना क्या है।
लोग अक्सर किसी के घर जाते, खासकर रात में तो हल्का सा खांसकर या आवाज देकर अपने आने की सूचना देते। पर मुझे सीधे धावा बोलना अच्छा लगता या यूं कहें चौंकाना।
दरअसल उन दिनों सर्दियों में किचन ही सबसे अच्छा बैठकखाना होता था। रसोई की ऐसी बैठकों में अक्सर दो–चार लोग तो शामिल होते ही थे। लेकिन उस दिन शायद ठंड ज्यादा थी इसलिए कोई और नहीं आया था।
चूल्हे में लगी बांज की लकड़ियां बुझ तो गईं थी पर लाल-लाल मोटे अंगारे अभी भी बचे हुए थे। उन अंगारों के ताप ने मुझे भयानक ठंड से बचा लिया। भाभी ने तवे पर भट्ट भूने हुए थे जिसे वो मसालेदार चटपटे नमक में खा रही थी। मैंने भी उनसे कुछ भट्ट मांग लिये। मैं गर्मागर्म भट्ट खाने पर टूटी ही थी तभी कमला भाभी ने मुझे ताजी बनाई हुई मट्ठा पीने के लिए पूछा।

पागल हो क्या भाभी इतनी ठंड में मट्ठा पियूंगी?
भाभी बोली, अरे अभी तो जवानी है तेरी, क्या ठंड क्या गर्मी।
मैंने कहा, मेरी तो जवानी है ही, तुम कौन सी बूढ़ी हो गई हो। तुम्हीं पी लो भई। उसके बाद भाभी कहीं खो सी गई। एक खितखित सी हंसी के बाद बोली, दो बच्चे होने के बाद कहां की जवानी भै गैल्याण। ना भै ना, अब तो नहीं रही। जवानी तो तब थी जब शादी नहीं हुई थी।
क्या भाभी यह भी कोई उम्र होती है बूढ़ा होने की। अभी तो तुम मुश्किल से बाइस-तेईस साल की होगी।
भाभी की शादी हुए चार-पांच साल हो गए थे। इन में सालों में वो बस संबोधन में ही भाभी थी। बाकी तो वो पक्की दोस्त बन गई थी।
अब वो मुझे छेड़ रही थी, कोई लड़का पसंद किया कि नहीं। लेकिन मुझे उनकी बातों से ऐसा लगा नहीं कि वो मेरे प्रेमी के बारे में जानना चाहती हैं। बल्कि मैं समझ गयी कि इस बहाने वो खुद किसी प्रेम कहानी में वापस लौटना चाहती हैं। मैंने उनको ऐसे ही मजाक में कह दिया- क्या भाभी अपनी उस वाली जवानी के कुछ कारनामे बताओ, बताओ-बताओ कौन पसंद था भैजी से पहले, कोई तो रहा होगा।
पसंद तो क्या बोलना है गैल्याण। शादी से पहले तो कई पसंद आते हैं पर अपना तो अपना ही इंसान होता है।
अच्छा तो इसका मतलब है, कोई तो था।
छिः तू छोरी भी पीछे ही पड़ गई। फिर वो कुछ सोचते हुए बोलने लगीं, अब क्या ही बताऊं तुझे, था एक छोरा रिश्तेदारी में, चाचा की बेटी का देवर। सोबन नाम था उसका। जब दीदी की शादी हुई थी, नये-नये में वो भी दीदी के साथ मायके आता था। हंसी मजाक बात-वात तो हो ही जाती थी। बात-करते करते कई बार वो एकटक देखने लगता। मजाक-मजाक में बोलता, मैं तो तुझे ही ले जाऊंगा अपने लिए। दीदी भी मजाक करते हुए कहती कि सोबन के साथ ब्यौ कर ले, दोनों दीदी-भुली साथ में घास काटेंगी।
