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  • स्वाति तिवारी

मुलाकात कुछ किरदारों से "भोपाल गैस त्रासदी"

रविवार की वह दोपहरी जब सारा देश कड़ाके की सर्दी से ठिठुरता हुआ अपने-अपने घरों में आराम फरमा रहा था या अपने ही घरों के आँगन, छज्जे और ओटलों पर धूप सेंक रहा था, मैं पार्क पहुंच गई. पार्क में बने एक चबूतरे पर कुछ महिलाएं दिखीं, जो श्री नामदेव के साथ अपनी-अपनी समस्याएं बताने में लगी थीं, धूप का एक टुकड़ा यहाँ भी फैला था.

यहीं मेरी मुलाकात हुई 65-70 साल के आस पास की उम्र की मुन्नी बी से. अब वह अर्जुन नगर में रहती है पर हादसे के वक्त वे सेठी नगर कॉलोनी की, स्वयं की झुग्गी में रहती थी. जिस घर में दूध का धंधा था उस घर का मालिक रोटी पानी को मोहताज हो गया था. घर में सब कुछ था. अल्ला की दुआ से भरापूरा घर था, शौहर शेरखाँ इतना कमाते थे कि दो औरतों का खर्चा भी आसानी से उठाते थे.

"हम एक ही चूल्हे पर दोनों मिलकर रोटियाँ पकाती थीं. पर परवरदिगार ने जाने कैसा नसीब लिखा कि सब कुछ गैस त्रासदी में बर्बाद हो गया. उस रात हम अपने घरों में सोए थे, पड़ोस में शादी थी. हल्ले गुल्ले के बीच देर से ही नींद लगी थी कि अचानक लगा किसी ने चूल्हे में मिर्च झोंक दी है. धुंआ नाक-कान गले में लगा और तेज जलन उठने लगी, बाहर देखा तो शादी के पंडाल से लोग भाग रहे थे. चारों तरफ अफरा-तफरी ... हम भी भागे - मैं, मेरी सौत और हमारे शोहर, सौत के बच्चे मेरे साथ ही भागे थे. उस रोज या और उसके बाद शेर खाँ खाट से उठ नहीं पाए. पेट में पानी भर जाता था. रोज पेट का पानी निकलवाना पड़ता था. रोज पानी पेट में भरता, रोज अस्पताल जाते. एक साल बाद शोहर नहीं रहे, सौत पहले ही नहीं रही. मेरा अपना बच्चा नहीं था, पर सौत सुगरा बी का बेटा था. उसी के पास रहती थी.बाद में बेटा बहू सब खत्म हो गए. तेरह साल का एक पोता है मेरा, वही संभालता है मुझे. हादसा याद करती हूँ तो पड़ोसी बीबी जान का घर याद आता है. वहाँ उस दिन एक ही घर में चार-चार मय्यतें हुई थीं, चार जनाजे निकले थे बीबीजान के घर से. इतना कुछ देखा था उस हादसे में कि बताना मुश्किल है. सड़क पर आदमी ऐसे मरे पड़े थे कि जानवर भी इस तरह पड़े नहीं देखे हमने. लाश देखकर भागते हुए कोई रुकना ही नहीं चाहता था. जो भागते-भागते गिरा उसे वहीं छोड़ लोग भाग रहे थे. ऐसा तो कभी किस्से कहानियों में भी नहीं सुना था, पर देखा है. इन आँखों ने.वापस लौटने पर घर के खूँटे में बंधी बेबस लाचार गाय, भैंस की फूली हुई लाशें! पर दुख तो इस बात का है कि खुद बेबस थे पीड़ा से, दर्द से. अपनों के दर्द को उनकी मय्यत को आँसू भी ढंग से नहीं दे पाए. मुआवजे में पच्चीस हजार मिले थे. बैंक में रखे हैं, अल्ला कभी हज करवा दें तो जरूर हज पर जाकर परवरदिगार से पूछूंगी ये कैसा इंसाफ था तेरा. और कौन सा गुनाह था मेरा. उम्र के इस पड़ाव पर 13 वर्ष का पोता मजदूरी करके लाता है, उसी से कुछ पकाती हूँ अपने लिए और उसके लिए."

