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अनुपमा तिवाड़ी से बातचीत

6 जून 2016

ई-कल्पना - आप एक समाज सेविका हैं. उत्पीड़ित स्थितियों में फंसे लोगों की मदद करती हैं. उदाहरण के तौर पर बाल अपचारी गृह के बच्चों,  घर से निकले रेलवे प्लेटफॉर्म पर रहने वाले बच्चों, देह व्यापार में लिप्त परिवारों व शौचालयों में काम करने वाले परिवारों के बच्चों, तथा कामकाजी बच्चों के साथ उनकी शिक्षा व वंचितता पर काम करती रही हैं. इस सब को करने में आपका ड्राईविंग फ़ोर्स एक स्वस्थ समाज होने का स्वप्न है. आप कभी न कभी तो रीयैलिटी चैक करती होंगी. क्या आप वास्तविकता और स्वप्न के बीच का लम्बा फ़ासला देख कर थकती नहीं हैं? क्यों?

अ.ति. - मैंने कुछ वर्ष पहले विभिन्न प्रकार की वंचितताओं के बीच रहने वाले बच्चों के साथ काम किया तब वास्तव में जाना कि लोग किन – किन परिस्थितियों में जीते हैं. उनके साथ काम करते हुए उनके जीवन ने मुझे अन्दर तक हिला दिया. किन्हीं कारणों से वह काम बंद हो गया लेकिन आज भी वो स्थितियाँ मुझे चारों ओर दिखाई देती हैं. ऐसा सब  देखते हुए कैसे कोई मुंह मोड़ कर जी सकता है ? इसलिए ही मेरे अन्दर कुछ न कुछ करने की मंशा जिंदा है. एक जगह मैंने लिखा था –

मैं, तुमसे सिर्फ मंशाएं मांगती हूँ ......

ये महत्वपूर्ण नहीं कि आप किसी के लिए क्या कर पाते हैं महत्वपूर्ण यह है कि आप किसी के लिए कुछ करना चाहते भी हैं या नहीं ? यदि आप चाहेंगे तो आपको कोई ताकत नहीं रोक सकेगी. रही बात स्वस्थ समाज के चाहने की तो चाहने के साथ ही ये सवाल भी उठता है कि हम उस चाहने में क्या योगदान कर रहे हैं ? सिर्फ चाहने से नहीं होता, कुछ न कुछ करने से ही होता है और वह करने वाला आदमी मैं हूँ चाहने की बात यहाँ से शुरू होनी चाहिए.

वास्तविकता और स्वप्न के बीच अभी एक लम्बा फासला है. कहीं – कहीं तो हमने इस फासले की तरफ कदम ही बढ़ाया है तो कहीं ये दिखाई भर ही दे रहा है. अभी बहुत लम्बा रास्ता तय करना है. मैं इस फासले को देख थकती ही नहीं बल्कि कभी – कभी तो गुस्से से मेरे आंसूं भी आ जाते हैं लेकिन मैं हारती नहीं.

ई-कल्पना - आपने लिखना 1997 से शुरू किया. आस–पास के लोग, मुद्दों और स्वयं के जीवन ने आपको लिखने के लिए प्रेरित किया. अपनी रचनाओं के ज़रिये लेखक का काम (केवल) दर्पण दिखाना है और पढ़ने वालों का मनोरंजन करना है. क्या आप भी ऐसा मानती हैं.

अ.ति. - एक लेखक, समाज की ख़ूबसूरती और विद्रूपताओं को अपने लेखन के जरिए पाठकों के सामने लाता है. मुझे लगता है कि साहित्य में मनोरंजन की भूमिका गौण होती है. साहित्य का मुख्य काम समाज को संवेदनशील / जागरुक कर के, प्रेरित नागरिक के रूप में तैयार करना है. जब कभी, कहीं सामाजिक अति होती है तो उस समय लेखकों से यह अपेक्षा होती है कि ऐसे समय में वो क्या कर रहे थे ?
 

ई-कल्पना - आपने कहा है, "जब भी कोई समाज के लिए लड़ता है या उसके लिए कोई कुछ करता है तो वह भी महिमामंडित होने का प्रयास करता है और लोग भी उसे अपने से बड़ा / संत या महान मानने लगते हैं." लेकिन इसमें  हर्ज़ क्या है. क्या ये सामाजिक नियम नहीं है. आदमी का ऐम्बिशन उसे ड्राईव देता है, वो कामयाब होता है, तो महिमा भी बढ़ती है, और वो ज़्यादा प्रभावशाली बनता है. उसकी क्षमता और उसके आसपास के लोग उसे महान बनाते हैं. इसमें उस व्यक्ति-विशेष का क्या दोष है. बताईये.