एक बार की बात है, तब दीदी की शादी को एक साल हो गया रहा होगा। सोबनू अब दीदी को मायके पहुंचाने कम मुझसे मिलने ज्यादा आने लगा था। उस दिन सोबनू ने काली पैंट और गुलाबी रंग की कमीज पहनी थी, एकदम टीवी वाला हीरो लग रहा था वो। उस दिन मेरा बहुत मन था कि सिर्फ मैं और वो हों और हम दोनों ढेर सारी बातें करें, लेकिन वो पहले से ही दीदी की दो-तीन सहेलियों के साथ बैठा हुआ था इसलिए हमें ज्यादा बात करने का मौका नहीं लगा। पता नहीं उस दिन मुझे क्या हो गया था गैल्याण, वैसा फिर कभी महसूस नहीं हुआ। सोबनू को शाम में घर के लिए निकलना था, लेकिन मैं उसे हर हाल में रोक लेना चाहती थी इसलिए मैंने उसके जूते ही छुपा दिए। सबने पूरे घर में ढूंढे लेकिन किसी को नहीं मिले, मिलते भी कैसे मैंने तो वो घास के घीड़े के अंदर छुपाये थे। जब रात हो गयी तो मैंने उसे चुपचाप बता दिया क्योंकि वो तब जा नहीं सकता था। उसने थोड़ा -बहुत गुस्सा भी किया लेकिन हमारे पास अब एक और दिन था एक दूसरे से बातें करने के लिए।
फिर क्या हुआ भाभी। अच्छा खैर छोड़ो, बाकी सब तो बाद में, पहले यह बताओ देखने में कैसे थे वो। तुमसे बड़े थे कि छोटे। मैंने यह बात कुछ ज्यादा ही जोर से बोल दी थी।
भाभी घूर-घूर कर देखने लगी। थोड़ा धीरे बोल, किसी ने सुन लिया तो अनर्थ हो जाएगा। आस-पास देखा, एकदम सन्नाटा था, कोई भी सुन सकता था पर अच्छा हुआ किसी ने नहीं सुना ।
भाभी ने चारों तरफ नजर घुमाई और फिर से बताना शुरू किया। दिखने में ठीक ही ठाक लगता है।
मैंने गौर किया, भाभी ‘था’ के बजाय ‘है’ बोल रही हैं। बोलते वक्त उनकी आंखों में ठीक-ठाक वाला हाव-भाव नहीं है। ऐसा लगा आंखों में जैसे कोई हीर का रांझा उतर आया हो।
अब मैं और जानना चाहती थी उस रांझा के बारे में। अच्छा तो भाभी जबान कुछ और आखें कुछ, हो क्या गया है आपको। आंखों में इतना चढ़ गया है कि उतर ही नहीं रहा।
उतरता कहां है कोई गैल्याण। दिल में तो याद हमेशा रहती है, बस धुंधली होती जाती है। पहले आंखों से, फिर दिल से। वो कहां ही याद आता था। लेकिन कमबख्त कुछ महीने पहले अचानक मिलने आ गया। मैं घास लेकर आयी ही थी, देखा वो मेरा इंतजार कर रहा है। आधा-एक घंटा हो गया था उसको आये हुए। थोड़ा और देर लगती तो पता नहीं वो रुकता भी कि नहीं।
अरे क्या भाभी? वो यहां आ गया मिलने, घर पर कोई नहीं था क्या? आपको डर नहीं लगा, चाची से अपने बारे में क्या बताया उन्होंने?