मुन्नी बी से अलग कहानी है तारा बाई की.

45-48 साल के आस पास उम्र होगी तारा बाई की. देखने में यूँ तो स्वस्थ दिखती है, पर कहती है, "ये शरीर हट्टा कट्टा तो दिखने का है, बीमार रहती हूँ. हाथ पैर और छाती में दर्द बना रहता है. थोड़ा दिखने भी कम लगा है. 19 जून 2010 को पति भी साथ छोड़ गए. अब अकेली हूँ, एकदम निराश्रित."

क्या हुआ था उस दिन, पूछने पर वह कहती है, "वही हुआ था जो नहीं होना चाहिए था. तब मेरी शादी को तीन साल हुए थे. चार माह का पेट था. नींद नहीं आ रही थी उस दिन. बीड़ी लपेट रही थी बैठे बैठे. पड़ोस में शादी थी. हम भी शादी में खाना खाकर आए थे. पति सो गए थे. मुझे खांसी आयी और लगा मिर्च जल रही है पड़ोस में. मैंने दरवाजा खोलकर देखा तो भगदड़ दिखी. पति को उठाया और दोनों चूना भट्टी की तरफ भागने लगे. रास्ते में सूने कारखाने से जहरीली गैस निकली है - भागने में दम फूलने लगा. रास्ते में गिर पड़ी, पति ने उठाया पर अगले दिन अस्पताल में मेरा बच्चा गिर गया. वह कोख में ही मर गया. बस फिर महावारी कभी नहीं आयी. मैं फिर माँ नहीं बन पायी. पति ने दूसरी शादी नहीं की. पर बीमारी झेलते-झेलते वो भी चले गए. गैस ने मुझे बाँझ बना दिया. मेरे अजन्मे बच्चे को खा गयी डायन. मैं जिन्दा हूँ पर किसके लिए?"

75 साल की कलावती बाई के हाथ धूज रहे थे, चेहरा बोलने से पहले ही तमतमा उठा था. नहीं बताती कुछ. वो जाने लगी.

नामदेवजी ने कहा, "अरे बताओ अपने बारे में."

"क्या क्या बताऊँ भैया? कितनी बार बताऊं? 26 बरस से बताने के लिए ही तो जिन्दा हूँ."

वो जाती हुई धूप की टुकड़ी को देखने लगी, फिर उसी पर जाकर बैठ गयी. फिर हल्के से मुस्कुराई.

"अरे बेटा क्या बताऊं? पति पूरनचंद चालीस साल पहले ही मर गए थे - पर तीन बेटे थे मेरे. अब दो हैं, एक मर गया. ऐसी गैस निकली उस दिन कि बस सारा बरखेड़ी भाग खड़ा हुआ और जब वापस लौटे तो गैस बाहर नहीं फेफड़ों में भरी थी. आँखों में भरी थी. अब तक अंदर अपना असर दिखा रही है देखो, कैसी गिल्टी बन गयी है, छाती के पास."

क्रोध से भरा चेहरा करुणा से कराह उठा, "मेरी नातनी 18 साल की उम्र में चली गयी. एक बेटा भी गया. करम की गति बचपन में माँ मर गयी थी, सोतेली माँ ने मजदूरी करवायी – तगारी उठाते बचपन से शादी ने मुक्ति दी तो पति चले गए. तगारी फिर उठा ली. तगारी उठाकर पाले मेरे बच्चों की अर्थी उठती देख. मैं जिन्दा मर गयी. पढ़ा नहीं पायी बेटों को. अब वे भी तगारी ही उठाते है. अब तो दिखता भी नहीं है मुझे. पर देखने को बचा भी क्या है?"

