घरबंदी 1 -
सरकार का फरमान है
हो जाओ घर में बंद
दुनिया जहान से दूर
तभी बचोगे हुजूर।
लेकिन मेरे दोस्त
वे हैं दिहाड़ी मजदूर
रहते हैं घर से दूर
खटते हैं रोज
तो मिलती है रोटी
न हो काम तो
पूरी कौम उनकी
भूखे पेट सोती।
कहाँ जाएं वे
क्या खाएं, कहाँ सोएं
कैसे रहें दूर दूर।
पट्टी पेट पर बांधे
या मुँह पर।
हर हाल में जिंदगी
बद से बदतर।
बहुतों के पास तो
घर क्या, कोठरी भी
है नहीं मौजूद
कैसे मानेंगे आखिर
सरकारी फरमान, हुजूर।
घरबंदी 2 -
जिस समय
होना था घर में बंद
निकल पड़े हैं वे
कतारों में।
चल पड़े हैं पैदल
पांव -पांव
तय करने सफर
पहुंचने को घर
अपने घर।
कट गई जिंदगी दरबदरी
और गधा मजूरी में
भला कैसे करें
आका की हुक्म उदूली।
मानने को हुक्म घरबंदी का
निकल पड़े हैं
हथेली पर रखकर प्राण
पाने को सजा से त्राण।
अपना घर, अपना ही है
भले हो टूटा- फूटा
टपकती हो छप्पर
उड़ती हो धूल
भले हो बेहद दूर
पर जाना है जरूर।
तभी तो हो पाएंगे कैद
गुजार पाएंगे जिंदगी
नियम कायदे से।
भले ही चलते चलते
थक जाए पांव,
टूट जाए
सांसों की डोर
अधरास्ते में ही।
और पहुंच भी गये गर
तो भी
रोक दिए जाएंगे
गांव के सीवान पर
घर की चौखट
जाने कब नसीब हो उन्हें।
कब मिले
घर की रूखी रोटी।
घरवालों के प्यार से सनी
रूखी रोटी
जो लगती है
गुड़ से भी मीठी
अमृत सरीखी
पर कब
जाने कब
नसीब होगा घर
प्यार का परस।
गीता दूबे, एसोसिएट प्रोफेसर, स्कॉटिश चर्च कॉलेज, कोलकाता,
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