डर क्या लगना था, उसने सासु जी को बोला कि वो मेरी मौसी का लड़का है। वो ऊपर खिट्टा-मजखेत गांव की तरफ एक बारात में आया था, पता लगाते-लगाते आ गया यहां भी। उस दिन सासुजी की तबियत कुछ खराब थी और अपने कमरे में आराम कर रही थी। एक दो बार मेरे कमरे में उसका हाल चाल पूछने आई बस।
इतने साल बाद सीधे प्रेमिका के ससुराल आ गये मिलने, ओहो इतनी हिम्मत। वैसे उनको ऐसे अचानक देखकर कैसा लगा आपको।
अब उनके चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे कि जीवन में कुछ ऐसा खो गया हो जिसे वो किसी हाल में वापस नहीं पा सकती। एक टीस, एक दर्द उनके आसपास महसूस कर पा रही थी मैं। फिर भी उन्होंने बताना जारी रखा।
लगना कैसा था। सच कहूं तो अब वो पहले से बढ़िया दिखने लगा है, बात करने का सऊर भी आ गया है। खुश भी दिख रहा था। बोला कि तूने तो मेरे से ब्यौ किया नहीं, लेकिन अब मैंने ब्यौ कर लिया है। मैंने ज्यादा कुछ पूछा भी नहीं उससे, फिर भी अपने ब्यौ के बार में बहुत सारी बातें किये जा रहा था। बोला कि इस बार घरवाली को भी साथ ले जा रहा हूं दिल्ली। वो बेचारी यहां गांव में कितने दिन खपेगी और अब परदेस में मेरा भी अकेले–अकेले जी नहीं लगता।
वो ऐसे बोल रहा था गैल्याण जैसे मुझे चिढ़ाना चाहता हो, थोड़ा बहुत जलन तो होती ही है। तुझे क्या पता गैल्याण, कितनी रट लगाई थी उसने मुझ से ब्यौ करने की, रिश्ता भी भेजा था उसने हमारे घर। माना कि मैं भी उसे पसंद करती थी, पर उस गांव में खेती-बाड़ी बहुत है। वहां अब तक सड़क भी नहीं गई है, पानी लेने भी बहुत दूर जाना पड़ता है। घास काटने भी जाओ तो खड़ी चढ़ाई है। क्या- क्या बताऊं छोरी तुझे, उस गांव की बेटी-ब्वारी की जिंदगी में बहुत विपदा है, बहुत ज्यादा विपदा। ब्यौ तो मैं अपनी पसंद से कर लेती पर मैंने यही सोचकर मना कर दिया कि उसके गांव-घर में जिंदगी तो मुझे काटनी है, कैसे काटती मैं। उसने तो वैसे भी परदेस ही रहना है। उसी बीच तेरे भैजी का रिश्ता भी आ गया था, बस मैंने हां कर दी, सोचा यहां कम से कम पानी की विपदा तो नहीं है।
काश मैंने सोबनू को हां बोल दिया होता, मैं भी उसके साथ दिल्ली में होती। अब देखो उसकी ब्वारी दिल्ली में है, मैं यहां दिन काट रही हूं। तेरे भैजी तो एक ही बार ले गए थे मुझे दिल्ली। फिर सासुजी ने एक महीने में ही घर बुला दिया यह बोलकर कि अपनी खेती-बाड़ी खुद ही देख ले। अब बुढ़ापे में मुझसे नहीं होता यह काम-धाम।
उस दिन जब वो गया तो बहुत अजीब लगा। ना मैं रोक सकती थी, ना कुछ कर सकती थी। बस उस जाते हुए सोबनू के कदमों को आंखों में बसा लिया। उस समय कमला भाभी आंखें दरवाजे के बाहर चढ़ाई वाले रास्ते की ओर अंधेरे में ऐसे टिक गई जैसे वहां, वही दिन का उजाला हो और सोबन अभी भी वहीं कदम बढ़ा रहा हो बार-बार।
____________
शब्दार्थ
● भट्ट-सोयाबीन
● गैल्याण: सहेली
● बांज- पहाड़ों में पाया जाने वाला एक प्रकार का पेड़
● ब्यौ- शादी
● ब्वारी- पत्नी
लेखक परिचय - अंकिता रासुरी

5 मई 1991 टिहरी गढ़वाल उत्तराखंड में जन्म।
वागर्थ, पक्षधर, अहा जिंदगी, तहलका, अमर उजाला जैसी कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
जनसंचार में एमए एवं एमफिल
‘देहात’ एग्रीटेक कंपनी में असिस्टेंटमैनेजर-कंटेट के तौर पर कार्यरत।
फिलहाल गुरुग्राम में निवास।
मोबाइल नं.- 8319320157
ईमेल- ankitarasuri@gmail.com