"डाक्टर को क्यूं नहीं दिखाती गिल्टी?" पूछने पर वह कहती है, "दवा मिले और दवा लगे तो फायदा ना दिखाने का. मुआवजे के पच्चीस-पच्चीस हजार रुपये तो जाने कब इलाज पर ही खत्म हो गए."

"यहाँ तक क्यूँ आयी हैं?" प्रश्न पर वह एक कार्ड दिखाती है - शायद वह पेंशन कार्ड था. मैने केवल देखा जिस पर लिखा था नाम कलावती उम्र 75 साल पति स्व. पूरनचन्द.

कार्ड वापस करती हूँ तो एक और महिला कार्ड मेरे हाथ में रख देती है. प्रेमबाई उम्र पच्चास साल ग्राम बरखेड़ी.

"उस रात जो मेरे साथ हुआ था मेडम, वो तो सिनेमा में भी नहीं देखा होगा आपने?"

"अच्छा!''

"उस रात जब गैस रिसी, हम सब भागे. रास्ते में उल्टी हुई और मेरी तीन महीने की छोरी छूट गयी और गिर कर मर गयी. सास, ससुर, पति, ननद, देवर भरा पूरा कुनबा था हमारा. सब विधानसभा वाली सड़क की तरफ भाग रहे थे. दूसरी लड़की भी हादसे के बाद मर गयी. अब नि:संतान हूँ मैं." "मुआवजा मिला?"

प्रेमबाई कहती है, "आज तक लड़ रही हूँ, पर नहीं मिला. पति ने दूसरी औरत को रख लिया था. उसी को मेरी जगह खड़ी कर दिया, पैसा उसे मिला."

भगवान दास की वह दूसरी पत्नी भी अब नहीं रही. केन्द्र सरकार में नौकरी करने वाले इस कर्मचारी की पत्नी का कहना है कि रिश्तेदार, देवर वगैरह अब मुझे फिर परेशान करते हैं क्योंकि प्रापर्टी की एक मात्र दावेदार हूँ मैं, फिर पति की पेंशन और नौकरी के पैसे भी मिलेंगे. संतान नहीं है, तो देवर सब हड़पना चाहता है. मुआवजा भले ही ना मिला हो पर मैं आखरी दम तक संगठन के साथ मिलकर न्याय के लिए लड़ती रहूँगी."

यह हैं लक्ष्मी बाई, करोंद की रहने वाली. पर नाम बड़े और दर्शन खोटे की तरह लक्ष्मी से दूर-दूर तक नाता नहीं है. गैस त्रासदी उसके शरीर पर जाने कौन-सा रोग छोड़ गयी जो कुष्ट रोग की तरह दिखाई देता है, जिसके चलते पति ने परित्याग कर दिया. कहीं अस्थमा तो कहीं कैंसर बन कर गैस ने जीवन में स्थायी घर बना लिए और साथ ही ले गयी. 55 साल की आमना बी कभी संगठन में सबसे आगे चलती थी. पर कैंसर बन कर शरीर में फैली गैस उम्र से पहले ही मौत बन कर ले गयी. कहते-कहते नामदेव जी का गला भर आया, बोलते-बोलते उनका ध्यान गया. "अरे, वो देखिए इमली के नीचे शायद मस्जिद वाली बीबी खड़ी है."

मैंने देखा गौरवर्णी नाजुक सी उस 75 वर्षीय बुरकाधारी स्त्री को. इमली और बरगद के दो विशाल पेड़ हैं पार्क में, वे उन्हीं के आस पास ढूँढ रही थी अपने संगठन के साथियों को. मैं कैमरा खोलती हूँ पर बैटरी खत्म. एक पल को मुझे कोफ्त होती है, अपनी लापरवाही पर. बैटरी चार्ज किए बगैर क्यूँ कैमरा उठा लायी. झल्लाकर कैमरा पर्स में डालती हूँ, वे वही बरगद के नीचे बैंच पर बैठ गयी थी. प्रेमबाई कहती है वहीं चलना पड़ेगा आपको. मैं उनके पास जाते हुए सोचती हूँ कैमरे में बैटरी नहीं होने की लापरवाही पर इतनी कोफ्त हुई मुझे, पर उस लापरवाही का क्या जिसके चलते जाने कितनी जीवन बैटरियाँ बन्द हो गयीं?

