अकेलापन
- धर्मपाल महेंद्र जैन
- 7 घंटे पहले
- 1 मिनट पठन

अकेलापन पर्वत-सा गुमसुम खड़ा है।
मौन इच्छाएँ वीराने में गुम हैं।
पथराई आँखों ने
नींद को अलविदा कह दिया है।
अब अकेले जागने का
साहस नहीं है।
दर्पण से डर लगता है
एक अजीब-सा हम शक्ल है वहाँ।
अकेलापन पर्वत-सा अमर लगता है!
जन्म और पुनर्जन्म की
अंतहीन व्याख्याएँ शब्दों में
नहीं ढल पातीं।
अकेले-अकेले पर्वतों से बनीं
जड़ लगती हैं पर्वत शृंखलाएँ।
अंधेरे में सोचता हूँ मैं
अंधेरा मित्र नहीं है
वहाँ अकेले लोगों की
परछाई नहीं होती।
जब अकेला बादल
नहीं बरसता अपनी लय में
तो फट पड़ता है
कड़कड़ाती बिजली के साथ।
पर्वत दरकने लगता है।
दो अकेले- पर्वत और बादल,
झरना बनते हैं, नदी बनते हैं
अकेलापन बह जाता है
परस्पर विलीन हो जाने में।
लेखक परिचय - धर्मपाल महेंद्र जैन

प्रकाशन : “गणतंत्र के तोते”, “चयनित व्यंग्य रचनाएँ”, “डॉलर का नोट”, “भीड़ और भेड़िए”, “इमोजी की मौज में” “दिमाग वालो सावधान” एवं “सर क्यों दाँत फाड़ रहा है?” (7 व्यंग्य संकलन) एवं “अधलिखे पन्ने”, “कुछ सम कुछ विषम”, “इस समय तक” (3 कविता संकलन) प्रकाशित। तीस से अधिक साझा संकलनों में सहभागिता।
स्तंभ लेखन : चाणक्य वार्ता (पाक्षिक), सेतु (मासिक), विश्वगाथा व विश्वा में स्तंभ लेखन।
नवनीत, वागर्थ, पाखी, पक्षधर, पहल, व्यंग्य यात्रा, लहक आदि में रचनाएँ प्रकाशित।





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