अ.ति. - आदमी को उसके काम बड़ा बनाएँ, वह बड़े या संत होने का चोला नहीं ओढ़े. कई बार जैसे – जैसे हम विशिष्ट होते जाते हैं हम सामान्यजन से दूर होते जाते हैं. मेरा मानना है कि हम समाज में रह कर भी एक सामान्य व्यक्ति के रूप में लोगों के लिए काम कर सकते हैं. कई बार हम यह सुनते हैं कि अरे, भी वो तो गाँधी थे, वो तो मदर टेरेसा थीं हम तो समाज के सामान्य आदमी हैं. पहली बात तो यह है कि उनके कामों ने उन्हें विशिष्ट बनाया ज़रूरी नहीं कि हम उनके स्तर तक जाएँ और यदि उन विशिष्ट व्यक्तियों के स्तर तक जा सकते हैं तो जाइए. करने वाले को कौन रोक सकता है ?

ई-कल्पना -  ऐसी स्थितियाँ ही अक्सर समाज में असमनताएँ लाती हैं. आपके अनुसार इस पूरे प्रक्रम में ब्रेक कहाँ लगने चाहिये.(इसे अगले सवाल के रूप में रख सकते हैं)

अ.ति. - बहुत ही मुश्किल सवाल है, जहाँ भी अन्याय है, असमानताएं हैं उन पर ब्रेक लगना ही चाहिए. अभी बहुत से कानून बने हैं लेकिन उनकी सफल क्रियान्विति के लिए समाज के साथ काम करना होगा.

ई-कल्पना - अपने समाज-सेवा के प्रयासों में आप कई ऐसे कार्य कर रही हैं जो यदि हर नागरिक अपनी क्षमता अनुसार करें तो समाज प्रगति की ओर ही बढ़ेगा. क्या आप इन कार्यों का विवरण करना चाहेंगी.

अ.ति. - पहली बात तो ये कि मैं बहुत ही छोटे – छोटे प्रयास  कर रही हूँ. कई लोग तो पता नहीं इस दुनिया को बेहतर और खूबसूरत बनाने के लिए कितने प्रयास कर रहे हैं. यदि हर व्यक्ति दूसरों के लिए भी कुछ न कुछ करने के प्रयास करे  तो निश्चित ही हम एक ख़ूबसूरत दुनिया बनाने के रास्ते की और जा रहे होंगे. दूसरी बात आदमी जितना बाहरी दुनिया से रू - बरू होगा वह उतना ही अपने लिए बेहतर कामों का चुनाव कर पाएगा. रास्ते खोज पाएगा. स्वयं तय कर पाएगा कि उसे क्या करना है ? हाँ, ऐसे अवसर हर किसी को मिलने ही चाहिए जिससे वह अपने जीवन के लक्ष्यों को तय कर पाए.

ई-कल्पना - सबमिशन में हमारे पास कई ऐसी कहानियाँ आई हैं जिनमें औरत में एक प्रकार का रोष या छटपटाहट है. मैंने ये रोष कई औरतों में देखा है, माँओं में जिन्होंने अपनी बेटी-बेटों को अच्छी शिक्षा दे कर, फिर अपने जीवन के किसी फ़ेज़ में महसूस किया है. चौंका देने वाला रोष. क्या आपको भी ऐसा लगता है? अगर हाँ, तो आपके अनुसार मध्यवर्गीय औरतों के प्रति समाज कहाँ चूक गया?

अ.ति. - मध्यमवर्गीय औरतों में बहुत रोष है, एक तरफ समाज में इज्ज़त दूसरी तरफ घर के प्रति जिम्मेदारियां उन्हें अपनी बेड़ियों से बाहर नहीं निकलने देतीं. लेकिन इन बेड़ियों को तोड़ेगा कौन ? कुछ बेड़ियाँ तो हमने ही अपने पैरों में डाल रखी हैं. यदि औरत एक बार खड़ी हो जाए तो कोई ताकत नहीं जो उसे बेड़ियों में बाँध सके. हाँ, इसके लिए किसी भी हद्द तक जाना हो सकता है. आज के समय में जब इतने स्कूल / कालेजों में लडकियां जा रही हैं, कितनी ही नौकरियां कर रही हैं, कितने कानून महिलाओं के हक़ में बने हैं ऐसे समय में हमारी छटपटाहट हमें कमज़ोर करती है. वह समय याद कीजिए जब भारत में कोई महिला पढ़ी – लिखी नहीं थी उस समय में सावित्रीबाई दलित होते हुए पढ़ी और शिक्षिका बनी. मीराबाई को कृषण भक्त से ज्यादा आन्दोलनकर्ता के रूप में देखा जा सकता है, जिन्हें जो लगा वह किया उन्होंने. हालाँकि दुनिया भर में औरतों की सामाजिक स्थितियाँ औरतों उनके पक्ष में नहीं है लेकिन फिर भी हमें लड़ना ही होगा न अपने लिए और, औरों के लिए !!                       __________________________________