यह मैं मुखातिब थी, 75 साल की राशिदा सुल्ताना से, जो मरहूम अब्दुल मनान की बेसहारा बीबी है. मस्जिद के पीछे इमली के पेड़ के नीचे बने घर में रहती है. एकदम अकेली है, रहन-सहन से लगता है किसी सम्पन्न घर की सदस्य रही होंगी, पास आते ही खुश हो हाथ मिलाती हैं फिर बताती हैं चेहरे पर आँखों के पास लगी चोंट. आँखों से साफ दिखाई नहीं देता, रास्ते के पत्थर से टकराकर गिर गयी थी. उसी से चोट लगी है.

"दवाई लगाई?" पूछने पर कहती हैं, "दवाइयों ने पीछा पकड़ लिया था, अब मैंने ही दवाई लेना छोड़ दिया."

काले बुरके में लिपटी, उम्र के 75 साल की राशिदा बी कहती हैं, अपने आसपास देखती हैं, "कोई चाय ला दो, ये मेडम आयी हैं मिलने."

मैं मना करती हूँ, "नहीं मैं चाय पी कर आयी थी."

दरअसल मैं उस दर्द को उन्हीं की तरह पीना चाहती थी जो वह बताते हुए पी रही थी – जहर का एक-एक घूंट! मुझे लगा चाय या तो बात में विघ्न डालेगी या फिर गरम चाय की प्याली उस जहर के अहसास को कम कर देगी.

"कल चाय पीते हैं साथ में, मैं कल आऊँगी. अभी बहुत कुछ बाकी है," के वादे के साथ.

 

डॉ स्वाति तिवारी - परिचय

रचना प्रक्रिया का कोई निर्धारित फार्मूला नहीं होता

जब भी कहानी शुरू होती है तो कहानीकार चाहता है कि परिकथाओं की तरह उसका सुखद अन्त हो कहानी के पात्र राजा-रानी की कहानी की तरह खुशी-खुशी मिल जाए, उड़नखटोले वाला राजकुमार आए और राजकुमारी को ले जाए वे साथ रहने लगे.....वगैरह....वगैरह....पर किसी भी कहानी की रचना प्रक्रिया इतनी सरल नहीं होती. राजा-रानी की कहानियाँ तो परिकल्पनाओं से रची परिकथाएँ होती हैं. जीवन परिकल्पना नहीं होता, वहाँ यथार्थ का खुरदरा धरातल होता है और मेरी और मेरे समकालीन कथाकारों की आज की कहानियाँ उसी खुरदरे धरातल से उठती हैं. मैं लाख चाहूँ कहानी के अंत को सुखान्त करने की पर ऐसा होता नहीं है क्योंकि हर कहानी जीवन के भिन्न-भिन्न संघर्षों में उलझी हुई होती है....और यह सच व स्वाभाविक भी हैं क्योंकि रचना प्रक्रिया का कोई निर्धारित फार्मूला नहीं होता कि हम ऐसा करेंगे तो ऐसी रचना तैयार होगी. जब जैसे समय मिलता है, कोई विषय कोई बात कचोटती है लिख लेती हूँ. दरअसल सोचकर कोई कहानी नहीं लिखी जाती क्योंकि सोचना एक बात है और लिखना एक रचनात्मक सृजन प्रक्रिया है उनके लिए जब कोई चीज परेशान कर रही होती है पीड़ा दे रही होती है...या कोई विचार किसी घटनाक्रम से उद्वेलित कर रहा होता है तो स्वत: वह लेखन में उतर जाता है. रचना उसी बिन्दु से शुरू होती. कहने का तात्पर्य यही है कि हर कहानी का एक प्रस्थान बिन्दु होता है वह जब भी उभरकर आता है तब लिखने की छटपटाहट होती है. कह सकते है एक बैचेनी एक अनम....बना रहता है. तब वहीं से कुछ आकार बनने लगते है कुछ खाके खिचने लगते है...रचना प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष ही वह बैचेनी है जो मन को विचलित करती है..लिखने के लिए बाध्य करती है शायद उस पीड़ा से निजात पाने के लिए लिखती हूँ लिखते हुए साहित्य के मायने मन की वही बेचैनी और छटपटाहट या कहूँ आत्मिक विचलन भी हैं और लिखने के बाद वह मन और मेरा आत्मिक स्थापन भी है. मैंने कल्पना के आधार पर नहीं लिखा जीवन में जिसे जैसा देखा उसको वैसा ही चित्रित करती हूँ लेकिन ये जरूर है कि जब उसमें भीतर जाने यानी परकाया प्रवेश की कोशिश करते हैं तो फिर वह पात्र जिधर ले जाता है स्वत: चली जाती हूँ.