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                                                 अनुपमा तिवाड़ी - परिचय

जन्मतिथि – 30 जुलाई 1966

जन्मस्थान – बांदीकुई ( दौसा ), राजस्थान

माता – पिता – मायारानी तिवाड़ी एवं विजय कुमार तिवाड़ी

शिक्षा – हिंदी और समाजशास्त्र में एम. ए तथा पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातक.

कार्यानुभव – 1989 से शिक्षा जगत में बच्चों और राजकीय शिक्षकों के साथ अकादमिक संबलन के कार्य से जुड़ी रही हूँ. साथ ही बाल अपचारी गृह के बच्चों, घर से निकले रेलवे प्लेटफॉर्म पर रहने वाले बच्चों, देह व्यापार में लिप्त परिवारों व शौचालयों में काम करने वाले परिवारों के बच्चों तथा कामकाजी बच्चों के साथ उनकी शिक्षा व वंचितता पर काम करती रही हूँ.

वर्तमान में वर्ष 2011 से अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन राजस्थान में हिंदी विषय की सन्दर्भ व्यक्ति के रूप में कार्यरत हूँ.

संलग्न – लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में.

रचनाकर्म – लगभग 1997 से लेखन की शुरूआत हुई. मुझे आस – पास के लोगों, मुद्दों, घटनाओं और स्वयं के जीवन ने लिखने के लिए प्रेरित किया. अभी तक पचास से अधिक कविताएँ, कहानियाँ और लेख देश भर की बीस से अधिक पत्र – पत्रिकाओं, ई – मेग्ज़ीन्स / ब्लॉग्स में प्रकाशित हुए हैं. जिनमें से कुछ पत्र – पत्रिकाएँ इस प्रकार हैं -

समाचार पत्र -

  • जनसत्ता, दिल्ली.

  • लोकमत, नागपुर महाराष्ट्र.

  • दैनिक भास्कर, भोपाल.

  • मधुरिमा, दैनिक भास्कर भोपाल.

  • राजस्थान पत्रिका, जयपुर.

  • डेली न्यूज़ का हमलोग, जयपुर.

  • बढ़ता राजस्थान, जयपुर.

  • डेली न्यूज़ का खुशबू, जयपुर.

  • फोकस भारत, जयपुर.

पत्रिकाएँ -

  • कादम्बिनी, लखनऊ.

  • विमर्श, जयपुर.

  • बाल भारती, जयपुर.

  • खोजें और जानें, उदयपुर.

  • अहा जिंदगी ! जयपुर.

  • परिकथा दिल्ली.

  • ककसाड़, छत्तीसगढ़.

ई – मेग्जींस और ब्लॉगस -

  • शब्दांकन

  • साहित्य कुञ्ज

  • गुलमोहर

  • अपनी माटी

  • हिंदी नेस्ट

एक कविता संग्रह ‘आइना भीगता है’ 2011 में बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित.

पिछले कुछ वर्षों से विभिन्न मंचों पर कविता पठन, आकाशवाणी, दूरदर्शन और कवि सम्मेलनों में भी शिरकत करती रही हूँ.

अपने बारे में कुछ और –

जब मैंने लिखना शुरू किया तब मुझे लगा कि यदि मैं समाज से कुछ अपेक्षा करती हूँ, एक स्वस्थ समाज होने का स्वप्न देखती हूँ तो उसके लिए मैं कर क्या रही हूँ ? मुझे उसके लिए कुछ करना भी तो चाहिए. यहीं से कुछ काम समाज की कुछ आवश्यकताओं पर काम करना शुरू किया. मुझे लगता है कि एक लेखक का समाज को एक कार्यकर्ता के रूप में कुछ न कुछ योगदान भी होना चाहिए यदि वह ऐसा नहीं कर रहा है तो वह कहीं न कहीं सिर्फ लिखकर ही अपने काम की इतिश्री समझ रहा है. जो कि उसका ये योगदान मुझे अधूरा लगता है. समाज को दिखा वह रहा है और करे और कोई ऐसा क्यों होना चाहिए ?