गृहस्थ जीवन है, कामकाजी हूँ एक जिम्मेदार पद पर होना और साथ में सामाजिक व संस्थागत कार्यों की व्यस्थताएं होती है मेरे लिए हमारी परिवार जैसी विशेष और पवित्र संस्था प्रमुखता रखती है. इन सबके बीच जो और जितना समय बचता है वह मेरा अपना होता है, उसी में लिखती हूँ. हर व्यक्ति के जीवन से जुड़े हर क्षेत्र में समय की अपनी माँग होती है..... उनको पूरा करते हुए जितना लिख सकते हैं उतना ही उचित है क्योंकि एक तरफा नहीं हुआ जा सकता. जाने अनजाने मेरे लिखने का प्रभाव परिवार को प्रभावित भी करता है जैसे करना कुछ और होता है आप लिखने लग गए, पर सब चलता है कुछ समझौते खुशी-खुशी लेखक का परिवार स्वत: कर लेता है.

परिवार का वातावरण हमेशा साहित्यिक रहा है. पिताजी हिन्दी के व्याख्याता थे शुद्ध उच्चारण वाली हिन्दी स्वत: संस्कारों में शामिल होती चली गई. पिताजी से कथा-कथन शैली में उच्च साहित्यिक कहानियाँ बचपन में ही सुनी शायद पिताजी से सुनी कहानियों से ही मेरे मन में कहानी की मिट्टी तैयार हुई होगी और वह मिट्टी कभी सम्वेदना का लावा बन कर तो कभी गीली होकर दिलो-दिमाग के चाक पर चढ़कर कहानी का आकार ले लेती हैं. परिवार से मिले संस्कार अमिट धरोहर होते हैं जो जीवन मूल्यों को समझने की दृष्टि देते हैं जो हमें संवेदनशील बनाते हैं.. एक रचनाकार की यही लेखकीय संवेदना उसकी रचना प्रक्रिया का धरातल होती है. यहीं रचनाओं में प्रकट होती है, भाषा में उतरती है, रचना में जो बिम्ब आते हैं वे संवेदना के आधार पर ही संभव होते है जो पात्र या परिवेश जीवन से हम उठो है संवेदना उसमें प्रकट होती है पता चलता है कि उसमें कितना ताप है या कितनी गहरायी है. जहाँ तक मेरी रचना प्रक्रिया का ताल्लुक है तो मैं कोशिश करती हूँ कि जो जीवन उठाती हूँ वह पात्र जितना ज्यादा उस जीवन के निकट हो उतना ही अच्छा. मेरी लेखनी के आधार वही साधारण लोग है जिन्हें आम आदमी कहा जाता है. मेरी कोशिश ये भी होती है कि मैने जैसे उन लोगों को देखा वो वैसे ही मेरी रचना में आएँ. चूंकि कहानी हमारे आसपास से या सामाजिक सरोकारों से आती है तो मेरे पात्र जैसे हैं वैसे हैं. नकली आवरण या छद्म रूप ना मेरे स्वभाव में है ना मेरी किसी कहानी के किसी पात्र में. मेरे किसी पात्र ने ना तो अनावश्यक