दूसरी बात यह कि जब भी कोई समाज के लिए लड़ता है या उसके लिए कोई कुछ करता है तो वह भी महिमामंडित होने का प्रयास करता है और लोग भी उसे अपने से बड़ा / संत या महान मानने लगते हैं. ऐसा करने से वह समाज के अन्य लोगों से अलग हो जाता है. इसलिए हमें समाज में रह कर अपनी क्षमतानुसार काम करना चाहिए जो कि हर कोई कर सकता है.इसलिए मैं अपने स्तर पर कुछ छोटे – छोटे प्रयास कर रही हूँ.

1 मैं पिछले सात वर्षों से अपने जन्मदिन पर रक्तदान कर रही हूँ इस बार जुलाई में आठवीं बार करूंगी. हमारे देश में प्रतिवर्ष 5 करोड़ यूनिट ब्लड की ज़रुरत होती है जिसमें हम 80 लाख यूनिट ही ब्लड इक्कठा कर पाते हैं. थैलीसीमिया के बच्चों, ऑर्गन ट्रांसप्लांटेशन, हार्ट सर्जरी, एक्सीडेंट के समय ब्लड की बहुत ज़रुरत होती है.

2 मेडिकल कॉलेज में इंटर्नशिप के दौरान भावी डॉक्टर्स को डिसक्शन के लिए मृत शरीरों की भी आवश्यकता होती है इसलिए मैंने और मेरे पति कमल किशोर शर्मा ने 2011 में देहदान का फार्म भर कर एनाटोमी डिपार्टमेंट, एस एम् एस मेडिकल कॉलेज में दिया है. एक्सीडेंट से मौत की स्थिति में वे शरीर को नहीं लेते हैं तो ऐसे में आई बैंक सोसाइटी में मृत्यु के पश्चात आँखें भी दान की हैं.

3 मैं पिछले 5 सालों से सार्वजनिक स्थानों पर पेड़ लगाती हूँ ये पेड़ लोगों के घरों, अपने ऑफिस, पुलिस चौकी, दुकानों के सामने, सड़क के किनारे, सरकारी स्कूलों में लगे हैं. अभी तक मैंने लगभग 400 पेड़ लगाए हैं जिनमें से लगभग 80 - 100 अभी लगे हैं. इस वर्ष मुझे 500 पेड़ लगाने हैं. पेड़ों से होने वाले फायदे मैं यहाँ गिना नहीं सकती हूँ.

4 एक बच्चे को स्नातक की पढाई करवा रही हूँ.

5 सरकारी स्कूलों में आने वाले आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर घरों के बच्चों को पहले साल 3 दूसरे साल 5, तीसरे साल 8 और इस वर्ष 10 बच्चों को गणवेश बनवाकर मदद करने का प्रयास किया.

6 सर्दी के दिनों में अपने मित्रों से ऊनी कपडे इकट्ठे करके फुटपाथ पर गुज़र - बसर कर रहे लोगों को देती हूँ दो वर्ष पहले ऐसा नहीं हो पाया तो 10 स्वेटर नए खरीद कर दिए.

7 मैंने एक स्टडी में पढ़ा था कि दुनिया में 3 में से एक आदमी भूखा सोता है तो सप्ताह में एक समय का भोजन किसी ज़रूरतमंद को देती हूँ. उस दिन मैं उपवास रखती हूँ इस बहाने आदमी को कुछ - कुछ त्यागना आता है. यूँ धार्मिक व्रतों, पूजा, मंदिर, आडम्बरों, वैवाहिक / सुहाग चिन्हों का मेरे जीवन में कोई स्थान नहीं है.

जितना भी ये कर पा रही हूँ ये काम तादाद में प्रतिवर्ष बढ़ते ही जा रहे हैं ..... 

मैं जब से ये सब करने लगी हूँ तबसे लगने लगा है कि मेरी उम्र बढ़ नहीं रही बल्कि मैं तो और जवान होती जा रही हूँ. सच में अच्छा काम हमें जिंदा रखता है. हाँ अफ़सोस होता है कि ये सब मैंने इतनी देर से क्यों शुरू किया ....पर सुना है जब जागो, तभी सवेरा ! मैं अपने को मूलतः एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में देखती हूँ.

पता –

ए -  108, रामनगरिया जे डी ए स्कीम, एस के आई टी कॉलेज के पास, जगतपुरा, जयपुर 302017

फोन : 7742191212, 9413337759

Mail – anupamatiwari91@gmail.com

सादर

अनुपमा तिवाड़ी, जयपुर

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