मर्यादा तोड़ी है ना ही मर्यादा का आर्दश दिखावे के लिए औढ़ा हैं. चूंकि मैं सामाजिक हूँ अत: उससे बाहर कोई असामाजिक तत्व नहीं खोजती. मेरी कहानी के पात्र इसी समाज से निकले होती हैं. अत: मेरी कहानियों में अपने पात्रों की गरिमा का हमेशा ख्याल बना रहता है. बावजूद इसके मैने ना तो आदर्श कथाएँ, ना ही प्रेरक कथाएँ रची बल्कि जीवन मेरा मानना है कि कहानी मर्म है जीवन का. अत: साहित्य में जीवन का सत्य होना चाहिए क्योंकि वर्णित सुख-दु:ख पाठक आत्म सात कर लेता है इसलिए लेखन सहज-सरल और प्रवाहमान हो. कोशिश करती हूँ ज्यादा क्लिष्ट अलंकारी भाषा नहीं बल्कि सुन्दर भावों की प्रस्तुती करूँ, जो लोगों को तमाम समस्याओं से जूझने का हौसला दे सकें. एक और महत्वपूर्ण बात जिसका ध्यान रखने की कोशिश भी रहती है. मेरा मानना है कि व्यक्ति आज जीवन के सघर्षों में उलझा हुआ है वह तमाम तरह की उलझनों से परेशान हैं, इसलिए साहित्य को यथार्थ होते हुए भी सकारात्मक और आशावादी हो. सकारात्मकता एक ऊर्जा का पयार्य है.

अक्सर रात में लिखती हूँ. सारा दिन दफ्तर व घर की व्यवस्थाओं के साथ संतुलन बनाने में खर्च होता है. अत: रात का समय लेखन के लिए उपयुक्त होता है लेखन एकाग्रता की माँग करता है. रोजमर्रा की उपापोह, खटरपटर, टेलीफोन या कुकर की सीटी भी ध्यान भंग करती है. फिर समय भी नहीं होता है, दिन में. पहले जब बच्चे छोटे थे तब अपनी पढ़ाई कर रहे होते थे तब उनके साथ जागने की आदत पढ़ गई थी. तब से लेखन रात में करती हूँ. अब बच्चे बाहर है अक्सर फोन का इंतजार करती हूँ. इन्टरनेट पर बच्चों से चैट होती है तो लेखन के पहले मुझे अपने परिवार, अपने बच्चों की कुशल मंगल राहत देती है. मेरा मानना है कि अच्छा साहित्य मन की गहराईयों से निकलता है और दिलों को स्पर्श करता है वह मात्र क्षणिक उत्तेजना नहीं बल्कि अन्तरमन की आन्तरिकता लिए होता है. सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और परिवेश गत बदलाव हर साहित्य में स्वत:समाहित होते है. अत: लेखक में अपने समय की समस्याओं तथा संकटों की पहचान की क्षमता होनी चाहिए क्योंकि उनकी सकारात्मक एवं रचनात्मक अवधारणाएं ही समाज को नई दिशा, नए आयाम देती है अत:साहित्य का संकल्प समाज के हित में होना चाहिए.

मेरी लेखनी के आधार भी यही समाज के साधारण लोग हैं. लेखनी का दायरा अपने आसपास के लोगों से शुरू होकर बाहर की दुनिया तक गया इसलिए मेरी कहानी के पात्र काल्पनिक कभी भी नहीं रहे वे इसी सामाजिक परिवेश से उपजे कथा बीजों से बने हैं. मेरा मानना है कि साधारण लोगों के जीवन के सरोकारों से ही असाधारण कहानी बनती है. मेरा विचार है कि मेरी लेखनी की सार्थकता तभी है जब साधारण लगने वालों में को विलक्षणता कोई असाधारण बात ढूंढ लाए. लेखन के मेरे पात्र स्वयं मुझे लिखने के लिए बाध्य करते है. इनमें ज्यादातर पात्र स्त्रियाँ हैं, विडम्बना ही है समाज और परिवार की धूरी (केन्द्र) होते हुए भी वही सबसे ज्यादा उपेक्षा, तिरस्कार और शोषण की शिकार होती. भोपाल गैस त्रासदी में विधवा हुई स्त्रियों के लिए बनी विधवा कालोनी की वे विधवाएं हो जो मेरी पुस्तक "सवाल आज भी जिन्दा है' की मुन्नी बी हो, साजिश हो, रशिदा बेगम हो चाहे चम्पादेवी। वृद्धावस्था पर केन्द्रित अकेले होते लोग की बुढ़ी काकी, भाग्यवती, अंतराल की लाजो, हो चाहे उत्तराधिकार की कौशल्या इन सभी ने लिखने के लिए बाध्य किया. ऐसे शोषित पात्रों की स्थिति मुझे मेरे संवेदनातंत्र को विचलित कर देती है तब स्त्रियों के प्रति संवेदनहीनता, अनदेखियों और शोषण की लम्बी कहानियों का एक शर्मनाक पड़ाव मेरे सामने होता है जो मानवीय पक्ष और शोषण के विरुद्ध सवालों को उठाने के लिए लिखवाता है. अक्सर मैं अपने पात्रों से कहीं ना कहीं मिली होती हूँ. मैंने अपने साहित्य में अश्लीलता को डालकर प्रचार-प्रसार का हथकण्डा कभी नहीं अपनाया. अश्लीलता साहित्य को चर्चित कर सकती है पर सार्थक नहीं. लिखते हुए हमेशा ध्यान रखती हूँ कि साहित्य-शील-अश्लील का ध्यान रखकर मर्यादित सत्य के स्वरूप में ही लिखा जाना चाहिए. विज्ञान की विद्यार्थी हूँ इसका फायदा मुझे मिलता है कोई भी बात गप्पबाजी नहीं होती. वैज्ञानिक दृष्टिकोण घटनाओं का विश्लेषण करने में मदद करता है.

मैं लेखक होने के साथ-साथ पत्रकारिता से भी जुड़ी हुई हूँ. इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया दोनों में काम किया है. मैं कहानी के साथ-समाज, मानवाधिकार, कानून जैसे विषयों पर भी लेखन करती हूँ. विषयानुरूप विधा का चयन करती हूँ - क्योंकि वह मेरे लिए अपनी बात कहने का रास्ता आसान करता है. मुझे लगता है मेरी कहानी या साहित्य की मूल चिन्ता में हमेशा अपने समय का मनुष्य हो - उसे उसी की भाषा में, समस्याओं के साथ चित्रित करूँ - कहानी को कैसे कहा जाए कितना कहा जाए यह कहानी के पात्र पर छोड़ देती हूँ वह कहाँ तक ले जाता है. जरूरी नहीं कि हमारी कहानी समस्या का समाधान भी दे या समाज को कोई संदेश दे। कहानी जहाँ खत्म होती है समाधान व संदेश के वैचारिक बिन्दु वहीं से प्रवाहित होना शुरू होते हैं.

इसलिए लिखते वक्त प्रयास समाधन में नहीं कहानी के दृश्य के शब्दांकन में होता है ताकि कहानी उपदेश या भाषण नहीं लगे उसका कहानीपन बचा रहे.

डा.स्वाति तिवारी

ईएन 1/9, चार इमली

भोपाल

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